हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #215 – लघुकथा – नियति – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचना सहित 145 बालकहानियाँ 8 भाषाओं में 1160 अंकों में प्रकाशित। प्रकाशित पुस्तकेँ-1- रोचक विज्ञान कथाएँ, 2-संयम की जीत, 3- कुएं को बुखार, 4- कसक, 5- हाइकु संयुक्ता, 6- चाबी वाला भूत, 7- बच्चों! सुनो कहानी, इन्द्रधनुष (बालकहानी माला-7) सहित 4 मराठी पुस्तकें प्रकाशित। मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी का श्री हरिकृष्ण देवसरे बाल साहित्य पुरस्कार-2018 51000 सहित अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित व पुरस्कृत। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत साहित्य आप प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा नियति ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 215 ☆

☆ लघुकथा – नियति  ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

” सुन बेटा! आम मत लाना। मगर, मेरे घुटने दर्द कर रहे हैं, उसकी दवा तो लेते आना,”  बुजुर्ग ने घुटने पकड़ते हुए कहा।

” हुँ! ” बेटे ने बेरुखी से जवाब दिया, ” दिन भर बिस्तर पर पड़े रहते हो। घुटने दर्द नहीं करेंगे तो क्या करेंगे?  यूं नहीं कि थोड़ा घूम लिया करें। हाथ पैर सही हो जाए।”

बुजुर्ग चुप हो गए मगर पास बैठे हुए दीनदयाल ने कहा, ” सुनो बेटा। यह आपके पिताजी हैं। बचपन में… । “

“हां हां, जानता हूं अंकल,”  कहते हुए बेटे ने अपने पुत्र का हाथ पकड़ा और बोला,” चल बेटा!  तुझे बाजार घुमा लाता हूं।”

यह देखसुन कर दीनदयाल से रहा नहीं गया और अपने बुजुर्ग दोस्त से बोला, ” क्या यार! क्या जमाना आ गया? ऐसे नालायक बेटों से उनका पुत्र क्या सीखेगा?”

” वही जो मैंने अपने बाप के साथ किया था और आज मेरा बेटा मेरे साथ कर रहा है। कल उसका बेटा वही करेगा,”  कह कर बिस्तर पर लेटे हुए बुजुर्ग दोस्त अपने हाथों से अपनी आंखों को पौंछ कर अपने घुटने की मालिश करने लगा।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

31-05-2021

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – opkshatriya@gmail.com मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 22 ☆ लघुकथा – पाखंड के आयाम… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  – “पाखंड के आयाम“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 22 ☆

✍ लघुकथा – पाखंड के आयाम… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

मैं समुद्र के पास रहता था इसलिए रोज समुद्र के किनारे घूमने जाता। सुबह छ: बजे से सात बजे तक। काफी लोग सैर करते हुए दिखाई देते। कुछ परिचित और की अपरिचितों से परिचय हो जाया करता। गप शप और सैर एक साथ। इधर उधर की जानकारी भी मिल जाती। सुबह किनारे सुबह की हवा बहुत आनंद देती है, प्राणवायु जो ठहरी।

रेती के किनारे बड़े बड़े काले पत्थर हैं वहां और उन पर बैठ कर सुस्ताने वाले भी दिखते। कुछ जोड़े में भी रहते। हंसते खिलखिलाते। बड़ा अच्छा लगता।

एक दिन एक काले पत्थर पर नजर टिक गई। लगा कि मेरे अच्छे परिचित हैं परंतु वे ऊपर से नीचे एकदम काले कपड़े धारण किए हुए थे और चेहरा नीचे किए हुए। मुझे संकोच हो रहा था कि नजदीक जाऊं या नहीं क्योंकि ऐसी वेषभूषा में कभी देखा नहीं था। कद काठी से वही परिचित से लग रहे थे। फिर भी संकोच वश मैं उनके नजदीक नहीं गया।

लेकिन सैर करते करते कब उनके नजदीक पहुंच गया इसका आभास ही नहीं हुआ। अपने पास किसी की उपस्थिति महसूस करके उन्होंने अपना चेहरा ऊपर उठाया और मैंने देखा वही थे पर उन्हें देखते ही आश्चर्यमिश्रित “आप” मेरे मुंह से निकला। मैंने उन्हें काले कपड़ों में देखने की कभी कल्पना भी नहीं की थी। हमेशा सामान्य वस्त्रों में ही देखा था। काले कपड़े और वे भी नीचे काली लुंगी और काला लंबा कुर्ता। मेरी आवाज़ सुनकर उनके चेहरे पर एक फीकी सी मुस्कान आई। कुछ बोले नहीं। मैं भी आगे कुछ नहीं बोला क्योंकि मुझे लगा कि किसी उद्देश्य से अघोर साधना तो नहीं कर रहे। उनके नेत्रों में लालामी और सपाटपन कुछ ऐसा ही संकेत दे रहे थे।

शहर के विद्वानों में उनकी गिनती होती थी। मुझे लगा कि अच्छी प्रतिभाएं भी पाखंड की शिकार हो जाते हैं, ?

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 73 – तजुर्बा… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – तजुर्बा।)

☆ लघुकथा # 73 – तजुर्बा श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

कमल जी सुबह-सुबह मन्दिर से वापस आईं। देखा उनकी पोती रागिनी कालेज जाने के लिए तैयार खड़ी है। किसी से फोन पर बात कर रही है। दादी को देखकर वह बहुत गुस्सा हो गई  – आप मेरी बातें क्यों सुन रही हो क्या यह अच्छी बात है? मां इन्हें गांव क्यों नहीं भेज देती हो? एक तो इन्हें मेरे कमरे में रख दिया है, दिन भर पूजा पाठ करके मुझे डिस्टर्ब करती रहती हैं।  हमेशा मेरे कपड़े के पहने होने पर रोक लगाती रहती हैं।

– अच्छा यह तो बता तू मोबाइल में सारा दिन करती क्या रहती है?

– बस बेटी मैं सीखना चाहती हूं क्योंकि इसमें खाना बनाने की भी अच्छे-अच्छे विधियां बताते हैं। मैं सोचती हूं तुझे बनाकर खिलाऊँ और दोपहर में टाइम पास भी अच्छा हो जाता है। ठीक है तुझे गुस्सा लगता है तो अब नहीं पूछूंगी चुप रहूंगी।

– लेकिन एक बात सुन ले मैं भी कॉलेज की पढ़ाई की है और मैंने भी जमाना देखा है। तेरी मां ने तो आंख में पट्टी बांध ली है बेचारा मेरा बेटा तो दिन भर काम करता है।

– क्या मैं ऑंख में पट्टी बांध लूं? मन ही मन बुदबुदाई।

– हे राम जमाने को क्या हो गया है।  क्यों बहू रागिनी क्या तुम पेपर नहीं पढ़ती न्यूज़ नहीं सुनती आजकल जमाना कितना खराब है। खैर जमाना तो हमारे जमाने से भी ऐसा था।

– माँ आजकल यही फैशन है सब बच्चे इसी तरह पहनते हैं, देखकर उसका भी मन करता है यदि सलवार कमीज पहने की तो सब उसे गवार समझेंगे। जाने दो मैं आपके लिए नाश्ता बनाती हूं क्या बना दूं?

– तू चाय नाश्ता और घर गृहस्थी छोड़ थोड़ी बाहर की भी दुनिया देख। स्कूल कॉलेज में पढ़ना कोई बुराई नहीं है शिक्षा तो हर किसी को मिलनी चाहिए क्या हम तो पढ़े नहीं थे लेकिन क्या आजादी इतना देना उचित है वह तो बच्ची है उसे कुछ समझ नहीं है लेकिन तू तो समझ है?

– खाना तो मैं बना दूंगी। जा तू थोड़ा देख बिटिया रानी क्या करती है? पीछे देख चुपके से वह स्कूल कॉलेज में क्या कर रहे हैं, कहीं बुरी संगत में तो नहीं फंस गई है। तेरा यह फर्ज है। देख मेरी बातें तुझे बुरी जरूर लग रही है, पर तू मेरा कहा मान जा। आज तू अपनी जिंदगी जी ले खूब घूम ले फिर न मेरी तरफ से बाबूजी की पेंशन तो मुझे मिलती है। 1000 रुपया लो और कुछ अपने लिए खरीद लेना।

अब सासू मां ने कहा था तो रागिनी ने सोचा चलो इसी बहाने घूम फिर लूंगी और वह जब अपनी बेटी के कॉलेज पहुंची तो उसने दूर से देखा कि उसकी बेटी कुछ लड़कों के साथ सिगरेट पी रही है, और लड़कों की नजर और नीयत ठीक नहीं लग रही थी वह कुछ देर रुक कर यही देखने लग गई फिर कुछ और लौट के आगे देखा कि वह लोग क्लास में नहीं गए तभी उसने देखा कि वह लोग रागिनी के साथ कुछ अजीब सी हरकतें करने लग गए और वह चिल्लाने लग गई तो कुछ लड़कों ने मिलकर उसे पकड़ लिया।

तभी उसकी मां दौड़ी दौड़ी उसके पास आ गई। और वह जोर-जोर से चिल्लाने लगी इसी समय पूरे कॉलेज का स्टाफ इकट्ठा हो गया और उन लड़कों की बहुत पिटाई हुई वह माफी मांगने लग गए कि आंटी हमें पुलिस में मत दीजिए हमसे गलती हो गई और ऐसा नहीं करेंगे उसने भी समझदारी से कम लेकर उन्हें छोड़ दिया और अपनी बेटी को लेकर घर आ गई।

तभी कमल जी ने दरवाजा खोला और बोला क्या हुआ बहू तूने क्या खरीदा ?

– अपने लिए कुछ नहीं मांजी आपको मैं गलत सोचती थी पर बात सही है घर में बड़े बुजुर्गों का होना चाहिए उनकी सलाह और तजुर्बा से घर गृहस्थी चलना चाहिए। जब आपको रवि घर में लेकर आए थे तब मैं बोझ मानती थी और मुझे यह लगता था कि आप क्यों आ गई लेकिन अब आप कभी मत जाइएगा आप यही रहिएगा।

आज मुझे बहुत अच्छा लग रहा है कि माँ के रूप में मुझे एक सहेली मिल गई। बड़ों बुजुर्गों का का घर में होना कितना जरूरी होता है, आज मुझे अनुभव हुआ।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 353 ☆ लघुकथा – “प्रतीक्षा की प्रतीक्षा” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 353 ☆

?  लघुकथा – प्रतीक्षा की प्रतीक्षा ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

आंखों पर साया करते झुर्रियों भरे हाथ किसी छाया की चाह नहीं थे, बल्कि किसी अपने की राह तकते समय की आदत बन चुके थे। यह चेहरा, समय के उस पृष्ठ की तरह था, जिसका उत्तर खोजना खुद एक अनुत्तरित प्रश्न बन गया था।

अम्मा  एक वृद्धा नहीं,  वो मां हैं, जिसने जीवन दिया, परंतु बदले में जीवन भर प्रतीक्षा ही पाई।

बेटी प्रतीक्षा को विदेश भेजा था ‘कुछ बन जाने’ के लिए। पर अब वर्षों से उनका क्रम बन गया है  नज़रें टिकाए प्रतीक्षा की प्रतीक्षा का। कोई पत्र नहीं, कोई संदेश नहीं, बस एक उम्मीद, बाकी रह गई है। जो  हर सुबह उन की आंखों में उगती है और हर संध्या  जिंदगी सी बुझने  लगती है। बेटी नहीं लौटी तो नहीं ही लौटी।

प्रतीक्षा की प्रतीक्षा एक पूरी पीढ़ी की उम्मीदें हैं, जो गाँवों से निकलकर शहरों की चकाचौंध में गुम हो रही है। अम्मा के हाथ की रेखाएँ, चेहरे की झुर्रियां केवल उम्र की नहीं, बुजुर्ग होती पीढ़ी के उस त्याग की कथा कहती हैं जो रोटियाँ बेलने, खेतों में काम करने और अकेलेपन से जूझते हुए गुजरे वर्षों की गाथा कहना तो चाहती है पर उसे सुनने वाला कोई पास नहीं।

उम्मीद है और प्रतीक्षा बस।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल apniabhivyakti@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 230 – अमराई ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा अमराई ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 230 ☆

🌻लघु कथा🌻 🌳 अमराई 🥭

सूरज की चढ़ती धूप, नौ तपा लगा, दिनों का लेखा-जोखा करते, आज ललन सिंह भरी दोपहरी अपने अमराई पर बैठे थे।

चारों तरफ आम के बगीचे। सोंधी खट्टी मीठी खुशबू से मन भर रहा था। पेड़ की छाँव में चुपचाप वह दिन याद कर रहे थे। जब कांता उससे मिलने आया करती थी। यही तो वह अमराई है, बाप दादा की मेहनत का रंग।

मन ग्लानि से भरा हुआ था कि वह कुछ नहीं कर पाए, न ही वृक्षारोपण किया और न ही देखभाल किए। सारी जिंदगी केवल बच्चों को पढ़ने लिखने में लगा दिए।

आँखों से बेबसी के आँसू गिरने लगे। आज समय है कि मेरे पास कोई नहीं है, न कोई पूछने वाला है कि आपका अमराई में क्या और कितने पेड़ों पर आम लगे हैं।

टप- टप  टपाक दो चार आम अध पीले गिरे। ललन ने बड़े प्यार से उसे गले में लटके गमछे में संभाल कर रख लिया।

घर में पोता- पोती आए हैं यह आम पाकर खुश हो जाएं।

जल्दी-जल्दी डग भरते घर पहुंचे आवाज़ लगाई – – – बेटे ने देखा पिताजी अपने गमछे से बंधा हुआ आम निकाल कर टेबिल में रख रहे हैं।

बच्चों ने खुशी से दौड़ लगाई। कड़कती आवाज आई – – – खबरदार जो यह आम खाए।

जमीन पर गिरा है न जाने कितनी बीमारियों का घर होगा। आप ही खाए पिता जी – – मैं तो ऑर्डर देकर बच्चों के लिए आम बुला लिए हैं। आता ही होगा।

ललन सिंह चश्मे से देखते रहे। वाह री!!! दुनिया कैसा बाजार!!!

आम धोकर स्वयं खाते संतुष्ट नजर आए। चेहरे पर मुस्कान और एक हल्की सी कटाक्ष – – अच्छा हुआ मैंने पहले ही अमराई को किसी अच्छे इंसान को दे दिया।

आज उन्हें अफसोस नहीं हो रहा था कि– वह अमराई की देखभाल नहीं कर पाए, और न ही और वृक्षारोपण कर पाए।

क्योंकि अब बेटा और पोता पोती विदेशी जो हो गये हैं। अमराई तो अब गुगल पर सर्च करेंगे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 21 ☆ लघुकथा – समझौता… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – “समझौता“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 21 ☆

✍ लघुकथा – समझौता… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

रास्ते चलने के लिए होते हैं यह सब जानते हैं और लोग चलते भी हैं। कोई काम से निकलता है तो कोई घूमने। यह रास्ता भी ऐसा ही है। इस पर खूब चौपहिए दुपहिए और पैदल चलते हैं। मदन लाल को इस रास्ते पर घूमना अच्छा लगता है। सुबह और शाम निकलते हैं, लोगों से राम राम करते, हालचाल पूछते जाते हैं। यह रास्ता अच्छी खासी सड़क है। एक ओर पानी निकलने के लिए बड़ी नाली बनी है। दोनों ओर बड़ी बड़ी बिल्डिंग और उनमें दुकानें हैं। मदन लाल जब भी रास्ते पर निकलते हैं और कुछ ऐसा वैसा देखते हैं तो उसे सुधारने के लिए लोगों से कहते रहते हैं।

 आज मदन लाल अपनी सोसायटी से निकले तो रास्ते पर पानी भरा हुआ पाते हैं। पता नहीं पानी के नीचे कितना गहरा गड्ढा है, इसलिए दुपहिए पानी के किनारे दुकानों के आगे के फुटपाथ से निकल रहे हैं। चौपहिए पानी में से निकलते हैं तो उनके पहियों के डूबने से पता चलता है कि पानी कितना गहरा है। मदन लाल सोचते हैं कि रोज अखबार में आ रहा है कि नगरपालिका ने प्री मानसून कार्य में सब रास्तों की समस्या दूर करदी है ताकि नागरिकों को परेशानी न हो। पर यहां पहली बारिश में ही परेशानी हो गई। भरे हुए पानी में दुर्गंध होने के कारण मदनलाल कौतूहलवश देखते हैं कि पानी कहां से आकर भर रहा है। वे देखते हैं कि सड़क के दोनों ओर की बिल्डिंगों की ड्रेनेज का पानी आ रहा है और सड़क पर भर इसलिए रहा है कि उसके निकलने का कोई मार्ग नहीं है। दो तीन दिन बाद सड़क पर ड्रेनेज डालने का काम शुरू होता है और जो पानी भर रहा था वह ड्रेनेज लाइन से निकलने लगा। मदन लाल संतोष की सांस लेते हैं।

 अगले दिन निकलते हैं तो फिर पानी भरा हुआ पाते हैं। वे सोचते हैं कि अब यह कहां से आ गया तो देखते हैं कि इस बड़ी सड़क पर खुलने वाले रास्तों से बारिश का पानी आ रहा है और उसी गड्ढे में भर रहा है। अब वहां से पानी का निकास नहीं है। लोग परेशान हो रहे हैं, झुंझला रहे हैं। मदनलाल स्थानीय नेताओं के पास समस्या बताते हैं। दूसरे दिन से सड़क के दूसरी ओर बारिश के पानी को निकालने के लिए पाइपलाइन डालना है इसलिए सड़क खोद दी जाती है। ड्रेनेज लाइन के लिए खोदी गई सड़क ज्यों की त्यों है और ऊपर से यह खुदाई। मदनलाल भी झु्झलाते हैं और अपने घर लौट आते हैं। सोचते हैं कि सभी लोग परेशान हो रहे हैं और सब सह रहे हैं तो मैं भी सह लूंगा। रास्ता थोड़े ही भाग जाएगा। मैं बिल्डिंग के चारों ओर घूम लूंगा। इस तरह वे मन ही मन खुद से समझौता कर लेते हैं।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 72 – अनकही बात… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अनकही बात।)

☆ लघुकथा # 72 – अनकही बात श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

अजय बहुत दिनों बाद गांव में आया था। वह अपने घर की ओर जल्दी-जल्दी जा रह था और पुरानी यादों में खोया था। दरवाजा खोल कर अंदर गया तो उसे कोई दिखाई नहीं दिया समझ गया की माँ रसोई में होगी?

माँ को लगा पिताजी आए हैं। माँ ने कहा कि जल्दी से हाथ-मुंह धोकर ब्रश कर लो मैं चाय बनाती हूं?

जब चाय लेकर आई तब उसने अजय को दिखा। उसकी खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा।  लेकिन उसके चेहरे पर उदासी बढ़ा गई।

मां ने मुस्कुराते हुए कहा – आज इतने दिनों बाद हमारी याद कैसे आई?

बेटे ने मां के पैर छुए और बोला – नेता जी गांव में आने वाले हैं इसलिए हम पहले से आ गए हैं मैं रिपोर्टर हूं। पिताजी की तरह अब तुम भी मुझसे नफरत करती हो क्या? जरूरी तो नहीं कि मैं उनकी तरह ही दुकानदार बनकर रहूँ।

माँ ने कहा – ठीक है तो ब्रश करके नहा ले मैं नाश्ता बनाती हूं।

बेटे ने बड़े कड़क स्वर में कहा- नहीं जरूरत नहीं है मैं तुम्हें देखने आ गया। अब मैं गेस्ट हाउस में रुकूँगा।

माँ जोर से हॅंसते हुए कहती है – हां पता है तू बहुत बड़ा आदमी बन गया। अब हम छोटे लोगों के यहां क्यों रहेगा?

और इतनी सिगरेट पर मत पिया कर।

बेटे ने माँ के गले लगा कर कहा – चलो कल तुम्हारी भी नेताजी के साथ फोटो खींच देता हूँ। मेरा रुतबा देखो।

माँ की आंखों में आंसू आ गए और उसने गंभीरता से कहा – मैं तो चाहती हूँ तू खूब तरक्की कर पर तेरा रुतबा मैं देख कर क्या करूंगी?

तू मुझे दिखाना छोड़कर अपनी खुशी के लिए काम कब करेगा?

तभी अचानक पिताजी घर में आ जाते हैं दोनों एक दूसरे को देखते हैं।

बेटे ने  तुरंत ही अपना सामान उठाया और धीरे से बड़बड़ाया। मैं बेकार में ही इस घर को याद करके आया। यहाँ तो हमेशा इज्जत छोटे की ही होगी। 

पिताजी ने माँ से कहा – जाने दो तुम्हारे बेटे को पैसे का घमंड है, थोड़ी उम्र बीतने दो फिर हमें समझेगा।

माँ दरवाजे की ओर जाकर आंखों में आंसू लेकर बोली तुम दोनों के बीच में मैं फँस  के रह गई हूँ।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ गद्य क्षणिका#65 – जाग्रतावस्था… – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय गद्य क्षणिका “– जाग्रतावस्था…” ।

~ मॉरिशस से ~

☆ कथा कहानी  ☆ गद्य क्षणिका # 65 — जाग्रतावस्था — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

मैंने सपने में देखा कहीं बहुत ठंड पड़ रही है और हालत यह कि वहाँ का एकमात्र सौ वर्षीय गरीब आदमी बिना कंबल के सोया हुआ है। ठंड असहनीय होने से वह कराह रहा है। यह लिखने पर तो पीड़ा की एक अद्भुत रचना बन जाती। पर अभी आधी रात बीती थी और वह गरीब शेष आधी रात इसी तरह ठिठुरे सोया होता। मैं अभी सपने में ही सही, उस पर कंबल डाल देता। सुबह जाग्रतावस्था में लेखन हो जाता।

 © श्री रामदेव धुरंधर

31 –- 05 – 2025

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : rdhoorundhur@gmail.com

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रेयस साहित्य # १० – लघुकथा – रोशनी ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆

श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रेयस साहित्य # १० ☆

☆ लघुकथा ☆ ~ रोशनी ~ ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆ 

चाँदनी रात भरपूर मुस्कुराहट भी बिखेर नहीं पाई थी कि घनघोर काले बादलों की काली साया ने उसे ढक लिया।

खिलखिलाती हुई रोशनी के होठों की खुशियां अचानक स्तब्ध हो गयीं। पतली पतली बांस की फंठीयों पर चढ़ी हुई प्लास्टिक की पन्नीयाँ फड़फडाती हुई मानो कह रही थी, रोशनी, …अब मैं इससे ज्यादा तुम्हारी हिफाजत नहीं कर सकती। अपनी पूरी बात करने के पहले ही रोशनी के सिर ऊपर पड़ी काली चादर कहां चली गई पता नहीं चला।

फटे दुप्पटे में स्वयं को छुपाए, रोशनी यह नहीं समझ पा रही थी, कि आखिर वह जाए तो जाए कहाँ।

पानी की तेज बौछारें रोशनी को बेइंतहा दर्द दे रही थी।

अचानक आकाश में बिजली तड़की और तड़कती बिजली की रोशनी में एक काली छतरी ओढ़े सुंदर सी काया उसके पास आयी।

अरे, यहां क्या कर रही है रोशनी? चल, घर चल।

अरे भाभी आप.. आप यहाँ कैसे चली आयीं? ऐसी हालत में तो आपको आना ही नहीं चाहिए था.. भाभी।

भाभी… आप भीगती हुई क्यों चली आयीं। आपकी तबीयत खराब हो जाएगी। आपको तो इस वक्त अपनी सेहत का बहुत ही ध्यान रखना चाहिए,

ऐसा कहते हुए रोशनी डल्लू भाभी से चिपट कर रो पड़ी।

तेज हवा और हल्की हल्की बूंदा बांदी के बीच रोशनी को अपनी छतरी में ले डल्लू धीरे धीरे अपने कदम बढ़ा रही थी। डॉक्टर ने उसे इस अवस्था में ऐसे ही चलने की सलाह दी थी।

ऊपरी मंजिल से रोशनी के आशियाने को हर रोज निहारने वाली वाली डल्लू, बड़ी मुश्किल से छत की सीढ़ियों से नीचे उतर पायी थी।

डल्लू भाभी के घर की लाबी में बिछे बिस्तर पर दुबकी रोशनी खुद को लिहाफ से लपेटकर गर्म करने की कोशिश कर रही थी।

डल्लू ने चाय का गर्म गर्म प्याला रोशनी हाथों में पकड़ाया तो वह बोल पड़ी….

अरे भाभी!!..आप मेरे लिए इतना मेहनत कर रही हो?

नहीं भाभी नहीं.. रोशनी के आँखों से आंसू की धारा निकल पड़ी।

अरे मेहनत, ..!! यह क्या बोल रही हो रोशनी, ..मुझे तो तुम एक सींक भी सरकाने नहीं देती मेरी बिटिया रानी। वैसे भी बर्तन पोछा करने के बाद, तेरा काम समाप्त हो जाता है लेकिन रोशनी, … इसके बाद मेरे लिए कोई काम बाकी ही कहाँ छोड़ती हो।

रोशनी!.. तुम अंधेरी रात में जलता हुआ एक खूबसूरत दीया हो, जिसकी रोशनी बहुत दूर तक जाने वाली है।

ऐसा कहते हुए डल्लू ने दोबारा रोशनी को गले लगा लिया। इस बार डल्लू और रोशनी दोनों रो रहे थे।

♥♥♥♥

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

लखनऊ, उप्र, (भारत )

दिनांक 22-02-2025

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 229 – पानी की कीमत ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “पानी की कीमत”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 229 ☆

🌻लघु कथा🌻 पानी की कीमत🌻

गाँव की परंपरा रीति रिवाज हृदय को प्रसन्नता से भर देती है। जब कोई मेहमान घर आ जाए, तो दरवाजे पर ही लोटे का जल, भरी बाल्टी रखा जाता। पैर धोकर जब वह अंदर आए, तो घर के छोटे पैर छूकर प्रणाम करें। आशीषों की झड़ी लग जाती। इसी भाव पर जीये जा रहे थे रेशम लाल।

बेटे के घर शहर जा रहे थे पहली बार। सिर पर पगड़ी, काँधे पर गमछा और प्रेस किया हुआ धोती कुर्ता। साथ में साड़ी के पल्लू से बंधी हुई टोकरी, जिसमें धर्मपत्नी ने घर के शुद्ध घी की मिठाई बाँध रखी थी।

खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। पतंग की तरह लहरा रहे थे कि कब बेटे बहू के घर पहुंच जाए। जैसे ही घर पहुंचे। डोर बेल बजी, दरवाजा खुलते  पिताजी ने देखा बेटा सामने ही बैठा है। अंदर जाने के पहले पैर धोना चाह रहे थे।

बेटे को आवाज देकर बोले– बेटा पानी चाहिए। बेटे ने तुरंत एक पानी से भरी बोतल, जो टेबल पर राखी थी पकड़ा दिया। पिताजी ने सोचा शायद इसी से पैर धोना है।

उन्होंने बोतल के पानी से पैर धो लिए। जैसे ही अंदर हुए गमछे से पैर को फटकारते पर यह क्या???  बेटे ने तो झड़ी लगा दी – – आपने इतनी महंगी बिसलरी बाँटल का पानी पैर धोकर बहा दिया। कुछ तो ख्याल किया होता।

बहू की भौहें भी चढ़ी हुई थीं। पैर छूना तो दूर वह तो कह उठी – – – ऑफिस का समय हो रहा है। अब तुम ही इन्हें संभालो, मैं तो चली।

रेशम लाल मानो, कटी पतंग जैसे गिरने लगे। मान सम्मान तो दूर आते ही पानी की कीमत बता रहे बेटा बहू। नीचे फर्श पर बैठते सोचने लगे – – –

किसी ने सच ही कहा है – – –

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सुन।

पानी गये न उबरे, मोती मानुष चुन।।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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