श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अनकही बात।)
☆ लघुकथा # 72 – अनकही बात ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆
अजय बहुत दिनों बाद गांव में आया था। वह अपने घर की ओर जल्दी-जल्दी जा रह था और पुरानी यादों में खोया था। दरवाजा खोल कर अंदर गया तो उसे कोई दिखाई नहीं दिया समझ गया की माँ रसोई में होगी?
माँ को लगा पिताजी आए हैं। माँ ने कहा कि जल्दी से हाथ-मुंह धोकर ब्रश कर लो मैं चाय बनाती हूं?
जब चाय लेकर आई तब उसने अजय को दिखा। उसकी खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। लेकिन उसके चेहरे पर उदासी बढ़ा गई।
मां ने मुस्कुराते हुए कहा – आज इतने दिनों बाद हमारी याद कैसे आई?
बेटे ने मां के पैर छुए और बोला – नेता जी गांव में आने वाले हैं इसलिए हम पहले से आ गए हैं मैं रिपोर्टर हूं। पिताजी की तरह अब तुम भी मुझसे नफरत करती हो क्या? जरूरी तो नहीं कि मैं उनकी तरह ही दुकानदार बनकर रहूँ।
माँ ने कहा – ठीक है तो ब्रश करके नहा ले मैं नाश्ता बनाती हूं।
बेटे ने बड़े कड़क स्वर में कहा- नहीं जरूरत नहीं है मैं तुम्हें देखने आ गया। अब मैं गेस्ट हाउस में रुकूँगा।
माँ जोर से हॅंसते हुए कहती है – हां पता है तू बहुत बड़ा आदमी बन गया। अब हम छोटे लोगों के यहां क्यों रहेगा?
और इतनी सिगरेट पर मत पिया कर।
बेटे ने माँ के गले लगा कर कहा – चलो कल तुम्हारी भी नेताजी के साथ फोटो खींच देता हूँ। मेरा रुतबा देखो।
माँ की आंखों में आंसू आ गए और उसने गंभीरता से कहा – मैं तो चाहती हूँ तू खूब तरक्की कर पर तेरा रुतबा मैं देख कर क्या करूंगी?
तू मुझे दिखाना छोड़कर अपनी खुशी के लिए काम कब करेगा?
तभी अचानक पिताजी घर में आ जाते हैं दोनों एक दूसरे को देखते हैं।
बेटे ने तुरंत ही अपना सामान उठाया और धीरे से बड़बड़ाया। मैं बेकार में ही इस घर को याद करके आया। यहाँ तो हमेशा इज्जत छोटे की ही होगी।
पिताजी ने माँ से कहा – जाने दो तुम्हारे बेटे को पैसे का घमंड है, थोड़ी उम्र बीतने दो फिर हमें समझेगा।
माँ दरवाजे की ओर जाकर आंखों में आंसू लेकर बोली तुम दोनों के बीच में मैं फँस के रह गई हूँ।
© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’
जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈