श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “संपादक मेहरबान।)

?अभी अभी # 339 ⇒ संपादक मेहरबान? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जो लिखता है, वह लेखक नहीं कहलाता, जो छपता है, वही लेखक कहलाता है। अगर संपादक मेहरबान तो लेखक पहलवान। आप कहीं भी छपें, अखबार में अथवा किसी पत्रिका में, या फिर आपकी कोई किताब प्रकाशित हो, तब ही तो आप लेखक कहलाएंगे।

गए वे दिन, जब लेखक वही कहलाता था, जिसकी कोई किताब प्रकाशित होती थी। तब स्थिति यह थी, प्रकाशक मेहरबान, तो लेखक पहलवान। लेकिन आज समय ने लेखक को इतना आर्थिक और बौद्धिक रूप से संपन्न कर दिया है कि उसे किसी प्रकाशक की मिन्नत ही नहीं करनी पड़ती। किताब लिख, अमेजान पर डाल।।

कलयुग में जो छप जाए, वही साहित्य कहलाता है। अखबारों के संपादक लेखक के लिए भगवान होते हैं। अखबार का क्या है, वह तो विज्ञापन से ही चल जाएगा, लेकिन लेखक की कोई रचना, तब ही रचना कहलाएगी, जब वह कहीं छप जाएगी।

किसी अखबार के संपादक को पत्रकार कहा जाता है, साहित्यकार नहीं। होगा सबका मालिक एक, लेकिन संपादक का असली मालिक तो अखबार का मालिक ही होता है। मालिक खुश, तो संपादक खुश।।

कभी लेखन भी एक विधा थी, लोग लिख लिखकर ही लेखक बना करते थे। अगर प्यार किया, तो कविता लिखी, दिल टूटा तो ग़ज़ल लिखी। संपादक के नाम पत्र लिखे, जब छपने लगे, तो कॉन्फिडेंस बढ़ा। अखबारों और संपादकों से भी पहचान बढ़ी। प्रतिभा कुछ सीढ़ी और चढ़ी और उनकी भी अखबार में रचना छपी।

उधर अखबारों और पत्रिकाओं का भी अपना एक स्तर होता था। जो स्थापित मंजे हुए लेखक होते थे, उनसे तो रचना के लिए आग्रह किया जाता था, लेकिन किसी नए लेखक को कई पापड़ बेलने होते थे। रचना अस्वीकृत होना आम बात थी। जो नर निराश नहीं होते थे, उनकी किस्मत का ताला आखिर खुल ही जाता था।।

शुरू शुरू में एक लेखक के लिए हर संपादक भगवान होता है। अगर संपादक मेहरबान तो लेखक पहलवान, लेकिन अगर एक बार ऊंट पहाड़ के नीचे आ गया, तो फिर लेखक भी संपादकी पर उतर आता है। याद कीजिए दिनमान के रघुवीर सहाय को, धर्मयुग के धर्मयुग भारती और साप्ताहिक हिंदुस्तान के मनोहर श्याम जोशी को।

जब लेखक ही संपादक हो, तो चर्चित लेखकों की तो पौ बारह।

साहित्यिक पत्रिकाओं की बात अलग है। ज्ञानोदय, सारिका, नई कहानियां, हंस और कथादेश तो लेखकों की अपनी ही जमीन रही है।।

इंदौर में एक अखबार ऐसा भी था, जो पत्रकारों और नवोदित लेखकों के लिए गुरुकुल और सांदीपनि आश्रम से कम नहीं था।

जहां राहुल बारपुते जैसे विद्वान और राजेंद्र माथुर जैसे जुझारू संपादक मौजूद हों, वह किसी नालंदा और तक्षशिला से कम नहीं।।

केवल एक पारखी को ही हीरे की पहचान होती है।

हर चमकती चीज सोना नहीं होती। एक कुशल संपादक ही किसी रचना की गुणवत्ता को परख सकता है। फिर भी कहीं कहीं ऊंची दुकान और फीके पकवान परोसे जा रहे हैं, और लोग चाव से खा भी रहे हैं। बस संपादक मेहरबान तो।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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