हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ भूकंप ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ भूकंप ☆

पहले धरती में कंपन अनुभव हुआ। फिर तने जड़ के विरुद्ध बिगुल फूँकने लगे। इमारत हिलती-सी प्रतीत हुई। जो कुछ चलायमान था, सब डगमगाने लगा। आशंका का कर्णभेदी स्वर वातावरण में गूँजने लगा, हाहाकार का धुआँ अस्तित्व को निगलने हर ओर छाने लगा।

उसने मन को अंगद के पाँव-सा स्थिर रखा। धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य होने लगा। अब बाहर और भीतर पूरी तरह से शांति है।

 

©  संजय भारद्वाज

17 जनवरी 2020 , दोपहर 3:52 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ धन बनाम ज्ञान ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की लघुकथा  “धन बनाम ज्ञान ”)

☆ लघुकथा – धन बनाम ज्ञान ☆

दोनों कॉलेज के दोस्त अरसे बाद आज रेलवे स्टेशन पर अकस्मात् मिले थे। आशीष वही सादे और शिष्ट् कपड़ों में था, हालांकि कपड़े अब सलीके से इस्त्री किये हुए और थोड़े कीमती लग रहे थे, जबकि दिनेश उसी तरह से सूट-बूट में था, पर उसके कपड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता था कि उन्हें बहुत ज्यादा इस्तेमाल किया जा चुका है। आशीष के चेहरे पर वही पुरानी मुस्कुराहट और रौनक थी, जबकि दिनेश का चेहरा पीला पड़ गया लगता था, और उसमें अब वह चुस्ती-फुर्ती नज़र नहीं आ रही थी जो कॉलेज के दिनों में कभी हुआ करती थी।

आशीष तो उसे पहचान भी नहीं पाता, यदि दिनेश स्वयं आगे बढ़ कर उसे अपना परिचय न देता।

“अरे दिनेश यह क्या, तुम तो पहचान में भी नहीं आ रहे यार? कहाँ हो? क्या कर रहे हो आजकल?” आशीष ने तपाक से उसे गले लगाते हुए कहा।

“बस, ठीक हूँ यार, तुम अपनी कहो?” दिनेश ने फीकी सी हंसी हंसते हुए कहा।

“तुम तो जानते ही हो बंधु, हम तो हमेशा मजे में ही रहते हैं”, आशीष ने उसी जोशोखरोश से कहा, “अच्छा, वो तेरा मल्टीनेशनल कंपनी वाला बिज़नेस कैसा चल रहा है, कितना माल इकट्ठा कर लिया?”

“क्या माल इकट्ठा कर लिया यार, बस गुजारा ही चल रहा है। वैसे वह काम तो मैंने कब का छोड़ दिया था, और छोड़ दिया था तो बहुत अच्छा किया, वर्ना बिल्कुल बर्बाद ही हो जाता। उस कंपनी ने खुद को दिवालिया घोषित कर दिया, और लोगों का काफी पैसा हजम कर गयी। आजकल तो मैं अपना निजी काम कर रहा हूँ ट्रेडिंग का। गुजारा हो रहा है। तुम क्या कर रहे हो?”

“मैं आजकल इंदौर के एक कॉलेज में प्रोफेसर हूँ”, आशीष ने बताया, “कुल मिला कर बढ़िया चल रहा है।”

“तो तुम आखिर जीत ही गए आशीष”, रितेश ने हौले से कहा तो आशीष चौंक गया, “कैसी जीत?”

“वही जो एक बार तुममें और मुझमें शर्त लगी थी”, रितेश ने कहा।

“कैसी शर्त? मुझे कोई ऐसी बात याद नहीं?” आशीष को कुछ याद न आया।

“भूल गए शायद, चलो मैं याद करवा देता हूँ”, कह कर रितेश ने बताया, “जब पहली बार किसी ने मुझे इस मल्टीनेशनल कंपनी का रुपए दे कर सदस्य बनने, अन्य लोगों को सदस्य बनाने और इसके महंगे-महंगे उत्पादों को बेच कर लाखों रुपए कमा कर अमीर बनने का लालच दिया, तो मैं उसमें फंस गया था। मैंने तुम्हें भी हर तरह का लालच दे कर इसका सदस्य बनाने की कोशिश की तो तुमने साफ मना कर दिया था। तुमने मुझे भी इस लालच से दूर रह कर पढ़ाई में मन लगाने की ताक़ीद दी थी। परंतु मैं नहीं माना। मुझे आज भी याद है कि तुमने कहा था, ‘धन और ज्ञान में से यदि मुझे एक चुनना पड़े तो मैं हमेशा ज्ञान ही चुनूँगा, क्योंकि धन से ज्ञान कभी नहीं कमाया जा सकता, परंतु ज्ञान से धन कभी भी कमाया जा सकता है। स्वयं ही देख लो, पढ़-लिख कर तुम फर्श से अर्श तक पहुंच गए, और मैं अर्श से फर्श पर…।

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – 103-सी, अशोक नगर, अम्बाला छावनी-133001, मो.: 9813130512

ई मेल- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 74 ☆ लघुकथा – सहना नहीं ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक विचारणीय लघुकथा   “सहना नहीं। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 74 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – सहना नहीं ☆

“कितनी बार कहा, जा चली जा मायके। मेरी नजर से दूर पर जाती ही नहीं।”

“क्यों जाऊं मांजी..? मैं तो यहीं छाती पर होरा  भूंजूँगी । क्या बिगाड़ा है आपका? बहुत सह लिया, अब सहना नहीं।”

“पता नहीं क्या कर रखा है शरीर का? 4 साल में एक बच्चा भी न जन सकी।”

पारो का रोना दिवाकर से देखा नहीं गया। उसने अब फैसला कर लिया बोला – “पारो अब तुम चिंता मत करो।  मैंने 1 साल के लिए मुंबई ब्रांच के काम लिए है … चलने की तैयारी करो।”

“क्या हुआ बेटा कहाँ जा रहे हो?”

“माँ,  मुंबई ट्रांसफर हो गया है,  पारो का चेकअप  भी हो जाएगा  हम जल्दी ही आ जाएंगे।”

“ठीक है बेटा खुश खबरी देना।”

रास्ते में दिवाकर ने कहा “पारो  मेरी कमी के कारण तुम्हें माँ के दिन रात ताने सहने पड़ते है। हमारे  डा. दोस्त ने वचन दिया है 9 महीने के अंदर हमें एक बच्चा गोद दिलवा देंगे। तुम जिंदगी भर तानों से बच जाओगी।”

साल भर बाद माँ बच्चे के साथ पारो का भी स्वागत कर रही थी।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ लघुकथा – लाँग वॉक ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ लघुकथा – लाँग वॉक ☆

तुम्हारा लाँग वॉक मार डालेगा मुझे…रुको… इतना तेज़ मत चलो… मैं इतना नहीं चल सकती…दम लगने लगता है मुझे…हम कभी साथ नहीं चल सकते.., हाँफते-हाँफते उसने कहा था। वह रुक गया। आगे जाकर राहें ही जुदा हो गईं।

बरसों बाद वे एक मोड़ पर मिले। …क्या करती हो आजकल?… लाँग वॉक करती हूँ…कई-कई घंटे…साथ वॉक करें कल? …नहीं मैं इतना नहीं चल सकता… मेरा वॉक अब बहुत कम हो गया है…दम लगने लगता है मुझे… हम कभी साथ नहीं चल सकते..,उसने फीकी हँसी के साथ कहा। राहें फिर जुदा हो गईं।

©  संजय भारद्वाज

4.10 संध्या, 30.112020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ घरवाली ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक लघुकथा “घरवाली।)

☆ लघुकथा – घरवाली ☆

‘आपका घर कहां है?’

‘जी ढाबे में’

‘और आपका ?’

‘जी, सराय में’

‘आपका हुजूर?’

‘जी होटल में दिन काट रहा हूं’

‘और आपका जी॑’

‘घर के बारे में सोचा ही नहीं’

‘ घर घरवाली से होता है, बिना घरवाली के घर यानी भूतों का डेरा, ऐसी अंधियारी रात जिसका कभी होता नहीं सबेरा’

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

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हिन्दी साहित्य – लघुकथा ☆ ख्वाहिश ☆ डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

(आज  प्रस्तुत है  डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव जी  की एक सार्थक लघुकथा  ख्वाहिश।  

☆ लघुकथा – ख्वाहिश ☆

हम दोनों पक्की सहेलियां थीं। मेरे कपड़े और खिलौने उसके कपड़े और खिलौनों से ज्यादा महंगे होते थे क्योंकि उसके पिता मेरे पिता के यहाँ काम करते थे।

नीलू को पढ़ने के साथ-साथ कॉपी किताबें और अपना सामान करीने से रखने का बहुत शौक था पिताजी से उसने एक छोटी सी पेटी की ख्वाहिश भी रखी थी।

उसके जन्मदिन के दिन उसके घर में पेटी आई भी पर उसके पिता ने कहा… “कि नहीं यह तो तुम्हारी पक्की सहेली याने मेरे साहब की बेटी के लिए है, क्योंकि कल उसका  जन्मदिन  है। तुम्हें अगले जन्मदिन पर खरीद देंगे।”

पूरे साल भर नीलू पेटी में कॉपी किताबें सजाने के सपने देखती रही जन्मदिन आया लेकिन पेटी नहीं आई। पिताजी 2 दिन के दौरे के लिए शहर से बाहर चले गए उसने राह देखी शायद लौटकर पेटी लेकर आएं लेकिन पेटी फिर भी नहीं आई। नीलू जब भी मेरे घर आती मेरी पेटी को हसरत भरी निगाहों से देखती। उसे हाथों में उठाती है पर उसका इंतजार प्रेमचंद के गबन उपन्यास की नायिका को चंद्रहार मिलने की आतुरता जैसा  कट रहा था।

साल पे साल बीतते गए पर पेटी फिर भी नहीं आई। आखिरकार उसकी शादी के दिन जब दहेज के सामानों में एक पेटी रखी थी उसे देखकर उसने सभी कीमती जेवरात और सामानों को छोड़कर उस पेटी को गोद में उठा लिया और उसकी आँखों में खुशी के आँसू छलक पड़े।

 

© डॉ कामना तिवारी श्रीवास्तव

मो 9479774486

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – अच्छी खबर☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा।  आज प्रस्तुत है  एक कविता  “लघुकथा – अच्छी खबर”। )  

☆ लघुकथा – अच्छी खबर ☆

दादी गुरप्रीत कौर का बुखार उतर ही नहीं रहा था।

बहू ज्ञानप्रीत कौर ने डॉ सतवीर सिंह को बताया – “प्रा जी। ये न बिलकुल किसी की नहीं सुनती। कल रात भर छत पर पता ही नहीं चला कब चली गई और खुले में बिस्तर बिछा कर कंबल ओढ़ कर सो गई? सबेरे जब पूछा तो बोलीं –  अरे मैं देख रही थी, इतने दिनों से ऐसी ठंड में दिल्ली बार्डर पर सरदार जी और कीरत पुत्तर जी खुले में कैसे सो रहे हैं?”

पारिवारिक डॉ सतवीर ने देखा चाची  को तेज बुखार है और शरीर काँप रहा है। बुखार का कारण सुनकर वे संतुष्ट हुए और ज्ञानप्रीत को बोले “भाभी, मैं दवाइयाँ लिख दे रहा हूँ, किसी से मँगवा लेना। सब ठीक हो जाएगा।“ फिर दादी से बोले – “दादी अब बिस्तर से नहीं उतरना। और चिंता मत करना। वहाँ बहुत लोग हैं एक दूसरे का ख्याल रखने के लिए।“

दादी सर्दी में काँपते हुए बोली – “पर पुत्तर टी वी पर देखा दिल्ली बार्डर पर बहुत सारे बेरिकेड, पुलिस फोर्स, पानी, आँसूगैस की व्यवस्था भी हो रही है।”

डॉ सतवीर ने समझाया – “दादी वो दिल्ली बार्डर है कोई वाघा – अटारी बार्डर थोड़े ही है। और बेरिकेड के उसपार पुलिस फोर्स में अपने ही भाई हैं। चिंता मत करो, जल्दी ही अच्छी खबर मिलेगी।”

पर बच्चों के समझाने से दादी का मन थोड़े ही मानने वाला था। चिंता होना भी स्वाभाविक ही था। सरदारजी की बायपास सर्जरी हो चुकी थी। शादी को पचास बरस से ऊपर हो गए थे। शादी ब्याह और परिवार में मौत के अलावा कभी भी उनसे इतने दिन अलग नहीं रहे। नौ बरस का उनका पोता गुरमीत उनकी सेवा में लग गया। जो माँगती दौड़ दौड़ कर लाता। जब तक दादी  नहीं खाती, तब तक उसके गले से एक कौर नहीं उतरता।

ज्ञानप्रीत देख रही थी जब से गुरमीत के दादा सरदार गुरशरन सिंह और गुरमीत के पिता सरदार कीरत सिंह दिल्ली के लिए पिण्ड (गाँव) के सब लोगों के साथ रवाना हुए हैं उसका चेहरा मुरझा गया है। पिण्ड के और बच्चों के साथ अपने चाचा अजीत सिंह जी के घर बना रहता।

दादी दिन भर से बुखार में बड़बड़ाती रही। “अजीब बात है … परजातन्त्र है …  लोगों ने इतनी सीटों से जिता कर लोगों की भलाई के लिए कानून बनाने का हक दिया … हक के लिए लड़ने के हक पर सियासत करने का हक थोड़े ही दिया है … सियासत कल मेज के इस ओर थी … आज मेज के उस ओर है … कल फिर इस ओर होगी … एक बेटा देश की हिफाजत के लिए है … उसे देश की हिफाजत करने दो …  एक जमीन की हिफाजत के लिए है … उसे जमीन की हिफाजत करने दो …” और सरदार जी और बेटे को याद करके पता नहीं क्या क्या बड़बड़ाती रही।

गुरमीत के कुछ भी समझ नहीं आ रहा था … उसे परजातन्त्र … कानून … हक … सियासत …शब्द बड़े अजीब लग रहे थे। सुबह से शाम हो गई। देर शाम दादी का बुखार कुछ कम हुआ तो दौड़ कर चाचा अजीत सिंह के घर अपने दोस्तों के साथ जा पहुंचा।

ज्ञानप्रीत कौर को अपनी सास की सेहत में सुधार देख कर तसल्ली हुई। दो बार गुरमीत के पिता सरदार कीरत सिंह का फोन आया किन्तु, उसने उनको कुछ भी नहीं बताया। इतने में सास की आवाज आई – “ज्ञान,  इनको फोन लगा दे, बात करने का जी कर रहा है।”

ज्ञानप्रीत कौर कुछ कहती कि- इतने में गुरमीत दौड़ कर आया और रसोई घर से थाली और  चम्मच ले आया। दादी के कमरे में रखा टॉर्च लेकर छत की ओर जाने लगा। दादी बोली – “गुरमीत पुत्तर क्या हुआ? कुछ बोल तो सही।”

गुरमीत छत की ओर दौड़ते हुए बोला – “दादी, जब तक दादा अपनी बात मनवाकर नहीं आते। रोज शाम सात बजे मैं और मेरे दोस्त एक मिनट थाली चम्मच बजाएँगे और एक मिनट टॉर्च जलाएंगे।”

गुरप्रीत और ज्ञानप्रीत हतप्रभ एक दूसरे का चेहरा देखते रह गए। दोनों मन ही मन में अपने-अपने अर्थ निकाल रहे थे और गुरमीत छत पर चला गया।

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

18 दिसंबर 2020

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ डर के आगे जीत है- (2) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ डर के आगे जीत है – (2) ☆

उसे लगता इस समय बाहर मृत्यु खड़ी है। दरवाज़ा खुला कि उसका वरण हुआ। सो घंटों वह दरवाज़ा बंद रखती। स्नान करने जाती तो कई बार दो घंटे भीतर ही दुबकी रहती। वॉशरूम में रुके रहना उसकी मजबूरी बन चुकी थी। मन जब प्रतीक्षारत मृत्यु के चले जाने की गवाही देता, वह चुपके से दरवाज़ा खोलकर बाहर आती।

आज फिर वह बाथरूम में थर-थर काँप रही थी। मौत मानो दरवाज़ा तोड़कर भीतर प्रवेश कर ही लेगी। एकाएक सारा साहस बटोरकर उसने दरवाज़ा खोल दिया और निकल आई मौत का सामने करने।

आश्चर्य! दूर-दूर तक कोई नहीं था। उसका भय काल के गाल में समा चुका था।

©  संजय भारद्वाज 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ दो लघुकथाएं – स्त्रियाँ ☆ डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों  से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। अब तक 350 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं ग्यारह  पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं (वार्षिक) का सम्पादन एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है,जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी “दो लघुकथाएं – स्त्रियाँ।)

☆ लघुकथा – दो लघुकथाएं – स्त्रियाँ ☆

[1] नयी माँ

कचरा बीनने वाली ने कचरे के ढेर में नवजात कन्या को बिलखते देखा तो हक्का बक्का रह गयी.

कैसी होगी इसकी निष्ठुर मां… राम-राम इसके बदन पर तो कीड़े रेंग रहे हैं…खून रिस रहा है.. मुंह झोंसी… किसका पाप यहां डाल गयी है रे. उसके मुंह से धाराप्रवाह निकल रहा था.

न जाने कबसे भूखी होगी रे… कहते – कहते उसने अपना स्तन बच्ची के मुँह में डाल दिया.

बच्ची अब टुकुर टुकुर इस नई मां को देख रही थी. उमंग से हुलसती बच्ची के चेहरे पर वात्सल्य पसारता जा रहा था.

 

[2]  वर्चस्व

न जाने कितने कितने वर्षों बाद एक महिला सुप्रीम कोर्ट की जज बनी है.

अब तक मात्र छः महिलाएं ही तो बनी हैं,  इसकी गिनती सातवीं है. हद कर दी इन पुरुषों ने, महिलाओं को आगे बढ़ने ही नहीं देते.

महिला मंडल में एक विचार विमर्श चल रहा था. तब एक समझौता वाली महिला चुप न रह सकी.

बहिनों, जरा विराम लो, हम जो कुछ भी हैं पुरुषों के बल पर ही तो हैं. वर्चस्ववादी पुरुष ही हमें ऊंचाईयां प्रदान करते हैं. इसे नकारना मिथ्या है. भाई-पिता-पति के बिना हम एक कदम भी बढ़ सकने में समर्थ हो सकेंगे?

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल

एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 71 – लघुकथा – परिचय ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  लघुकथा  “परिचय।  हम जानते हैं कि शक का कोई इलाज़ नहीं फिर भी उसके शिकार होकर अक्सर हम अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं। जब ऑंखें खुलती हैं तब बहुत देर हो जाती है और पश्चाताप होता है। किन्तु, दुर्लभ मानव जीवन और समय लौट कर नहीं आता। सकारात्मक सन्देश देती स्त्री विमर्श पर आधारित लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 71 ☆

☆ लघुकथा – परिचय ☆

माया ने आज फिर तकिए से वही पुराना कागज निकाला। जिसमें सुबोध ने लिखा था…. निकल जाओ मेरी जिंदगी से फिर लौट कर कभी नहीं आना.. तंग आ गया हूँ मैं तुम्हारी वजह से। दोनों आँखों से अश्रुओं की धार बह चली। उस का क्या कसूर था, बस इसी सवाल को लेकर फिर वह रोते रोते तकिए पर सर रखकर लेट गई।

जाने कब तरुण ने आकर लाइट जलाया और बाल सँवार कर प्यार से पूछने लगा…. फिर पुरानी बातों में खो गई। बेटा आता होगा, तैयार हो जाओ अच्छा नहीं लगेगा।

माया झटपट मुँह धोकर चेहरे को साफ कर अपने आप को संभालती हुई बाहर आई।

दरवाजे पर बेटे की गाड़ी आकर रुक गई। तरुण और माया बेटे के साथ आज एक अजनबी को  देख रहे थे। जिस की बढ़ी हुई दाढी और फटेहाल दशा बता रही थी कि वह बहुत ही तंग हालत पर है।

पास आने पर माया ने ठिठक कर कुर्सी पकड़ ली। तरुण समझ गया यह वही सुबोध है।

उसी समय बेटे ने कहा मम्मी यह व्यक्ति आप के बारे में पूछ रहा था ऑफिस में। आपसे मिलना है कह रहा था। पुरानी पहचान बता रहा था।

मैं इन्हें घर ले लाया। माया ने तुरंत अपने बेटे को कहा बेटे इन्हें हमारे बैठक में बिठा  दो। यह हमारे दूर के परिचय वाले है। मैं चाय नाश्ता का इंतजाम करती हूं।

सुबोध को इसकी उम्मीद नहीं थी वह देखता रहा अपने को दूर का परिचय वाला।

अंदर तक हिल गया वह। बेटा अपने कमरे में चला गया। माया के अंदर जाने के बाद तरुण ने हाथ जोड सुबोध से बाहर जाने को कहा।

सुबोध समझ चुका उसे उसकी कर्मों की सजा मिली चुकी है। सुबोध और माया पति-पत्नी दोनों ही ऑफिस में काम करते थे। परन्तु, माया को बस से आने में थोड़ी देरी हो जाती थी। बस इसी बात से हमेशा दोनों में लड़ाई हो जाती थी और बसी बसाई गृहस्थी को आग लगाकर अलग हो गया था।

यह भी नहीं देखा कि माया माँ बनने वाली है। बेटे ने बाहर आकर देखा।

मम्मी पापा दोनों एक दूसरे से लिपटे थे और मम्मी की आँसू की धार रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी।  बेटे ने सोचा यह कैसा परिचित है, इसका क्या परिचय है। मम्मी-पापा क्यों परेशान होकर रो रहे हैं?

 

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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