हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #52 – नवगीत – कटी शाख है बरगद की… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीतकटी शाख है बरगद की

? रचना संसार # 52 – गीत – कटी शाख है बरगद की…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

पूछ रहा उर बना शिला,

कब आयेंगे राम।

फिर दें तार अहिल्या सा,

नित्य जपूँ मैं नाम।।

मुरझाती घर की बगिया,

शूल बिछे हैं राह।

रिश्ते तुलते पैसों से,

निकले उर से आह।।

मुँहजोर हुए सब अपने,

बिक जाते बेदाम।

 *

कटी शाख है बरगद की,

रोता शीशम आज।

छाया को पंछी तरसें,

सिर बबूल के ताज।।

चोटिल है फूल चमेली,

पथिक झेलते घाम।

 *

शोषण बच्चों का होता,

सूखे नद तालाब।

लाखों बंधन समाज के,

मुख पर लगा नकाब।।

रोती है घर की तुलसी,

जाना है प्रभु-धाम।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- meenabhatt18547@gmail.com, mbhatt.judge@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – खुली आँख से ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – खुली आँख से ? ?

अपनी ही दृष्टि से,

देखना होता है जगत,

अपने विश्लेषण से

टटोलना होता है जगत,

आचार-विचार, संस्कार

बनते विश्लेषण का आधार,

विचार सकारात्मक हों

तो भाव पवित्र होते हैं,

पवित्रता होती है निष्पाप,

निष्पाप रखता है विश्वास,

विश्वास फिर प्राय:

भोगता है विश्वासघात,

अनुभव, विश्लेषण को पीछे कर

सारा सच बोल देता है,

मनुष्य का अमानुषी व्यवहार,

अच्छे-अच्छों की आँखें खोल देता है…!

?

© संजय भारद्वाज  

दोपहर 12: 44 बजे, 6.6.2025

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

 

🕉️ हमारी अगली साधना श्री विष्णु साधना शनिवार दि. 7 जून 2025 (भागवत एकादशी) से रविवार 6 जुलाई 2025 (देवशयनी एकादशी) तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना का मंत्र होगा – ॐ नमो नारायणाय।💥

💥 इसके साथ ही 5 या 11 बार श्री विष्णु के निम्नलिखित मंत्र का भी जाप करें। साधना के साथ ध्यान और आत्म परिष्कार तो चलेंगे ही –

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ||

💥 संभव हो तो परिवार के अन्य सदस्यों को भी इससे जोड़ें💥  

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #279 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं – भावना के दोहे)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 279 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

लगा रखी हैं बंदिशें, कैसे भरूँ उड़ान।

मन तो काबू में रहा, हुई नहीं  हैरान।।

 *

आँसू निकले सोच में, सुमिर मुझे वह रात।

प्रेम किया था आपसे, प्यारी  मीठी बात।।

 *

बदल रही सब सोचना, पढ़ने में है ध्यान।

तोड़ी सारी बंदिशे, ऊँची उड़ी उड़ान।

 *

रखी नहीं हैं बंदिशे, डरे नहीं इंसान।

नर-नारी सब एक हैं, अपनी शुभ पहचान।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #261 ☆ संतोष के दोहे – इंसानियत ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – संतोष के दोहे – इंसानियत आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 261 ☆

संतोष के दोहे इंसानियत ☆ श्री संतोष नेमा ☆

आज लापता हो रहा, मानवता का धर्म

यहाँ धर्म के नाम पर, खूब करें दुष्कर्म

*

कौन धर्म सिखला रहा, दंगे और फसाद

निर्दोषों को मारकर, चाहें हों आबाद

*

लूट-खसोट अरु उपद्रव, जिन्हें लगे आसान

जिनकी है यह संस्कृति, वही करें नुकसान

*

ममता की ममता गई, और गया ईमान

है सत्ता की भूख बस, भूल गई इंसान

*

न्यायालय लेता नहीं, स्वयं आज संज्ञान

बे गुनाह मारे गए, जागो अब श्रीमान

*

राजनीति हर बात पर, नेता करते आज

सच को सच कहते नहीं, झूठ करे पर राज

*

हे मालिक सुन ले जरा, जन-जन की यह पीर

प्रभु ऐसा कुछ कीजिए, संकट है गंभीर

*

मरी यहाँ इंसानियत, है जाग्रत शैतान

बनें धर्म के नाम पर, हिंसक क्यों इंसान

*

भाई को चारा समझ, ग्रास बनायें आज

ऐसे मुश्किल दौर में, कैसे जुड़े समाज

*

समरसता सौहार्द बिन, बढ़ता जन आक्रोश

सुख-शांति संतोष तब, खड़े रहें खामोश

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ पापा! क्या बेटा कहके बुलाओगे? ☆ श्री अजय गौतम ☆

श्री अजय गौतम

(ई-अभिव्यक्ति में श्री अजय गौतम जी का हार्दिक स्वागत। आप वर्तमान में गार्डन रीच शिपबिल्डर्स एंड इंजीनियर्स लिमिटेड (GRSE), (रक्षा मंत्रालय, भारत सरकार का एक प्रतिष्ठित उपक्रम) में वरिष्ठ प्रबंधक (निगमित संचार) के रूप में कार्यरत हैं। आप इस संगठन में जनसंपर्क, मीडिया समन्वय और रणनीतिक संचार अभियानों का नेतृत्व कर रहे हैं। आपकी रचनात्मक सोच, जिज्ञासा और प्रभावशाली संवाद शैली ही आपकी सबसे बड़ी ताकत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता – पापा! क्या बेटा कहके बुलाओगे?)

☆ कविता ☆ पापा! क्या बेटा कहके बुलाओगे? श्री अजय गौतम

माँ, तुम सुनो,

पर सुनकर रूठ न जाना,  

और पापा तुम तो गौर से सुनो,  

वो दिन, दिल से भूल मत जाना,  

 

और भूलना कभी, तो मेरा नाम भूल जाना,  

नाम से ही तो मुझे बेटी बनाया था,  

दस पर्दों के पीछे मुझे ही रखकर तो,  

बेटे का वसीयतनामा करवाया था,  

कितना और कुछ भूल जाऊं मैं,  

कितना और मुरझा जाऊं मैं,  

आख़िर कैसे खुद को तुम्हारा  

एक और बेटा कहके बुलाऊं मैं!  

 

पर पापा, तुमने ही तो सबके सामने,  

मुझे घर की मर्यादा बुलाया था,  

और उससे थोड़ी देर पहले ही तो सबको,

बेटे का नाम, कुलदीपक बताया था।  

पापा, दुनिया देखनी थी मुझे भी,  

लेकिन घर के अंदर की नहीं,  

एक दहलीज लांघनी थी मुझे भी,  

लेकिन बिस्तर के तकिए की नहीं।  

आसमान की पहली परत उकेरनी थी मुझे,  

पर स्याही से भीगी चादर की नहीं,  

अपने आप में सिमटना था पापा,  

घूंघट की किसी ओट में नहीं।  

कितना और कुछ भूल जाऊं मैं,  

कितना और मुरझा जाऊं मैं,  

आख़िर कैसे खुद को तुम्हारा  

एक और बेटा कहके बुलाऊं मैं!  

 

चूल्हे से गैस में जब खाना बना,  

तो तुमने कहा, “ये तुम्हारे लिए है”,  

और पतंग–मांझे की डोर पकड़ाकर,  

भाई से कहा, “ये तेरे लिए है”।  

कितनी और डोर मेरी उड़ान की,  

ऐसी ही काट दी तुमने, पापा,  

मेरी खुशियों की सहेजी गुल्लक,  

कहीं और ले जाकर बांट दी, पापा।  

कितना और कुछ भूल जाऊं मैं,  

कितना और मुरझा जाऊं मैं,  

आख़िर कैसे खुद को तुम्हारा  

एक और बेटा कहके बुलाऊं मैं!  

 

कभी मुझे भी बाजार जाते हुए,  

पैसे देते हुए, एक बार कह देते,  

जो जी में आए, ले लेना,  

पैसों की फिक्र मत करना। 

दो थप्पड़ भाई को लगाकर कहते,  

मेरे न होने पर भी,  

कभी भूलकर भी,

अपनी बहन पर हाथ मत उठाना।”  

मुझे मारने से पहले, पापा,  

मुंह से निकली बात भी तो सोच लेते।  

कितना और कुछ भूल जाऊं मैं,  

कितना और मुरझा जाऊं मैं,  

आख़िर कैसे खुद को तुम्हारा  

एक और बेटा कहके बुलाऊं मैं!  

 

मेरे बस्ते की किताबों को,  

सहेजकर रखने में क्या हर्ज़ था, पापा?  

क्यूं फाड़ लेते थे रोज़ एक पन्ना,  

सिंगड़ी में आग जलाने को?  

भाई को हर तकलीफ से बचाने का,  

ये कैसा मर्ज़ था, पापा?  

और मेरे बस हाथ पीले करने का,  

ये कैसा फ़र्ज़ था, पापा?  

ये कहकर कि,

मेरा जन्म ही निराधार है,  

और मेरा अस्तित्व, 

एक गिरवी नाव की पतवार है।  

 

अपने मन में मेरे तिरस्कार की,  

कभी तो गांठे खोल देते।  

कंधों पे आंसुओं का बोझ रखने को,  

कभी तो अपनी बाहें खोल देते।  

पापा थोड़ा मुझसे सुन लेते,  

और थोड़ा मुझे भी सुना देते।  

 

उन्हीं दस लोगों के सामने,  

एक दिन का तो बेटा बना लेते।  

हाँ पापा! सच में क्या ये गलत होता,  

जो मारकर, कई बार मुझे,  

एक बार ना चाहकर भी बुला लेते ,

और फिर जल्दी गले से लगा लेते।

 

कितना और कुछ भूल जाऊं मैं,  

कितना और मुरझा जाऊं मैं,  

आख़िर कैसे खुद को तुम्हारा  

एक और बेटा कहके बुलाऊं मैं!  

एक और बेटा कहके बुलाऊं मैं!!

 

 

हम तो अंधेरों स्वागत भी

दीप जलाकर ही करते हैं

कहीं अंधेरे को

ठोकर ना लग जाए..!!

©  श्री अजय गौतम 

ई-मेल : ajaygautamatry@gmail.com 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – समय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – समय ? ?

समय के चित्र,

बनते-मिटते रहते हैं,

समय के चित्र

जीवन में अमिट रहते हैं,

यूँ यह समय चलता रहता है,

यूँ वह समय ठिठका रहता है…!

© संजय भारद्वाज  

7 जून 2025, प्रात: 6:46 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

 

🕉️ हमारी अगली साधना श्री विष्णु साधना शनिवार दि. 7 जून 2025 (भागवत एकादशी) से रविवार 6 जुलाई 2025 (देवशयनी एकादशी) तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना का मंत्र होगा – ॐ नमो नारायणाय।💥

💥 इसके साथ ही 5 या 11 बार श्री विष्णु के निम्नलिखित मंत्र का भी जाप करें। साधना के साथ ध्यान और आत्म परिष्कार तो चलेंगे ही –

शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम्
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ||

💥 संभव हो तो परिवार के अन्य सदस्यों को भी इससे जोड़ें💥  

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 254 ☆ बाल कविता – काश! परी यदि मैं बन जाती… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक लगभग तेरह दर्जन से अधिक मौलिक पुस्तकें ( बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य ) तथा लगभग चार दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन।लगभग चार दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित बारह दर्जन से अधिक राजकीय प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 254 ☆ 

बाल कविता – काश! परी यदि मैं बन जाती ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

सपनों की दुनिया में खोई

प्यारी गुड़िया रानी।

परी लोक की दादी अपनी

कहतीं कई कहानी।।

 *

काश! परी यदि मैं बन जाती

हर बच्चा मुस्काता।

नए- नए मैं वस्त्र पहनाती

शाला पढ़ने  जाता।।

 *

खूब खिलौने उन्हें दिलाती

खेल खेलती सँग में।

पर्वों पर उपहार बाँटती

रँग जाती मैं रँग में।।

 *

सैर भी करती बाग बगीचे

उड़ती नील गगन में।

हर पक्षी से बातें करती

रहती सदा मगन मैं।।

 *

परियों वाली छड़ी घुमा मैं

सबको खुश कर देती।

झिलमिल झिलमिल वस्त्र पहनकर

घूम मजे कर लेती।।

 *

नींद हो गई सुंदर पूरी

सपना टूट गया था।

सपने तो सपने हैं होते

चंदा रूठ गया था।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

Rakeshchakra00@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #282 – कविता – ☆ निशाने पर सभी हैं… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “निशाने पर सभी हैं…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #282 ☆

☆ निशाने पर सभी हैं… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

निशाने पर सभी हैं, आज थे वे और कल हम हैं

नहीं तुम भी बचोगे, लिख रखी उनने कहानी है।

*

तुम्हारी सरपरस्ती में, छिपे कुत्सित इरादे हैं

लगे षड्यंत्र शत्रु से, किए कुछ गुप्त वादे हैं

तुम्हारी हो रही जयकार, दुश्मन देश में क्योंकर,

अजब वक्तव्य, फोटो सिरकटा क्या लक्ष्य साधे हैं?

बताओ! मित्रता उनसे या अपनों से निभानी है

नहीं तुम भी बचोगे, लिख रखी उनने कहानी है।

*

कसीदे मत पढ़ो उनके, वे खूनी और कातिल हैं

जिहादी नराधम हिंसक, न इनके दयालु दिल है

निहत्थे भारतीयों का, बहाया खून है निर्मम,

दिखेगी असलियत अब, है विवेकी कौन जाहिल है।

उठो! संस्कार संस्कृति देश की गरिमा बचानी है

नहीं तुम भी बचोगे, लिख रखी उनने कहानी है।

*

जो हैं खूनी दरिन्दे निर्दयी, निर्मम असुर बैरी

साजिशों के खुलासे कर, बजाएँ युद्व रणभेरी

परस्पर व्यक्तिगत मतभेद भूलें, देश की सोचें

गवाँये प्राण, पोंछें आँसुओं को, हो नहीं देरी।

सियासत से उठो ऊपर, जड़ें उनकी मिटानी है

नहीं तुम भी बचोगे, लिख रखी उनने कहानी है।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 106 ☆ लंबे दिन ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “लंबे दिन”।)       

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 106 ☆ लंबे दिन ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

पेड़ को

घेरे खड़ी है छाँव

दिन लंबे हुए हैं ।

 

सूर्य पर

चढ़ती जवानी

का असर है

धरा की

चूनर लुटी

यह ख़बर है

धँसे हैं

सूखी नदी में पाँव

चट गूँगे हुए हैं ।

 

भोर लटकी

सकोरे में

एक चिड़िया

गर्म साँसें

छोड़ती है

साँझ बुढ़िया

बिक गए

सब चाँदनी के गाँव

शामिल पहरुए हैं ।

 

रात चटकी

चूड़ियों सी

धुला काजल

नहीं लौटा

गया जब से

दूत बादल

पिया के

जाने कहाँ हैं ठाँव

बेबस मन हुए हैं ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ ग़ज़ल # 109 ☆ जो क़द को देखकर अपना… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “जो क़द को देखकर अपना“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 109 ☆

✍ जो क़द को देखकर अपना… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

तख़य्युल में भी कब ये ज़ुलमे के हल्कों से गुज़रा है

अभी इंसान बच्चा है समझ फूलों में पलता है

*

वफा अपना असर जाहिर करेगी मुंतज़िर रहिए

यकीन को पांव फैलाने में थोड़ा वक्त लगता है

 *

नहीं एका तो घर को तोड़ देगा इक पड़ोसी तक

जो घर बंध कर रहेगा आप उससे गांव डरता है

 *

न इतरा इस कदर तू आज अपनी हैसियत पर दोस्त

अता नालों की कुर्बत है जो तू दुनिया में दरिया है

 *

मये- दौलत अगर सर चढ़के बोल तो संभल जाना

 इसी के साथ बर्बादी का इक तूफान चलता है

 *

किसी की छीन कर रोटी न अपने पेट को भरना

कि दाता देखता है और सब मीज़ान करता है

 *

जो क़द को देखकर अपना खरीदोगे सही चादर

बचोगे तुम सभी रुसवाईयों से इल्म कहता है

 *

किसी भी रहनुमा कि तुम अरुण बातों में मत आना

दिखाने और खाने के अलग यह दांत रखता है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

Please share your Post !

Shares