हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ महाराष्ट्र दिवस विशेष – ‘जय जय महाराष्ट्र मेरा’- १ मई २०२४ – ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव ☆

डाॅ. मीना श्रीवास्तव

☆ आलेख ☆ महाराष्ट्र दिवस विशेष – ‘जय जय महाराष्ट्र मेरा’- १ मई २०२४ ☆ डाॅ. मीना श्रीवास्तव

नमस्कार पाठकगण, 

आप सबको महाराष्ट्र दिन के अवसर पर बहुत सारी शुभकामनाएँ !

एक मई, २०२४, महाराष्ट्र दिवस, मेरे लाडले महाराष्ट्र का “दिल से” बखान करने का दिन! जिस पवित्र भूमि पर मैंने जन्म लिया, उस भूमि का गुणगान, कीर्तन, पूजन, अर्चन इत्यादि कैसे करूँ? उसके बजाय इस मंगलमय दिन शब्दपुष्पों की सुन्दर माला ही उसके कंठ में डालती हूँ!

महाराष्ट्र के पुण्य भूमि में जन्म लिया, यह निश्चित ही मेरे पूर्व जन्मों के पुण्य का ही फल होगा! इस महान महाराष्ट्र देश के गौरवशाली वैभव तथा प्रचुरता मैं एक मुख से कैसे वर्णन करूँ? उसके लिए प्रतिभाशाली शब्दप्रभू गोविंदाग्रज रचित “मंगल देश” महाराष्ट्र का मनमोहक महिमा-गीत ही सुनना होगा!

प्रिय मित्रों, महाराष्ट्र यानि छत्रपती शिवाजी महाराज, परन्तु छत्रपती शिवाजी महाराज यानि महाराष्ट्र, यह संकुचित विचार मन में लाना यानि, साक्षात् शिवाजी महाराजा का अपमान हुआ, उनकी संघटन शक्ति का उदाहरण दूँ तो उनकी दूरदृष्टि हमें अचंभित किये बगैर रहती नहीं| महाराज की फ़ौज में उनके सहवास में आकर पावन हुए तथा पहले से ही पवित्र रहे १८ प्रकार की जातियों के और प्रत्येक धर्म के मावळे स्वराज्य कंकण को अभिमान से प्रदर्शित करते हुए उनके प्रत्येक स्वराज्य-अभियान में अत्यंत आत्मविश्वासपूर्वक, लगनसे और जी जान से शामिल होते थे| उनका शौर्य, पराक्रम, बुद्धिमत्ता, रणकौशल्य इत्यादि इत्यादि के बारे में मेरे जैसी क्षुद्र व्यक्ति क्या लिखे, केवल नतमस्तक हो कर कहती हूँ “शिवराय का स्मरण करें रूप, शिवराय का स्मरण करें प्रताप”! उन्होंने मुघल बादशहा औरंगजेब और सारे नए-पुराने अस्त्र-शस्त्र के साथ सज्जित उसकी फौज का आक्रमण रोका, इतना ही नहीं, उनका पारिपत्य भी किया| यह करते हुए अपनी मुठ्ठी भर फौज की सहायता से “गनिमी नीति” अमल में लाते हुए इस “दक्खन के चूहे” ने औरंगजेब के नाक में दम कर दिया| उसका वर्चस्व नकारते हुए “स्वराज्य की पताका” लहराने वाले हमारे वास्तविक हृदयसम्राट गो-ब्राम्हण प्रतिपालक ऐसे शिवाजी महाराज!

हमारी भक्ति से जुडे है हमारे प्रिय विठ्ठ्ल (जो हमारी माऊली (माता) के रूप में पंढरपूर में स्थित हैं), दुर्गा के साढे तीन शक्तिपीठ और गणेशजी के आठ रूप (अष्टविनायक), शेगाव के गजानन महाराज तथा शिर्डी के साईबाबा इत्यादी इत्यादी! मेरा महाराष्ट्र देश संतों के वास्तव्य से पुनीत हुआ है| “चलें पंढरी की राह पर” इस बुलावे पर संत ज्ञानेश्वर, संत एकनाथ, संत तुकाराम, संत नामदेव, इत्यादि संतों के पीछे हजारों की संख्या में “दिंडी” में सम्मिलित हो कर “राम कृष्ण हरी” का ताल और मृदुंग सहित जयघोष करनेवाले “वारकरी” आज भी उसी भक्ति से “वारी” करते हुए इस अनमोल भक्ति का उपहार विठठ्ल के चरणों में अर्पण कर रहे हैं| भक्तिमार्ग की सर्वसमावेशक प्रतीक यह “पंढरी की वारी” महाराष्ट्र की बहुमोल सांस्कृतिक विरासत है!

महाराष्ट्र के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, राजकीय और समाज प्रबोधन की धनी विरासत का क्या वर्णन करें? बस नाम का उच्चारण ही पर्याप्त होगा, अपने आप ही हाथ जुड़ जायेगे आदर सहित प्रणाम करने के लिए! हम जिस स्वतंत्रता का मनमौजी हो कर उपभोग कर रहे हैं, वह प्राप्त करने हेतु यहाँ के अनेक क्रांतिकारकोंने अपना सर्वस्व अर्पण किया| कितने ही नाम लें! आइये, आज हम उनके स्म्रुति-चरणों में नतमस्तक होते हैं!

अभिजात भाषा और कितनी समृद्ध हो सकती है? सरकार के दरबार में “मराठी”, मेरी मातृभाषा को यह दर्जा कब प्राप्त होगा? इस महाराष्ट्र में निर्मित साहित्य यानि साक्षात अमृतकलश! कई वर्षों पूर्व (१२९०) उसकी महिमा का गान गाते हुए “ज्ञानेश्वर माऊली ने रचे ये शब्द “माझ्या मराठीचे बोल कवतुके। परी अमृतातेंही पैजा जिंके। ऐसी अक्षरे रसिकें। मेळवीन॥“(रसिक जनों, मेरी मराठी के मधुर और सुन्दर बोलों का क्या बखान करूँ, अमृत से भी शर्त जीत ले, ऐसे अक्षरों का मैं निर्माण करूँगा)! जिस महाराष्ट्र में सुसम्पन्न सुविचारों तथा अभिजात संस्कारों के स्वर्णकमल प्रफुल्लित हैं, जहाँ भक्तिरस से ओतप्रोत अभंग और शृंगाररस से सरोबार लावण्यखणी लावणी जैसे बहुमोल रत्न एक ही इतिहास की पेटिका में आनंद से विराजते हैं, वहीँ रसिकता की संपन्नता के नित्य नूतन अध्याय लिखे जाते हैं|

इस अभिजात साहित्य के रचयिता हरी नारायण आपटे, आचार्य अत्रे, राम गणेश गडकरी, कुसुमाग्रज, पु. ल. देशपांडे, कितने ही नाम लूँ, कम ही होंगे! इस साहित्य का स्वर्ण जितना ही लुटाऊँ, उतना ही  वृद्धिंगत होगा! महाराष्ट्र की संगीत परंपरा बहुत ही पुरातन और समृध्द है| संगीत नाटकों की परंपरा यानि हमारे महाराष्ट्र की खासियत तथा उसका एकाधिकार ही समझ लीजिए! स्त्री सौंदर्य के नवोन्मेषयुक्त मानदंड निर्माण करने वाले बालगंधर्व! उनका हम रसिकोंको बहुत विस्मयकारक कौतुक है! जिनके स्त्रीसुलभ विभ्रम साक्षात् यहाँ की स्त्रियों को इतना मोहित करें कि, वें उनका अनुकरण करने लगें, ऐसा रसिकों को अक्षरशः पागल कर देने वाला यह अनोखा कलाकार!

मुंबापुरी और कोल्हापूर यानि सिनेमा उद्योग की खान ही समझें! सिल्वर स्क्रीन के “प्रथम पटल” का निर्माण करने वाले दादासाहेब फाळके ही थे! दूसरे प्रांतों से मुंबई की मायानगरीत में आकर बसे हुए और कर्म से मराठी का अभिमानपूर्वक बखान करने वाले संगीतकारों, गायकों, गीतकारों तथा कलाकारों की सूची खत्म ही नहीं होती| ऐसे महाराष्ट्र को १ मई १९६० के दिन स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिया गया| इस स्वतंत्र महाराष्ट्र के पहले मुखमंत्री थे, यशवंतराव चव्हाण!

अब हम महाराष्ट्र दिवस का इतिहास जानने का प्रयास करते हैं| इस इतिहास में मनोरंजन का तनिक भी अंश नहीं है, अपितु है एक काला चौखटा जिसमें बंदिस्त हैं स्मृतियाँ हुतात्माओं के रक्तलांछित बलिदानों की! २१ नवम्बर १९५६ के दिन मुंबई में स्थित फ्लोरा फाउंटन के आसपास तनाव महसूस हो रहा था| इसका कारण था, राज्य पुनर्रचना आयोगने महाराष्ट्र में मुंबई को विलीन करने का प्रस्ताव नकार दिया था| इस अन्यायकारक निर्णय के फलस्वरूप मराठी लोगोंका क्रोध चरम सीमा पर पहुँच गया था| जगह-जगह होने वाली छोटी-बड़ी सभाओं में इस निर्णय का सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन हो रहा था। इसका परिणाम वहीँ हुआ जिसकी अपेक्षा थी, मराठी अस्मिता जाग उठी और सारे संघटन इकट्ठा हुए| सरकार का विरोध करने हेतु फ्लोरा फाउंटेन के सामने चौक पर श्रमिकों के एक विशाल मोर्चे की योजना बनाई गई| उसके पश्चात् एक बड़ा जनसमुदाय एक तरफ से चर्चगेट स्थानक की ओर से तथा दूसरे तरफ से बोरीबंदर की ओर से अत्यंत विद्वेष सहित घोषणा देते हुए फ्लोरा फाउंटन के स्थान पर इकट्ठा हुआ| पुलिस ने उसे तितर-बितर करने के लिए लाठी चार्ज किया| लेकिन मोर्चे में शामिल श्रमिक टस  से मस  नहीं हुए| उसके बाद मुंबई राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई ने पुलिस को फायरिंग करने का आदेश दिया| इसके कारण संयुक्त महाराष्ट्र के संघर्ष में १०६ आंदोलक हुतात्मे हुए| इन हुतात्माओं के बलिदान के फलस्वरूप और मराठी प्रजा के आंदोलन की वजह से सरकार को झुकना पड़ा और अंत में १ मई, १९६० के दिन मुंबई का समावेश हो कर संयुक्त महाराष्ट्र की स्थापना हुई| इन १०६ हुतात्माओंने जहाँ बलिदान किया उस फ्लोरा फाउंटन के चौक में १९६५ को हुतात्मा स्मारक खड़ा किया गया| अब यह चौक हुतात्मा चौक के नाम से ही परिचित है| प्रिय मित्रों, जब-जब हम इस मुंबई नगरी को “आमची मुंबई” के नाम से स्मरण करते हैं, तब-तब हमें इन हुतात्माओं के प्रति कृतज्ञ होना चाहिए|

1 मई अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। ४ मई १८८६ के दिन अमरीका के श्रमिकोंने आठ घंटे काम करने को नकार दिया और अपने न्यायहक़ के लिए आंदोलन किया, शिकागो के हेमार्केट में बम विस्फोट होने के कारण श्रमिकों में हड़बड़ मच गई| उसके बाद परिस्थिति को नियंत्रण में लाने के लिए पुलिस ने आंदोलन करने वाले श्रमिकों पर गोलियां चलाई, उसमें कई श्रमिक मारे गए।  फिर १८८९ में इन श्रमिकों की स्मृति में १ मई को अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस के रूप में मनाये जाने की घोषणा समाजवादी संमेलन में की गई| उसके पश्चात् हर साल 1 मई को दुनिया भर में अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाता है।

मैंने इस पवित्र भूमि में जन्म लिया और यहीं पली बढ़ी हूँ| जहाँ बहुत अधिक स्वर्णालंकार और रत्न नहीं थे, परन्तु प्रचुर मात्रा में थी सुवर्णकांचन जैसे दमकती असली संस्कारों की गरिमा! पुस्तकों को पढ़ते-पढ़ते, नाटकों को देखते-देखते और उम्र के बढ़ते-बढ़ते परिचय हुआ यहाँ के साहित्यिक वैभव का! मन में हिलोरें उठती और वह पूछता आचार्य अत्रे रचित “कऱ्हेचे पाणी” का स्वाद चखूँ, या गडकरी द्वारा निर्मित सुधाकर और सिंधू के परिवार की दुर्दशा करनेवाले “एकच प्याला” के रंगों के रंगमंच पर दर्शन करूँ, या फिर पु. ल. देशपांडे निर्मित चुलबुली फुलराणी का प्रसिद्ध “तुला शिकवीन चांगलाच धडा!” यह स्वगत आत्मसात करूँ, या मृत्युंजय के उत्तुंग तथा बहुरंगी व्यक्तिमत्व से स्तिमित हो जाऊं! इन दो हाथों में कितना बटोर सकूंगी, ऐसी अवस्था हो उठती थी मेरी! मेडिकल की शिक्षा प्राप्त की, वह भी नागपुर के प्रसिद्ध वैद्यकीय महाविद्यालय में, नौकरी भी की वहीँ, मैं धन्य हुई और जीवन सार्थक हुआ| इस मिटटी का ऋण चुकाने का विचार तक मन में नहीं ला सकती, कैसे आए? इतना विशाल है वह!  ईश्वर के चरणों में “दिल से” प्रार्थना करती हूँ कि, मैं इसी मिटटी में बारम्बार जन्म लूँ और उसीकी पवित्र गोद में अंतिम विश्राम करूँ| इससे अधिक सौभाग्य और क्या हो सकता है?

किसी ने कहा है कि ठेस लगने पर “आई ग!” कर जो दुःख से आह भरे, वहीँ है “असली मराठी माणूस”, परन्तु अब अंग्रेजियत से लैस, ओरिजिनल मराठी बॉय और गर्ल कहेंगे “ओह मम्मा!” वे भी तो मराठी ही हुए ना! दूसरे प्रांतों आये, इस मिटटी से नाता जोड़कर अब “महाराष्ट्रीयन” हुए लोगोंका क्या? (इसका उत्तर मैं नहीं दूंगी, बल्कि आप अवधूत गुप्ते का गाना अवश्य सुनिए और देखिए, लेख के अंत में लिंक दी है!) वे भी “दिल से” गा रहे हैं “जय जय महाराष्ट्र मेरा!” आखिरकार अगर दिल मिल गए तो मिटटी से नाता तो जुड़ना ही है भैया! बंबैय्या मराठी की बस आदत लग जाए तो हर एक चीज एकदम आसानी से फिट हो जाए!

इस दिन का उपभोग केवल सार्वजनिक छुट्टी के रूप में न करते हुए मराठी अस्मिता जगाने का और उसे जतन करने का है| यह हमें निर्धारित करना है कि अत्यंत उत्त्साहित होकर विविध कार्यक्रमों का आयोजन करते हुए धोतर, फेटा, नऊवार साडी, नथ इत्यादि पारम्परिक वेशभूषाओं और “मराठी पाट्या (board)” तक मराठी अस्मिता को सीमित रखें या इससे भी बढ़कर जो इस भूमि का गौरवशाली तथा जाज्वल्य इतिहास है उसे अपने मन में जतन करें!!!

जय हिंद! जय महाराष्ट्र!

इसी जयघोष के साथ अब आपसे विदा लेती हूँ,

धन्यवाद!

टिप्पणी – दो गानों की लिंक जोड़ रही हूँ, लिंक न खुलने पर यू ट्यूब पर शब्द डालें

https://youtu.be/PWVSzfMdiwI

‘बहु असोत सुंदर संपन्न की महा’ – श्रीपाद कृष्ण कोल्हटकर (समूहगान)

https://youtu.be/JgdfVaOYJMM

‘जय जय महाराष्ट्र माझा’ – अवधूत गुप्ते (गायक-अवधूत गुप्ते)

© डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

ठाणे

मोबाईल क्रमांक ९९२०१६७२११, ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 279 ☆ आलेख – देश में बिजली आने की कहानी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धकआलेख  – देश में बिजली आने की कहानी। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 279 ☆

? आलेख – देश में बिजली आने की कहानी ?

1899 में कोलकाता के कुछ हिस्से में अंग्रेजो ने शाम के समय बिजली के प्रकाश की व्यवस्थाये कर दिखाईं थी. 20वीं शताब्दी की शुरुआत में १९०५ में दिल्ली में भी बिजली से प्रकाश व्यवस्था का प्रारंभ हुआ. शुरुआती दौर में डीजल से बिजली बनाई जाती थी. 1911 के तीसरे दिल्ली दरबार के समय जब अंग्रेज राजा ने बुराड़ी के कोरोनेशन पार्क में आयोजित एक समारोह में ब्रिटिश भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने की घोषणा की, उसी साल यहां पर भाप से बिजली उत्पादन स्टेशन बनाया गया. अंग्रेजों ने 20वीं सदी के पहले दशक में भारतीय परंपरा की नकल करते हुए दिल्ली में दो दरबार सन 1903 एवं 1911 में किए, जिनमें बिजली से साज-सजावट की गई. लियो कोल्मैन ने अपनी पुस्तक ‘ए मॉरल टेक्नॉलजी, इलेक्ट्रिफिकेशन एज पॉलिटिकल रिचुअल इन न्यू डेल्ही’ में भारत की राजधानी के बिजलीकरण के बहाने सांस्कृतिक राजनीति, राजनीतिक सोच को आकार देने में प्रौद्योगिकी की भूमिका को रेखांकित किया है. ‘दिल्ली, पास्ट एंड प्रेजेन्ट’ के लेखक एच सी फांशवा ने पूर्व (यानी भारत) में बिजली की रोशनी की शुरुआत पर चर्चा करते हुए इसे एक फिजूल खर्च के रूप में खारिज कर दिया था. उसने तर्क देते हुए कहा कि दिल्ली में कलकत्ता के विपरीत कारोबार शाम के समय खत्म हो जाता है. ऐसे में मिट्टी के तेल से होने वाली रोशनी ही काफी है. ‘मैसर्स जॉन फ्लेमिंग’ नामक एक अंग्रेज कंपनी ने दिल्ली में 1905 में पहला डीजल पावर स्टेशन बनाया था. इस कंपनी के पास बिजली बनाने और डिस्ट्रीब्यूशन दोनों की जिम्मेदारी थी.

जॉन फ्लेमिंग कंपनी’ ने पुरानी दिल्ली में लाहौरी गेट पर दो मेगावाट का एक छोटा डीजल स्टेशन बनाया. बाद में इसका नाम ‘दिल्ली इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई एंड ट्रैक्शन कंपनी’ हो गया. 1911 में, बिजली उत्पादन के लिए स्टीम जनरेशन स्टेशन यानी भाप से बिजली बनाने वाले स्टेशन की शुरुआत हुई. ‘दिल्ली गजट, 1912’ के अनुसार, बिजली से रोशनी के मामले में दिल्ली किसी भी तरह से दुनियां से पिछड़ी नहीं थी. 1939 में दिल्ली सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी पॉवर अथॉरिटी बनाई गई थी.

समय के साथ युग परिवर्तन हुआ, विकास और विस्तार होता रहा. आज बिजली उत्पादन थर्मल, हाइडल, एटामिक, विंड से होते हुए सोलर पॉवर तक आ पहुंचा है.

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 81 – देश-परदेश – कुछ दिन तो गुजारो… ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 81 ☆ देश-परदेश – कुछ दिन तो गुजारो…  ☆ श्री राकेश कुमार ☆

दो सदियों पूर्व ये बात सदी के महनायक अभिताभ बच्चन ने लाखों बार टीवी पर आकर दोराही हैं। एक हम है, उनकी बताई गई कोई भी बात मानते ही नहीं हैं, जैसे की कल्याण ज्वेलर से सस्ता सोना खरीदने की हो या मुथूट फाइनेंस से उसी सोने को गिरवी रख कर धन जुटाने की हो। खाने में भी उनकी बताई भुजिया हो या विमल गुटका हम सेवन नहीं करते है चाहे मुफ्त में ही क्यों ना उपलब्ध हो।

विगत कुछ वर्षों से अभिताभ बच्चन गुजरात की खुशबू की बात भी नहीं कर रहे हैं। गुजरात की राजधानी अहमदाबाद की ट्रेन टिकट भी एक माह बाद की आसानी से मिल रही थी, इसका मतलब अभिताभ जी की बात का असर खत्म हो रहा हैं। लेकिन इस चक्कर में हमसे गलती से अहमदाबाद की टिकट बुक हो गई हैं।

मौसम आम चुनाव का हमेशा ही रहता है। कभी किसी राज्य, नगर निगम इत्यादि में चुनाव नहीं तो उपचुनाव हो जाते हैं। आम का मौसम भी है, जब अहमदाबाद पहुंचे तो ” केसर” आम की खुशबू से कैसे बच सकते हैं। हमारे हिसाब से तो आम के शौकीन लोगों के मद्देनजर गुजरात राज्य का नाम बदल कर ” आम प्रदेश” या फिर अहमदाबाद का नाम ” आमबाद” कर देने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

एक मित्र से जब बात हुई तो उसने बताया जबलपुर से भी अहमदाबाद की रेल टिकट आसानी से मिल है। फिर क्या वो भी पहुंच गए, अहमदाबाद!

दूर कहीं गीत बज रहा था, “जहां चार यार मिल जाएं” वहां आम का मौसम में भी खास हो ही जाता हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 353 ⇒ चाँद को देखो जी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चाँद को देखो जी।)

?अभी अभी # 353 ⇒ चाँद को देखो जी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कल वैशाख माह के कृष्ण पक्ष की संकट चतुर्थी थी। इस रोज महिलाएं विकट संकष्टी चतुर्थी व्रत का पालन करती हैं। परिवार के सुख सौभाग्य की वृद्धि के लिए यह व्रत किया जाता है। रात्रि के नौ बज चुके हैं, कई चौदहवीं के चांदों की निगाह आसमान में लगी हुई हैं, लेकिन चतुर्थी के चंद्र, दर्शन हेतु अनुपलब्ध हैं। बिना चंद्र दर्शन के व्रत नहीं तोड़ा जाता, यह आसमान के चांद भी जानते हैं, लेकिन चांद से चेहरों से बादलों में लुका छिपी खेलने में शायद उनको आनंद आ रहा था।

जहां देखो वहां चांद तलाशा जा रहा था, खिड़की से, आंगन से, सड़क से, घर की छत और मल्टी की गगनचुंबी टैरेस से। फोन पर पड़ोसियों, सहेलियों और जानकर लोगों से जानकारी ली जा रही थी।

हम भी कभी आसमान की ओर देखते और कभी इन चंद्रमुखियों के चेहरे की ओर, चांद से चेहरे को चंद्रमा की बस एक झलक की आस थी।।

एक विशेषज्ञ महिला, जिनका व्रत नहीं था, वे फोन पर सभी सहेलियों को चांद के बारे में त्वरित जानकारी उपलब्ध करवा रही थी, और निःशुल्क परामर्श भी देती जा रही थी। अभी कानपुर फोन लगाया था, वहां चांद दिख गया है। पञ्चांग के अनुसार तो चन्द्र दर्शन का समय ८.३० बजे है, लेकिन नेट दस बजे का समय बता रहा है।

एक निगाह आसमान में चांद तलाश रही है, तो दूसरी मोबाइल में गड़ी हुई है। लेटेस्ट अपडेट तो वहीं से प्राप्त हो रहा है। कुछ कुछ करवा चौथ सा माहौल है। कुछ महिलाएं यह व्रत बचपन से करती चली आ रही हैं, तो कुछ ससुराल में आने के बाद।।

अगर चंद्रमा प्रसन्न हो जाए, तो बहू की गोद में चांद सा टुकड़ा आ जाए।

हमारी नारायण बाग वाली ९० वर्षीय वसुंधरा काकी भी चतुर्थी के दिन चांद देखकर ही उपवास तोड़ती थी। उन्हें दो कन्याओं के बाद एक सुपुत्र हुआ था, जिसका नाम उन्होंने चंद्रकांत रखा था। वह हमेशा स्वस्थ रहे, बस यही उनकी कामना थी। उनके चंद्र निवास में मेरा ३५ वर्ष निवास रहा।

हमारा मन भी चंद्रमा के समान ही चंचल है। मन को जप, तप और व्रत उपवास से ही काबू किया जा सकता है। चंद्रमा की शीतल किरणें हमारे मन को शांत करती हैं, सूरज का तेज कौन बर्दाश्त कर सकता है। जहां निशा है, रजनी है, वहां चंद्रमा है, चंचलता है, प्रेम है।।

समय कितना भी तेज भाग ले, भले ही इंसान मंगल ग्रह तक पहुंच जाए, हमारी भारतीय महिलाएं, समय के साथ कदम से कदम मिलाते हुए भी, अपने परिवार की सुख शांति के लिए व्रत, उपवास, और नियम संयम का कभी त्याग नहीं करने वाली। जिस घर में आज भी ऐसी कुशल गृहिणियां मौजूद है, वहां सदा के लिए सुख शांति की गारंटी है। तुमसे ही घर, घर कहलाया।।

बादलों में से चांद मुस्कुरा रहा है। खुशी खुशी व्रत का समापन हुआ, हमें बिना व्रत के ही प्रसाद मिल रहा है, व्रत फलदायी हो, इतनी कामना तो हम कर ही सकते हैं। चांद को देखो जी ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 238 – जाग्रत देवता ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 238 ☆ जाग्रत देवता ?

सनातन संस्कृति में  किसी भी मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के बाद ही मूर्ति जाग्रत मानी जाती है। इसी अनुक्रम में मुद्रित शब्दों को विशेष महत्व देते हुए सनातन दर्शन ने पुस्तकों को जाग्रत देवता की उपमा दी है।

पुस्तक पढ़ी ना जाए, केवल सजी रहे तो निर्रथक हो जाती है। पुस्तकों में बंद विद्या और दूसरों के हाथ गए धन को समान रूप से निरुपयोगी माना गया है। पुस्तक जाग्रत तभी होगी, जब उसे पढ़ा जाएगा। पुस्तक के संरक्षण को लेकर हमारी संस्कृति का उद्घोष है-

तैलाद्रक्षेत् जलाद्रक्षेत् रक्षेत् शिथिलबंधनात।

मूर्खहस्ते न दातव्यमेवं वदति पुस्तकम्।।

पुस्तक की गुहार है, ‘तेल से मेरी रक्षा करो, जल से मेरी रक्षा करो, मेरे बंधन (बाइंडिंग)  शिथिल मत होने दो। मुझे मूर्ख के हाथ मत पड़ने दो।’

संदेश स्पष्ट है, पुस्तक संरक्षण के योग्य है।  पुस्तक को बाँचना, गुनना, चिंतन करना, चैतन्य उत्पन्न करता है। यही कारण है कि हमारे पूर्वज पुस्तकों को लेकर सदा जागरूक रहे। नालंदा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय इसका अनुपम उदाहरण रहा। पुस्तकों को जाग्रत देवता में बदलने के लिए  पूर्वजों ने ग्रंथों के पारायण की परंपरा आरंभ की। कालांतर में पराधीनता के चलते समुदाय में हीनभावना घर करती गई। यही कारण है कि पठनीयता के संकट पर चर्चा करते हुए आधुनिक समाज धार्मिक पुस्तकों का पारायण करने वाले पाठक को गौण कर देता है। कहा जाता है, जब पग-पग पर  होटलें हों किंतु ढूँढ़े से भी पुस्तकालय न मिले तो पेट फैलने लगता है और मस्तिष्क सिकुड़ने लगता है। वस्तुस्थिति यह है कि  भारत के घर-घर में धार्मिक पुस्तकों का पारायण करने वाले जनसामान्य ने  इस कहावत को धरातल पर उतरने नहीं दिया।

पुस्तकों के महत्व पर भाष्य करते हुए अमेरिकी इतिहासकार बारबरा तुचमैन ने लिखा,’पुस्तकों के बिना इतिहास मौन है, साहित्य गूंगा है,  विज्ञान अपंग है,  विचार स्थिर है।’ बारबारा ने पुस्तक को  समय के समुद्र में खड़ा दीपस्तम्भ भी कहा। समय साक्षी है कि  पुस्तकरूपी  दीपस्तंभ ने जाने कितने सामान्य जनो को महापुरुषों में बदल दिया। सफ़दर हाशमी के शब्दों में,

किताबें कुछ कहना चाहती हैं,

किताबें तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।

पुस्तकों के संग्रह में रुचि जगाएँ, पुस्तकों के अध्ययन का स्वभाव बनाएँ। अभिनेत्री एमिला क्लार्क के शब्दों में, ‘नेवर ऑरग्यू विथ समवन हूज़ टीवी इज़ बिगर देन देअर बुकशेल्फ।’   छोटे-से बुकशेल्फ और बड़े-से स्क्रिन वाले विशेषज्ञों की टीवी पर दैनिक बहस के इस दौर में अपनी एक कविता स्मरण हो आती है,

केवल देह नहीं होता मनुष्य,

केवल शब्द नहीं होती कविता,

असार में निहित होता है सार,

शब्दों के पार होता है एक संसार,

सार को जानने का

साधन मात्र होती है देह,

उस संसार तक पहुँचने का

संसाधन भर होते हैं शब्द,

सार को, सहेजे रखना मित्रो!

अपार तक पहुँचते रहना मित्रो!

मुद्रित शब्दों का ब्रह्मांड होती हैं पुस्तकें। असार से सार और शब्दों के पार का संसार समझने का गवाक्ष होती हैं पुस्तकें। शब्दों से जुड़े रहने एवं पुस्तकें पढ़ते रहने का संकल्प, हाल ही में सम्पन्न हुए विश्व पुस्तक दिवस की प्रयोजनीयता को सार्थक करेगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 352 ⇒ सर, जी सर और सर जी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सर, जी सर और सर जी।)

?अभी अभी # 352 ⇒ सर, जी सर और सर जी? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कुछ शब्द ऐसे होते हैं, जिन्हें आप देशकाल और भाषा के दायरे में नहीं बांध सकते। आदमी जहां जाता है, वहां अपनी भाषा साथ ले जाता है, लेकिन जब वापस आता है, तो कुछ छोड़कर आता है, और कुछ लेकर जाता है। शायद इसीलिए भाषा और संस्कृति का भी आपस में गहरा संबंध होता है।

अंग्रेज चले गए, अंग्रेजी छोड़ गए, लेकिन वे साथ में हमारी भाषा और संस्कृति का कुछ हिस्सा भी साथ गए। अच्छाई को कौन देश और दायरे के बंधन में बांध पाया है। भाषा भी बड़ी सरल और मासूम होती है, बड़ी आसानी से परिस्थिति के अनुसार ढल जाती है।।

हमारे श्रीमान, महाशय, जनाब कब सर हो गए, हमें पता ही नहीं चला। सरकारी स्कूल के उपस्थित महोदय, समय के साथ प्रेजेंट सर और येस मेम हो गए। अगर आप श्री रविशंकर लिखते हैं, तो मन में सितार बजने लगता है, और अगर श्रीश्री रविशंकर लिखते हैं, तो आपके अंदर सुदर्शन क्रिया शुरू हो जाती है।

आजादी के पहले सर उपाधि भी होती थी। याद कीजिए सर जगदीशचंद्र बसु, सर यदुनाथ सरकार और सर शादी लाल। सरकार शब्द में सर का कितना योगदान है, यह शोध का विषय हो सकता है, क्योंकि हमारे यहां तो राज होता था, राजा महाराजा होते थे, उनके राज्य होते थे।।

आजादी के बाद, बोलचाल में भी सर ऐसा सरपट दौड़ा कि फिर उसने कहीं रुकने का नाम ही नहीं लिया। छोटा अफसर हो, बड़े बाबू हों या चपरासी, सब सर के आसपास ही सर सर कहते फिरते रहते थे। दफ्तर में आते वक्त गुड मॉर्निंग सर, और जाते वक्त, गुड नाईट सर मानो प्रोटोकॉल हो गया हो।

पता ही नहीं चला कि सर कब, जी सर हो गया। हां में हां मिलाना ही तो जी सर, जी सर होता है। वैसे भी नौकरशाही में तो जी सर, तकिया कलाम ही हो चला है। बात बात में जी सर सुनकर बड़ी कोफ्त होने लगती है।।

तीतर के दो आगे तीतर की तरह, सर के भी आगे जी लग जाता है तो कभी पीछे जी। दफ्तर का जी सर, कब घर में आते ही सर जी हो गया, कुछ पता ही नहीं चला। कॉलेज के प्रोफेसर को भी तो हम सर ही कहते हैं। थीसिस अधूरी पड़ी है, सर को फुर्सत नहीं है। कभी परीक्षा तो कभी चुनाव और शिक्षा के सेमिनार अलग। जब भी घर पर फोन करो, यही जवाब मिलता है, सर जी तो अभी आए ही नहीं।

शिक्षा के क्षेत्र में तो वैसे भी सरों का ही बोलबाला है। प्राइमरी के भी सर और यूनिवर्सिटी के भी सर, सब सर बराबर। कोचिंग इंस्टीट्यूट में तो गुप्ता सर, माहेश्वरी सर और बंसल सर। सभी टॉप के सर, और क्या टॉप का रिजल्ट।।

होटल में सर जी आप क्या लेंगे तो ठीक, लेकिन जब ऑटो वाला भी पूछता है, सर जी, कहां जाना है, तो मन में अच्छा ही लगता है। जो अपनापन, प्रेम और सम्मान सर जी में है, वह जी सर में कहां..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 351 ⇒ नकल का अधिकार… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नकल का अधिकार।)

?अभी अभी # 351 ⇒ नकल का अधिकार? श्री प्रदीप शर्मा  ?

नकल का अधिकार © copyright

नकल कभी असल नहीं होती। असल में नकल हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। बिना नकल किए आप कुछ सीख नहीं सकते। हमें बचपन में जो पट्टी पढ़ाई गई, वही तो हम सीख पाए। जो ब्लैकबोर्ड पर लिखाया गया, हमने उसकी नकल की। जब पट्टी से पीछा छूटा, तो कॉपी में लिखना पड़ा। नाम भले ही कॉपी हो, लेकिन लिखना तो हमने ही सीखा। पहले रफ कॉपी में जो बोला, वह लिखा, और बाद में उसकी फेयर कॉपी में नकल की।

सीखना नकल नहीं होता। किसी का अनुसरण करना क्या बुरा है। नकल तो बंदर करता है। हम भी तो वानर से ही नर बने हैं। वनमानुष से ही मानुस बने हैं। कितने मानुस बन पाए, यह अलग बात है। आदि मानव से सभ्य मानव की यात्रा है यह। आज भी वानर श्रेष्ठ महावीर बजरंगी हनुमान हमारे आराध्य हैं, संकटमोचक हैं। ।

सिर्फ परीक्षा में हमें नकल का अधिकार नहीं था। नकल को ही तो कॉपी करना कहते हैं। पीठ पीछे हमने अपने गुरुजनों की बहुत नकल की है। बाद में कागज की नकल करना बड़ा आसान हो गया। दो कागज़ के बीच एक कार्बन पेपर रख दो, उसकी कॉपी हो जाती थी। जब भी कोई रसीद काटी जाती थी, असली सामने वाले को दे दी जाती थी, और कॉपी सुरक्षित रख ली जाती थी।

बाद में पहले टाइपराइटर आए, कार्बन लगाकर तीन चार कॉपी आराम से निकल जाती थी। फिर gestetner (गेस्टेटनर) कंपनी एक डुप्लिकेटिंग मशीन लाई, जिसे सायक्लोस्टाइलिंग मशीन भी कहते थे। प्रिंटिंग की तरह जितनी चाहो कॉपियां निकाल लो। आज तो आपके पास कैमरा और स्मार्ट फोन ऑल इन वन है। कॉपी इज योर राईट, नो कॉपीराइट।।

लेकिन हर जगह हमारा कॉपी करने का अधिकार काम नहीं आता। सरकार ने कॉपीराइट एक्ट जो बना रखा है। कॉपीराइट का तात्पर्य बौद्धिक संपदा के मालिक के कानूनी अधिकार से है। सरल शब्दों में कहें तो कॉपीराइट कॉपी करने का अधिकार है। इसका मतलब यह है कि उत्पादों के मूल निर्माता और वे जिस किसी को भी प्राधिकरण देते हैं, उनके पास ही काम को पुन: पेश करने का विशेष अधिकार है।

फिल्म, किताब, गीत, रेकार्ड, किसका कॉपीराइट नहीं होता। और तो और उत्पादों के टाइटल पर भी कॉपीराइट का शिकंजा कसा रहता है। अलग अलग समयावधि तक यह बाध्य होता है। लेकिन चोर चोरी से जाए, हेराफेरी से ना जाए। आपको तो अमूल घी भी नकली मिल सकता है। ।

नकल में भी अगर नकल लगाई जाए तो नकल बुरी नहीं और उस पर कोई कॉपीराइट भी नहीं। शास्त्रीय संगीत का एक ही राग सभी संगीतज्ञ अलापते रहते हैं, फिर भी उनकी प्रस्तुति मौलिक कहलाती है और वे तालियां बटोरते हैं।

नाटक में अभिनय क्या है, जो आप नहीं हो, वह बनकर अभिनय कर रहे हो। नकली बाल, दाढ़ी मूंछ, नाम भी हर बार बदला हुआ, फिर भी कोई नाट्य सम्राट तो कोई अभिनय सम्राट। नायक नहीं खलनायक हूं मैं। आप जानते नहीं, सबसे बड़ा महानायक हूं मैं। आजकल मिमिक्री आर्टिस्ट की राजनीति में बहुत डिमांड हैं।।

कृत्रिम और दिखावटी जीवन जीते हुए, वैचारिक और पर्यावरण के प्रदूषण में सुख की सांस लेते हुए, जहरीली दवाइयां और रासायनिक खाद से पैदा हुई खाद्य सामग्री के सेवन से संतुष्ट होते हुए, अपनी बौद्धिक सम्पदा पर गर्व करने से हमें कौन रोक सकता है। साहिर को तो मानो कॉपीराइट हासिल है अपनी कलम के जरिए, आज के इंसान को आइना दिखाने में; क्या मिलिए ऐसे लोगों से जिनकी फितरत छुपी रहे।

नकली चेहरा सामने आए

असली सूरत छुपी रहे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #229 ☆ अधूरी ख़्वाहिशें… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख बहुत तकलीफ़ होती है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 229 ☆

अधूरी ख़्वाहिशें… ☆

‘कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही ठीक है/ ज़िंदगी जीने की चाहत बनी रहती है।’ गुलज़ार का यह संदेश हमें प्रेरित व ऊर्जस्वित करता है। ख़्वाहिशें स्वप्न की भांति हैं, जिन्हें साकार करने में हम अपनी सारी ज़िंदगी लगा देते हैं। यह हमें जीने का अंदाज़ सिखाती हैं और जीवन-रेखा के समान हैं, जो हमें मंज़िल तक पहुंचाने की राह दर्शाती है। इच्छाओं व ख़्वाहिशों के समाप्त हो जाने पर ज़िंदगी थम-सी जाती है; उल्लास व आनंद समाप्त हो जाता है। इसलिए अब्दुल कलाम जी ने खुली आंखों से स्वप्न देखने का संदेश दिया है। ऐसे सपनों को साकार करने हित हम अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं और वे हमें तब तक चैन से नहीं बैठने देते; जब तक हमें अपनी मंज़िल प्राप्त नहीं हो जाती। भगवद्गीता में भी इच्छाओं पर अंकुश लगाने की बात कही गई है, क्योंकि वे दु:खों का मूल कारण हैं। अर्थशास्त्र  में भी सीमित साधनों द्वारा असीमित आवश्यकताओं की पूर्ति को असंभव बताते हुए उन पर नियंत्रण रखने का सुझाव दिया गया है। वैसे भी आवश्यकताओं की पूर्ति तो संभव है; इच्छाओं की नहीं।

इस संदर्भ में मैं यह कहना चाहूंगी कि अपेक्षा व उपेक्षा दोनों मानव के लिए कष्टकारी व उसके विकास में बाधक हैं। उम्मीद मानव को स्वयं से रखनी चाहिए, दूसरों से नहीं। प्रथम मानव को उन्नति के पथ पर अग्रसर करता है; द्वितीय निराशा के गर्त में धकेल देता है। सो! गुलज़ार की सोच भी अत्यंत सार्थक है कि कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही कारग़र है, क्योंकि वे हमारे जीने का मक़सद बन जाती हैं और हमारा मार्गदर्शन करती हैं। जब तक ख़्वाहिशें ज़िंदा रहती हैं; मानव निरंतर सक्रिय व प्रयत्नशील रहता है और उनके पूरा होने के पश्चात् ही सक़ून प्राप्त करता है। 

‘ख़ुद से जीतने की ज़िद्द है/ मुझे ख़ुद को ही हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ जी हां! मानव से जीवन में संघर्ष करने के पश्चात् मील के पत्थर स्थापित करना अपेक्षित है। यह सात्विक भाव है। यदि हम ईर्ष्या-द्वेष को हृदय में धारण कर दूसरों को पराजित करना चाहेंगे, तो हम राग-द्वेष में उलझ कर रह जाएंगे, जो हमारे पतन का कारण बनेगा। सो! हमें अपने अंतर्मन में स्पर्द्धा भाव को जाग्रत करना होगा और अपनी ख़ुदी को बुलंद करना होगा, ताकि ख़ुदा भी हमसे पूछे कि तेरी रज़ा क्या है? विषम परिस्थितियों में स्वयं को प्रभु-चरणों में समर्पित करना सर्वश्रेष्ठ उपाय है। सो! हमें वर्तमान के महत्व को स्वीकारना होगा, क्योंकि अतीत कभी लौटता नहीं और भविष्य अनिश्चित है। इसलिए हमें साहस व धैर्य का दामन थामे वर्तमान में जीना होगा। इन विषम परिस्थितियों में हमें आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे रखना है तथा पीछे मुड़कर कभी नहीं देखना है।

संसार में असंभव कुछ भी नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और हम वह सब सोच सकते हैं; जिसकी हमने आज तक कल्पना नहीं की। कोई भी रास्ता इतना लम्बा नहीं होता, जिसका अंत न हो। मानव की संगति अच्छी होनी चाहिए और उसे ‘रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं’ में विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं, जड़ें नहीं। जीवन संघर्ष है और प्रकृति का आमंत्रण है। जो स्वीकारता है, आगे बढ़ जाता है। इसलिए मानव को इस तरह जीना चाहिए, जैसे कल मर जाना है और सीखना इस प्रकार चाहिए, जैसे उसको सदा ज़िंदा रहना है। वैसे भी अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते, उन्हें पढ़ना पड़ता है। श्रेष्ठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। ऊंचाई पर पहुंचते हैं वे लोग, जो प्रतिशोध नहीं, परिवर्तन की सोच रखते हैं। परिश्रम सबसे उत्तम गहना व आत्मविश्वास सच्चा साथी है। किसी से धोखा मत कीजिए; न ही प्रतिशोध की भावना को पनपने दीजिए। वैसे भी इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो हम किसी से करते हैं। जीवन में तुलना का खेल कभी मत खेलें, क्योंकि इस खेल का अंत नहीं है। जहां तुलना की शुरुआत होती है, वहां अपनत्व व आनंद भाव समाप्त हो जाता है।

ऐ मन! मत घबरा/ हौसलों को ज़िंदा रख/ आपदाएं सिर झुकाएंगी/ आकाश को छूने का जज़्बा रख। इसलिए ‘राह को मंज़िल बनाओ,तो कोई बात बने/ ज़िंदगी को ख़ुशी से बिताओ तो कोई बात बने/ राह में फूल भी, कांटे भी, कलियां भी/ सबको हंस के गले से लगाओ, तो कोई बात बने।’ उपरोक्त स्वरचित पंक्तियों द्वारा मानव को निरंतर कर्मशील रहने का संदेश प्रेषित है, क्योंकि हौसलों के जज़्बे के सामने पर्वत भी नत-मस्तक हो जाते हैं। ऐ मानव! अपनी संचित शक्तियों को पहचान, क्योंकि ‘थमती नहीं ज़िंदगी, कभी किसी के बिना/ यह गुज़रती भी नहीं, अपनों के बिना।’ सो! रिश्ते-नातों की अहमियत समझते हुए, विनम्रता से उनसे निबाह करते चलें, ताकि ज़िंदगी निर्बाध गति से चलती रहे और मानव यह कह उठे, ‘अगर देखना है मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो मेरी उड़ान को।’

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 350 ⇒ रिश्ते और मर्यादा… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “रिश्ते और मर्यादा।)

?अभी अभी # 350 ⇒ रिश्ते और मर्यादा? श्री प्रदीप शर्मा  ?

रिश्ता क्या है, तेरा मेरा !

मैं हूं शब, और तू है सवेरा।

कुछ तो ऐसा है हममें, जो हमें आपस में जोड़ता है। जिसे हम हयात कहते हैं, जिन्दगी कहते हैं, वह अकेले नहीं कटती, भले ही विपरीत हो, लेकिन सिक्के के भी दो पहलू होते हैं। सुख दुख, अमीरी गरीबी, धूप छाँव, दोस्त दुश्मन और जिंदगी और मौत का आपस में वही रिश्ता है जो एक मां का बेटे के साथ ही है, पति का पत्नी के साथ और अच्छाई का बुराई के साथ है। घर में दरवाजा जरूरी है और आटे में नमक, धरती आसमान बिना अधूरी और मीन पानी बिना। जिंदगी तो उसी को कहते हैं, जो बसर तेरे साथ होती है।

हमारा आपका भी आपस में वही रिश्ता है जो एक फूल का डाली से, बगीचे का माली से, और भोजन का थाली से है। आभूषण की शोभा जिस तरह से स्त्री से है, सिंदूर की सुहाग से और कपड़ों की पहनने वाले से। जिस तरह एक धागा मोतियों को माला में पिरोए रखता है, एक ऐसा रिश्ता, एक ऐसा चुंबकीय आकर्षण हम सबको दूर रहते हुए भी आपस में जोड़े रखता है। हमारा अस्तित्व ही जुड़ने से है, टूटना ही बिखरना है, एक कांच सा हमारा व्यक्तित्व है, बड़ी मुश्किल से जुड़ा हुआ, जिसे टूटते बिखरते, टुकड़े टुकड़े होते ज्यादा वक्त नहीं लगता।।

आखिर एक कमीज़ का हमसे क्या रिश्ता है। हमने उसे दर्जी से बनवाया अथवा बाज़ार से रेडीमेड खरीदकर लाए। रिश्ता हमारा दर्जी से भी हुआ और दुकानदार से भी। एक कमीज हमें कितने लोगों से जोड़ती है। इसी तरह एक घड़ी हमें समय से जोड़ती है, नौकरी मालिक से जोड़ती है, धंधा किसी को व्यापार से जोड़ता है तो खेती किसान से। दूध, बिजली, पानी और सब्जी हमें कितने लोगों से जोड़ती है, बस यही रिश्ता कहलाता है, जिस पर हमारा ध्यान अक्सर कम ही जाता है।

हम बड़े खुदगर्ज होते हैं, इन रिश्तों की अहमियत नहीं समझते। अच्छे रिश्ते, स्वार्थ वाले, हित कारी और गुणकारी को हम गले लगाते हैं और बाकी रिश्तों को नमक के गरारे की तरह, गले की खराश मिटते ही, निकाल बाहर फेंकते हैं। सब्जी में अधिक नमक हमें बर्दाश्त नहीं होता तो किसी को फीका खाना गले नहीं उतरता। हमारी आवश्यकता ही हमारी आदत बन जाती है।।

हर रिश्ता थोड़ी परवाह मांगता है, लापरवाही किसी रिश्ते को पसंद नहीं। अगर आप खाने के सामान को नहीं ढंकेंगे तो उसमें मक्खी गिर जाएगी, किताबों को नहीं संभालेंगे तो उनमें दीमक लग जाएगी और रिश्तों की कद्र नहीं करेंगे तो रिश्ते भी आपकी कद्र नहीं करेंगे। घर को साफ रखेंगे तो घर, घर कहलाएगा और खुद की भी परवाह नहीं करेंगे तो सेहत भी आपका साथ नहीं देगी।

जहाँ परवाह है, फिक्र है, चिंता है, वहां प्रेम है, आसक्ति है, लगाव है, रिश्ता है, जीवन है। हर रिश्ते की एक मर्यादा है। कपड़े तक रखरखाव और सफाई मांगते हैं, जूता पॉलिश मांगता है और आइना भी धूल बर्दाश्त नहीं करता। रिश्तों को सिर्फ करीने से सजाकर ही नहीं रखा जाता उनकी मर्यादा भी निभानी पड़ती है। मर्यादा एक अलिखित कानून है जिसका कहीं हया नाम दिया गया है तो कहीं आँखों की शर्म। मां बेटा, भाई बहन, पति पत्नी तो ठीक प्रेमी प्रेमिका के बीच भी अगर मर्यादा नहीं तो वह प्रेम नहीं। एक दूसरे का सम्मान सबसे बड़ी मर्यादा है।।

लेकिन जब रिश्तों में दरार आई, दोस्त ना रहा दोस्त, भाई ना रहा भाई। स्वार्थ और लालच में कैसा रिश्ता, कैसी मर्यादा। अक्सर जब भी मर्यादा की बात होती है, नैतिकता का जिक्र भी होता ही है। समाज के रीति रिवाज हमारे चरित्र का निर्धारण करते हैं। पति पत्नी के संबंधों को जायज और पवित्र माना गया है, मर्यादित माना गया है। लेकिन उस अंधे कानून का क्या करें, जो अवैध रिश्तों को भी लिव इन रिलेशन नाम देकर कानून की किताब को काली किताब बना रहा है।

अब समय आ गया है, रिश्तों की मर्यादा की रक्षा हम आप स्वयं ही करें। नैतिकता और कानून से ऊपर हमारा जागृत विवेक भी है जो स्वयं एक लक्ष्मण रेखा खींचने के लिए सक्षम है। हमारे रिश्तों को सहेजना और मर्यादित रखना हमारे हाथ में हैं। मन, वचन और कर्म की पवित्रता ही रिश्तों की बुनियाद है, मर्यादा है। सभी रिश्तों को एक नया नाम दें, सम्मान दें तब ही हमारे रिश्ते खुली हवा में सांस ले पायेंगे। जब तक रिश्ते लौकिक हैं, लौकिकता निभाएं अलौकिक रिश्ते तो सिर्फ राधा और मीरा के होते हैं। हमें तो अभी समय की धारा में ही बहना है, बहती गंगा में नहीं, पावन प्रेम की गंगा में हाथ धोना है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ जन्मदिवस विशेष – कथाकार – व्यंग्यकार डॉ. कुन्दन सिंह परिहार ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आपकी साहित्यिक एवं संस्कृतिक जगत की विभूतियों के जन्मदिवस पर पर शोधपरक आलेख अत्यंत लोकप्रिय हैं। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है 85 वें जन्मदिवस पर आपका आलेख कथाकार – व्यंग्यकार डॉ. कुन्दन सिंह हार )

☆ जन्मदिवस विशेष – कथाकार – व्यंग्यकार डॉ. कुन्दन सिंह परिहार ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

(25 अप्रैल को जन्म दिवस पर विशेष)

सामान्यतः कुर्ता पजामा धारण करने वाले, औसत कद काठी के डॉ. कुन्दन सिंह परिहार देश के शिक्षा और साहित्य जगत के अति विशिष्ट व्यक्ति हैं । ज्ञान के प्रकाश से आलोकित मुख मंडल, कुछ खोजती / ढूंढती, जिज्ञासा से भरी आंखें और लोगों को स्वयं से जोड़ लेने वाली आत्म विश्वास से परिपूर्ण प्रभावशाली वाणी जबलपुर वासी राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वरिष्ठ कथाकार, व्यंग्यकार डॉ. कुन्दन सिंह परिहार के व्यक्तित्व का श्रंगार हैं ।

डॉ. परिहार ने जिस सहजता – सरलता,कोमलता और करुणा के साथ प्रेम और वात्सल्यता की भावना से भरे पारिवारिक व सामाजिक रिश्तों पर कथाएं लिखी हैं उतनी ही खूबी से उन्होंने बनते – बिगड़ते रिश्तों, सामाजिक विसंगतियों, अत्याचार, अनाचार व एक आम कामकाजी व्यक्ति की परेशानी और बेचारगी को भी अपनी कहानियों के माध्यम से समाज के सम्मुख प्रस्तुत किया है । आपके द्वारा रचित कहानियां सम्पूर्ण कथा तत्वों के साथ आपके श्रेष्ठ लेखन का प्रमाण हैं । वहीं जब आप बिखरते टूटते रिश्तों, सामाजिक विसंगतियों, अत्याचार, अनाचार, राजनीति आदि पर सीधा प्रहार करने वाले करारे व्यंग्य लिखते हैं तो लगता जैसे आपको बज्र निर्माण से बची दधीचि की अस्थियों से बनी सख्त कलम मिल गई हो जो आपकी मर्जी से बिना भेदभाव चलती जा रही है । आपकी कहानियों में परिस्थितियों व प्रसंगवश सहज ही व्यंग्य प्रवेश पा जाता है इसी तरह आपके व्यंग्य कथात्मक प्रवाह पाकर पाठकों पर पकड़ बनाए रखते हैं । भाषा शैली सहज सरल, प्रवाह पूर्ण है ।

25 अप्रैल 1939 को मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले के ग्राम अलीपुरा में आपका जन्म हुआ । आपने अंग्रेजी साहित्य एवं अर्थशास्त्र में एम.ए., पीएच-डी., एल एल.बी. की उपाधियां प्राप्त कर अपनी जन्म भूमि को गौरवान्वित किया । मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के महाविद्यालयों में अध्यापन के उपरांत आपने जबलपुर के गोविंदराम सेकसरिया अर्थ वाणिज्य महाविद्यालय में सेवाएं दीं और प्राचार्य पद से सेवा निवृत्त हुए ।

डॉ. कुन्दन सिंह परिहार 1960 से निरंतर कहानी और व्यंग्य लेखन कर रहे हैं । आपकी दो सौ से अधिक कहानियां और इतने ही व्यंग्य देश की प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं । आपके द्वारा रचित प्रमुख कथा संग्रह हैं – तीसरा बेटा, हासिल, वह दुनिया, शहर में आदमी, कांटा । आपके प्रकाशित व्यंग्य संग्रहों अंतरात्मा का उपद्रव, एक रोमांटिक की त्रासदी और नवाब साहब का पड़ोस आदि ने आपको  राष्ट्रीय ख्याति प्रदान की । कथा संग्रह “वह दुनिया” के लिए 1994 में आपको वागीश्वरी पुरस्कार तथा 2004 में कहानी “नई सुबह” के लिए राजस्थान पत्रिका का सृजनात्मकता पुरस्कार प्राप्त हो चुका है । अनेक संस्थाओं, संगठनों से सम्मानित आप नगर के युवा रचनाकारों के प्रेरणा स्रोत, मार्गदर्शक व जबलपुर के गौरव हैं । आज 25 अप्रैल को आपके 85 वें जन्मोत्सव पर आपके समस्त मित्रों, परिचितों, प्रशंसकों और व्यंगम परिवार की ओर से आपको स्वस्थ, सुदीर्घ, यशस्वी जीवन की शुभकामनाएं ।

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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