श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा अमराई ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 230 ☆

🌻लघु कथा🌻 🌳 अमराई 🥭

सूरज की चढ़ती धूप, नौ तपा लगा, दिनों का लेखा-जोखा करते, आज ललन सिंह भरी दोपहरी अपने अमराई पर बैठे थे।

चारों तरफ आम के बगीचे। सोंधी खट्टी मीठी खुशबू से मन भर रहा था। पेड़ की छाँव में चुपचाप वह दिन याद कर रहे थे। जब कांता उससे मिलने आया करती थी। यही तो वह अमराई है, बाप दादा की मेहनत का रंग।

मन ग्लानि से भरा हुआ था कि वह कुछ नहीं कर पाए, न ही वृक्षारोपण किया और न ही देखभाल किए। सारी जिंदगी केवल बच्चों को पढ़ने लिखने में लगा दिए।

आँखों से बेबसी के आँसू गिरने लगे। आज समय है कि मेरे पास कोई नहीं है, न कोई पूछने वाला है कि आपका अमराई में क्या और कितने पेड़ों पर आम लगे हैं।

टप- टप  टपाक दो चार आम अध पीले गिरे। ललन ने बड़े प्यार से उसे गले में लटके गमछे में संभाल कर रख लिया।

घर में पोता- पोती आए हैं यह आम पाकर खुश हो जाएं।

जल्दी-जल्दी डग भरते घर पहुंचे आवाज़ लगाई – – – बेटे ने देखा पिताजी अपने गमछे से बंधा हुआ आम निकाल कर टेबिल में रख रहे हैं।

बच्चों ने खुशी से दौड़ लगाई। कड़कती आवाज आई – – – खबरदार जो यह आम खाए।

जमीन पर गिरा है न जाने कितनी बीमारियों का घर होगा। आप ही खाए पिता जी – – मैं तो ऑर्डर देकर बच्चों के लिए आम बुला लिए हैं। आता ही होगा।

ललन सिंह चश्मे से देखते रहे। वाह री!!! दुनिया कैसा बाजार!!!

आम धोकर स्वयं खाते संतुष्ट नजर आए। चेहरे पर मुस्कान और एक हल्की सी कटाक्ष – – अच्छा हुआ मैंने पहले ही अमराई को किसी अच्छे इंसान को दे दिया।

आज उन्हें अफसोस नहीं हो रहा था कि– वह अमराई की देखभाल नहीं कर पाए, और न ही और वृक्षारोपण कर पाए।

क्योंकि अब बेटा और पोता पोती विदेशी जो हो गये हैं। अमराई तो अब गुगल पर सर्च करेंगे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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