मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 125 – भाकरी ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 125 – भाकरी ☆

दिसरात राबतिया

माझी माय ही बावरी।

तरी तिला मिळेना हो

चार घास ती भाकरी।।

 

बाप ठेऊनिया गेला

उभा कर्जाचा डोंगर।

उभी हयात राबून

गळा फासाचा हो दोर।

 

मार्ग सारेच खुंटले

भर दिसा अंधारले।

दोन्ही पिलांना पाहून

बळ अंगी संचारले ।

 

शेण पाणी झाडलोट

धुणी भांडी ही घासते।

अधाशीही मालकीण

पाने तोंडाला पुसते।

 

हाता तोंडाचं भांडण

काही सरता सरेना।

किती राबते तरीही

पोट सार्‍यांची भरेना

 

कशी शिकवावी लेक

कसे करावे संस्कार ।

निराधार योजनेला

घूस खोरीचा आधार।

 

कथा दारिद्रय रेषेची

असे फारच आगळी।

लाभार्थीच्या यादीला हो

दिसे दिग्गज मंडळी।

 

माय म्हणे बापा बरी

अर्धी कष्टाची भाकरी।

लाचारीच्या जिण्यापरी

लाख मोलाची चाकरी

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #155 ☆ मैं भी सही : तू भी सही ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मैं भी सही : तू भी सही। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 155 ☆

☆ मैं भी सही : तू भी सही ☆

बहुत सारी उलझनों का जवाब यही है कि ‘मैं अपनी जगह सही हूं और वह अपनी जगह सही है। ‘ऐ ज़िंदगी! चल नयी शुरुआत करते हैं…कल जो उम्मीद दूसरों से थी, आज ख़ुद से करते हैं’…में छिपा है सफल ज़िंदगी जीने का राज़…जीने का अंदाज़ और यही है– संबंधों को प्रगाढ़ व सौहार्दपूर्ण बनाए रखने का सर्वोत्तम व सर्वश्रेष्ठ उपादान अर्थात् जब आप स्वीकार लेते हैं कि मैं अपनी जगह सही हूं और दूसरा भी अपनी जगह ग़लत नहीं है अर्थात् वह भी सही है… तो सारे विवाद, संवाद में बदल जाते हैं और सभी समस्याओं का समाधान स्वयंमेव निकल आता है। परंतु मैं आपका ध्यान इस ओर केंद्रित करना चाहती हूं कि समस्या का मूल तो ‘मैं’ अथवा ‘अहं’ में है। जब ‘मानव की मैं’ ही नहीं रहेगी, तो समस्या का उद्गम स्थल ही नष्ट हो जाएगा… फिर समाधान की दरक़ार ही कहां रहेगी?

मानव का सबसे बड़ा शत्रु है अहं, जो उसे ग़लत तर्क पर टिके रहने को विवश करता है। इसका कारण होता है ‘आई एम ऑलवेज़ राइट’ का भ्रम।’ दूसरे शब्दों में ‘बॉस इज़ ऑल्वेज़ राइट’ अर्थात् मैं सदैव ठीक कहता हूं, ठीक सोचता हूं और ठीक करता हूं। मैं श्रेष्ठ हूं, घर का मालिक हूं, समाज में मेरा रुतबा है, सब मुझे दुआ-सलाम करते हैं। सो! ‘प्राण जाएं, पर वचन ना जाइ’ अर्थात् मेरे वचन पत्थर की लकीर हैं। मेरे वचनों की अनुपालना करना तुम्हारा प्राथमिक कर्त्तव्य व दायित्व है। सो! वहाँ यह नियम कैसे लागू हो सकता है कि मैं अपनी जगह सही हूं और वह अपनी जगह सही है। काश! हम जीवन में इस धारणा को अपना पाते, तो हम दूसरों के लिए जीने की वजह बन जाते। हमारे कारण किसी को कष्ट नहीं पहुंचता और महात्मा बुद्ध का यह संदेश कि ‘दूसरों से वैसा व्यवहार करें, जिसकी अपेक्षा आप दूसरों से करते हैं’ सार्थक सिद्ध हो जाता और सभी समस्याएं स्वत: समूल नष्ट हो जातीं।

आइए! हम इसके दूसरे पक्ष पर दृष्टिपात करें कि ‘हमें दूसरों से उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, बल्कि स्वयं पर विश्वास करना चाहिए, क्योंकि उम्मीद हमेशा टूटती है’ में जीवन जीने की कला का दिग्दर्शन होता है। जीवन में चिंता, परेशानी व तनाव की स्थिति तब जन्म लेती है; जब हम दूसरों से अपेक्षा करते हैं, क्योंकि उम्मीद ही दु:खों की जनक है, संतोष की हन्ता है तथा शांति का विनाश करती है। उस स्थिति में हमारे मन में दूसरों के प्रति शिकायतों का अंबार लगा रहता है और हम हर समय उनकी निंदा करने में मशग़ूल रहते हैं, क्योंकि वे हमारी अपेक्षाओं व मापदण्डों पर खरे नहीं उतरते। जहां तक तनाव का संबंध है, उसके लिए उत्तरदायी अथवा अपराधी हम स्वयं होते हैं और अपनी सोच बदल कर ही हम उस रोग से निज़ात पा सकते हैं। कितनी सामान्य-सी बात है कि आप दूसरों के स्थान पर ख़ुद को उस कार्य में लगा दीजिए अर्थात् अंजाम प्रदान करने तक निरंतर परिश्रम करते रहिए; सफलता एक दिन आपके कदम अवश्य चूमेगी और आप आकाश की बुलंदियों को छू पाएंगे।

अर्थशास्त्र का नियम है, अपनी इच्छाओं को कम से कम रखिए…उन पर नियंत्रण लगाइए, क्योंकि सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी अमुक संदेश देते हैं कि यदि आप शांत भाव से तनाव-रहित जीवन जीना चाहते हैं, तो सुरसा के मुख की भांति जीवन में पाँव पसारती बलवती इच्छाओं-आकांक्षाओं पर अंकुश लगाइए। इस सिक्के के दो पहलू हैं..प्रथम है– इच्छाओं पर अंकुश लगाना और द्वितीय है–दूसरों से अपेक्षा न रखना। यदि हम प्रथम अर्थात् इच्छाओं व आकांक्षाओं पर नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं, तो द्वितीय का शमन स्वयंमेव हो जायेगा, क्योंकि इच्छाएं ही अपेक्षाओं की जनक हैं। दूसरे शब्दों में ‘न होगा बांस, न बजेगी बांसुरी।’

विपत्ति के समय मानव को अपना सहारा ख़ुद बनना चाहिए और इधर-उधर नहीं झांकना चाहिए…न ही किसी की ओर क़ातर निगाहों से देखना चाहिए अर्थात् किसी से अपेक्षा व उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। ‘अपने हाथ जगन्नाथ’ अर्थात् हमें अपनी अंतर्निहित शक्तियों पर विश्वास करते हुए अपनी समस्त ऊर्जा समस्या के समाधान व लक्ष्य-पूर्ति के निमित्त लगा देनी चाहिए। हमारा आत्मविश्वास, साहस, दृढ़-संकल्प व कठिन परिश्रम हमें विषम परिस्थितियों मेंं भी किसी के सम्मुख नतमस्तक नहीं होने देता, परंतु इसके लिए सदैव धैर्य की दरक़ार रहती है।

‘सहज पके सो मीठा होय’ अर्थात् समय आने पर ही वृक्ष, फूल व फल देते हैं और समय से पहले व भाग्य से अधिक मानव को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। सो! सफलता प्राप्त करने के लिए लगन व परिश्रम के साथ-साथ धैर्य भी अपेक्षित है। इस संदर्भ में, मैं यह कहना चाहूंगी कि मानव को आधे रास्ते से कभी लौट कर नहीं आना चाहिए, क्योंकि उससे कम समय में वह अपने निर्धारित लक्ष्य तक पहुंच सकता है। अधिकांश विज्ञानवेता इस सिद्धांत को अपने जीवन में धारण कर बड़े-बड़े आविष्कार करने में सफल हुए हैं और महान् वैज्ञानिक एडिसन, अल्बर्ट आइंस्टीन आदि के उदाहरण आपके समक्ष हैं। ‘करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान’ अर्थात् निरंतर प्रयास व अभ्यास करने से यदि मूर्ख व्यक्ति भी बुद्धिमान हो सकता है, तो एक बुद्धिजीवी आत्मविश्वास व निरंतर परिश्रम करने से सफलता क्यों नहीं प्राप्त कर सकता …यह चिंतनीय है, मननीय है, विचारणीय है।

जिस दिन हम अपनी दिव्य शक्तियों से अवगत हो जाएंगे… हम जी-जान से स्वयं को उस कार्य में झोंक देंगे और निरंतर संघर्षरत रहेंगे। उस स्थिति में तो बड़ी से बड़ी आपदा भी हमारे पथ की बाधा नहीं बन पायेगी। वास्तव में चिंता, परेशानी, आशंका, संभावना आदि हमारे अंतर्मन में सहसा प्रकट होने वाले वे भाव हैं; जो लंबे समय तक हमारे आशियाँ में डेरा डालकर बैठ जाते हैं और जल्दी से विदा होने का नाम भी नहीं लेते। परंतु हमें उन आपदाओं को स्थायी स्वीकार उनसे भयभीत होकर पराजय नहीं स्वीकारनी चाहिए, बल्कि यह सोचना चाहिए कि ‘जो आया है, अवश्य जायेगा। सुख-दु:ख दोनों मेहमान हैं। थोड़ा समय जीवन में प्रवेश करने के पश्चात्, मुसाफिर की भांति संसार- रूपी सराय में विश्राम करेंगे; चंद दिन ठहरेंगे और चल देंगे।’ सृष्टि का क्रम भी इसी नियम पर आधारित है, जो निरंतर चलता रहता है। इसका प्रमाण है…रात्रि के पश्चात् दिन, अमावस के पश्चात् पूनम व विभिन्न ऋतुओं का समयानुसार आगमन, परिवर्तन व प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने पर; उसके विकराल व भीषण रूप का दिग्दर्शन…हमें सृष्टि- नियंता की कुशल व्यवस्था से अवगत कराता है तथा सोचने पर विवश करता है कि उसकी महिमा अपरंपार है। समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता व परिस्थितियां निरंतर परिवर्तनशील रहती हैं। इसलिए मानव को कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए। हमारा दृष्टिकोण सदैव सकारात्मक होना चाहिए, क्योंकि जीवन में नकारात्मकता हमें तन्हाई के आलम में अकेला छोड़ कर चल देती है और हम लाख चाहने पर भी तनाव व अवसाद के व्यूह से बाहर नहीं निकल सकते।

अंतत: मैं यही कहना चाहूंगी कि आप अपने अहं का त्याग कर दूसरों की सोच व अहमियत को महत्व दें तथा उसे स्वीकार करें… संघर्ष की वजह ही समाप्त हो जाएगी तथा दूसरों से अपेक्षा करने के भाव का त्याग करने से तनाव व अवसाद की स्थिति आपके जीवन में दखल नहीं दे पाएगी। इसलिए मानव को आगामी पीढ़ी को भी इस तथ्य से अवगत करा देना चाहिए कि उन्हें अपना सहारा स्वयं बनना है। वैसे तो सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अकेला सब कार्यों को संपन्न नहीं कर सकता। उसे सुख-दु:ख के साथी की आवश्यकता होती है। दूसरी ओर यह भी द्रष्टव्य है कि ‘जिस पर आप सबसे अधिक विश्वास करते हैं, एक दिन वही आप द्वारा स्थापित इमारत की मज़बूत चूलें हिलाने का काम करता है।’इसलिए हमें स्वयं पर विश्वास कर जीवन की डगर पर अकेले ही अग्रसर हो जाना चाहिए, क्योंकि भगवान भी उनकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता खुद करते हैं। आइए! दूसरों के अस्तित्व को स्वीकार अपने अहं का विसर्जन करें और दूसरों से अपेक्षा न रख अपना सहारा ख़ुद बनें। आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे निरंतर संघर्षशील रहें। रास्ते में थककर न बैठें और न ही लौटने का मन बनाएं, क्योंकि नकारात्मक सोच व विचारधारा लक्ष्य-प्राप्ति के मार्ग में अवरोधक सिद्ध होती है और आप अपने मनोवांछित मुक़ाम पर नहीं पहुंच पाते। परिवर्तन सृष्टि का नियम है…क्यों न हम भी शुरुआत करें–नवीन राह की ओर कदम बढ़ाने की– यही ज़िंदगी का मर्म है, सत्य है, यथार्थ है और सत्य हमेशा शिव व सुंदर होता है। उस राह का अनुसरण करने पर हमें यह बात समझ में आ जाएगी कि ‘मैं भी सही और तू भी सही है’ और यही है– ज़िंदगी जीने का सही सलीका व सही अंदाज़… जिसके उपरांत जीवन से संशय, संदेह, कटुता, तनाव, अलगाव व अवसाद का शमन हो जायेगा और चहुं ओर अलौकिक आनंद की वर्षा होने लगेगी।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #155 ☆ भावना के दोहे… दीपक ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  “भावना के दोहे…दीपक ।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 155 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे… दीपक  ☆

देखो कैसे साल भर, रहता है उजियार।

दीपों की ये रोशनी, दूर करे अंधियार।।

तमस घिरा चहुं ओर है, करते सोच विचार।

दीप प्यार का  जल गया, करता जग  उजियार।।

देव देहरी पूजते, द्वारे रखते दीप।

घर घर दीपक दे रहा, अपना यही प्रदीप।।

माटी मुझको ना समझ, मैं दीपक अनमोल।

कीमत मेरी जान लो, यह है मेरा मोल।

तेरे मेरे प्यार का, इक दीया है नाम।

दीपक तेरे नाम का, रोशन है अभिराम।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #142 ☆ सन्तोष के नीति दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “सन्तोष के नीति दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 142 ☆

 ☆ सन्तोष के नीति दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

चढ़े न हंडी काठ की, कभी दूसरी बार

टूटा गर विस्वास तो, शक के खुलते द्वार

 

वहाँ कभी मत जाइये, जहाँ न हो संतोष

मिले न खुशियाँ मिलन से, लाख वहाँ धन कोष

 

परहित से बढ़कर नहीँ, कोई दूजा काम

प्रेम सभी से कर चलें, हर्षित तब श्रीराम

 

बचें अहम से हम सदा, यह अवगुण की खान

भ्रमित करे ये सभी को, और गिराता मान

 

कोशिश हम करते रहें, भले कठिन हो काम

मिलता है संतोष तब, और सुखद परिणाम

 

कल पर कभी न टालिए, करें आज आगाज

तभी मिलेगी सफलता, पूरे हों सब काज

 

करें न जीवन में कभी, निंदक सा व्यवहार

बचें सदा उपहास से, हों संयित आचार

 

दोष पराए मत गिनो, बनकर खुद भगवंत

अंदर खुद के झाँकिये, तभी भला हो अंत

 

कलियुग के इस दौर में, रखें न कोई आस

साथ समय के बदलते, टूट रहा विश्वास

 

पढ़ लिखकर अब कीजिये, स्वयं एक व्यवसाय

हुईं नोकरी लापता, खोजें दूजी आय

 

प्राणों से भी प्रिय समझ, सदा किया उपकार

पर कलियुग में मिल रहा, बदले में अपकार

 

कहते हैं संतोष हम, प्रेम डोर कमजोर

खीचें न कभी जोर से, उसकी कच्ची डोर

 

गहन साधना प्रेम है, सुगम न इसकी राह

लगन,तपस्या से मिले, गर हो सच्ची चाह

 

बंद करें मत कोशिशें, करते रहें प्रयास

तभी मिलेगी सफलता, हों मत कभी निराश

 

जीवन में खुद से बुरा, कौन यहाँ संतोष

झाँका हमने स्वयं जब, देखे अपने दोष

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #147 ☆ भिजून गेली वाणी ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 147 – विजय साहित्य ?

☆ भिजून गेली वाणी ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

गोंदवल्याच्य सहलिची ही सांगू काय कहाणी

कृतज्ञतेच्या शब्दांनी ही भिजून गेली वाणी.

राजे वदले कवी वृंदाला जाऊ तीर्थ स्थाना

त्यांच्या हाके सवे डोलल्या कित्येकांच्या माना

सुखकर्ता च्या आशीर्वादे बघ दाटून आले पाणी. १

सारी वदली बघत एकटक दूर दूर जाताना

गड जेजुरी,आई यमाई , चैतन्याचा वारा

मग साऱ्यांनी रंगत आणली, सजली सहल दिवाणी. २

सचिन सारथी, सुसुत्र यंत्रणा नाते एक जुळावे

कलेकलेने सहल यात्रीने, कला विश्व फुलवावे

चेष्टा,गंमत आणि मस्करी, स्वामी कृपेची गाणी. ३

धन्य जाहलो आम्ही सारे, गोंदवले बघताना

राम सावळा, परब्रह्म ते, नेत्री या सत्तांना

आबालवृद्धां आनंद दायी, शतायुषी स्वर वाणी. ४

मिळे अनुभूती, झाले दर्शन, यमाईस बघताना

भक्ती शक्ती चा ह्रृद्य सोहळा,सहल अशी खुलताना

अंतरधामी ठसून बसली, प्रासादिक ही वाणी. ५

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २ ( वायु, इंद्र, मित्रावरुण सूक्त ) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २ ( वायु, इंद्र, मित्रावरुण सूक्त ) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

ऋषी – मधुछंदस् वैश्वामित्र

देवता – १ ते ३ वायु; ४ ते ६ इंद्रवायु; ७ ते ९ मित्रावरुण 

मराठी भावानुवादित गीत : डॉ. निशिकांत श्रोत्री

वाय॒वा या॑हि दर्शते॒मे सोमा॒ अरं॑कृताः । तेषां॑ पाहि श्रु॒धी हव॑म् ॥ १ ॥

सर्व जना आल्हाद देतसे हे वायू देवा

येई झडकरी तुझे आगमन होऊ दे देवा

सिद्ध करुनिया सोमरसा या उत्तम ठेविले

ऐक प्रार्थना अमुची आता दर्शन तव होऊ दे ||१||

वाय॑ उ॒क्थेभि॑र्जरन्ते॒ त्वामच्छा॑ जरि॒तारः॑ । सु॒तसो॑मा अह॒र्विदः॑ ॥ २ ॥

यागकाल जे उत्तम जाणत स्तोत्रांचे कर्ते 

वायूदेवा तुझियासाठी सिद्ध सोमरस करिते

मधुर स्वरांनी सुंदर स्तोत्रे महती तुझी गाती

सत्वर येई वायूदेवा भक्त तुला स्तविती ||२||

वायो॒ तव॑ प्रपृञ्च॒ती धेना॑ जिगाति दा॒शुषे॑ । उ॒रू॒ची सोम॑पीतये ॥ ३ ॥

विश्वामध्ये शब्द तुझा संचार करित मुक्त

श्रवण तयाचे करिता सिद्ध सर्व कामना होत 

सोमरसाचे पान करावे तुझी असे कामना 

तव भक्तांना कथन करूनी तुझीच रे अर्चना ||३||

इन्द्र॑वायू इ॒मे सु॒ता उप॒ प्रयो॑भि॒रा ग॑तम् । इन्द॑वो वामु॒शन्ति॒ हि ॥ ४ ॥

सिद्ध करुनिया सोमरसाला तुम्हासि आवाहन

इंद्रवायु हो आता यावे करावाया हवन

सोमरसही आतूर जाहले प्राशुनिया घ्याया

आर्त जाहलो आम्ही भक्त प्रसाद या घ्याया ||४||

वाय॒विन्द्र॑श्च चेतथः सु॒तानां॑ वाजिनीवसू । तावा या॑त॒मुप॑ द्र॒वत् ॥ ५ ॥

वायूदेवा वेग तुझा हे तुझेच सामर्थ्य

बलशाली वैभव देवेंद्राचे तर सामर्थ्य

तुम्ही उभयता त्वरा करावी उपस्थित व्हा अता 

सोमरसाची रुची सर्वथा तुम्ही हो जाणता ||५||

वाय॒विन्द्र॑श्च सुन्व॒त आ या॑त॒मुप॑ निष्कृ॒तम् । म॒क्ष्वै॒त्था धि॒या न॑रा ॥ ६ ॥

अनुपम आहे बलसामर्थ्य इंद्रवायुच्या ठायी

तुम्हासि प्रिय या सोमरसाला सिद्ध तुम्हापायी

भक्तीने दिव्यत्व लाभले सुमधुर सोमरसाला

सत्वर यावे प्राशन करण्या पावन सोमरसाला ||६||

मि॒त्रं हु॑वे पू॒तद॑क्षं॒ वरु॑णं च रि॒शाद॑सम् । धियं॑ घृ॒ताचीं॒ साध॑न्ता ॥ ७ ॥

वरद लाभला समर्थ मित्राचा शुभ कार्याला 

वरुणदेव हा सिद्ध राहतो अधमा निर्दायला

हे दोघेही वर्षा सिंचुन भिजवित धरित्रीला

भक्तीपूर्वक आवाहन हे सूर्य-वरुणाला ||७||

ऋ॒तेन॑ मित्रावरुणावृतावृधावृतस्पृशा । क्रतुं॑ बृ॒हन्त॑माशाथे ॥ ८ ॥

विश्वाचा समतोल राखती वरूण नी सूर्य 

पालन करुनी पूजन करती तेही नियम धर्म

धर्माने नीतीने विभुषित त्यांचे सामर्थ्य 

आवाहन सन्मानाने संपन्न करावे कार्य ||८||

क॒वी नो॑ मि॒त्रावरु॑णा तुविजा॒ता उ॑रु॒क्षया॑ । दक्षं॑ दधाते अ॒पस॑म् ॥ ९ ॥

सर्वउपकारी सर्वव्यापी मित्र-वरूणाची

अपूर्व बुद्धी संपदा असे जनकल्याणाची

व्यक्त होत सामर्थ्य तयांचे कृतिरूपातून

फलश्रुती आम्हासी लाभो हे द्यावे दान ||९||

©️ डाॅ. निशिकान्त श्रोत्री

९८९०११७७५४

या सूक्ताचा शशांक दिवेकर यांनी गायलेला आणि सुप्रिया कुलकर्णी यांनी चित्रांकन केलेला व्हिडिओ यूट्युबवर उपलब्ध आहे. त्यासाठी लिंक देत आहे. रसिकांनी त्याचा आस्वाद घ्यावा.  

https://youtu.be/1ttGC6lQ16I

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Preview YouTube video Rugved Mandal 1 Sukta 2 Indra Vayu Mita Varun Sukt

Rugved Mandal 1 Sukta 2 Indra Vayu Mita Varun Sukt

भावानुवाद : डॉ. निशिकांत श्रोत्री 

९८९०११७७५४

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 102 ☆ ठूंठ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘ठूंठ’।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 102 ☆

☆ लघुकथा – ठूंठ — ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

वह घना छायादार वृक्ष था हरे -भरे पत्तों से भरा हुआ। न जाने कितने पक्षियों का बसेरा, कितनों का आसरा। आने जानेवालों को छाया देता,शीतलता बिखेरता। उसकी छांव में कुछ घड़ी विश्राम करके ही कोई आगे जाना चाहता,उसकी माया ही कुछ ऐसी थी। ऐसा लगता कि वह अपनी डालियों में सबको समा लेना चाहता  है निहायत प्यार और अपनेपन से।  धीरे-धीरे वह  सूखने   लगा? उसकी पत्तियां पीली  पड़ने लगी,बेजान सी। लंबी – लंबी बाँहों जैसी डालियाँ  सिकुड़ने लगीं। अपने आप में सिमटता जा रहा हो जैसे। क्या हो गया उसे? वह खुद ही नहीं समझ पा रहा था। रीता -रीता सा लगता, कहाँ चले गए सब? अब वह  अपनों की नेह भरी नमी और  अपनेपन की गरमाहट के लिए  तरसने लगा।  गाहे-बगाहे पशु – पक्षी आते। पशु उसकी सूखी खुरदरी छाल से पीठ रगड़ते और चले जाते। पक्षी सूखी डालों  पर थोड़ी देर बैठते और कुछ न मिलने पर फुर्र से उड़ जाते। वह मन ही मन कलपता कितना प्यार लुटाया  मैंने सब पर,  अपनी बांहों में समेटे रहा, दुलराता रहा पक्षियों को अपनी पत्तियों से। सूनी आँखों से देख रहा था वह दिनों का फेर। कोई आवाज नहीं थी, न पत्तियों की सरसराहट और न पक्षियों का कलरव। न छांव तले आराम करते पथिक  और न  इर्द गिर्द खेलते बच्चों की टोलियां, सिर्फ सन्नाटा, नीरवता पसरी है चारों ओर। काश!  कोई उसकी शून्य में निहारती  आँखों की भाषा पढ़ ले, आँसुओं का नमक चख ले। पर सब लग्गी से पानी पिला रहे थे। वह दिन पर दिन सूखता जा रहा था अपने भीतर और बाहर के सन्नाटे से।  आसपासवालों के लिए तो  शायद वह जिंदा था नहीं। सूखी लकड़ियों में जान  कब तक टिकती ?  हरा-भरा वृक्ष धीरे – धीरे ठूंठ  बन रह  गया |

एक अल्जाइमर पीड़ित माँ धीरे – धीरे मिट्टी में बदल गई।

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 122 ☆ जमीन से जुड़ाव ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना जमीन से जुड़ाव। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 122 ☆

☆ जमीन से जुड़ाव ☆ 

प्रचार – प्रसार माध्यमों का उपयोग करते हुए रील / शार्ट वीडियो के माध्यम से अपनी बात कहना बहुत कारगर होता है। बात प्रभावी हो इसके लिए सुगम संगीत की धुन या कोई लोकप्रिय गीत की कुछ पंक्तियों को जोड़कर सबके मन की बात 60 सेकेंड में कह देना एक कला ही तो है। ज्यादा समय कोई देना नहीं चाहता। कम में अधिक की चाहत ने क्रिकेट को ट्वेंटी- ट्वेंटी का फॉर्मेट  व सोशल मीडिया में रील को जन्म दिया है। एक बार रील देखना शुरू करो तो पूरा दिन कैसे बीत जाएगा पता ही नहीं चलता।

समय को पूँजी की तरह उपयोग करना चाहिए , जैसे ही इससे सम्बंधित वीडियो देखा तो झट से मन आत्ममंथन करने लगा। अब ऊँची उड़ान भरते हुए दिन भर जो सीखा था उसे झटपट डायरी में लिख डाला और रात्रि 11 बजे एक मोटिवेशनल पेज बनाकर दिन भर की जानकारी को जोड़कर एक सुंदर पोस्टर, पोस्ट कर दिया। अब तो लाइक और कमेंट की चाहत में पूरा दिन चला गया। तब समझ में आया कि अभाषी मित्र झाँसे में आसानी से नहीं आयेंगे। बस दिमाग ने तय किया कि अब तो बूस्ट पोस्ट करना है। कुछ भी हो 10 K  से ऊपर लाइक होना चाहिए आखिर इतने वर्षों का तजुर्बा हार तो नहीं सकता था।बस देखते ही देखते प्रभु कृपा हो गयी अब तो उम्मीद से अधिक फालोअर होने लगे थे जिससे सेलिब्रिटी वाली फीलिंग आ रही थी। एक पोस्ट ने क्या से क्या कर दिया था। जहाँ भी निकलो लोग पहचान रहे थे। आभासी मित्रों को भी आभास होने लगा कि समय रहते इनसे दोस्ती बढ़ाई जाए अन्यथा आगे चलकर ये तो तो पहचानेंगे भी नहीं।

ऐसा क्यों होता है कि सारा समय व्यर्थ करने के बाद हम जागते हैं। दरसल किसी भी समय जागें पर जागना जरूर चाहिए। जो लोग कुछ करने के लिए निकल पड़ते हैं उनके साथ काफिला जुड़ता जाता है। यात्राओं का लाभ ये होता है कि इससे जमीनी तथ्यों की जानकारी के साथ ही लोगों से जुड़ाव भी बढ़ता है। जगह – जगह का पानी,भोजन, बोली, वातावरण व पहनावा ये सब अवचेतन मन को प्रभावित करते हैं। व्यक्ति की सोच बदलती है वो धैर्यवान होकर केवल अधिकारों की नहीं कर्तव्यों की बातें भी करने लगता है। उसे समाज से जुड़कर उसका हिस्सा बनने में ज्यादा आनंद आने लगता है।  पाने और खोने का डर अब उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता है। धरती में इतनी ताकत है कि जिसने इसे माँ समझ कर उससे जुड़ने की कोशिश की उसे आकाश से भी अधिक मिलने लगा।

अपने को जमीन से जोड़िए फिर देखिए कैसे खुला आसमान आपके स्वागत में पलकें बिछा देता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 132 ☆ हिंदी, हिंदुस्तान रे! ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 133 ☆

☆ हिंदी, हिंदुस्तान रे! ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

भारत की गौरव गाथा है

हिंदी , हिंदुस्तान रे!

गर्व से बोलो हिंदी भाषा

युग की वेद पुराण रे!

 

आजादी की बनी सहेली

शब्द – शब्द है एक पहेली

संघर्षों में तपी कनक – सी

अनगिन पीड़ा इसने झेली।।

 

हिंदी सीखें सब ही मन से

सभी बढ़ाओ ज्ञान रे!

भारत की गौरव गाथा है

हिंदी , हिंदुस्तान रे!

 

तुलसी, सूर , कबीर पढ़ो तुम

आपस में मत कभी लड़ो तुम

हिंदी भाषाओं का सागर

सत्य बात पर सदा अड़ो तुम।।

 

हिंदी जग की अमरबेल है

हिंदी जग की शान रे!

भारत की गौरव गाथा है

हिंदी , हिंदुस्तान रे!

 

भाषाएँ सब ज्ञान बढ़ातीं

नहीं किसी को कभी लड़ातीं

जीवन जीने का गुरु देतीं

सही मार्ग का पाठ पढ़ातीं।।

 

हिंदी सबको एक कराए

भाषा श्रेष्ठ महान रे!

भारत की गौरव गाथा है

हिंदी , हिंदुस्तान रे!

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #123 – “ई-पत्रिका उपयोगी है पर मनपसंद नहीं” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख  “ई पत्रिका उपयोगी है पर मनपसंद नहीं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 123 ☆

☆ आलेख – ई-पत्रिका उपयोगी है पर मनपसंद नहीं ☆ 

ललित ने मोबाइल निकाला। चंपक देखी। उसमें कहानी थी। मोटरसाइकिल ली। बाजार निकल गया। चंपक खरीदी। वही पढ़ने लगा। उसका कहना है, “पत्रिका का छपा रुप भाता और सुहाता है। इसे हाथ में लेकर पढ़ने में जो मजा है वह ई पत्रिका में नहीं है।”

पवित्रा को ले। वह कहती है, ” ई-पत्रिका पढ़ना मजबूरी है। पत्रिका बाजार में ना मिले तो क्या करें? मगर ई-पत्रिका में एक कहानी से ज्यादा नहीं पढ़ पाती हूं। आंखें दुखने लगती है।”

यह बात सच है। छपे हुए अक्षरों में मनमोहक जादू होता है। रचनाकार उसे लेकर निहारता है। आगे पीछे देखता है। छपा हुआ नाम व रचनाएं उसे अच्छी लगती है। उसे वह सहेज कर रखता है।”

छपी रचना को कहीं भी पढ़ सकते हैं। इसके लिए किसी साधन की आवश्यकता नहीं होती है। बिजली हो या ना हो कोई फर्क नहीं पड़ता है। कम प्रकाश में भी इसे पढ़ा जा सकता है।

मोबाइल में यह सुविधा नहीं होती है। रचना को पढ़ने के लिए कई साधनों की आवश्यकता होती है। रचना ऑनलाइन हो तो नेट, मोबाइल और सही ऑनलाइन एड्रेस की जरूरत पड़ती है। यदि चश्मा लगता है तो पढ़ते-पढ़ते आंखें दुखने लगती है।

जहां नेटवर्क की समस्या हो वहां, आप ई-पत्रिका नहीं पढ़ सकते हैं। कारण स्पष्ट है। बिना नेटवर्क के आप ई-पत्रिका मोबाइल पर प्राप्त नहीं कर सकते हैं। उसे डाउनलोड कर के ही पढ़ा जा सकता है।

दूसरा, ऑनलाइन पत्रिका सदा महंगी पड़ती है। हर बार ऑनलाइन से उसे खोलना पड़ता है। इसमें डाटा खर्च होता है। यदि मोबाइल में डाउनलोड कर लिया जाए तो मोबाइल की मेमोरी भर जाती है। वह हैंग होने लगता है।

तीसरा, मोबाइल में अक्षर बहुत छोटे दिखाई देते हैं। इसे पढ़ने के लिए झूम करना पड़ता है। साथ ही अंगुलियों को स्क्रीन के पेज से इधर-उधर खिसकाना पड़ता है। इससे अंगुलियों के साथ-साथ आंखों को ज्यादा मशक्कत करनी पड़ती है।

ऑफलाइन यानी छपी पत्रिका में सुविधा ही सुविधा है। इसे जहां चाहे वहां ले जा सकते हैं। जब चाहे तब पढ़ सकते हैं। किसी दूसरे को दे सकते हैं। वह जैसा चाहे लेकर पढ़ सकता है। बस, एक बार खर्च करना पड़ता है। उसे सदा के लिए सहेज कर रख सकते हैं।

छपी पत्रिका का सबसे बड़ा फायदा यह है कि आप चाहे जितने पृष्ठ एक बार में पढ़ सकते हैं। आपकी आंख पर ज्यादा असर नहीं पड़ता है। आप एक ही बैठक में बीसियोँ पृष्ठों को पढ़ सकते हैं। आंखों में पानी आना, आंखें दर्द, होना सिर भारी होना आदि अनेक समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता है।

इसका आशय यह नहीं है कि ई-पत्रिका उपयोगी नहीं होती है। संसार की कोई भी चीज ऐसी नहीं है जो उपयोगी ना हो। हर एक चीज की उपयोगिता होती है। यह हमारा नजरिया है कि हमें हम उस चीज को किस नजर से देखते हैं।

ऑनलाइन पत्रिका से हम काम की चीजें ढूंढ सकते हैं। ई-संस्करण देखकर आप आफ संस्करण मंगवा सकते हैं। इससे आपको उपयोगी चीजें आसानी से मिल सकती है। ई-पत्रिका में एकाध रचनाएं काम की हो सकती है तो आप उसे आसानी से पढ़ सकते हैं। घर पर सहेजने वाली चीजों को मंगवा सकते हैं।

यदि आप रचनाकार हैं तो ऑनलाइन पत्रिका आपके लिए बहुत उपयोगी हो सकती है। आप इन में रचनाएं प्रकाशित करवा कर निरंतर प्रोत्साहन पा सकते हैं। अपनी रचनाओं को डिजिटल रूप में सुरक्षित रख सकते हैं। तब जहां चाहे वहां से कॉपी पेस्ट करके इसका उपयोग कर सकते हैं।

अधिकांश रचनाकार यही करते हैं। वे अपनी रचनाएं मेल, व्हाट्सएप, टेलीग्राम,फेसबुक आईडी पर सुरक्षित रखते हैं। जब जहां जैसी जरूरत होती है तब वहां वैसी और उसी रूप में कॉपी करके पेस्ट कर देते हैं। यह उनके लिए सबसे ज्यादा उपयोगी सौदा होता है। मगर हर एक रचनाकार छपी सामग्री को ज्यादा तवज्जो देता है। उस में छपे हुए अक्षर उसे ज्यादा भातें हैं और लुभाते हैं।

इस लेखक का भी यही हाल है। वह ई-पत्रिका को बहुत उपयोगी मानता है, मगर यह उसकी मनपसंद नहीं है। उसके लिए आज भी छपी सामग्री सबसे ज्यादा मनपसंद व चहेती चीज है। यह लेखक छपी सामग्री को एक बैठक में ज्यादा से ज्यादा पढ़ लेता है। मगर वह मोबाइल में एक-दो पृष्ठ पढ़कर आंखों की वजह से उसे पढ़ना छोड़ देता है।

समय कभी, कैसा भी रहे, समय के साथ साधन बदल जाए, मगर छपी सामग्री का महत्व सदा रहा है और रहेगा। यह इस लेखक का मानना है। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता है। यही वजह है कि इस रचनाकार के लिए ई-पत्रिका उपयोगी तो है मगर मनपसंद नहीं हैं।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

21-10-2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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