श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 236 ☆ या घट अंतर बाग़-बग़ीचे ?

‘चरन्मार्गान्विजानाति।’

(महाभारत, आदिपर्व 133-23)

पथिक को मार्ग का ज्ञान स्वत: हो जाता है।

मनुष्य शाश्वत पथिक है। एक जीवन में  सारी जिज्ञासाओं का शमन नहीं हो सकता। फलत: वह लौट-लौट कर आता है। 84 लाख योनियों में जगत का भ्रमण करता है, पर्यटन करता है।

ध्यान रहे कि यात्रा पर्यटन नहीं है पर यात्रा का पर्यटन से गहरा  संबंध है। पर्यटन के लिए यात्रा अनिवार्य है।  पर्यटन निर्धारित स्थान की सायास घुमक्कड़ी है। तथापि हर यात्रा अपने आप में अनायास पर्यटन है।

भारत के संदर्भ में अधिकांश पर्यटन स्थल तीर्थ हो जाते हैं। मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा था, “टू अदर कंट्रीज़, आई मे गो एज़ अ टूरिस्ट, बट टू इंडिया, आई कम एज़ अ पिलग्रिम।” (“मैं दूसरे देशों में पर्यटक के तौर पर जा सकता हूँ पर भारत में मैं तीर्थयात्री के रूप में आता हूँ।”)

स्कंदपुराण के काशीखण्ड में तीन प्रकार के तीर्थों का उल्लेख मिलता है-जंगम तीर्थ, स्थावर तीर्थ और मानस तीर्थ। 

हम मानस तीर्थ की यात्रा पर चर्चा करेंगे। दुनिया का भ्रमण कर चुके पर्यटक भी इस अनन्य पर्यटन से वंचित रह जाते हैं। सच तो यह है कि हममें से अधिकांश इस पर्यटन स्थल तक कभी पहुँचे ही नहीं।

एक दृष्टांत द्वारा इसे स्पष्ट करता हूँ। एक भिक्षुक था। भिक्षुक बिरादरी में भी घोर भिक्षुक। जीवन भर आधा पेट रहा। एक कच्ची झोपड़ी में पड़ा रहता। एक दिन आधा पेट मर गया। बाद में उस स्थान पर किसी इमारत का काम आरंभ हुआ। झोपड़ी वाले हिस्से की खुदाई हुई तो वहाँ बेशकीमती ख़ज़ाना निकला। जिस ख़ज़ाने की खोज में वह जीवन भर रहा,  वह तो ठीक उसके नीचे ही गड़ा था। हम सब की स्थिति भी यही है। हम सब एक अद्भुत कोष भीतर लिए जन्मे हैं लेकिन उसे बाहर खोज रहे  हैं।

भीतर के इस मानसतीर्थ का संदर्भ महाभारत के अनुशासन पर्व में मिलता है। दान-धर्म की चर्चा करते हुए अध्याय 108 में युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से सब तीर्थों में श्रेष्ठ तीर्थ की जानकारी चाही है। अपने उत्तर में मानस तीर्थ का वर्णन करते हुए पितामह कहते हैं, “जिसमें धैर्यरूप कुण्ड और सत्यरूप जल भरा हुआ है तथा जो अगाध, निर्मल एवं अत्यन्त शुद्ध है, उस मानस तीर्थ में सदा परमात्मा का आश्रय लेकर स्नान करना चाहिए। कामना और याचना का अभाव, सरलता, सत्य, मृद भाव, अहिंसा,  प्राणियों के प्रति क्रूरता का अभाव- दया, इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह- ये ही इस मानस तीर्थ के सेवन से प्राप्त होने वाली पवित्रता के लक्षण हैं। जो ममता, अहंकार, राग-द्वेषादि द्वन्द्व और परिग्रह से रहित  हैं, वे विशुद्ध अन्तःकरण वाले साधु पुरुष तीर्थस्वरूप हैं, किंतु जिसकी बुद्धि में अहंकार का नाम भी नहीं है, वह तत्त्वज्ञानी पुरुष श्रेष्ठ तीर्थ कहलाता है।”

वास्तव में स्थूल शरीर के माध्यम से यात्रा करते हुए हम स्वयं को शरीर भर मान बैठते हैं।  सच तो यह है कि हम शरीर नहीं अपितु शरीर में हैं। सत्य को भूलकर हम भीतर से बाहर की यात्रा में जुट जाते हैं जबकि अभीष्ट बाहर से भीतर की यात्रा होती है।

इस यात्रा पर जो निकला, वह मालामाल हो गया‌। सारी सृष्टि के बाग़-बग़ीचे भी फीके हैं इस भीतरी पर्यटन के आगे। संत कबीर लिखते हैं,

या घट अंतर बाग़-बग़ीचे, या ही में सिरजनहारा।

या घट अंतर सात समुंदर, या ही में नौ लख तारा।

या घट अंतर पारस मोती, या ही में परखनहारा।

या घट अंतर अनहद गरजै, या ही में उठत फुहारा।

कहत कबीर सुनो भाई साधो, या ही में साँई हमारा॥

भीतर का पर्यटन सायास और अनायास दोनों है। इस पर्यटन में सतत अनुसंधान भी है।

यह एक ऐसा पर्यटनलोक है, जिसके एक खंड की रजिस्ट्री हर मनुष्य के नाम हैं। हरेक के पास स्वतंत्र हिस्सा है। ऐसा पर्यटनलोक जो सबके लिए सुलभ है, नि:शुल्क है, बारहमासी है, प्रति पल है।

जितनी यात्रा भीतर होगी, जगत को देखने की दृष्टि उतनी ही बदलती चली जाएगी। लगेगा कि आनंद ही आनंद बरस रहा है। रसघन है, छमाछम वर्षा हो रही है, भीग रहे हो, सब कुछ नेत्रसुखद, सारे भारों से मुक्त होकर नृत्य करने लगोगे।

छुट्टियों का समय है, पर्यटन का समय है। चलो पर्यटक बनें, अपने भीतर का भ्रमण करें। पर्यटन से अभिप्रेत परमानंद यही है।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित साधना मंगलवार (गुढी पाडवा) 9 अप्रैल से आरम्भ होगी और श्रीरामनवमी अर्थात 17 अप्रैल को विराम लेगी 💥

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अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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