हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मधुरिम-बसन्त ☆ डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक ☆

डॉ जसप्रीत कौर फ़लक

☆ कविता ☆ मधुरिम-बसन्त ☆ डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक 

तुम आये हो  नव-बंसत बन कर

मेरे प्रेम – नगर में दुष्यंत बन कर

 

कुंठित हो चुकी थीं वेदनाएँ

बिखर   गई थीं सम्भावनाएँ

 

आज पथरीली बंजर ह्रदय की

धरा को चीर कर

फिर  फूटा एक प्रेम अंकुर…..

पतझड़ की डोली हो गई विदा

विदाई के गीत गाने  लगी वियोगी हवा

 

अतीत के गलियारों से उठने लगी

स्मृतियों की

मधुर-मधुर गन्ध

आशाओं के कुसुम

 मुस्काने  लगे  मंद-मंद

 

जीवन्त  हो गया भावनाओं का मधुमास

साँसों   में   भर  गया   मधुरिम  उल्लास

 

मेरे  भीतर   संवेदना   का   रंग   घोल   गया

अन्तर्मन  में   अलौकिक   कम्पन   छेड़ गया

 

नन्हीं कोंपलें  फूटी  सम्पूर्ण हुये टहनियों  के स्वप्न

एकटक  निहार  रही   हूँ  लताओं   का  आलिंगन

 

मन उन्माद से भरा देख रहा उषा  के  उद्भव की मधुरता

प्रेम  से  भीगी  ओस  की  बूंदों  की  स्निग्ध  शीतलता

 

फ़स्लों के फूलों से धरा का हो रहा श्रृंगार

सृष्टि  गा रही है  आत्मीयता  भरा  मल्हार

 

मन  चाहता है क्षितिज को बाहों  में  भर  लूँ

एक – एक   पल    तुम्हारे    नाम    कर   लूँ

 

नवल आभा से पुनः दमकने लगी हैं आशाएँ

अंगड़ाई    लेने    लगीं   कामुक  सी  अदाएँ

 

रंगों   से   सरोबारित   हुईं  मन  की   राहें

सुरभि  फूलों  से  भर  गयीं वृक्षों  की बाहें

 

मुझे आनंदित  कर रहा है मधुर हवाओं  का स्पर्श

अदृश्य     सा     तुम्हारी     वफ़ाओं    का  स्पर्श

 

 

तुम्हारे  आने से खिल उठी है

मेरी कल्पनाओं की चमेली

यह नव ऋतु भी लगने लगी

बचपन   की  सखी  सहेली

 

जीवन को  श्रृंगारित  करने  आये  हो– तुम

मेरे मौन को अनुवादित करने आये हो–तुम

 

हे नव बसन्त!

अब

कभी मत जाना

मेरे जीवन से ।

 डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक

संपर्क – मकान न.-11 सैक्टर 1-A गुरू ग्यान विहार, डुगरी, लुधियाना, पंजाब – 141003 फोन नं – 9646863733 ई मेल – [email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 331 ☆ कविता – “महानता मां की…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 331 ☆

?  कविता – महानता मां की…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

महिमा मंडन कर खूब

बनाकर महान

मां को

मां से छीन लिया गया है

उसका स्व

मां के त्याग में

महिला का खुद का व्यक्तित्व

कुछ इस तरह खो जाता है

कि खुद उसे

ढूंढे नहीं मिलता

जब बड़े हो जाते हैं बच्चे

मां खो देती हैं

अपनी नृत्य कला

अपना गायन

अपनी चित्रकारी

अपनी मौलिक अभिव्यक्ति,

बच्चे की मुस्कान में

मां को पुकारकर

मां

उसका “मी”

उसका स्वत्त्व

रसोई में

उड़ा दिया जाता है

एक्जास्ट से

गंध और धुंए में ।

 

बड़े होकर बच्चे हो जाते हैं

फुर्र

उनके घोंसलों में

मां के लिए

नहीं होती

इतनी जगह कि

मां उसकी महानता के साथ समा सके ।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 161 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे ”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 161 – मनोज के दोहे ☆

मौसम कहता है सदा, चलो हमारे साथ।

कष्ट कभी आते नहीं, खूब करो परमार्थ।।

 *

जीवन में बदलाव के, मिलते अवसर नेक।

अकर्मण्य मानव सदा, अवसर देता फेक।।

 *

कुनकुन पानी हो तभी, तब होंगे इसनान।

कृष्ण कन्हैया कह रहे, न कर, माँ परेशान।।

 *

सूरज कहता चाँद से, मैं करता विश्राम।

मानव को लोरी सुना, कर तू अब यह काम।।

कर्मठ मानव ही सदा, पथ पर चला अनूप।

थका नहीं वह मार्ग से, हरा सकी कब धूप ।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 215 – हर पल हो आराधना ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित अप्रतिम गीत हर पल हो आराधना”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 215 ☆

🌻 गीत 🌻 🌧️ हर पल हो आराधना 🌧️

हर पल हो आराधना, इस जीवन का सार।

सच्चाई की राह में, प्रभु संभाले भार।।

 *

कुछ करनी कुछ करम गति, कुछ पूर्वज के भाग।

रहिमन धागा प्रेम का, मन में श्रद्धा जाग।।

गागर में सागर भरे, पनघट बैठी नार।

हरपल हो आराधना, इस जीवन का सार।।

 *

बूँद – बूँद से भरे घड़ा, बोले मीठे बोल।

मोती की माला बने, काँच बिका बिन मोल।।

सत्य सनातन धर्म का, राम नाम शुभ द्वार।

हर पर हो आराधना, इस जीवन का सार।।

 *

माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर।

परहित सेवा धर्म का, सदा लगाना टेर।।

अंधे का बन आसरा, करना तुम उपकार।

हर पल हो आराधना, इस जीवन का सार।।

 *

चार दिनों की चाँदनी, माटी का तन ठाट।

काँधे लेकर चल दिये, लकड़ी का है खाट।।

घड़ी बसेरा साधु का, थोथा सब संसार।

हरपल हो आराधना, इस जीवन का सार।।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नर्मदा जयंती विशेष – नर्मदा – वंदना ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

नर्मदा – वंदना ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

(नर्मदा जयंती 4 फरवरी पर विशेष)

रेवा मैया नर्मदा, है तेरा यशगान।

तू है शुभ, मंगलमयी, रखना सबकी आन।।

 *

शैलसुता, तू शिवसुता, तू है दयानिधान।

सतत् प्रवाहित हो रही, तू तो है भगवान।।

 *

जीवनरेखा नर्मदा, करती है कल्याण।

रोग, शोक, संताप को, मारे तीखे बाण।।

 *

दर्शन भर से मोक्ष है, तेरा बहुत प्रताप।

तू कल्याणी, वेग को, कौन सकेगा माप।।

 *

नीर सदा बहता रहे, कंकर है शिवरूप।

तू पावन, उर्जामयी, देती सुख की धूप।।

 *

अमिय लगे हर बूँद माँ, तू है बहुत महान।

तभी युगों से हो रहा, माँ तेरा गुणगान।।

 *

प्यास बुझाती मातु तू, देती जीवनदान।

तू आई है इस धरा, बनकर के वरदान।।

 *

अमरकंट से तू निकल, गति सागर की ओर।

तेरी महिमा का नहीं, मिले ओर या छोर।।

 *

संस्कारों को पोसकर, करे धर्म का मान।

तेरे कारण ही मिला, जग को नया विहान।।

 *

अंधकार को मारकर, तू देती उजियार ।

पावन तूने कर दिया, रेवा माँ! संसार।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 224 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 224 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे…

पल रही थी

कोई कामना

कोई उत्तेजना ?

माधवी ।

अक्षत योनि एक धोखा है

मानसिक प्रपंच है

विज्ञान सम्मत नहीं ।

स्त्री के

शरीर की

संरचना

और

आयु के

प्राकृतिक

परिवर्तनों को विरुद्ध

कोई कैसे जा सकता है?

मानता हूँ

कि

नारी

होती है

नदी के मानिन्द,

दुष्प्रयासों के बावजूद

सदानीरा, निर्मल, पवित्र ।

किन्तु

कोई

सप्रयास

उसे

मलिन करे

बाँधे

तो

दोष किसका?

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 224 – “कितनी पीड़ायें नयनों से…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत कितनी पीड़ायें नयनों से...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 224 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “कितनी पीड़ायें नयनों से...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

एक सकोरा पानी दाना

रक्खा करती माँ

औरों की खातिर चिड़िया सी

उड़ती रहती माँ

 

छाती में दुनिया जहाँन की

लेकर पीडायें

आँचल भर उसको सारी

जैसे हों क्रीड़ायें

 

आगे खिड़की में आँखों के

चित्र कई टाँगे

कितनी पीड़ायें नयनों से

देखा करती माँ

 

बाहर हाँफ रही गौरैया

उस मुडेर तोती

जहाँ उभरती दिखी

सभी को आशा की धोती

 

गरमी गलेगले तक आकर

जैसे सूखगई

इंतजार में रही सूखती

पानी कहती माँ

 

लम्बे चौड़े टीमटाम है

बस अनुशासन के

जहाँ टैंकर खाली दिखते

नगर प्रशासन के

 

वहीं दिखाई देती सबकी

खुली सजल आँखें

इन्ही सभी में खुले कलश सी

छलका करती माँ

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

02-02-2025

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कस्तूरी मृग ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – कस्तूरी मृग ? ?

मैं परिधि पर जीना चाहता हूँ

पर केंद्र भी छोड़ नहीं पाता,

केंद्र और परिधि पर

एक साथ जीने की जिजीविषा,

अधर में बने रहने की

स्वयंसिद्ध तितिक्षा,

न वृत्त सिमटकर

बिंदु हो पाता है,

न सीमाओं का विस्तार कर

बिंदु परिधि बन पाता है,

लगता है

मनुष्य के विकास के

डार्विन के सिद्धांतों के साथ,

अनुभूति का

जब कोई इतिहास लिखेगा

तो यात्रा वृत्तांत में

वानरों के साथ

कस्तूरी मृग का नाम भी जुड़ेगा !

?

© संजय भारद्वाज  

24.09.2012

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मकर संक्रांति मंगलवार 14 जनवरी 2025 से शिव पुराण का पारायण महाशिवरात्रि तदनुसार बुधवार 26 फरवरी को सम्पन्न होगा 💥

 🕉️ इस वृहद ग्रंथ के लगभग 18 से 20 पृष्ठ दैनिक पढ़ने का क्रम रखें 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 207 ☆ # “अखबार…” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता अखबार…”।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 207 ☆

☆ # “अखबार…” # ☆

सुबह चाय की चुस्कियाँ  

और अखबार

हर शख्स है तलबगार

दिन अधूरा अधूरा सा है

बिन अखबार

पाठक होता है पूरा परिवार

 

टपरी वाला हो

या चाय की दुकान

मजदूर हो या किसान

झोपड़ी हो या ऊंचा मकान

स्टूडेंट हो या विद्वान

सब की जरूरत अखबार है

सब करते इसका इंतजार है

 

कुछ अच्छी खबरें

कुछ बुरी खबरें होती हैं

कुछ सच्ची खबरें

कुछ जरूरी खबरें होती हैं  

कुछ हैडलाइन

ध्यान  आकर्षित करती है

कुछ हैडलाइन

जिज्ञासा बढ़ाती है

तो कुछ हैडलाइन

त्रासदी पर

मन को रुलाती है

 

आजकल,

खबरें सेंसर होकर आ रही हैं

पत्रकारिता गुणगान गा रही है

सच्ची आलोचना विलुप्त हो गई

पत्रकारों को लगी यह कैसी बिमारी है

 

पत्रकार अगर डर जाएगा तो

अखबार का मूल उद्देश्य बिखर जाएगा

कालांतर में वह अखबार मर जाएगा

व्यवस्था की विसंगतियां

फिर बाहर कौन लायेगा ?

 

अखबार लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है

अखबार विस्फोटक खबरों से भरा एक बारूदी बम है

बड़ी-बड़ी सियासतों को

अखबारों ने बदल डाला है

जनता के दिलों में राज करते हैं

इन अखबारों में बहुत दम है

 

आजकल पेड न्यूज़ का चलन हो गया है

हर अखबार बस विज्ञापन हो गया है

मूल उद्देश्य से भटक गए हैं

संपन्नता और ऐशो आराम के लिए

पत्रकारिता का सिद्धांत दफन हो गया है

 

अखबार अगर लिख नहीं सच पाएगा

तो सामाजिक क्रांति का

आंदोलन कैसे रच पाएगा

सियासत को आईना ना दिखा सका

तो अपना लोकतंत्र कैसे बच पाएगा ?/

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – रिश्ता… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण कविता रिश्ता…।)

☆ कविता – रिश्ता… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

एक अजीब सा रिश्ता है,

मेरे तुम्हारे बीच में,

जिसका कोई नाम नहीं है,

कोई नाम हो ही नहीं सकता,                   

कोई नाम दिया ही नहीं गया,

नाम देना चाहे तो क्या नाम दें ?

आकर्षण, प्रेम, लगाव या क्या?

 

नाम कोई भी हो मगर एक,

अनाम रिश्ते की डोर बंधी है,

अटूट, अलौकिक, अकथनीय,

महसूस कराती हमारे बीच, 

दिल का स्पंदन, सांसों का बंधन, 

एक दूसरे की फिक्र,

एक दूसरे का जिक्र,

मिलने की चाहत,

ना बिछड़ने की हसरत,

एक अनजान सा रिश्ता,

अनोखा अनाम सा रिश्ता,

तुम ही बताओ क्या नाम दें?

बेनाम रिश्ते को क्या नाम दें?

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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