हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा- जो बोओगे वही काटोगे ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा- जो बोओगे वही काटोगे  ??

…मुझे कोई पसंद नहीं करता। हरेक, हर समय मेरी बुराई करता है।

.. क्यों भला?

…मुझे क्या पता! वैसे भी मैंने सवाल किया है, तुमसे जवाब चाहिए।

… अच्छा, अपना दिनभर का रूटीन बताओ।

… मेरी पत्नी गैर ज़िम्मेदार है। सुबह उठाने में अक्सर देर कर देती है। समय पर टिफिन नहीं बनाती। दौड़ते, भागते ऑफिस पहुँचता हूँ। सुपरवाइजर बेकार आदमी है। हर दिन लेट मार्क लगा देता है। ऑफिस में बॉस मुझे बिल्कुल पसंद नहीं करता। बहुत कड़क है। दिखने में भी अजीब है। कोई शऊर नहीं। बेहद बदमिज़ाज और खुर्राट है। बात-बात में काम से निकालने की धमकी देता है।

…सबको यही धमकी देता है?

…नहीं, उसने हम कुछ लोगों को टारगेट कर रखा है। ऑफिस में हेडक्लर्क है नरेंद्र। वह बॉस का चमचा है। बॉस ने उसको तो सिर पर बैठा रखा है।

… शाम को लौटकर घर आने पर क्या करते हो?

… बच्चों और बीवी को ऑफिस के बारे में बताता हूँ। सुपरवाइजर और बॉस को जी भरके कोसता हूँ। ऑफिस में भले ही होगा वह बॉस, घर का बॉस तो मैं ही हूँ न!

…अच्छा बताओ, इस चित्र में क्या दिख रहा है।

…किसान फसल काट रहा है।

…कौनसी फसल है?

…गेहूँ की।

…गेहूँ ही क्यों काट रहा है? धान या मक्का क्यों नहीं?

…कमाल है। इतना भी नहीं जानते आप! उसने गेहूँ बोया, सो गेहूँ काट रहा है। जो बोयेगा, वही तो काटेगा।

…यही तुम्हारे सवाल का जवाब भी है।

बोने से पहले विचार करो कि क्या काटना है। नागफनी बोकर, छुईमुई पाना संभव नहीं है।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी #21 – परम संतोषी भाग – 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – परम संतोषी   के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)     

☆ कथा – कहानी # 21 – परम संतोषी भाग – 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

देखते देखते वह दिन भी आ गया जिसका इंतजार पूरी ब्रांच करती है,फाइनल डे जब ब्रांच की इंस्पेक्शन रिपोर्ट शाखा प्रबंधक को परंपरागत रूप से सौंपी जाती है और शाखा संचालन की स्थिति प्रगट होती है.सबके परिश्रम,बेहतर टीम वर्क, कुशल नेतृत्व और मिले आश्रित शाखाओं के समयकालीन सहयोग से शाखा ने दक्षतापूर्ण संचालन की रेटिंग प्राप्त की.पूरी ब्रांच में संतुष्टि और खुशी का माहौल बन गया.मौकायेदस्तूर मुंह मीठा करने का था तो बाकायदा शहर की प्रसिद्ध स्वीट शॉप से सबसे बेहतर मिठाई का रसास्वादन किया गया.चूंकि उस दिन संयोग से मंगलवार था,पवनपुत्र हनुमानजी जी का दिन,तो उस दिन परंपरागत चढ़ाया गया प्रसाद भी साथ में वितरित किया गया.संकटमोचक से पूरे निरीक्षण काल में लगभग डेढ़ साल किये गये अथक परिश्रम का मनोवांछित फल प्राप्त किये जाने की प्रार्थना अंततः फलीभूत हुई. शाखा की स्टाफ की टीम के वे सदस्य, जिनकी पदोन्नति की पात्रता थी,इस सुफल से आशान्वित हुये और उनकी उम्मीदों ने परवान पाया.संतोषी जी खुश थे और ये खुशी ,इंस्पेक्शन रेटिंग के अलावा, सहायक महाप्रबंधक की मेज़बानी और उनके स्निग्ध व्यवहार से भी उपजी थी. रीज़नल मैनेजर के विश्वास पर वे सही साबित हुये, इसका आत्मसंतोष भी था और शाखा के मुख्य प्रबंधक महोदय की उनके प्रति उत्पन्न अनुराग को भी वे महसूस कर चुके थे.अपनी इस पद्मश्री प्रतिभा के सफल प्रदर्शन पर वे संतुष्ट थे और इसके अलावा उन्हें कुछ और लाभ चाहिए भी नहीं था.

अंततः शाम को इंस्पेक्शन टीम के सम्मान में फेयरवेल आयोजित की गई. सहायक महाप्रबंधक ने सभी स्टाफ के किये गये परिश्रम को स्वीकारा और यही टीम स्प्रिट आगे भी काम करती रहे, ऐसी आशा प्रगट की. उन्होंने संतोषी साहब के सहयोग को भी मान दिया और कहा कि “वैसे तो हर खेल घोषित नियमों से खेले जाते हैं पर परफॉर्मेंस कभी कभी अघोषित पर हितकारी नियमों और प्रतिभा से भी परवान पाती है. एक कुशल टीम लीडर वही होता है जो अपनी टीम के हर सदस्य की मुखर और छुपी हुई प्रतिभा को पहचाने और शाखा की बेहतरी के लिये उनका उपयोग करे.शाखा प्रबंधक और शाखा से उम्मीद और अपेक्षा उनकी भी रहती है और ज्यादा रहती है जो बैंक काउंटर्स के उस पार खड़े होते हैं, याने शाखा के ग्राहक गण. यही लोग शहर में शाखा और बैंक की छवि के निर्धारक बन जाते हैं. इनकी संतुष्टि, स्टॉफ की आत्मसंतुष्टि से ज्यादा महत्वपूर्ण होती है.

विदाई के दूसरे दिन से ही,जैसाकि होता है,शाखा अपने नार्मल मोड में आ गई. जिन्हें अपने महत्वपूर्ण कार्यों से छुट्टियों पर जाना था और जो निरीक्षण के कारण स्थगित हो गईं थी,वे सब अपनी डिमांड मुख्य प्रबंधक को कह चुके थे.आसपास की आश्रित शाखाओं के प्रबंधक भी ,छुट्टी पर जाने की उम्मीद लेकर आते थे.वे सारे समझदार ग्राहक, जिनके काम उनकी समझदारी का हवाला देकर विलंबित किये गये थे,अब बैंक में काम हो जाने के प्रति तीव्रता के साथ आशान्वित होकर आ रहे थे. शाखा के मुख्य प्रबंधक, चुनौती पूर्ण समय निकल जाने के बाद आये इस शांतिकाल में ज्यादा तनावग्रस्त थे क्योंकि इंस्पेक्शन के दौरान बनी टीम स्प्रिट धीरे धीरे विलुप्त हो रही थी. पर शायद यही सच्चाई है कि सैनिक युद्ध काल के बाद सामान्य स्थिति में नागरिकों जैसा व्यवहार करने लगते थें।ये सिर्फ बैंक की नहीं शायद हर संस्था की कहानी है कि चुनौतियां हमें चुस्त बनाती हैं और बाद का शांतिकाल अस्त व्यस्त. पहले पर्व निरीक्षण याने इंस्पेक्शन की कहानी यहीं समाप्त होती है पर शाखा, संतोषी जी और अगला पर्व याने वार्षिक लेखाबंदी अभी आना बाकी है. ये कलम को विश्राम देने का अंतराल है जो लिया जाना आवश्यक लग रहा था. इस संपूर्ण परम संतोषी कथा पर आपकी प्रतिक्रिया अगर मिलेगी तो निश्चित रूप से मार्गदर्शन करेगी. हर लेखक और कवि इसकी अपेक्षा रखता है जो शायद गलत नहीं होती. धन्यवाद.

परम संतोषी की इंस्पेक्शन से संबंधित अंतिम किश्त.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 98 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 9 – ठाकुर खौं का चाइए… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 98 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 9 – ठाकुर खौं का चाइए … ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

“ठाकुर खौं का चाइए, पाखा पान और पौर।

भीतर घुसकैं देखिये, दये मुस्का कौ कौर॥“  

शाब्दिक अर्थ :- बाहर से बडप्पन और भीतर से खोखलापन। ठाकुर साहब को क्या चाहिये शानदार दाढ़ी और गलमुच्छे (पाखा), दिन भर चबाने को पान के बीड़ा और बैठने के लिए बड़ा सा बारामदा (पौर)। लेकिन उनके घर के अंदर झाँख कर देखे तो भोजन के कौर  भी बड़ी कठनाई (मुस्का) से मिलते हैं।

इस कहावत के सत्य को मैंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है। वर्ष 1987 से 1989 तक मैं स्टेट बैंक की सतना सिटी शाखा में वाणिज्यिक व संस्थागत विभाग  पदस्थ था, और  उच्च मूल्य के ऋण संबंधी कार्य  देखता था। अचानक मेरा स्थानांतरण पन्ना जिले के सूदूर गाँव बीरा , जिसकी सीमाएँ उत्तर प्रदेश के बांदा जिले से लगी थी, में नई नई खुली शाखा में शाखा प्रबंधक के पद पर हो गया । स्थानांतरण आदेश मिलते ही मुझे बड़ा दुख हुआ, लेकिन फिर सोचा कि चलो पुरखो की कर्मभूमि रहे पन्ना जिले के एक सुदूर  गाँव मे सेवा कार्य कर  पुराना पित्र ऋण चुकाउंगा । यह सोच मैंने जनवरी 1990 की शुरुआत में बीरा शाखा में अपनी उपस्थती शाखा प्रबंधक के रूप में  दर्ज करा दी। तब मैं कोई 31 वर्ष का रहा होउंगा। छात्र जीवन के दौरान चले जय प्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन  से मैं बड़ा प्रभावित था और उस समय से  ही मैंने ग्रामीण विकास के बारे में कुछ कल्पनायेँ कर रखी थी जिसे पूरा करने एक अवसर मुझे दैव योग से इस नई नई खुली शाखा में मिल रहा था। मैंने गाँव में ही अपना निवास बनाने का निश्चय किया।  बीरा ब्राह्मण बहुल गाँव था और पहले दिन ही मुझे जात पात संबंधी रुढीवादी परम्पराओं के कटु अनुभव हुये। अत: जब मैं उपस्थती दर्ज करा सतना वापस आया तो सर्वप्रथम मैंने संध्या वंदन कर यज्ञोपवीत धारण किया। विशुद्ध ग्रामीण माहौल में मेरे  यज्ञोपवीत को न केवल धारण करने वरन उन सभी रूढ़ीगत मान्यताओं, जो जनेऊ के छह धागों से संबंधित हैं, के पालन व दो चार संस्कृत के श्लोक वाचन ने मुझे ग्रामीणों के मध्य पक्का पंडित घोषित करा दिया। इस जनेऊ ने बैंक के व्यवसाय बढ़ाने में मेरे भरपूर मदद करे ऐसा में आज भी मानता हूँ।  स्टेट बैंक की विभिन्न जमा व ऋण योजनाओं की जानकारी देने मैं आसपास के सभी गाँवों का दौरा बैंक द्वारा प्रदत्त मोटर साइकिल से करने लगा। बीरा शाखा के आधीन  बरकोला, उदयपुरा, सिलोना, सानगुरैया, खमरिया,फरस्वाहा, सुनहरा, कडरहा, बीहर पुरवा, लौलास, हरसेनी   आदि  लगभग 10-12  गाँव थे जो यदपि एक दूसरे से कच्चे सड़क मार्ग से जुड़े थे पर ग्रामीणों का बीरा आना जाना न के बराबर था। गाँव सुदूर स्थित था अत: ग्रामीणों में बैंक को लेकर शंकाएँ थी और वे आसानी से बैंकिंग सुविधाओं का लाभ लेने उत्सुक भी नहीं थे। ऐसे में इस नई खुली शाखा में व्यवसाय बढ़ाना बड़ा कठिन काम था। खैर मेरे लगातार दौरों और बुन्देली भाषा में मेरे वार्तालाप (और कमर से नीचे तक लटके जनेउ?) ने ग्रामीणों का दिल जीतने में मदद की और धीरे धीरे लोग बैंक में आकर खाता खुलवाने लगे।

बीरा से लगभग 4-5 किलोमीटर दूर एक बुंदेला क्षत्री परिवार का गाँव  था। ठाकुर साहब एक पुराने मकान में रहते थे जिसे देखकर कहा जा सकता था कि इमारत कभी बुलंद रही होगी। मुख्य द्वार के बाहर ही एक बड़ा सा बारामदा (पौड़) थी जिसकी दीवारों पर शिकार किए हुये जानवरों के सींग सुशोभित थे। बारामदे में एक तखत पर ठाकुर साहब बैठते और दो चार कुर्सियों पर हम व अन्य शासकीय कर्मचारी बिना किसी जातिभेद के बैठते। गाँव के लोग नीचे जमीन पर ही बिराजते और बैठने के पूर्व तीन बार ठाकुर साहब को झुक कर मुझरा (नमस्कार) पेश करते।  ठाकुर साहब की पत्नी ग्राम पंचायत की सरपंच थी । मैं ग्राम पंचायत  का खाता तो बीरा शाखा में खुलवाने में सफल रहा पर कभी भी मुझे  सरपंच महोदया से वार्तालाप का अवसर नहीं मिला. हाँ मैंने बंक के दस्तावेजों में उनके हस्ताक्षर अवश्य ही देखे, जो किसने किये होंगे, इसको बताने की जरूरत नहीं आप सब स्वयं अंदाजा लगाने हेतु स्वतंत्र हैं।  इस गाँव में मैं अक्सर जाता और हर बार ठाकुर साहब से मिलता और उनके व अन्य परिजनों के व्यक्तिगत खाते बीरा शाखा में खुलवाने का अनुरोध करता। मेरे अनगिनत प्रयास जब सफल नहीं हुये तो मैंने अपनी शाखा के भवन मालिक से चर्चा करी और उनसे ठाकुर साहब को प्रसन्न करने का उपाय बताने को कहा। शाखा के भवन मालिक जो किस्सा सुनाया वह बड़ा मजेदार था। हुआ यूँ कि एक बार  पन्ना जिले में बड़ा अकाल पड़ा पानी बिल्कुल भी नहीं बरसा और गर्मी का  मौसम आते आते  कुएं तालाब आदि सब सूख गए। गाँव के आसपास के जंगलों में भी हरियाली का नामोनिशान न रह गया । मनुष्य तो किसी तरह जंगली फल बेर, महुआ, तेंदू और सरकारी राशन की दुकान से मिलने वाले अन्न से अपना गुज़ारा कर रहे थे पर जानवरों की बड़ी दुर्दशा थी । उनके लिए भूसे चारे की व्यवस्था करना बड़े बड़े किसानों के लिए मुश्किल था गरीब किसानों के लिए तो यह लगभग असंभव ही। गरीब की जायजाद तो बैल ही थे उनके लिए चारे भूसे के जुगाड़ में वे इधर उधर घूमते रहते। ऐसी ही विपत्ति के  मारे एक गरीब किसान की मुलाक़ात कहीं ठाकुर साहब से हो गई, और उसकी अर्जी सुनकर ठाकुर साहब ने उसे भूसा लेने के लिए अपने गाँव स्थित बखरी ( आज भी बुंदेलखंड में ठाकुरों का निवास बखरी या गढ़ी कहलाता है)  आने का निमंत्रण दे दिया। अब गरीब किसान हर दूसरे तीसरे दिन ठाकुर साहब के दरवाजे पर बैठ जाता। जब भी वह वहाँ पहुँचता तो घर से कोई न कोई आकर कह देता की अभी कुंवरजू बखरी पर नहीं हैं या ब्यारी (भोजन) कर रहे हैं। दो तीन घंटे बाद थक हारकर वह किसान अपने घर वापिस चला जाता। कई दिन इस प्रकार बीत गए एक दिन किसान घर से सोच कर ही निकला की आज तो वह ठाकुर साहब से मिलकर ही मानेगा। इस संकल्प के साथ जब वह ठाकुर साहब की  बखरी पहुँचा तो उसे बताया गया कि ठाकुर साहब ब्यारी  कर रहे हैं। गरीब किसान काफी देर तक बखरी के दरवाजे पर बैठा रहा । बहुत देर हो गई जब ठाकुर साहब बाहर नहीं निकले तो वह मुख्य द्वार से अंदर घुस गया और देखा कि ठाकुर साहब तो तेंदू के फलों को भूँज भूँज कर उससे अपना पेट भर रहे थे। मतलब गरीबी में ठाकुर साहब का खुद का ही आटा गीला था, वे गरीब किसान कि क्या मदद करते, लेकिन अपनी ठकुराइस और बाहर के बडप्पन को दिखाने के लिए उन्होने गरीब किसान को भूसा देने का झूठा वचन तो दे दिया पर अपनी हालात व भीतरी खोखलेपन के कारण उसे भूसा देने का वचन  निभाने में असमर्थ थे और कुछ ना कुछ बहाना बना कर गरीब किसान को टरकाना चाहते थे।  “ठाकुर खौं का चाइए, पाखा पान और पौर।भीतर घुसकैं देखिये, दये मुस्का कौ कौर” कहावत उन पर भरपूर लागू होती है।

मैं बीरा में जनवरी 1990 से मई 1993 तक पदस्थ रहा वहाँ के मीठे अनुभव, बुन्देली परम्पराओं का पालन करते किसान, तीज त्योहार,  होली में गायी जाने वाली फागें, सावन का आल्हा पाठ, छोटे मोटे मेले और ग्रामीणों का आग्रहपूर्वक मुझे भोजन पर बुलाना आदि  आज भी याद आता है। अपनी तीन वर्ष से भी अधिक की पदस्थी के दौरान मैंने लगभग अधिकांश लोगो के खाते खोले बस ठाकुर साहबों के खाते न खोल पाया और जब कभी उनसे मुलाक़ात होती वे मुझे भोजन का निमंत्रण अवश्य देते पर मैं भी उनकी हँडिया में कितना नौन है जान गया था, अत: आमंत्रण तो ठ्कुरसुहाती में स्वीकार कर लेता पर भोजन हेतु गया कभी नहीं और ठाकुर साहब ने भी कभी भी  मेरे ना पहुंचने पर उलाहना  भी  नहीं दिया।     

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 87 ☆ बदलेगा बहुत कुछ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘माँ सी …! ’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 87 ☆

☆ लघुकथा – बदलेगा बहुत कुछ ☆

शिक्षिका ने हिंदी की कक्षा  में आज  अनामिका की कविता ‘ बेजगह ‘ पढानी शुरू की –

अपनी जगह  से गिरकर कहीं के नहीं रहते,

केश, औरतें और नाखून,

पहली कुछ पंक्तियों को पढते ही लडकियों के चेहरे के भाव बदलने लगे, लडकों पर कोई असर  नहीं दिखा। कविता की आगे की पंक्तियाँ  शिक्षिका पढती है –

लडकियां हवा, धूप, मिट्टी होती हैं,

उनका कोई घर नहीं होता।

शिक्षिका  कविता के भाव समझाती जा रही थी। क्लास में बैठी लडकियां बैचैनी से  एक – दूसरे की ओर देखने लगीं, लडके मुस्कुरा रहे थे। कविता आगे बढी –

कौन सी जगह होती है ऐसी

जो छूट जाने पर औरत हो जाती है कटे हुए नाखूनों,

कंघी में फँसकर बाहर आए केशों सी

एकदम बुहार दी जानेवाली।

एक लडकी ने प्रश्न पूछ्ने के लिए झट से हाथ उपर उठाया- मैडम ! बुहारना मतलब? जैसे हम घर में झाडू लगाकर कचरे को  बाहर फेंक देते हैं, यही अर्थ है ना?

हाँ –  शिक्षिका ने गंभीरता से उत्तर दिया।

एकदम से  कई लडकियों के हाथ उपर उठे – किस जगह की बात कर रही हैं कवयित्री और औरत को कैसे बुहार दिया जाता है  मैडम! वह तो इंसान है कूड़ा – कचरा थोडे ही है?

शिक्षिका को याद आई अपने आसपास की ना जाने कितनी औरतें, जिन्हें अलग – अलग कारण जताकर , बुहारकर घर से बाहर कर दिया  गया था । किसी के मन-मस्तिष्क को बडे योजनाबद्ध तरीके से बुहारा गया था  यह कहकर कि इस उम्र में हार्मोनल बदलाव के कारण पागल होती जा रही हो। वह जिंदा लाश सी घूमती है अपने घर में। तो कोई सशरीर अपने ही घर के बाहर बंद दरवाजे के पास खडी  थी। उसे एक दिन  पति ने बडी सहजता से कह दिया – तुम हमारे लायक नहीं हो, कोई और है तुमसे बेहतर  हमारी जिंदगी में। ना जाने कितने किस्से, कितने जख्म, कितनी बेचैनियाँ  —–

 मैडम! बताइए ना – बच्चों की आवाज आई।

 हाँ – हाँ, बताती हूँ। क्या कहे? यही कि सच ही तो लिखा है कवयित्री ने। नहीं – नहीं,  इतना सच भी ठीक नहीं, बच्चियां ही हैं ये। पर झूठ भी तो नहीं बोल सकती। क्या करे, कह दे कि इसका उत्तर वह भी नहीं ढूंढ सकी है अब तक। तभी सोचते – सोचते  उसके चेहरे पर मुस्कान दौड गई।  वह बोली एक दूसरी कवयित्री की कविता की कुछ पंक्तियाँ सुनाती हूँ –

शीर्षक है – बदलेगा बहुत कुछ

प्रश्न पुरुष – स्त्री या समाज का नहीं,

मानसिकता का है।

बात किसी की मानसिकता की हो,

जरूरी है कि स्त्री

अपनी सोच, अपनी मानसिकता बदले

बदलेगा बहुत कुछ, बहुत कुछ ।

घंटी बज गई थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #108 – बाल कथा – मोना जाग गई ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर बाल कथा – “मोना जाग गई।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 108 ☆

☆ बाल कथा – मोना जाग गई ☆ 

मोना चकित थी। जिस सुंदर पक्षी को उसने देखा था वह बोल भी रहा था। एक पक्षी को मानव की भाषा बोलता देखकर मोना बहुत खुश हो गई।

उसी पक्षी ने मोना को सुबह-सवेरे यही कहा था,

“चिड़िया चहक उठी

उठ जाओ मोना। 

चलो सैर को तुम 

समय व्यर्थ ना खोना।।”

यह सुनकर मोना उठ बैठी। पक्षी ने अपने नीले-नीले पंख आपस में जोड़ दिए। मोना अपने को रोक न सकी। इसी के साथ वह हाथ जोड़ते हुए बोली, “नमस्ते।”

पक्षी ने भी अपने अंदाज में ‘नमस्ते’ कहा। फिर बोला,

“मंजन कर लो 

कुल्ला कर लो। 

जूता पहन के

उत्साह धर लो।।”

यह सुनकर मोना झटपट उठी। ब्रश लिया। मंजन किया। झट से कपड़े व जूते पहने। तब तक पक्षी उड़ता हुआ उसके आगे-आगे चलने लगा।

मोना का उत्साह जाग गया था। उसे एक अच्छा मित्र मिल गया था। वह झट से उसके पीछे चलने लगी। तभी पक्षी ने कहा,

“मेरे संग तुम दौडों 

बिल्कुल धीरे सोना। 

जा रहे वे दादाजी 

जा रही है मोना।।”

“ओह! ये भी हमारे साथ सैर को जा रहे हैं,” मोना ने चाहते हुए कहा। फिर इधर-उधर देखा। कई लोग सैर को जा रहे थे। गाय जंगल चरने जा रही थी। 

पक्षी आकाश में कलरव कर रहे थे। पूर्व दिशा में लालिमा छाने लगी थी। पहाड़ों के सुंदर दिख रहे थे। तभी पक्षी ने कहा,

“सुबह-सवेरे की 

इनसे करो नमस्ते। 

प्रसन्नचित हो ये 

आशीष देंगे हंसते।।”

यह सुनते ही मोना जोर से बोल पड़ी, “नमस्ते दादा जी!”

तभी उधर से भी आवाज आई, “नमस्ते मोना! सदा खुश रहो।”

यह सुनकर मोना चौंक उठी। उसने आंखें मल कर देखा। वह बिस्तर पर थी। सामने दादा जी खड़े थे। वे मुस्कुरा रहे थे, “हमारी मोना जाग गई!”

“हां दादा जी,” कहते हुए मोना झट से बिस्तर से उठी, “दादा जी, मैं भी आपके साथ सैर को चलूंगी,” कह कर वह मंजन करके तैयार होने लगी।

“हां क्यों नहीं!” दादा जी ने कहा।

यह देख सुनकर उसकी मम्मी खुश हो गई।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

17-01-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा- सोंध ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा- सोंध ??

इन्सेन्स- परफ्यूमर्स ग्लोबल एक्जीबिशन’.., इत्र बनानेवालों की यह यह दुनिया की सबसे बड़ी प्रदर्शनी थी। लाखों स्क्वेयर फीट के मैदान में हज़ारों दुकानें। हर दुकान में इत्र की सैकड़ों बोतलें। हर बोतल की अलग चमक, हर इत्र की अलग महक। हर तरफ इत्र ही इत्र।

अपेक्षा के अनुसार प्रदर्शनी में भीड़ टूट पड़ी थी। मदहोश थे लोग। निर्णय करना कठिन था कि कौनसे इत्र की महक सबसे अच्छी है।

तभी एकाएक न जाने कहाँ से बादलों का रेला आसमान में आ धमका। गड़गड़ाहट के साथ मोटी-मोटी बूँदें धरती पर गिरने लगीं। धरती और आसमान के मिलन से वातावरण महकने लगा।

दुनिया के सारे इत्रों की महक अब अपना असर खोने लगी थीं। माटी से उठी सोंध सारी सृष्टि पर छा चुकी थी।

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी #20 – परम संतोषी भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – परम संतोषी   के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)     

☆ कथा – कहानी # 20 – परम संतोषी भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

शाखा में निरीक्षण के दौरान बहुत से परिवर्तन आते हैं जिनसे संकेत मिल जाता है कि ब्रांच इज़ अंडर इंस्पेक्शन.

नीली, काली और लाल इंक के साथ नज़र आने लगती है हरियाली याने ग्रीन इंक. ये ग्रीन इंक अनुशासन, टाइमिंग, वेश विन्यास, कर्मठता, शांत वातावरण जो सिर्फ और सिर्फ कस्टमर की आवाजों का व्यवधान पाता है, की द्योतक होती है. आने वाले नियमित और अनुभवी, नटखट या चालाक कस्टमर समझ जाते हैं कि उनके अटके काम, इंस्पेक्शन के दौरान पूरे होने की संभावना बन गई है. हालांकि स्टाफ उनके काम इंस्पेक्शन के बाद करने का आश्वासन देकर और उनकी समझदारी की तारीफ कर उनको विदा करता रहता है.

इंस्पेक्शन के दौरान बुक्स तो बैलेंस हो जाती हैं पर स्टाफ की दिनचर्या अनबेलेंस हो जाती है. घर के लिये जरूरी किराना और सब्जियां लाने का काम, इंस्पेक्शन के बाद करने के आश्वासन के साथ मुल्तवी कर दिया जाता है. अगर शहर से पहचान और दोस्तो का दायरा बड़ा हो या फिर संतानें इतनी बड़ी हों कि सब्जी की खरीददारी कर सकें तो बैंक के लंच बॉक्स में सब्जी नज़र आ जाती है वरना कभी कभी तड़केदार दाल का सामना भी करना पड़ जाता है. इंस्पेक्शन के दौरान चाय कॉफी, उंगलियों के इशारे पर करने की व्यवस्था किया जाना भी स्टाफ के मॉरल को बूस्ट करने के काम आता है.

निरीक्षण में बेलेसिंग और पिछली तारीख की केशबुक के एक एक वाउचर को ग्रीन इंक से टिक करते हुये बेलेंस करना और चेक करने की परंपरा, बैंक मास्टर से पहले अस्तित्व में थी जिसके लिये बैलेसिंग एक्सपर्ट और अतिरिक्त स्टाफ की सहायता और छुट्टी के दिनों का भरपूर उपयोग किया जाता था. आसपास की छोटी व आश्रित शाखाओं के  समझदार और दुनियादार शाखा प्रबंधक भी अवकाश के दिनों में या शाखा से लौटने के बाद इस काम में पुण्य अर्जित करने का प्रयास करते थे ताकि वक्त आने पर रिलीफ अरेंजमेंट के लिये वो इस कारसेवा का नकदीकरण कर सकें.

निरीक्षण में ऋण विभाग महत्वपूर्ण होता है. समझदार और कुशल फील्ड ऑफीसर, पद ग्रहण करते ही पिछली इंस्पेक्शन रिपोर्ट पढ़ पढ़कर अपनी डेस्क चमकाना शुरु कर देते हैं. अनुभवी अधिकारी सारे बड़े ऋण खातों की फाइल और दस्तावेज सिलसिलेवार जमा लेते हैं. आवेदन, विश्लेषण और अनुशंसा, स्वीकृति, अनुमोदित कंट्रोल रिटर्न, इंश्योरेंस, वाहनों के प्रकरणों में रजिस्ट्रेशन, केश क्रेडिट खातों में अद्यतन रिव्यू रिन्यूअल, रिवाइवल, हर दस्तावेज अपने निरीक्षण के हिसाब से इस तरह पेश किया जाता है कि निरीक्षण अधिकारी भी खुश होकर कह देते हैं “बहुत अच्छा,कितने इंस्पेक्शन फेस कर चुके हैं. जवाब शब्दों से नहीं बल्कि विनम्रता में पगी हल्की मुस्कान से दिया जाना ही व्यवहारिक होता है. अग्रिम के क्षेत्र में काम करने वाले अधिकारियों का मितभाषी होना हमेशा फायदेमन्द होता है. जो पूछा जाय सिर्फ वही कम से कम शब्दों में प्रगट किया जाये. बड़बोले अक्सर गच्चा खा जाते हैं और चापलूसी हमेशा इंस्पेक्शन अधिकारी को शंकित करती है.

निरीक्षण अधिकारी भी मानवीय आवश्यकताओं और दुर्बलताओं से बंधे होते हैं सुबह नौ बजे से लगातार बैठकर काम करते रहने पर शाम 6 बजे के करीब संतोषी साहब आगे बढ़कर संक्षिप्त सांयकालीन वॉक प्रस्तावित करते थे और सहायक महाप्रबंधक के साथ शहर भ्रमण पर निकल जाते थे. लगभग 30-40 मिनट का यह वॉक, और बैंक के बाहर बह रही शुद्ध शीतल हवा, दिनभर की थकान और बोरियत को उड़न छू कर देती थी. इस दौरान नगर से संबंधित ऐतिहासिक और वर्तमान की जानकारियों पर ही चर्चा की जाती थी. शाखा के संबंध में कोई बात उठने पर संतोषी जी बड़ी चतुराई से विषय परिवर्तन कर देते थे. सहा. महाप्रबंधक महोदय समझते हुये हल्के से मुस्कुरा देते थे. अंत में कुछ दिनों की इस सायंकालीन समीपता के जरिये सहायक महाप्रबंधक महोदय, संतोषी जी के परिवार के बारे में काफी कुछ जान गये. नियमित संतुलित दक्षिण भारतीय भोजन, परिवार की पहचान पहले से दे रहा था और सहायक महाप्रबंधक ने संतोषी जी को आश्वास्त किया कि निरीक्षण समाप्ति के एक दिन पूर्व वे अवश्य ही उनके घर पर उनके परिवार के साथ बैठकर, अपनी पसंदीदा फिल्टर कॉफी का आनंद लेंगे. शाखा का निरीक्षण अपनी सामान्य गति से भी ज्यादा तेज गति से चलता रहा और धीरे धीरे अनुमानित क्लोसिंग डेट भी पास आ गई.

अपने आश्वासन के अनुरूप सहायक महाप्रबंधक महोदय, संतोषी जी के निवास पर पधारे. शाखा के मुख्य प्रबंधक वयस्त थे तो चाहने के बावजूद वे नहीं आ सके. पर सहायक महाप्रबंधक महोदय अकेले नहीं आये थे, वे अपने साथ चांदी के लक्ष्मी गणेश जी भी लेकर आये थे जो संतोषी जी के परिवार को उपहार स्वरूप दिये जाने थे. फिल्टर कॉफी की रिफ्रेशिंग सुगंध के बीच उस मेहमान का बड़े सम्मान और आत्मीयता के साथ स्वागत किया गया, जो अपनी निरीक्षणीय शुष्कता के बीच अपनी मानवीय स्निग्धता को अक्षुण्ण रखने में कामयाब थे. संतोषी जी की बेटियाँ की रौनक से घर प्रकाशित था और यह प्रकाश अलौकिक था. सुस्वादु भोजन से प्रारंभ निकटता, फिल्टर कॉफी की खुशबू के बीच ऐसी आत्मीयता में बदल गई कि सहायक महाप्रबंधक महोदय कब सर से अंकल बन गये, पता ही नहीं चला. इंस्पेक्शन के कारण अपनी संतानों से दूरी, इस परिवार से मिलकर अद्भुत शांति प्रदान कर रही थी. संतोषी जी के परिवार में बह रही स्निग्धता और आपसी स्नेह, संतोषी जी के संतुष्ट होने का स्त्रोत घोषित कर रहा था और सहायक महाप्रबंधक महोदय को भी रेट रेस याने चूहा दौड़ और टंगड़ीमार प्रतियोगिता की निर्थकता का संदेश दे रही थी. बैंक में कई वर्कोहलिक प्राणी पाये जाते हैं जिनकी घड़ी चौबीसों घंटे टिक टिक की जगह काम काम की ध्वनियों गुंजायमान करती रहती है. असंतुलित व्यक्तित्व, असंतुष्ट परिवार और कैरियर की हिमालयीन अपेक्षा, अक्सर अनुपयुक्त लक्ष्यों की जगह मानसिक शांति और प्रसन्नता छीन लेती है और मानव रुपी ये रोबोट, बड़ी आसानी से यूज़ किये जाते हैं. काम करना,दक्षतापूर्वक काम करना बुरा नहीं है पर अगर रेट रेस में जीतने की अतृप्त लालसा परिवार का संतुलन भंग कर रही है तो ऐसे प्राणियों को स्वयं विचार करने की आवश्यकता है. जीवन पर बैंक के साथ साथ परिवार का भी अधिकार और अपेक्षाएं होती हैं और परिवार के मुखिया होने के नाते दायित्व भी, कि परिवार और नियोक्ता के बीच में संतुलन बनाकर रखे.

यह कथा मैं अपने अमरीका प्रवास के दौर में लिख रहा हूँ और यहाँ के वर्क कल्चर में नियोक्ता संस्था द्वारा अपने इंप्लाइज की व्यक्तिगत और पारिवारिक जरूरतों को भी उतनी ही महत्ता दिये जाने की संस्कृति से परिचित हो रहा हूँ. विकासशील भारत और विकसित अमरीका के वर्क कल्चर की यह अनुभवित भिन्नता, बहुत कुछ समझाती है.

परम संतोषी कथा जारी रहेगी भले ही असंतुष्ट जीव इसे पसंद करें या न करें …. 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 97 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 8 – मम्मा के आंगे ममयावरे की ने हाँको… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 97 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 8 – मम्मा के आंगे ममयावरे की ने हाँको … ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

मम्मा के आंगे ममयावरे की ने हांकों

शाब्दिक अर्थ :-एक जानकार के सामने अपना आधा अधूरा ज्ञान प्रस्तुत करना।

इस बुन्देली कहावत के पीछे जो संभावित कहानी हो सकती है वह कुछ कुछ ऐसी होगी :-

वर्तमान में उद्योग धंधों से विहीन  बुंदेलखंड  पुरातन काल में भी ऐसा ही रहा होगा। बहुसंख्य आबादी गाँव में रहकर खेती करती होगी और कुछ कुछ दूरी पर छोटे मोटे कस्बे होंगे जहाँ व्यापारियों के परिवार रहते होंगे जो ग्रामीणों की घर ग्रहस्थी की जरूरते पूरी करते होंगे।

ऐसे ही कोपरा नदी के किनारे बसे एक गाँव चोपरा में एक कृषक परिवार रहता था। उसकी एक बहन गाँव से थोड़ी दूर स्थित एक कस्बे हरदुआ में ब्याही थी और बहनोई छोटा मोटा एक व्यापारी था।  कृषक का पुत्र कलुआ  एक बार अपनी बुआ के घर हरदुआ गया। परम्परा के अनुसार भाई ने बहन के लिए गाँव से सब्जी भाजी, तिली, झुंडी (ज्वार) दूध आदि उपहार भेजे। कलुआ को अपने घर आया देख बुआ बड़ी खुश हुयी। बुआ ने अपने दोनों लड़कों बड़े बेटे पप्पूँ और छोटे बेटे गुल्लु से कलुआ की  दोस्ती करवाई और फिर अपने मायके के हालचाल पूंछने लगी कि भइया भौजी कैसे हैं, पड़ोसन काकी के क्या हाल चाल हैं, कुँआ वाली बुआ जिंदा है कि मर गयी और बरा (बरगद) वाली मौसी अभी भी बहु को गरियाती है कि नहीं, तला वाली बिन्ना (बहन) अभी अभी चुखरयाई (चुगलखोरी) करती है कि नहीं आदि आदि। कलुआ भी बुआ की सभी बातों का अपनी गमई जबान से जबाब देता जा  रहा था और बता रहा था कि आजकल अम्मा को कैसे बात बात मैं चिनचिनों लग जाता है ( किसी भी छोटी छोटी बात का बुरा लगा जाना) और बुआ अब तो घर घर मटयारे चूल्हे हो गयें हैं। इन सब बातों में पप्पूँ और गुल्लु को बड़ा मजा आ रहा कि अचानक बुआ ने बातचीत की धार यह कहते हुये मोड़ी कि सरमन बेटा को ऐसी बातें करना शोभा नाही देता है  और  खेती किसानी के बारे में पूंछने लगी । कलुआ को तो अब मानो मनमाफ़िक विषय मिल गया क्योंकि संझा सकारे (शाम और सुबह) खेत का चक्कर लगाना तो उसका प्रिय शगल था। वह बुआ को बताने लगा कि आजकल  खेती किसानी बहुत अच्छी नहीं रह गई है और हरवाहों को हर काम के लिए अरई गुच्चनी पड़ती है, फसल अच्छी होती है तो पड़ोसी गाँव के किसान जरबे मरबे लग जात हैं (ईर्ष्या करने लग जाते हैं)। कलुआ खेती किसानी की परेशानियाँ बता ही रहा था कि बड़ा बेटा पप्पूँ जो कस्बे के स्कूल में पढ़ता था बीच में ही उचक पड़ा और खेती किसानी पर अपना ज्ञान बघारने लगा तभी बुआ  पप्पूँ को डपटते हुये बोली  कि मम्मा के आंगे ममयावरे की नई हाँकी जात

और शायद  तभी से यह कहावत चल पड़ी होगी। इसी से मिलती जुलती एक और कहावत है “बूढ़ी बेड़िनी खौं काजर “ जिसका शाब्दिक अर्थ भी जानकार को ज्ञान बताना है। (बेड़िनी बुंदेलखंड के लोकनृत्यों की नर्तकी है)

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य#114 – लघुकथा – रात पाली ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “*रात पाली *”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 114 ☆

? लघु कथा- ⛈️? रात पाली  ?

शहर से दूर एक आलीशान अपार्टमेंट बन रहा था। गाँव से बहुत मजदूर वहाँ काम करने आए थे। इस में महिलाएं भी शामिल थी। उनके साथ केतकी अपनी माँ के साथ आई थी। 15 साल की भोली भाली लड़की जिसकी उसके माँ के अलावा इस दुनिया में कोई सगा संबंधी और जान पहचान वाला नहीं था। माँ बेटी मिलकर काम किया करते थे।

गाँव से दूर रहने का कोई ठिकाना नहीं था इसलिए सभी वहीं पर डेरा डाल कर रहने लगे थे। यौवन से भरपूर केतकी जब मिट्टी रेत का तसला उठा कर चलती तो सभी की नज़रें उस पर टिकी रहती थी।

आखिर बीमार माँ कब तक निगरानी कर पाती। वह दिन भर चिंता और परेशानी लिए बीमार रहने लगी। अपार्टमेंट में काम करने वाले ठेकेदार से लेकर कर वहाँ के जो भी लोग थे सभी केतकी की सुंदरता और उसकी खिलखिलाती हंसी पर सभी नजर लगा हुए रहते थे।

    ठंड अपनी चरम सीमा पर थी उस पर बारिश। सभी रजाई शाल पर दुबके शाम ढले चुपचाप बैठे थे। उसी समय केतकी की माँ की अचानक तबीयत खराब हो गई और वह दौड़ कर ठेकेदार के पास गई।

उसने कहा मेरी माँ की तबीयत बहुत खराब है, आप कुछ मदद कर दीजिए डॉक्टर को दिखाना पड़ेगा। ठेकेदार ने समय की नाजुकता का फायदा उठा तत्काल कहा… तुम रात पाली  पर काम कर लो। तुम्हारी माँ को कुछ नहीं होगा।

माँ को अस्पताल भिजवा दिया गया। माँ अपनी ममता के पीछे केतकी ठेकेदार की मंशा भाप चुकी थी, परन्तु बेबस चुप रही।

सुबह सारे अपार्टमेंट और सभी के बीच हल्ला था कि ठेकेदार साहब बहुत भले आदमी है। कल रात उन्होंने केतकी की माँ की जान बचाई।

भगवान भला करे। ऐसे आदमी दुनिया में मिलते कहाँ हैं?

हम सब की उम्र भी उनको लग जाए। हम सब गरीबों के भगवान हैं। परन्तु केतकी की लगातार आँखों से बहते आँसू  कुछ और ही कह रह रहे थे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – पुष्प की पीड़ा ☆ श्री कमलेश भारतीय  ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – पुष्प की पीड़ा ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

पुष्प की अभिलाषा शीर्षक से लिखी कविता से आप भी चिरपरिचित हैं न ? आपने भी मेरी तरह यह कविता पढ़ी या सुनी जरूर होगी । कई बार स्वतंत्रता दिवस समारोह में किसी बच्चे को पुरस्कार लेते देख तालियां भी बजाई होंगी । मन में आया कि एक बार दादा चतुर्वेदी के जमाने और आज के जमाने के फूल में शायद कोई भारी तब्दीली आ गयी हो । स्वतंत्रता के बाद के फूल की इच्छा उसी से कयों न जानी जाए ? उसी के मुख से ।

फूल बाजार गया खासतौर पर ।

– कहो भाई , क्या हाल है ?

– देख नहीं रहे , माला बनाने के लिए मुझे सुई की चुभन सहनी पड रही है ।

–  अगर ज्यादा दुख न हो रहा हो तो बताओगे कि तुम्हारे चाहने वाले कब कब बाजार में आते हैं ?

–  धार्मिक आयोजनों व ब्याह शादियों में ।

– पर तुम्हारे विचार में तो देवाशीष पर चढ़ना या प्रेमी माला में गुंथना कोई खुशी की बात नहीं ।

– बिल्कुल सही कहते हो । मेरी इच्छा तो आज भी नहीं पर मुझे वह पथ भी तो दिखाई नहीं देता, जिस पर बिछ कर मैं सौभाग्यशाली महसूस कर सकूं ।

– क्यों? आज भी तो नगर में एक बडे नेता आ रहे हैं ।

– फिर क्या करूं ?

– क्यों ? नेता जी का स्वागत् नहीं करोगे ?

– आपके इस सवाल की चुभन भी मुझे सुई से ज्यादा चुभ रही है । माला में बिंध कर वहीं जाना है । मैं जाना नहीं चाहता पर मेरी सुनता कौन है ?

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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