हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 181 ☆ व्यंग्य – रुपए का डालर में मेकओवर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  व्यंग्य – रुपए का डालर में मेकओवर।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 181 ☆  

? व्यंग्य – रुपए का डालर में मेकओवर ?

मेकओवर का बड़ा महत्व होता है। सोकर उठते ही मुंह धोकर कंघी कर लीजिए  कपड़े ठीक कीजीए, डियो स्प्रे कर लीजिए  फ्रेश महसूस होने लगता है। महिलाओं के लिए फ्रेशनेस का मेकओवर  थोडी लंबी प्रक्रिया  होती है, लिपस्टिक, पाउडर, परफ्यूम आवश्यक तत्व हैं। ब्यूटी पार्लर में लड़की का मेकओवर कर उसे दुल्हन बना दिया जाता है। एक से एक भी बिलकुल बदली बदली सी लगने लगती हैं। दुल्हन के स्वागत समारोह के बाद  बारी आती है ससुराल में बहू के मेकओवर की। सास, ननदे  उसे गृहणी में तब्दील करने में जुट जाती हैं। शनैः शनैः  गृहणी से पूरी तरह पत्नी में मेकओवर होते ही, पत्नी पति पर भारी पड़ने लगती है।

 हर मेकओवर की एक फीस होती है। ब्यूटी पार्लर वह फीस रुपयों में लेता है। पर कहीं त्याग, समर्पण, अपनेपन, रिश्ते की किश्तों में फीस अदा होती है।

एक राजनैतिक पार्टी से दूसरी में पदार्पण करते नेता जी गले का अंगोछा बदल कर नए राजनैतिक दल का मेक ओवर करते हैं। यहां गरज का सिद्धांत लागू होता है, यदि मेकओवर की जरूरत आने वाले की होती है तो उसे फीस अदा करनी होती है, और अगर ज्यादा आवश्यकता बुलाने वाले की है तो इसके लिए उन्हें मंत्री पद से लेकर अन्य कई तरह से फीस अदा की जाती है। नया मेकओवर होते ही नेता जी के सिद्धांत, व्यापक जन हित में एकदम से बदल जाते हैं। विपक्ष नेता जी के पुराने भाषण सुनाता रह जाता है पर नेता जी वह सब अनसुना कर विकास के पथ पर आगे बढ़ जाते हैं।

स्कूल कालेज कोरे मन के  बच्चों का मेकओवर कर, उन्हें सुशिक्षित इंसान बनाने के लिए होते हैं। किंतु हुआ यह कि वे उन्हें बेरोजगार बना कर छोड़ देते, इसलिए शिक्षा में आमूल परिवर्तन किए जा रहे हैं , अब केवल डिग्री नौकरी के मेकओवर के लिए अपर्याप्त है। स्किल, योग्यता और गुणवत्ता से मेकओवर नौकरी के लिए जरूरी हो चुके हैं। अब स्टार्ट अप के मेकओवर से एंजल इन्वेस्टर आप के आइडिये के लिए करोड़ों इन्वेस्ट करने को तैयार हैं।

पिछले दिनों हमारा अमेरिका आना हुआ, टैक्सी से उतरते तक हम जैसे थे, थे। पर एयरपोर्ट में प्रवेश करते हुए अपनी ट्राली धकेलते हम जैसे ही बिजनेस क्लास के गेट की तरफ बढ़े, हमारा मेकओवर अपने आप कुछ प्रभावी हो गया लगा। क्योंकि हमसे टिकिट और पासपोर्ट मांगता वर्दी धारी गेट इंस्पेक्टर एकदम से अंग्रेजी में और बड़े अदब से बात करने लगा।

बोर्डिंग पास इश्यू करते हुए भी हमे थोड़ी अधिक तवज्जो मिली, हमारा चेक इन लगेज तक कुछ अधिक साफस्टीकेटेड तरीके से लगेज बेल्ट पर रखा गया। लाउंज में आराम से खाते पीते एन समय पर हैंड लगेज में एक छोटा सा लैपटाप बैग लेकर जैसे ही हम हवाई जहाज में अपनी फ्लैट बेड सीट की ओर बढ़े सुंदर सी एयर होस्टेस ने अतिरिक्त पोलाइट होकर हमारे कर कमलों से वह हल्का सा बैग भी लेकर ऊपर  डेक में रख दिया, हमे दिखा कि इकानामी क्लास में बड़ा सा सूटकेस भी एक पैसेंजर स्वयं ऊपर  रखने की कोशिश कर रहा था। बिजनेस क्लास में मेकओवर का ये कमाल देख हमें रुपयों की ताकत समझ आ रही थी।

जब अठारह घंटे के आराम दायक सफर के बाद  जान एफ केनेडी एयरपोर्ट पर हम बाहर निकले,  तब तक बिजनेस क्लास का यह मेकओवर मिट चुका था, क्योंकि ट्राली लेने के लिए भी हमें अपने एस बी आई कार्ड से  छै डालर अदा करने पड़े, रुपए के डालर में मेकओवर की फीस कटी हर डालर पर कोई 9 रुपए मात्र। हमारे मैथ्स में दक्ष दिमाग ने तुरंत भारतीय रुपयों में हिसाब लगाया लगभग पांच सौ रुपए मात्र ट्राली के उपयोग के लिए। हमें अपने प्यारे हिंदोस्तान के एयर पोर्ट याद आ गए कहीं से भी कोई भी ट्राली उठाओ कहीं भी बेतरतीब छोड़ दो एकदम फ्री।  एकबार तो सोचा कितना गरीब देश है ये अमरीका भला कोई ट्राली के उपयोग करने के भी रुपए लेता है ? वह भी इतने सारे,  पर जल्दी ही हमने टायलेट जाकर इन विचारों का परित्याग किया और अपने तन मन का क्विक मेकओवर कर लिया। जैकेट पहन सिटी बजाते रेस्ट रूम से निकलते हुए हम अमेरिकन मूड  में आ गए। तीखी ठंडी हवा ने हमारे चेहरे  को छुआ, मन तक मौसम का खुशनुमा मिजाज  दस्तक देने लगा। एयरपोर्ट के बाहर बेटा हमे लेने खड़ा था, हम हाथ हिलाते  उसकी तरफ  बढ़ गए।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

न्यूजर्सी , यू एस ए

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #128 – लघुकथा – “भ्रष्टाचार की सजा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है पुरस्कृत पुस्तक “चाबी वाला भूत” की शीर्ष बाल कथा  “भ्रष्टाचार की सजा।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 127 ☆

☆ लघुकथा – “भ्रष्टाचार की सजा” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’  

अखबार हाथ में लेते ही उसे वह पल याद याद आ गया जब वह कलेक्टर साहब के पास गया था।

“क्यों भाई दो लाख रुपए की रिश्वत मांगी और मुझे पता भी नहीं चला!”

“सरजी! वह क्या है ना, आप का भी हिस्सा था उसमें।”

“मगर दो लाख रुपए क्यों मांगे? इसीलिए उसने शिकायत की और अखबार में भी दे दिया- ‘रजिस्ट्रार ने रजिस्ट्री पर रोक लगाई! भ्रष्टाचार में मांगे दो लाख’ “

“सरजी वह पाँच करोड रुपए लेकर सरकार रेट पर जमीन की पच्चीस लाख रुपए में रजिस्ट्री करवा रहा था। कम से कम इतना तो हमारा हक बनता है।”

“मगर शिकायत हुई तो तुम्हें सजा जरूर मिलेगी,” जैसे कलेक्टर साहब ने कहा तो उसका हाथ ब्रीफकेस पर मजबूती से कस गया। मगर दूसरे ही पल उसने ना जाने क्या सोचकर भी ब्रीफकेस पर पकड़ ढीली करके उसे साहब के घर पर ही छोड़ दिया।

यह स्मृति में आते ही उसने अखबार का पन्ना खोला। पहले पृष्ठ पर खबर छपी थी। ‘भ्रष्ट रजिस्टार का इंदौर स्थानांतरण”। 

यह पढ़ते ही उसके चेहरे पर धीरे-धीरे मुस्कान फैलती गई।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

07-10-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 138 ☆ बाल कविता – भाए डोसा, साँभर, इडली… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 122 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 138 ☆

☆ बाल कविता – भाए डोसा, साँभर, इडली ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

आर्यन अतिशयी मतवाले।

चिकने बाल लगें घुँघराले ।।

 

दिनभर करते धमाचौकड़ी।

भाए डोसा, साँभर, इडली।।

 

सी – सी करते खाते जाते।

पानी माँगें शोर मचाते।।

 

पल में गुस्सा , पल में हँसते।

जिद पर कभी – कभी हैं अड़ते।।

 

दिनभर उनको खेल – ख़िलालो।

पढ़ने से नित जी चुरवा लो।।

 

नए – नए वह चित्र बनाते ।

शेर बनाकर कभी डराते।।

 

उनका जीवन रंग – बिरंगा।

बच्चों का मन पावन गंगा।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #139 ☆ बाळ गीत – झाड़…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 139 ☆  बाळ गीत – झाड़…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

परवा मी झाडाला

मारला एक दगड़

बाबा म्हणाले आईला,

“ह्याला खूप बदड.’

 

झाडाला असं कघी

दगड कोणी मारतं का?

झाडाला लागलं, तरी

झा कधी बोलतं का?

 

दगड न मारतासुद्धा

झाड खूप काही देत॑

उन्हामध्ये साबली आणि

फळेसुद्धा देतं !

 

झाडांशिवाय आपल्याला

ऑक्सिजन कोण देणार?

झाडांवरच्या चिमण्या

सांगा कोठे बरं राहणार ?

 

झाडांची काव्ठजी बाव्ठा

आपण सारे घेऊ

रोज सकाळी झाडांना

थोड पाणीसुद्धा देऊ !

 

आता कळल बाव्ठा,

झाड किती शहाणं असतं

आपल्या सर्वाँसाठी ते

दिवस-रात्र उभं असतं….!

©  सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ अनवाणी… ☆ प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर ☆

प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ? अनवाणी…  ? ☆ प्रा.अरूण विठ्ठल कांबळे बनपुरीकर ☆

ती

अजूनही

चालतेय

त्याला

पतिपरमेश्वर मानून

त्याच्या पाठीमागे

अनवाणी पायांनी .

तिचं असं चालणं

अजूनही थांबलं नाहीए.

दगडधोंडे काट्याकुट्यांच्या आणि

फफूट्यांच्या वाटां

आता डांबरी होत चालल्या आहेत .

तिच्या अनवाणी पायांच्या

चिरत गेलेल्या टाचा

आता चकचकीत बनलेल्या डांबरी सडकेच्या

झळा सहन करत चालताहेत.

रस्त्यांनीही आपल्या बदलल्यात

रूढी परंपरा आणि चालीही…

पण ती मात्र

अजूनही परंपरेच्या

बंधनात

चालतच राहतेय

पुरुषप्रधान संस्कृतीमागे

अविरत.

© प्रा.अरुण कांबळे बनपुरीकर

मु.पो.बनपुरी ता.आटपाडी जि.सांगली

९४२११२५३५७…

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #160 – माँ के बुने हुए स्वेटर से… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक अतिसुन्दर, भावप्रवण एवं विचारणीय कविता  “माँ के बुने हुए स्वेटर से…”। )

☆  तन्मय साहित्य  #160 ☆

☆ माँ के बुने हुए स्वेटर से…

लगे काँपने कंबल

बेबस हुई रजाई है

ठंडी ने इस बार

जोर से ली अँगड़ाई है।।

 

सर्द हवाएँ सुई चुभाए

ठंडे पड़े बदन

ओढ़ आढ़ कर बैठे लेटें

यह करता है मन,

बालकनी की धूप

मधुर रसभरी मलाई है।

ठंडी में…

 

 धू-धू कर के लगी जलाने

 जाड़े की गर्मी

 रूखी त्वचा सिकुड़ते तन में

 नष्ट हुई नरमी,

 घी-तेलों से स्नेहन की

 अब बारी आई है।

 ठंडी ने….

 

बाजारु जरकिनें विफल

मुँह छिपा रहे हैं कोट

ईनर विनर नहीं रहे

उनमें भी आ गई खोट,

माँ के बुने हुए स्वेटर से

राहत पाई है।

ठंडी ने….

 

घर के खिड़की दरवाजे

सब बंद करीने से

सिहरन भर जाती है

तन में पानी पीने से,

सूरज की गुनगुनी धूप से

प्रीत बढ़ाई है।

ठंडी ने….

 

कैसे जले अलाव

पड़े हैं ईंधन के लाले

जंगल कटे,निरंकुश मौसम

लगते मतवाले

प्रकृति दोहन स्पर्धा की अब

छिड़ी लड़ाई है।

ठंडी ने….।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 60 – जंगल में दंगल… भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय  व्यंग्य  “जंगल में दंगल …“।)   

☆ व्यंग्य # 60 – जंगल में दंगल – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

एक बार जंगल से भटक कर शेर जो नरभक्षी होने को ही नॉन वेज़ेटेरियन होना मानता था, समीपस्थ नगर के एम्यूज़मेंट पार्क में पहुंच गया. उसे बहुत आश्चर्य हुआ जब वहां ईवनिंग वॉक के नाम पर घर से भागे उन्मुक्त मानवों ने उसका संज्ञान ही नहीं लिया. कारण सब अपने अपने मोबाईल में व्यस्त थे. नज़रे झुकाये पर मुस्कुराते जीव देखकर शेर सोच में पड़ गया. ऐसा क्या है इनके हाथों में जो उसके वज़ूद से बेखबर हैं ये लोग. शेर की इच्छा तो थी कि एक बार दहाड़कर इन मगन मनुओं को हकीकत से रूबरू करवा दे पर अपने जंगल के डेंटल सर्जन की हिदायत से मन मसोस कर खामोश होना पड़ा. दरअसल शिकार के काम आने वाली दंतपंक्ति की हाल ही में शार्पनिंग करवाई थी तो ज्यादा मुंह खोलना मना था. चुपचाप जंगल लौटकर शेर ने अपने दूत कौए को शहर भेजा, यह पता लगाने के लिये कि इन मनुष्यों के हाथ में ऐसा कौन सा यंत्र है जिससे ये दीन दुनिया से बेखबर हो गये हैं. संदेशवाहक वही सच्ची खबर लाता है जिसमें खुद नज़रअंदाज हो जाने का गुण हो तो कौए ने पार्क में बैठकर चुपचाप पता कर ही लिया और फिर जंगल के राज़ा जान गये कि ये वाट्सएप ग्रुप ही इस फसाद की जड़ है.

जंगलदूत अपने साथ सिर्फ खबर ही नहीं वाट्सएप का वायरस भी लेकर आ गया जो शेर को भी संक्रमित कर बैठा. अब शेर को भी लगने लगा कि उसकी इमेज़ सुधारने के लिये हिंसकता की नहीं बल्कि आपसी संवाद की जरूरत है. तो जंगल के राज़ा ने अपने दूत के माध्यम से जंगल के सारे जानवरों का वाट्स एप ग्रुप बनाने का संदेश दिया. शक्तिशाली का संदेश भी आदेश से कम नहीं होता पर बिल्ली मौसी ने अपने रिश्ते का फायदा उठाते हुये पूछ ही लिया कि इसमें हमें क्या फायदा.

दूत तो दूत ही होता है तो कह दिया कि राजा ने अपने लंच टाइम के बाद बैठक बुलाई है तो सभी जानवर निडर होकर आयें. जिनकी नियति शिकार होने का उद्देश्य हो उन्हें चुनने की आजादी दिखावे के लिये पांच साल में सिर्फ एक बार ही मिलती है. तो सब राजा के गुफा रूपी दरबार में आए.

शेर ने जंगलवासियों की तरक्की और जमाने के साथ चलने के नाम पर जंगल के वाट्सएप ग्रुप बनाये जाने की घोषणा इस तरह की कि-

“हर शिकार को अपने शिकारी से सवाल करने का मौका दिया जा रहा है”.

सारे जानवरों को जंगल के नये कानून के अनुसार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी जा रही है. इस तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर निरीहता ने कुछ कहने की आज़ादी पायी और जंगल में भी वाट्सएप ग्रुप बन गया, बनना ही था, विरोध कौन और कोई क्यों करता, सब एक दूसरे के कंधे पर अपेक्षा का शाल डालकर चुप रहे और हुआ वही जो शेर की मरजी थी. अब ग्रुप के नाम पर बात आई तो लोमड़ सिंह ने  “सिंह गर्जना ” नाम सुझाया पर शेर राजा अपनी प्रजा की भावभंगिमा से समझ गये कि हर बार अपनी चलाने से बेहतर जनता को झुनझुना पकड़ाने की ट्रिक शासन की स्थिरता में मददगार होती है, तो उन्होंने जंगल के प्रति अपनी अटूट निष्ठा की घोषणा के साथ ग्रुप का नाम “जंगल की आवाज़” रखने का सुझाव दिया.जंगल के सारे शिकार और शिकारी रूपी जानवरों ने इस सुझाव को राजा की उदारता मानते हुये सहर्ष स्वीकार किया.

चूंकि राजा इस मलाईविहीन पद से विरक्त थे तो राजा की इच्छा का सम्मान करते हुये लोमड़ सिंह अपने आप ग्रुप के एडमिन बन गये.

कहानी जारी रहेगी

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 160 ☆ एक स्फुट ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 160 ?

☆ एक स्फुट ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

आज खूप दिवसांनी….

मीरा ठकार आठवल्या …

कुठल्याशा मैत्रिणीच्या संदर्भात—

त्या म्हणाल्या होत्या,

ती म्हणजे फक्त,  “मेरी सुनो” !!!

आणि आजच आठवला ,

आम्हाला वडोदरा नगरीत,

सन्माननीय कवयित्री म्हणून,

दावत देणारा…..

कुणीसा जामदार,

स्वतःबद्दल बरचंसं बोलून झाल्यावर,

म्हणाला होता,

मी जास्त बोलतोय का ?

सहकवयित्री म्हणाली होती,

नो प्रॉब्लेम, “वुई आर  गुड लिसनर्स” !

आणि मग आम्ही ऐकतच राहिलो,

त्याची मातब्बरी !!

 

असेच असतात…

अनेकजण…इथून..तिथून…

इकडे तिकडे…अत्र तत्र….सर्वत्र!!

 

“मेरी सुनो” “मेरी सुनो”म्हणत,

अखंड स्वतःचीच,

टिमकी वाजवणारे!!!

 

माझी श्रवणशक्ती हळूहळू

कमी होत चालली आहे,

हा सततचा अनुभव

येत असतानाच,

उजाडतो , एक नवा ताजा दिवस

या ही वळणावर,

तू भेटतोस…..

‘”सारखी करू नये खंत, वय वाढल्याची”

म्हणतोस!

आणि मी अवाक!

किती वेगळा आहेस,तू सर्वांपेक्षा !

कधीच बोलत नाहीस,

स्वतःविषयी….अहंभावाच्या खूप पल्याड तुझी वस्ती !

 

ब-याचदा विचार येतो मनात,

 

“खुदा भी आसमाँसे जब जमींपर देखता होगा, इस लडकेको किसने

बनाया सोचता होगा।”

 

मी शोधत असलेला,

“बोधिवृक्ष” 

तूच असावास बहुधा….

© प्रभा सोनवणे

५ डिसेंबर २०२२

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 30 – भाग 3 – कलासंपन्न ओडिशा ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक 30 – भाग 3 ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ कलासंपन्न ओडिशा ✈️

महानदीच्या तीरावर वसलेलं ‘कटक’ हे शहर पूर्वी ओडिशाच्या राजधानीचं शहर होतं. तेराव्या शतकात बांधलेला इथला बाराबतीचा किल्ला मराठ्यांनी मोगलांकडून जिंकून घेतला होता. इसवी सन १८०३ पर्यंत हा किल्ला मराठ्यांच्या ताब्यात होता. आता हा किल्ला बराचसा उध्वस्त झाला आहे. मात्र त्याचं पूर्वीचं प्रवेशद्वार अजून शाबूत आहे. हे अवशेष चांगल्या रीतीने जपले आहेत. किल्ल्याजवळ बांधलेलं भव्य  बाराबती स्टेडिअम कसोटी क्रिकेट सामन्यांसाठी प्रसिद्ध आहे.

कोणार्क येथील सूर्यमंदिर म्हणजे उडिया शिल्पकाव्याची अक्षयधारा आहे. भुवनेश्वरहून ६२ किलोमीटर अंतरावर असलेलं हे सूर्यमंदिर कलिंग शिल्पकलेचा उत्कृष्ट नमुना आहे.  कोणार्क मंदिर दीर्घ काळ रेतीत बुडालेलं होतं. १८९३ मध्ये ते प्रथम उकरून काढण्यात आलं. पुरातत्त्व विभागाने त्यावरील वाळूचं आवरण दूर करण्याचं काम हाती घेतलं. आज या भग्न मंदिराचे गाभारा व बरेचसे भाग उध्वस्त अवस्थेत आहेत. कोणार्क समुद्रकाठी असल्याने हवामानाचाही बराच परिणाम होऊन मंदिराची खूप झीज झालेली दिसून येते. शिवाय मोंगल आक्रमणामध्ये मंदिराची खूप तोडफोड झाली.

१२०००हून अधिक कारागिरांनी १६ वर्ष अथक परिश्रम करून हे मंदिर उभं केलं होतं. त्यासाठी अमाप खर्च झाला. हे मंदिर रथाच्या रूपात आहे. दोन्ही बाजूंना दहा- दहा फूट उंचीची  १२ मोठी चाकं आहेत. या चाकांवर आणि देवळावर अप्रतिम कोरीव काम आहे. सात दिमाखदार अश्व, सारथी आणि सूर्यदेव असे भव्य मंदिर होते. मंदिराच्या शिल्लक असलेल्या भग्न अवशेषांवरून पूर्वीच्या देखण्या संपूर्ण मंदिराची कल्पना करावी लागते.

या दगडी रथाच्या वरील भागात मृदुंग, वीणा, बासरी वाजविणाऱ्या पूर्णाकृती सूरसुंदरींची शिल्पे कोरली आहेत. त्याखाली सूर्यदेवांच्या स्वागताला सज्ज असलेले राजा, राणी, दरबारी यांची शिल्पे आहेत. योध्दे, कमनीय स्त्रिया व बालके यांची उत्कृष्ट शिल्पे आहेत. त्याखालील पट्टयावर सिंह, हत्ती, विविध पक्षी, फुले कोरली आहेत. रथावर काम शिल्पे, मिथुन शिल्पे कोरलेली आहेत. त्यातील स्त्री-पुरुषांच्या चेहऱ्यावरील भाव लक्षणीय आहेत. आकाशस्थ सूर्यदेवांच्या अधिपत्याखाली पृथ्वीवरील जीवनचक्र अविरत चालू असते. त्यातील सातत्य टिकविण्यासाठी आदिम नैसर्गिक प्रेरणेनुसार सर्व जीवसृष्टीचे वर्तन असते असे इथे अतिशय कलात्मकतेने शिल्पबद्ध केलेले आहे.

भारतीय पुरातत्त्व खात्याची निर्मिती ही ब्रिटिशांची भारताला फार मोठी देणगी आहे. ब्रिटिश संशोधकांनी भारतीय संशोधकांना बरोबर घेऊन अतिशय चिकाटीने अजिंठा, खजुराहो, मोहनजोदारो, कर्नाटकातील शिल्पस्थानं यांचा शोध घेऊन त्यांचे संरक्षण व दस्तावेजीकरण केले. कोणार्क येथील काळाच्या उदरात गडप झालेले, वाळूखाली गाडले गेलेले सूर्यमंदिर स्वच्छ करून त्याचे पुनर्निर्माण केले. त्यामुळे ही सर्व शिल्परत्ने जगापुढे येऊन भारतीय समृद्ध संस्कृतीची जगाला ओळख झाली. आज हजारो वर्षे उन्हा- पावसात उभ्या असलेल्या, अज्ञात शिल्पकारांच्या अप्रतिम कारागिरीला प्राणपणाने जपणे हे आपले कर्तव्य आहे.  दरवर्षी १ डिसेंबर ते ५ डिसेंबर दरम्यान कोणार्कला नृत्यमहोत्सव आयोजित केला जातो. त्यात प्रसिद्ध नर्तक हजेरी लावतात .

कोणार्कहून ३५ किलोमीटरवर ‘पुरी’ आहे. सागर किनाऱ्याने जाणारा हा रस्ता रमणीय आहे. आदि शंकराचार्यांनी आपल्या भारतभ्रमणाअंतर्गत भारताच्या चारी दिशांना जे मठ स्थापिले त्यातील एक म्हणजे पुरी. जगन्नाथ, बलभद्र आणि सुभद्रा या बहिण भावंडांचं हे मंदिर जगन्नाथ (श्रीकृष्ण ) मंदिर म्हणून प्रसिद्ध आहे. बाराव्या शतकात बांधण्यात आलेलं हे मंदिर अतिशय सुंदर आणि कलात्मक आहे. १९२फूट उंच असलेलं हे मंदिर इसवी सन अकराशे मध्ये अनंत वर्मन राजाने हे मंदिर बांधण्यास सुरुवात केली. त्याचा मुलगा अनंत  भीमदेव याच्या काळात ते पूर्ण झालं.

आषाढ शुद्ध द्वितीयेपासून त्रयोदशीपर्यंत साजरी होणारी ‘पुरी’ येथील रथयात्रा जगप्रसिद्ध आहे. साधारण ३५ फूट रुंद व ४५ फूट उंच असलेले तीन भव्य लाकडी रथ पारंपारिक पद्धतीने अतिशय सुंदर तऱ्हेने सजविले जातात. जगन्नाथ, सुभद्रा आणि बलभद्र यांच्या रथांना वाहून नेण्यासाठी प्रचंड जनसागर उसळलेला असतो. हे लाकडी रथ दरवर्षी नवीन बनविले जातात. त्यासाठी वापरायचं लाकूड, त्यांची उंची, रुंदी, कारागीर सारे काही अनेक वर्षांच्या ठराविक परंपरेनुसारच होते. हिंदूंच्या या पवित्र क्षेत्राचा उल्लेख  ‘श्री क्षेत्र’ किंवा ‘पुरुषोत्तम क्षेत्र’ म्हणून ब्रह्मपुराणात आढळतो. चैतन्य महाप्रभूंचं वास्तव्य या क्षेत्रात बराच काळ होतं.

महाराजा रणजीत सिंह यांनी या मंदिराला भरपूर सुवर्णदान केलं. त्यांनी आपल्या मृत्युपत्रात ‘कोहिनूर’ हिराही या मंदिरासाठी लिहून ठेवला होता पण त्याआधीच ब्रिटिशांनी पंजाबवर आपला अंमल बसविला व आपला कोहिनूर हिरा इंग्लंडला नेला .

ओडिशा भाग ३ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 60 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे… । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 60 – मनोज के दोहे… 

1 धूप

बदला मौसम कह रहा, ठंडी का है राज।

धूप सुहानी लग रही,इस अगहन में आज।।

2 धवल

धुआँधार में नर्मदा, निर्मल धवल पुनीत।

गंदे नाले मिल गए, बदला मुखड़ा पीत ।।

3 धनिक

धनिक तनिक भी सोचते, कर देते उद्धार।

कृष्ण सखा संवाद कर, हरते उसका भार ।।

4 धरती

धरती कहती गगन से, तेरा है विस्तार।

रखो मुझे सम्हाल के, उठा रखा है भार।।

5 धरित्री

जीव धरित्री के ऋणी, उस पर जीवन भार।

रखें सुरक्षित हम सभी, हम सबका उद्धार।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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