डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर लघुकथा ‘टीचर के नाम एक पत्र’। कुछ शिक्षक कल्पना में ही हैं, इसलिए ऐसा संवाद कल्पना में ही संभव है। और यदि वास्तव में ऐसे शिक्षक अब भी हैं तो वे निश्चित रूप में वंदनीय हैं। मकर संक्रांति पर्व पर एक मीठा एहसास देती लघुकथा। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इसअतिसुन्दर लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 57 ☆
☆ लघुकथा – टीचर के नाम एक पत्र ☆
यह पत्र मेरी इंग्लिश टीचर के नाम है। जानती हूँ कि पत्र उन तक नहीं पहुँचेगा पर क्या करूँ इस मन का, मानता ही नहीं, सो लिख रही हूँ।
टीचर! आप जानती हैं कि हम सब आपसे कितना डरते थे? बडा रोबदार चेहरा था आपका। सूती कलफ लगी साडी और आपके बालों में लगा गुलाब का फूल,बहुत अच्छी लगती थीं आप। पर हममें से किसी में साहस कहाँ कि आपके सामने कुछ बोल सकें। आपको देखते ही क्लास में सन्नाटा खिंच जाता था। आप थोडा मुस्कुरातीं तो हम लोगों को हँसने का मौका मिलता। वैसे हँसी तो ईद का चाँद थी आपके चेहरे पर। एक बार आपने मुझसे कहा कि मेरे लिए रोज मेज पर एक गिलास पानी लाकर रखा करो। मैं रोज पानी लाकर रखने लगी, यह देखकर आपने कहा – क्या मुझे रोज पानी पीना पडेगा? मैंने पानी का गिलास रखना बंद कर दिया, तो आपने थोडा डाँटते हुए कहा - क्या रोज कहना पडेगा पानी लाने के लिए? मेरी हिम्मत ही कहाँ थी कुछ सफाई देने की? पर आपको अपनी बात याद आ गई थी शायद क्योंकि आप उस समय थोडा मुस्कुराई थीं।
आपके चेहरे की कठोरता तो जानी पहचानी थी लेकिन मन की उदारता का कोना सबसे अछूता था। मैं भी ना जानती अगर आपके घर ट्यूशन पढने ना आती। मेरे पास ट्यूशन फीस देने के पैसे नहीं थे, बडे संकोच से आप से पूछा था कि आप ट्यूशन पढाएंगी क्या मुझे? आपने कहा – घर आ जाना। मुझे याद है कि आपने कई महीने मुझे ना सिर्फ पढाया बल्कि आने- जाने के रिक्शे के पैसे भी दिए थे। नाश्ता तो बढिया आप कराती ही थीं, आपको याद है ना? ट्यूशन का अंतिम दिन था आपने मुझसे सख्ती से कहा – स्कूल में जाकर गाना गाने की जरूरत नहीं है कि टीचर ने पैसे नहीं लिए, मैं पैसेवालों से फीस जरूर लेती हूँ और जरूरतमंद योग्य बच्चों से कभी पैसे नहीं लेती। लेकिन इस बात का भी ढिंढोरा नहीं पीटना है। उस समय आपका चेहरा बडा कोमल लग रहा था, आप तब भी मुस्कुराई नहीं थीं पर मैं मुस्कुरा रही थी। टीचर! उस समय आप बिल्कुल मेरी माँ जैसी लग रही थीं।
आपकी एक छात्रा
© डॉ. ऋचा शर्मा
अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.
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