हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 275 ☆ आलेख – शहीद भगत सिंह की माँ विद्यावती ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख शहीद भगत सिंह की माँ विद्यावती। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 275 ☆

? आलेख – शहीद भगत सिंह की माँ विद्यावती ?

हाँ हाँ अभिमन्यु की माँ सुभद्रा की सम धर्मिणी हूं मैं विद्यावती ! हाँ मैं सम गामिनी हूं रानी लक्ष्मीबाई की माँ की, तात्याटोपे की माँ की, नाना साहेब की माँ की, मंगल पांडे की माँ की उन जाने अनजाने वीर राजपूतो, योद्धाओ की माताओं की जो युगो युगो से देश की माटी के लिये आक्रांताओ से लड़ते अपने बेटों की शहादत की राह में कभी रोड़ा नहीं बनीं. मैं उस संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती हूं जहाँ भाषा, नदियाँ, देश, गाय, तुलसी जैसे पौधे, मंदिरो में विराजित देवी सबको माँ निरूपित किया गया है. माँ निहित स्वार्थो से परे व्यापक कल्याणी होती है. सृष्टि के बाद कोई अन्य यदि सृजन की क्षमता रखता है तो वह केवल माँ है. मुझे गर्व है अपने माँ होने पर, अमर शहीद भगत सिंह की माँ होने का मतलब है, बेटे की शहादत की अनुगूंज से राष्ट्र कल्याण.

देश के लिये कुर्बानी देने वालो के प्रति श्रद्धा और सम्मान  तो बहुत होता है. देश कुर्बानी मांगता है. राष्ट्रध्वज में लिपटे, गौरव गाथायें कहते, शौर्य कथायें समेटे वीर युगो से शहीद होते रहे हैं. वीर रण बांकुंरे किसी न किसी प्रयोजन, किसी आदर्श पर कुर्बान होते हैं. शहीदो को देर सबेर तमगों से सम्मानित करती रही है सत्तायें. क्या सचमुच शहीद के परिवार को उसके  घर के मुखिया या बेटे की मृत्यु से वरण पर कुछ आर्थिक लाभ देकर  देश, सरकार या समाज शहादत के ॠण से मुक्त हो सकता है ?
शहीदों की चिता के शोले समय के साथ ठंडे होने लगते हैं. शहीद जीवनियां बनकर सजिल्द किताबों में समा जाते हैं. फिर कुछ वर्षो में किताबो पर भी धूल जमा होने लगती है. इतिहास बनाने वाले शहीद स्वयं ही इतिहास में तब्दील हो जाते हैं. यदि कौम सक्षम होती है तो शहीद की शहादत को किसी स्मारक में संजो कर याद करती है. शहादत स्थल राष्ट्रीय स्मारक बना दिया जाता है. शहीद की जन्म तिथि व पुण्य तिथि पर समारोह होते हैं. नई पीढ़ी को शहीद की वीरता के किस्से, पीढ़ी दर पीढ़ी पढ़ाये जाते हैं. शहीद होने वाले कथाओं में नायक बन कर राष्ट्रभक्ति के भाषणो में, अमर हो जाते हैं . शहीदों पर फिल्में बनती हैं, देश भक्ति के गीत लिखे जाते हैं. नई पीढ़ी के बच्चे सूरज की नई किरण के साथ प्रभात फेरियों में शहीद की जय जय कार के नारे लगाते हैं. पर फिर भी अधिकांश यही सोचते हैं, देश के लिये शहीद हों तो, पर मेरे घर से नहीं हाँ मुझे आप पन्ना धाय भी कह सकते हैं. मैने खुद अपने बेटे को शहादत का पाठ पढ़ने दिया. मैं चाहती तो नन्हें भगत को तब ही रोक सकती थी जब उसने घर की क्यारी में जुल्मी अंग्रेजो से लड़ने के लिये, खिलौने की पिस्तौल बीजो की तरह बोई थी जिससे वह क्रांति के लिये हथियार उपजा सके. मैं चाहती तो तब ही उसे रोक सकती थी जब वह दुनियां भर की क्रांति की किताबें पढ़ता था और जुल्मी साम्राज्यवाद से लड़ने की बातें करता था. मैं चाहती तो जबरदस्ती भगत की शादी करवा देती और उसके जीवन के लक्ष्य बदल देती पर इसके लिये  मुझे अपने ही बेटे से प्रतिद्वंदिता करनी पड़ती. मैं भला कैसे सह सकती थी मेरा बेटा आजीवन अपने आपसे ही लड़ता रहे, छटपटाता रहे. सब कुछ कैसा निस्तब्ध था ! कितना व्याकुल था ! हम दोनो माँ बेटे बिना एक शब्द एक दूसरे से कहे कितनी बातें करते रहे थे रात भर. मैंने उसे अपने आगोश में भर लिया था और फिर जो उसे पाश मुक्त किया तो वह सीधा भारत माँ की गोद में जा बैठा, अपने  क्रांतिकारी भाईयों के संग.

मैं तो उस वीर शहीद भगतसिंह की माँ हूँ, जिसने युवाओ में क्रांति के बीज बोये वह भी तब, जब भारत माँ की धरती पर शोषण की फसलें पक रही थी. सर्वहारा बेसहारा खण्ड खण्ड था. मेरे बेटे ने नारा दिया मजदूरो एक हो ! मेरे बेटे ने नारा दिया इंकलाब जिंदाबाद ! मेरे भगत ने यह सब किया बिना किसी अपेक्षा के. बिना किसी प्रतिसाद की कामना के. जानते हैं  मुझे उससे शहादत की सुबह मिलने तक न दिया गया, क्योकि जुल्मी सरकार मेरे बेटे की ताकत पहचान गई थी. मेरे बेटे ने जो नारा लगाया था कैद खाने से, फांसी के फंदे पर चढ़ने से पहले “इंकलाब जिंदाबाद” उसकी अनुगूंज सारे हिंदुस्तान में हो रही है. लगातार बार बार “इंकलाब जिंदाबाद”, इंकलाब जिंदाबाद !

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 79 – देश-परदेश – आप कैमरे👁️ की नज़र में हैं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 79 ☆ देश-परदेश – आप कैमरे👁️ की नज़र में हैं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

इस प्रकार की चेतावनी सार्वजनिक स्थानों के अलावा निज़ी घरों के बाहर भी पढ़ने को मिल ही जाती है।

कुछ दिन पूर्व किसी महानगर के यातायात पुलिस ने एक महिला को स्कूटर नियमों के उल्लंघन पर एक लाख छत्तीस हज़ार रूपे जुर्माने के साथ सी सी टीवी कैमरे की दो लाख से अधिक क्लिपिंग्स भी भेज दी हैं। ये तो वो ही बात हो गई, होटल में खाया पिया कुछ नहीं, और ग्लास तोड़ा बारह आने। जितने का स्कूटर नहीं, उससे अधिक तो जुर्माना हो गया।

सीसी टीवी कैमरा लगवाने के खर्च में कटौती हो जाने के कारण इसका चलन भी बढ़ गया हैं। कुछ दिन पूर्व एक मित्र को बाज़ार में दूर से देख लिया, परंतु संपर्क नहीं हो सका था। दूसरे दिन उनको दूरभाष से सूचित किया की फलां फलां समय पर आपके घर आए थे, ताला लगा हुआ था। मित्र तुरंत लपक कर बोले, हम बाज़ार गए हुए थे, और वापस आकर सीसी टीवी कैमरा भी खंगाला था। आगंतुकों में आपका चेहरा तो नहीं दिखा। झूठ बोलकर हम फंस गए, क्योंकि कैमरा झूठ नहीं बोलता।

विगत माह एक मित्र के परिवार में विवाह के बाद वो शेष बच गई मिठाई” सोनपापड़ी” का डिब्बा लेकर हमारे घर आए थे। हमने उनसे अपनी शुगर की बीमारी का हवाला देकर मिठाई को सम्मान सहित अस्वीकार कर दिया। हमारी घनिष्ठ मित्रता बचपन से है, उन्होंने हमारी बात का मान रखते हुए धीरे से बताया, कि उनके यहां रात्रि भोज में मेरे खाने की प्लेट में दो गुलाब जामुन और गाजर के हलवे को विवाह की वीडियो में देखा जा सकता हैं। श्रीमतीजी ने भी ये बात सुन ली, और तब से हमारे खाने पीने पर अपनी नज़रों की चौकसी और पुख्ता कर दी है।

हम सब को घर से बाहर हमेशा चौकस और सावधान रहने की आवश्यकता है। अनेक जगह कैमरे तो लगे रहते है, पर उस बाबत कोई सूचना नहीं लिखी मिलती है। इसी प्रकार से कुछ स्थानों पर कैमरे तो लगे हुए है, परंतु काम नहीं करते है। हमारा काम था, आपको सचेत करना, आगे आपकी मर्जी।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 340 ⇒ ये सब्जी वालियाॅं… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “ये सब्जी वालियाॅं…।)

?अभी अभी # 340 ⇒ ये सब्जी वालियाॅं? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हमारे रोज के भोजन में सब्जी का बड़ा महत्व है। मुझे सब्जी मंडी और सब्जी मार्केट से विशेष प्रेम है। हरे हरे खेत अब कहां शहरों में नसीब होते हैं, चलो कुछ समय हरी भरी तरकारियों के बीच ही गुजारा जाए। आज भी सुबह सुबह दूध और अखबार वाले के बाद सब्जी वाले की ही आवाज सुनाई देती है।

घर के पास ही सब्जी मार्केट और फ्रूट मार्केट था। तब मैं मां का असिस्टेंट था, साथ में झोला और पैदल मार्च। सड़क के दोनों ओर ठेले अथवा जमीन पर सब्जी वालों की सजी धजी दुकानें, कहीं सब्जी वाला, तो कहीं सब्जी वाली।।

तब कहां घरों में फ्रिज था। रोजाना ताजी सब्जी लाना और बनाना। सभी सब्जी वाले परिचित। अपनेपन में एक अधिकार भी होता है। हर दुकानदार की इच्छा होती थी, कि मां सब्जी उसी से ले। मां के सरल और मृदु स्वभाव के कारण हमें राम राम के अभिवादन के साथ गार्ड ऑफ ऑनर दिया जाता था। मां कहीं से भी सब्जी लेती, कोई बुरा नहीं मानता, क्योंकि मां सबसे हालचाल पूछती रहती थी, बातचीत करती रहती थी। मोल भाव का तो सवाल ही नहीं था।

कुछ सब्जी वालियों को मां नाम से जानती थी। अक्सर उनका पूरा परिवार ही इस पेशे से जुड़ा रहता था। कहीं अम्मा, कहीं बहू तो कहीं बेटी। लगता था सब्जी की सौदेबाजी नहीं, रिश्तों का मेलजोल हो रहा है। मेरी निगाह सस्ती महंगी की ओर रहती थी, लेकिन मां कहती थी, मेहनत मजदूरी करते हैं, इन्हें दो पैसे ज्यादा देने में हमारा क्या जाता है।

सब्जी के साथ मुफ्त में धनिया मिर्ची के साथ अगर थोड़ा प्रेम और सम्मान भी मिल जाए, तो सब्जी अधिक स्वादिष्ट बनती है।।

अब न तो मां है और ना ही पहले जैसी हरी भरी ताजी सब्जियां। मां की जगह आजकल पत्नी का साथ होता है, सब्जियों की गुणवत्ता में भले ही कमी आई हो, लेकिन वही सब्जी वाले और वही सब्जी वालियां। सिर्फ चेहरे बदले हैं, पीढ़ियां बदली है, समय और जगह बदली है।

पत्नी का स्वभाव थोड़ा थोड़ा मां जैसा होता जा रहा है। वह भी इन सब्जी वालियों में घुल मिल जाती है, कहां की हो, कितने बच्चे हैं। बहुत जल्द इंसान खुल जाता है, सुख दुख की बात करने लग जाता है।।

कुछ लोग इन सब्जी वालियों से भाव ताव भी करते हैं और नोंक झोंक भी। चोइथराम मंडी में टमाटर बीस रूपये किलो है और तुम अस्सी में दे रही हो, हद होती है लूट की। आप नहीं जानते, दिन भर में कितना कमा लेते हैं ये लोग। यहां लड़ाई झगड़ा भी होता है और मारपीट भी। यानी असली सब्जी मार्केट।

डी मार्ट, रिलायंस फ्रेश और बिग बास्केट से सब्जी खरीदने वालों की दुनिया ही अलग होती है, वहां न मोल भाव, और ना ही नगद भुगतान। उनकी दुनिया में ना गरीबी प्रवेश करती है और ना ही वे कभी गरीबों की बस्तियों में पांव रखते हैं। उनके लिए हर मेहनत मजदूरी करने वाला गरीब, मुफ्त राशनखोर, परजीवी है, समाज पर बोझ है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 236 – या घट अंतर बाग़-बग़ीचे ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 236 ☆ या घट अंतर बाग़-बग़ीचे ?

‘चरन्मार्गान्विजानाति।’

(महाभारत, आदिपर्व 133-23)

पथिक को मार्ग का ज्ञान स्वत: हो जाता है।

मनुष्य शाश्वत पथिक है। एक जीवन में  सारी जिज्ञासाओं का शमन नहीं हो सकता। फलत: वह लौट-लौट कर आता है। 84 लाख योनियों में जगत का भ्रमण करता है, पर्यटन करता है।

ध्यान रहे कि यात्रा पर्यटन नहीं है पर यात्रा का पर्यटन से गहरा  संबंध है। पर्यटन के लिए यात्रा अनिवार्य है।  पर्यटन निर्धारित स्थान की सायास घुमक्कड़ी है। तथापि हर यात्रा अपने आप में अनायास पर्यटन है।

भारत के संदर्भ में अधिकांश पर्यटन स्थल तीर्थ हो जाते हैं। मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा था, “टू अदर कंट्रीज़, आई मे गो एज़ अ टूरिस्ट, बट टू इंडिया, आई कम एज़ अ पिलग्रिम।” (“मैं दूसरे देशों में पर्यटक के तौर पर जा सकता हूँ पर भारत में मैं तीर्थयात्री के रूप में आता हूँ।”)

स्कंदपुराण के काशीखण्ड में तीन प्रकार के तीर्थों का उल्लेख मिलता है-जंगम तीर्थ, स्थावर तीर्थ और मानस तीर्थ। 

हम मानस तीर्थ की यात्रा पर चर्चा करेंगे। दुनिया का भ्रमण कर चुके पर्यटक भी इस अनन्य पर्यटन से वंचित रह जाते हैं। सच तो यह है कि हममें से अधिकांश इस पर्यटन स्थल तक कभी पहुँचे ही नहीं।

एक दृष्टांत द्वारा इसे स्पष्ट करता हूँ। एक भिक्षुक था। भिक्षुक बिरादरी में भी घोर भिक्षुक। जीवन भर आधा पेट रहा। एक कच्ची झोपड़ी में पड़ा रहता। एक दिन आधा पेट मर गया। बाद में उस स्थान पर किसी इमारत का काम आरंभ हुआ। झोपड़ी वाले हिस्से की खुदाई हुई तो वहाँ बेशकीमती ख़ज़ाना निकला। जिस ख़ज़ाने की खोज में वह जीवन भर रहा,  वह तो ठीक उसके नीचे ही गड़ा था। हम सब की स्थिति भी यही है। हम सब एक अद्भुत कोष भीतर लिए जन्मे हैं लेकिन उसे बाहर खोज रहे  हैं।

भीतर के इस मानसतीर्थ का संदर्भ महाभारत के अनुशासन पर्व में मिलता है। दान-धर्म की चर्चा करते हुए अध्याय 108 में युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से सब तीर्थों में श्रेष्ठ तीर्थ की जानकारी चाही है। अपने उत्तर में मानस तीर्थ का वर्णन करते हुए पितामह कहते हैं, “जिसमें धैर्यरूप कुण्ड और सत्यरूप जल भरा हुआ है तथा जो अगाध, निर्मल एवं अत्यन्त शुद्ध है, उस मानस तीर्थ में सदा परमात्मा का आश्रय लेकर स्नान करना चाहिए। कामना और याचना का अभाव, सरलता, सत्य, मृद भाव, अहिंसा,  प्राणियों के प्रति क्रूरता का अभाव- दया, इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह- ये ही इस मानस तीर्थ के सेवन से प्राप्त होने वाली पवित्रता के लक्षण हैं। जो ममता, अहंकार, राग-द्वेषादि द्वन्द्व और परिग्रह से रहित  हैं, वे विशुद्ध अन्तःकरण वाले साधु पुरुष तीर्थस्वरूप हैं, किंतु जिसकी बुद्धि में अहंकार का नाम भी नहीं है, वह तत्त्वज्ञानी पुरुष श्रेष्ठ तीर्थ कहलाता है।”

वास्तव में स्थूल शरीर के माध्यम से यात्रा करते हुए हम स्वयं को शरीर भर मान बैठते हैं।  सच तो यह है कि हम शरीर नहीं अपितु शरीर में हैं। सत्य को भूलकर हम भीतर से बाहर की यात्रा में जुट जाते हैं जबकि अभीष्ट बाहर से भीतर की यात्रा होती है।

इस यात्रा पर जो निकला, वह मालामाल हो गया‌। सारी सृष्टि के बाग़-बग़ीचे भी फीके हैं इस भीतरी पर्यटन के आगे। संत कबीर लिखते हैं,

या घट अंतर बाग़-बग़ीचे, या ही में सिरजनहारा।

या घट अंतर सात समुंदर, या ही में नौ लख तारा।

या घट अंतर पारस मोती, या ही में परखनहारा।

या घट अंतर अनहद गरजै, या ही में उठत फुहारा।

कहत कबीर सुनो भाई साधो, या ही में साँई हमारा॥

भीतर का पर्यटन सायास और अनायास दोनों है। इस पर्यटन में सतत अनुसंधान भी है।

यह एक ऐसा पर्यटनलोक है, जिसके एक खंड की रजिस्ट्री हर मनुष्य के नाम हैं। हरेक के पास स्वतंत्र हिस्सा है। ऐसा पर्यटनलोक जो सबके लिए सुलभ है, नि:शुल्क है, बारहमासी है, प्रति पल है।

जितनी यात्रा भीतर होगी, जगत को देखने की दृष्टि उतनी ही बदलती चली जाएगी। लगेगा कि आनंद ही आनंद बरस रहा है। रसघन है, छमाछम वर्षा हो रही है, भीग रहे हो, सब कुछ नेत्रसुखद, सारे भारों से मुक्त होकर नृत्य करने लगोगे।

छुट्टियों का समय है, पर्यटन का समय है। चलो पर्यटक बनें, अपने भीतर का भ्रमण करें। पर्यटन से अभिप्रेत परमानंद यही है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित साधना मंगलवार (गुढी पाडवा) 9 अप्रैल से आरम्भ होगी और श्रीरामनवमी अर्थात 17 अप्रैल को विराम लेगी 💥

🕉️ इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी करें। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना भी साथ चलेंगी 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 339 ⇒ संपादक मेहरबान… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “संपादक मेहरबान।)

?अभी अभी # 339 ⇒ संपादक मेहरबान? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जो लिखता है, वह लेखक नहीं कहलाता, जो छपता है, वही लेखक कहलाता है। अगर संपादक मेहरबान तो लेखक पहलवान। आप कहीं भी छपें, अखबार में अथवा किसी पत्रिका में, या फिर आपकी कोई किताब प्रकाशित हो, तब ही तो आप लेखक कहलाएंगे।

गए वे दिन, जब लेखक वही कहलाता था, जिसकी कोई किताब प्रकाशित होती थी। तब स्थिति यह थी, प्रकाशक मेहरबान, तो लेखक पहलवान। लेकिन आज समय ने लेखक को इतना आर्थिक और बौद्धिक रूप से संपन्न कर दिया है कि उसे किसी प्रकाशक की मिन्नत ही नहीं करनी पड़ती। किताब लिख, अमेजान पर डाल।।

कलयुग में जो छप जाए, वही साहित्य कहलाता है। अखबारों के संपादक लेखक के लिए भगवान होते हैं। अखबार का क्या है, वह तो विज्ञापन से ही चल जाएगा, लेकिन लेखक की कोई रचना, तब ही रचना कहलाएगी, जब वह कहीं छप जाएगी।

किसी अखबार के संपादक को पत्रकार कहा जाता है, साहित्यकार नहीं। होगा सबका मालिक एक, लेकिन संपादक का असली मालिक तो अखबार का मालिक ही होता है। मालिक खुश, तो संपादक खुश।।

कभी लेखन भी एक विधा थी, लोग लिख लिखकर ही लेखक बना करते थे। अगर प्यार किया, तो कविता लिखी, दिल टूटा तो ग़ज़ल लिखी। संपादक के नाम पत्र लिखे, जब छपने लगे, तो कॉन्फिडेंस बढ़ा। अखबारों और संपादकों से भी पहचान बढ़ी। प्रतिभा कुछ सीढ़ी और चढ़ी और उनकी भी अखबार में रचना छपी।

उधर अखबारों और पत्रिकाओं का भी अपना एक स्तर होता था। जो स्थापित मंजे हुए लेखक होते थे, उनसे तो रचना के लिए आग्रह किया जाता था, लेकिन किसी नए लेखक को कई पापड़ बेलने होते थे। रचना अस्वीकृत होना आम बात थी। जो नर निराश नहीं होते थे, उनकी किस्मत का ताला आखिर खुल ही जाता था।।

शुरू शुरू में एक लेखक के लिए हर संपादक भगवान होता है। अगर संपादक मेहरबान तो लेखक पहलवान, लेकिन अगर एक बार ऊंट पहाड़ के नीचे आ गया, तो फिर लेखक भी संपादकी पर उतर आता है। याद कीजिए दिनमान के रघुवीर सहाय को, धर्मयुग के धर्मयुग भारती और साप्ताहिक हिंदुस्तान के मनोहर श्याम जोशी को।

जब लेखक ही संपादक हो, तो चर्चित लेखकों की तो पौ बारह।

साहित्यिक पत्रिकाओं की बात अलग है। ज्ञानोदय, सारिका, नई कहानियां, हंस और कथादेश तो लेखकों की अपनी ही जमीन रही है।।

इंदौर में एक अखबार ऐसा भी था, जो पत्रकारों और नवोदित लेखकों के लिए गुरुकुल और सांदीपनि आश्रम से कम नहीं था।

जहां राहुल बारपुते जैसे विद्वान और राजेंद्र माथुर जैसे जुझारू संपादक मौजूद हों, वह किसी नालंदा और तक्षशिला से कम नहीं।।

केवल एक पारखी को ही हीरे की पहचान होती है।

हर चमकती चीज सोना नहीं होती। एक कुशल संपादक ही किसी रचना की गुणवत्ता को परख सकता है। फिर भी कहीं कहीं ऊंची दुकान और फीके पकवान परोसे जा रहे हैं, और लोग चाव से खा भी रहे हैं। बस संपादक मेहरबान तो।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 338 ⇒ \ पीठ पीछे /… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “\ पीठ पीछे /।)

?अभी अभी # 338 ⇒ \ पीठ पीछे /? श्री प्रदीप शर्मा  ?

अपनी तो हर आह एक तूफान है।

ऊपर वाला, जानकर अनजान है ;

ऐसा हो ही नहीं सकता, कि वह सर्वज्ञ घट घट वासी, हमारी आह की आहट तक नहीं सुन पाए।

सब कुछ उसके नाक के नीचे ही तो हो रहा है, पीठ पीछे नहीं, इसीलिए कवि प्रदीप भी व्यथित होकर कहते हैं ;

देख तेरे इंसान की हालत

क्या हो गई भगवान।

कितना बदल गया इंसान।।

लेकिन हम तो भगवान नहीं, इंसान हैं। हम सर्वज्ञ नहीं, यहां तो हमारे पीठ पीछे क्या क्या हो जाता है, हमें कुछ पता ही नहीं चलता। आखिर जानकर भी क्या कर लेंगे। किसी ने सही कहा है, परदे में रहने दो, पर्दा ना उठाओ।

घर में हमारे पीठ पीछे, दफ्तर में बॉस के नाक के नीचे, थाने में थानेदार के रहते और मन्दिर में भगवान की आंख के नीचे, बहुत कुछ चलता ही रहता है। कुछ बातें हमें पता रहती हैं, तो कुछ से हम अनजान रहते हैं।।

जब छोटे थे, तो पिताजी से बहुत डर लगता था। पिताजी अनुशासनप्रिय जो थे। उधर पिताजी घर से निकले, और इधर उनकी पीठ पीछे हम भाई बहनों की धींगामुश्ती शुरू। शाम को पिताजी के आने से। पहले ही हम अच्छे बच्चे बन जाते थे।

स्कूल कॉलेज की तो बात ही कुछ और थी। जब तक सर नहीं आते, क्लास हाट बाजार बनी रहती थी, और उनके आते ही पिन ड्रॉप साइलेंस। यानी आपस में खुसुर पुसुर चालू। सर ने आज काला चश्मा लगाया है, इंप्रेशन मार रहे हैं। उधर उन्होंने ब्लैक बोर्ड की ओर मुंह किया और इधर इशारेबाजी शुरू। लगता है, आज नहाकर नहीं आए, शर्ट भी कल का ही पहना हुआ है। वे पलटकर पूछते, क्या चल रहा है, सर कुछ नहीं, कोई जवाब देता। लेकिन वे सब जानते थे, पीठ पीछे क्या चल रहा है। आखिर सास भी कभी बहू थी।।

परीक्षा में नकल कभी खुले आम नहीं होती। एक निगाह परीक्षक पर, और एक निगाह नकल पर, आखिर सब काम पीठ पीछे ही तो करना होता है। कुछ शिक्षक दयालु किस्म के होते थे, कुर्सी पर आंख बंद करके बैठे रहते थे, राम की चिड़िया, राम का खेत। और पूरी क्लास भरपेट नकल कर लेती थी।

वह दादाओं का जमाना था। दादाओं को नकल की पूरी छूट रहती थी, क्योंकि वे ढंग से नकल भी नहीं कर सकते थे। वैसे उन्हें भी कहां पास होने की पड़ी रहती थी। सब बाद में नेता, मंत्री, वकील बन गए और बचे खुचे पुलिस में चले गए।।

किसी के पीठ पीछे बात करने में वही सुख मिलता है, जो निंदा में मिलता है। वैसे भी पीठ पीछे अक्सर बुराई ही होती है, खुलकर तारीफ तो आमने सामने ही होती है। मालूम है, मिसेज गुप्ता आपके बारे में क्या कह रही थी। क्या करें, बिना बताए खाना जो हजम नहीं होता।

कुछ हमारी मर्यादा है, कुछ लोकाचार है, इसलिए कुछ काम पीठ पीछे ही किए जाते हैं। खुले आम रिश्वत नहीं दी जा सकती। जमीन और मकानों के सौदे होते हैं, रजिस्ट्री भी होती है। कितना नम्बर एक, कितना नंबर दो।

रजिस्ट्रार महोदय सब जानते हैं, पीठ पीछे का खेल।।

हमने तो कुछ ऐसे सज्जन पुरुष भी देखे हैं, जो लोगों की पीठ पीछे तारीफ करते हैं। पीठ पीछे कई नेक काम भी होते हैं, जिनका हमें पता ही नहीं चलता।

कौन आजकल नेकी कर, दरिया में डालता है।

मुख में राम, बगल में छुरी, कहावत यूं ही नहीं बनी। अच्छाई का ढोंग, और पीठ पीछे काले कारनामे, शायद इसे ही आज की दुनिया में संभ्रांत समाज कहते हैं। अब कोई ऐसी काजल की कोठरी नहीं, जिसमें कोई काला हो, इधर शरणागति, उधर सर्फ की सफेदी। पीठ पीछे नहीं, सब कुछ खुला खेल फरुखाबादी।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #227 ☆ रिश्ते बनाम संवेदनाएं… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख रिश्ते बनाम संवेदनाएं। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 227 ☆

☆ रिश्ते बनाम संवेदनाएं… ☆

सांसों की नमी ज़रूरी है, हर रिश्ते में/ रेत भी सूखी हो/ तो हाथों से फिसल जाती है। प्यार व सम्मान दो ऐसे तोहफ़े हैं; अगर देने लग जाओ/ तो बेज़ुबान भी झुक जाते हैं–जैसे जीने के लिए एहसासों की ज़रूरत है; संवेदनाओं की दरक़ार है। वे जीवन का आधार हैं, जो पारस्परिक प्रेम को बढ़ाती हैं; एक-दूसरे के क़रीब लाती हैं और उसका मूलाधार हैं एहसास। स्वयं को उसी सांचे में ढालकर दूसरे के सुख-दु:ख को अनुभव करना ही साधारणीकरण कहलाता है। जब आप दूसरों के भावों की उसी रूप में अनुभूति करते हैं; दु:ख में आंसू बहाते हैं तो वह विरेचन कहलाता है। सो! जब तक एहसास ज़िंदा हैं, तब तक आप भी ज़िंदा मनुष्य हैं और उनके मरने के पश्चात् आप भी निर्जीव वस्तु की भांति हो जाते हैं।

सो! रिश्तों में एहसासों की नमी ज़रूरी है, वरना रिश्ते सूखी रेत की भांति मुट्ठी से दरक़ जाते हैं। उन्हें ज़िंदा रखने के लिए आवश्यक है– सबके प्रति प्रेम की भावना रखना; उन्हें सम्मान देना व उनके अस्तित्व को स्वीकारना…यह प्रेम की अनिवार्य शर्त है। दूसरे शब्दों में जब आप अहं का त्याग कर देते हैं, तभी आप प्रतिपक्ष को सम्मान देने में समर्थ होते हैं। प्रेम के सम्मुख तो बेज़ुबान भी झुक जाते हैं। रिश्ते-नाते विश्वास पर क़ायम रह सकते हैं, अन्यथा वे पल-भर में दरक़ जाते हैं। विश्वास का अर्थ है, संशय, शंका, संदेह व अविश्वास से ही हृदय में इन भावों का पदार्पण होता है और संबंध तत्क्षण दरक़ जाते हैं, क्योंकि वे बहुत नाज़ुक होते हैं। ज़िंदगी की तपिश को सहन कीजिए, क्योंकि वे पौधे मुरझा जाते हैं, जिनकी परवरिश छाया में होती है। भरोसा जहां ज़िंदगी की सबसे महंगी शर्त है, वहीं त्याग व समर्पण का मूल आधार है। जब हमारे अंतर्मन से प्रतिदान का भाव लुप्त हो जाता है; संबंध प्रगाढ़ हो जाते हैं। इसलिए जीवन में देना सीखें। यदि कोई आपका दिल दु:खाता है, तो बुरा मत मानिए, क्योंकि प्रकृति का नियम है कि लोग उसी पेड़ पर पत्थर मारते हैं, जिस पर मीठे फल लगते हैं। सो! रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोग ग़ैरों की बातों में आकर अपनों से उलझ जाते हैं। इसलिए अपनों से कभी मत ग़िला-शिक़वा मत कीजिए।

‘जिसे आप भुला नहीं सकते, क्षमा कर दीजिए तथा जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते, भूल जाइए।’ हर पल, हर दिन प्रसन्न रहें और जीवन से प्यार करें; यह जीवन में शांत रहने के दो मार्ग हैं। जैन धर्म में भी क्षमापर्व मनाया जाता है। क्षमा मानव की अद्भुत व अनमोल निधि है। क्रोध करने से सबसे अधिक हानि क्रोध करने वाले की होती है, क्योंकि दूसरा पक्ष इस तथ्य से बेखबर होता है। रहीम जी ने भी ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात’ के माध्यम से यह संदेश दिया है। संवाद संबंधों की जीवन-रेखा है। इसे कभी मुरझाने मत दें। इसलिए कहा जाता है कि वॉकिंग डिस्टेंस भले रखें, टॉकिंग डिस्टेंस कभी मत रखें। स्नेह का धागा व संवाद की सूई उधड़ते रिश्तों की तुरपाई कर देते हैं। सो! संवाद बनाए रखें, अन्यथा आप आत्मकेंद्रित होकर रह जाएंगे। सब अपने-अपने द्वीप में कैद होकर रह जाएंगे… एक-दूसरे के सुख-दु:ख से बेखबर। ‘सोचा ना था, ज़िंदगी में ऐसे फ़साने होंगे/ रोना भी ज़रूरी होगा, आंसू भी छुपाने होंगे’ अर्थात् अजनबीपन का एहसास जीवन में इस क़दर रच-बस जाएगा और उस व्यूह से चाहकर भी उससे मुक्त नहीं हो पाएगा।

आज का युग कलयुग नहीं, मतलबी युग है। जब तक आप दूसरे के मन की करते हैं, तो अच्छे हैं। एक बार यदि आपने अपने मन की कर ली, तो सभी अच्छाइयां बुराइयों में तबदील हो जाती हैं। इसलिए विचारों की खूबसूरती जहां से मिले, चुरा लें, क्योंकि चेहरे की खूबसूरती तो समय के साथ बदल जाती है; मगर विचारों की खूबसूरती दिलों में हमेशा अमर रहती है। ज़िंदगी आईने की तरह है, वह तभी मुस्कराएगी, जब आप

मुस्कराएंगे। सो! रिश्ते बनाए रखने में सबसे अधिक तक़लीफ यूं आती है कि हम आधा सुनते हैं; चौथाई समझते हैं; बीच-बीच में बोलते रहते हैं और बिना सोचे-समझे प्रतिक्रिया व्यक्त कर देते हैं। सो! उससे रिश्ते आहत होते हैं। यदि आप रिश्तों को लंबे समय तक बनाए रखना चाहते हैं, तो जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार लें, क्योंकि अपेक्षा और इच्छा सब दु:खों की जननी है और वे दोनों स्थितियां ही भयावह होती हैं। मानव को इनके चंगुल से बचकर रहना चाहिए। हमें आत्मविश्वास रूपी धरोहर को संजोकर रखना चाहिए और साहस व धैर्य का दामन थामे आगे बढ़ना चाहिए, क्योंकि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। जहां कोशिशों का क़द बड़ा होता है; उनके सामने नसीबों को भी झुकना पड़ता है। ‘है अंधेरी रात, पर दीपक जलाना कब मना है।’ आप निरंतर कर्मरत रहिए, आपको सफलता अवश्य प्राप्त होगी। रिश्तों को बचाने के लिए एहसासों को ज़िंदा रखिए, ताकि आपका मान-सम्मान बना रहे और आप स्व-पर व राग-द्वेष से सदा ऊपर उठ सकें। संवेदना ऐसा शस्त्र है, जिससे आप दूसरों के हृदय पर विजय प्राप्त कर सकते हैं और उसके घर के सामने नहीं; उसके घर में जगह बना सकते हैं। संवेदना के रहने पर संबंध शाश्वत बने रह सकते हैं। रिश्ते तोड़ने नहीं चाहिए। परंतु जहां सम्मान न हो; जोड़ने भी नहीं चाहिएं। आज के रिश्तों की परिभाषा यह है कि ‘पहाड़ियों की तरह ख़ामोश हैं/ आज के संबंध व रिश्ते/ जब तक हम न पुकारें/ उधर से आवाज़ ही नहीं आती।’ सचमुच यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

23 फरवरी 2024**

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 337 ⇒ लहरों के राजहंस… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लहरों के राजहंस।)

?अभी अभी # 337 ⇒ लहरों के राजहंस? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जलाशय और हमारे मन में बहुत समानता है। जल मे भी तरंग उठती है, और हमारे मन में भी। तरंग कुछ नहीं एक तरह की मौज है, जो कभी भी लहर का रूप धारण कर लेती है। जयशंकर प्रसाद ने इसी तरंग में अपनी कृति “लहर” की रचना कर दी। हमारे मन में विचारों का प्रवाह भी लहरों के समान ही आता जाता रहता है।

समुद्र की लहर तो दिखाई भी दे जाती है, लेकिन कुछ लहरें ऐसी भी होती हैं, जिन्हें सिर्फ महसूस किया जा सकता है। कब इस उदास मन में किस खबर से हर्ष की लहर दौड़ जाए कुछ कहा नहीं जा सकता।।

इस गर्मी में तो केवल दो ही लहर नजर आएगी, एक गर्म लहर जिसे हम लू कहते हैं, और दूसरी चुनावी लहर। लू लगना ठीक नहीं लेकिन अगर किसी की अच्छी तरह लू उतारना पड़े, तो वह नेक काम भी कर ही देना चाहिए। शीत लहर में लहर तो क्या, पानी भी बर्फ हो जाता है। ऐसे में केवल तरावट और गर्माहट की लहर ही काम आती है।

इस देश ने कांग्रेस की लहर भी देखी है, जनता लहर भी देखी है, और अब मोदी लहर भी देख रही है। लहर का क्या है, कब समंदर की कोई मासूम लहर सुनामी बन जाए। जो हमसे टकराएगा, उसका सूपड़ा साफ हो जाएगा।।

कुछ होते हैं लहरबाज, उन्हें लहरों पर खेलने में मजा आता है। लहरबाज़ी या लहरसवारी या तरंगक्रीडा (अंग्रेज़ी: surfing, सरफ़िंग) समुद्र की लहरों पर किया जाने वाला एक खेल है जिसमें लहरबाज़ (सरफ़र) एक फट्टे पर संतुलन बनाकर खड़े रहते हुए तट की तरफ़ आती किसी लहर पर सवारी करते हैं। लहरबाज़ों के फट्टों को ‘लहरतख़्ता’ या ‘सर्फ़बोर्ड’ (surfboard) कहा जाता है। लहरबाज़ी का आविष्कार हवाई द्वीपों के मूल आदिवासियों ने किया था और वहाँ से यह विश्वभर में फैल गया।

एक पक्षी होता है राजहंस जिसकी टांगें बहुत लंबी और पतली होती है, अपनी तीखी चोंच से वह शिकार करता है। हंसावर नहीं, खिले सरसी में पंकज”- पानी में खड़े राजहंस गुलाबी खिले हुए कमल के समान प्रतीत होते हैं। राजहंस (फ्लैमिंगो) एक शोभायमान पक्षी है।।

कोई राजहंस ही लहरों पर राज कर सकता है। छोटी बड़ी मछलियों की परवाह किए बगैर, साम, दाम, दंड, भेद ही उसका नीर, क्षीर, विवेक होता है।

केवल शीर्षक के लिए ही स्व. मोहन राकेश का आभार प्रकट किया जा सकता है। सच तो यह है कि राजनीति में सभी कौए हंस की ही चाल चलते हैं। आम आदमी बेचारा किनारे बैठा बैठा बड़ी उम्मीद से राह देख रहा है, कभी तो लहर आएगी, कभी तो लहर आएगी।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 190 ☆ छिन्न पात्र ले कंपित कर में… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना छिन्न पात्र ले कंपित कर में। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 190 ☆ छिन्न पात्र ले कंपित कर में

वैचारिक क्रांति के बहाने, मीठे सुर ताल में, कड़वे बोल, लयबद्ध तरीके से, लोकभाषा की आड़ में बोलने पर तकनीकी लाभ भले हो पर आत्म सम्मान नहीं मिलेगा। लोग देखेंगे, सुनेंगे पर मन ही मन ऐसी ओछी हरकत पर कोसेंगे। जिस डाल पर बैठें हों, उसे काटना कहाँ की समझदारी है।

जब बात अच्छी शिक्षा हो तो ऐसे लोगों के आसपास रहने वालों से भी दूर हो जाना चाहिए।ये पहले घर पर ही माचिस लगाते हैं उसके बाद दाना पानी, चूल्हा चौका सब बंद करवा कर रोजी रोटी पर हाथ साफ करते हैं। इनके शुभचिंतक बेरोजगारी का दामन थामें, पिछलग्गू बनकर इन्हें गाड़ी में बिठाकर इधर से उधर पहुँचाते हैं। भीड़तंत्र का मतलब ये नहीं है कि आप लोकतंत्र को चुनौती दे पाएंगे, आज भी सच्चाई, धर्म की शक्ति, आस्थावान लोग, न्यायप्रियता के साथ भारत को विश्वगुरु बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। जोड़तोड़ के बल पर असत्य की राह पकड़कर, कमजोर के सहारे हार को ही वरण किया जा सकता है। जब तक श्रेष्ठ मार्गदर्शक न हो तब तक मंजिल नहीं मिलेगी। कभी कुछ कभी कुछ करते हुए बस टाइमपास हो सकता है। जैसी संगत वैसी रंगत,सब असहाय साथ होने से कोई सहाय नहीं होगा। एक दूसरे को डुबा -डुबा कर चलते रहिए, जो तैरना जानते हैं वे किनारे पकड़ कर मनपसंद तट पर जा पहुँचेगे बाकी तो हो हल्ला करते हुए दोषारोपण करेंगे और करवाने के लिए बिना दिमाग़ के कमजोर लोगों को इकट्ठा करके करवाएंगे।

आप की आस्था किसके साथ है ये तो आने वाला वक्त तय करेगा। अभी समय है, सत्य के साथ जुड़िए क्योंकि हर युग में जीत केवल धर्म की होती है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 274 ☆ आलेख – भगत सिंह की राह के ही राही उधमसिंग ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख भगत सिंह की राह के ही राही उधमसिंग। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 274 ☆

? आलेख – भगत सिंह की राह के ही राही उधमसिंग ?

उधमसिंग और भगत सिंह में अद्भुत साम्य था. जो कार्य देश में भगत सिंह कर रहे थे उधमसिंग देश से बाहर वही काम कर रहे थे.

13 मार्च 1940 की उस शाम लंदन का कैक्सटन हॉल लोगों से खचाखच भरा हुआ था. मौका था ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की एक बैठक का. हॉल में बैठे कई भारतीयों में एक ऐसा भी था जिसके ओवरकोट में एक मोटी किताब थी. यह किताब एक खास मकसद के साथ यहां लाई गई थी. इसके भीतर के पन्नों को चतुराई से काटकर इसमें एक रिवॉल्वर रख दिया गया था.

बैठक खत्म हुई. सब लोग अपनी-अपनी जगह से उठकर जाने लगे. इसी दौरान इस भारतीय ने वह किताब खोली और रिवॉल्वर निकालकर बैठक के वक्ताओं में से एक माइकल ओ’ ड्वायर पर फायर कर दिया. ड्वॉयर को दो गोलियां लगीं और पंजाब के इस पूर्व गवर्नर की मौके पर ही मौत हो गई. हाल में भगदड़ मच गई. लेकिन इस भारतीय ने भागने की कोशिश नहीं की. उसे गिरफ्तार कर लिया गया. ब्रिटेन में ही उस पर मुकदमा चला और 31 जुलाई 1940 को उसे फांसी हो गई. इस क्रांतिकारी का नाम उधम सिंह था.  

भरी सभा चलाई गई  इस गोली के पीछे अमृतसर के प्रसिद्ध स्वर्ण मंदिर के बाजू में जलियांवाला बाग के बंद मैदान में किया गया गोलीकांड था. यह गोलीकांड 13 अप्रैल 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुआ था. इस दिन अंग्रेज जनरल रेजिनाल्ड एडवार्ड हैरी डायर के हुक्म पर इस बाग में इकट्ठा हुए हजारों लोगों पर गोलियों की बारिश कर दी गई थी.  ड्वॉयर के पास तब पंजाब के गवर्नर का पद था और उसने जनरल डायर की कार्रवाई का समर्थन किया था. मिलते-जुलते नाम के कारण बहुत से लोग मानते हैं कि उधम सिंह ने जनरल डायर को मारा. लेकिन ऐसा नहीं था. इस गोलीकांड को अंजाम देने वाले जनरल डायर की 1927 में ही लकवे और कई दूसरी बीमारियों की वजह से मौत हो चुकी थी.

जलियांवाला बाग  एक बंद मैदान है  जहाँ से बाहर जाने का एक ही संकरा मार्ग  है, उस पर जनरल डायर की पोलिस जमी हुई थी. घिरे हुये लोगो का वह दिल दहला देने वाला हत्याकाण्ड उधमसिंह ने बेबस एक कोने में दुबके हुये स्वयं देखा था.   तभी उन्होंने ठान लिया था कि इस नरसंहार का बदला लेना है. उधमसिंह भगत सिंह से बहुत प्रभावित थे. दोनों दोस्त भी थे.  भगत सिंह से उनकी पहली मुलाकात लाहौर जेल में हुई थी. दोनों क्रांतिकारियों की कहानी में बहुत दिलचस्प समानताएं  हैं.  दोनों पंजाब से थे. दोनों ही नास्तिक थे. दोनों हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे. दोनों की जिंदगी की दिशा तय करने में जलियांवाला बाग कांड की बड़ी भूमिका रही. दोनों को लगभग एक जैसे मामले में सजा हुई. जहाँ स्काट की जगह भगत सिंह ने साण्डर्स पर सरे राह गोली चलाई वहीं मुझे जनरल डायर की जगह  ड्वायर को निशाना बनाना पड़ा, क्योकि डायर की पहले ही मौत हो चुकी थी. भगत सिंह की तरह उधमसिंह ने भी फांसी से पहले कोई धार्मिक ग्रंथ पढ़ने से इनकार कर दिया था. उधमसिंह भी सर्व धर्म समभाव में यकीन करते थे. इसीलिए उधमसिंह  अपना नाम  मोहम्मद आज़ाद सिंह लिखा करते थे . उन्होंने यह नाम अपनी कलाई पर भी गुदवा लिया था.

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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