डॉ सत्येंद्र सिंह
(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – “पाखंड के आयाम… “।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 22 ☆
लघुकथा – पाखंड के आयाम… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆
मैं समुद्र के पास रहता था इसलिए रोज समुद्र के किनारे घूमने जाता। सुबह छ: बजे से सात बजे तक। काफी लोग सैर करते हुए दिखाई देते। कुछ परिचित और की अपरिचितों से परिचय हो जाया करता। गप शप और सैर एक साथ। इधर उधर की जानकारी भी मिल जाती। सुबह किनारे सुबह की हवा बहुत आनंद देती है, प्राणवायु जो ठहरी।
रेती के किनारे बड़े बड़े काले पत्थर हैं वहां और उन पर बैठ कर सुस्ताने वाले भी दिखते। कुछ जोड़े में भी रहते। हंसते खिलखिलाते। बड़ा अच्छा लगता।
एक दिन एक काले पत्थर पर नजर टिक गई। लगा कि मेरे अच्छे परिचित हैं परंतु वे ऊपर से नीचे एकदम काले कपड़े धारण किए हुए थे और चेहरा नीचे किए हुए। मुझे संकोच हो रहा था कि नजदीक जाऊं या नहीं क्योंकि ऐसी वेषभूषा में कभी देखा नहीं था। कद काठी से वही परिचित से लग रहे थे। फिर भी संकोच वश मैं उनके नजदीक नहीं गया।
लेकिन सैर करते करते कब उनके नजदीक पहुंच गया इसका आभास ही नहीं हुआ। अपने पास किसी की उपस्थिति महसूस करके उन्होंने अपना चेहरा ऊपर उठाया और मैंने देखा वही थे पर उन्हें देखते ही आश्चर्यमिश्रित “आप” मेरे मुंह से निकला। मैंने उन्हें काले कपड़ों में देखने की कभी कल्पना भी नहीं की थी। हमेशा सामान्य वस्त्रों में ही देखा था। काले कपड़े और वे भी नीचे काली लुंगी और काला लंबा कुर्ता। मेरी आवाज़ सुनकर उनके चेहरे पर एक फीकी सी मुस्कान आई। कुछ बोले नहीं। मैं भी आगे कुछ नहीं बोला क्योंकि मुझे लगा कि किसी उद्देश्य से अघोर साधना तो नहीं कर रहे। उनके नेत्रों में लालामी और सपाटपन कुछ ऐसा ही संकेत दे रहे थे।
शहर के विद्वानों में उनकी गिनती होती थी। मुझे लगा कि अच्छी प्रतिभाएं भी पाखंड की शिकार हो जाते हैं, ?
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© डॉ सत्येंद्र सिंह
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