हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 233 ⇒ मेहनत का मोती… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मेहनत का मोती…।)

?अभी अभी # 233 ⇒ मेहनत का मोती… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जहां मेहनत है, वहां पसीना है, पसीने की हर बूंद किसी मोती से कम नहीं होती।

यूं ही नहीं किसी को लौह पुरुष और विकास पुरुष कहा जाता है, अरे कोई कारण होगा। श्रम में कैसी शर्म।

दफ्तर में हमारे एक सहयोगी थे मालवीय जी। सीधे सादे, गंभीर किस्म के, काम से काम रखने वाले, संकोची इंसान ! जो व्यक्ति जल्दी खुलता नहीं, उसके रोचक किस्सों का पिटारा बहुत जल्द खुल जाता है। कुछ साथी उन्हें दबी जुबान से मेहनत का मोती कहते थे। ऐसे रहस्य बहुत जल्द उजागर नहीं होते।।

देखादेखी हमने भी उनमें रुचि लेना शुरू कर दिया।

कुछ लोग परिश्रम से उपाधि हासिल करते हैं और कुछ को उपाधि मुफ्त में ही प्रदान कर दी जाती है। दादा, पंडित जी, गुरु जी, खलीफा पहलवान और डॉक्टर जैसी सम्मानजनक उपाधियां हमारे दफ्तरों में खुले आम बांटी जाती है, बिना हींग और फिटकरी के। और वे भी इसे ससम्मान ग्रहण कर लेते हैं।

लेकिन कुछ दबी जुबान की उपाधियां सार्वजनिक नहीं होती। बहुत हिटलर, खड़ूस, कंजूस मक्खीचूस, और दिलफेंक रोमियो होते हैं दफ्तरों में जिनमें कोई श्याणा कौआ होता है, तो कोई बहुत चलती रकम।।

हमारे रहस्यमयी मेहनत के मोती, मालवीय जी पर भी रिसर्च की गई तो पता चला, मोती उनका बचपन का नाम था, क्योंकि घर में एक हीरा पहले ही पैदा हो गया था। जन्म से ही उनके चेहरे पर चेचक के दाग थे, जिनका मेहनत से कोई सरोकार नहीं था। उन्हें मोती नाम पसंद नहीं था, क्योंकि मोहल्ले में सड़क पर और भी उनके हमनाम घूमा करते थे। शायद इसीलिए दफ्तर के रेकॉर्ड में उनका नाम एम. एल.मालवीय, यानी मांगीलाल मालवीय था। इस नाम और संबोधन से उन्हें रत्ती भर भी आपत्ति नहीं थी।

जब भी हम मालवीय जी को देखते, हमें हमारे सामने मेहनत का मोती नजर आता, लेकिन कभी हिम्मत नहीं हुई, उनसे पूछने की, उन्हें दबी जुबान से मेहनत का मोती क्यूं कहते हैं। लेकिन आखिरकार एक दिन वह भी आ ही गया, जब हमें इस मेहनत के मोती का राज भी पता चल गया।।

हुआ यूं, कि अचानक शाम को दफ्तर खत्म होने पर हम साथ साथ बाहर निकले। कुछ ही दूर पर उनका दुपहिया वाहन खड़ा था, जिस पर शुद्ध हिंदी में मेहनत का मोती लिखा हुआ था। हम तो एकाएक उछल ही पड़े, मालवीय जी

यह गाड़ी आपकी है ? वे हमारा आशय समझ गए !

हां शर्मा जी, यह गाड़ी हमारी है, और हमारे खरे पैसे की कमाई है। अगर हमने इस पर मेहनत का मोती लिखवा दिया तो

आपको क्या आपत्ति है !हमने संभलकर जवाब दिया, नहीं मालवीय जी,

किसने कहा। यह तो बहुत अच्छी बात है। वह आश्वस्त हुए या नहीं, पता नहीं, लेकिन मेहनत के मोती का राज़ तो खुल चुका था। फिर भी मजाल है, कोई उन्हें खुले आम मेहनत का मोती कहकर पुकार ले। अब उन्हें कौन समझाए, जब वे अपने वाहन पर गुजरते हैं, सब यही तो कहते हैं, देखो, वह मेहनत का मोती जा रहा है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 220 – यथार्थ की कल्पना ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 220 ☆ यथार्थ की कल्पना ?

कल्पनालोक.., एक शब्द जो प्रेरित करता है अपनी कल्पना का एक जगत तैयार कर उसमें विचरण करने के लिए। यूँ देखें तो कल्पना अभी है, कल्पना अभी नहीं है। इस अर्थ में इहलोक भी कल्पना का ही विस्तार है। कहा गया है, ‘ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या’ किंतु घटता इसके विपरीत है। सामान्यत: जीवात्मा, मोहवश ब्रह्म को विस्मृत कर जगत को अंतिम सत्य मानने लगता है। सिक्के का दूसरा पक्ष है कि वर्तमान के अर्जित ज्ञान को आधार बनाकर मनुष्य भविष्य के सपने गढ़ता है। सपने गढ़ना अर्थात कल्पना करना। कल्पना अपनी प्रकृति में तो क्षणिक है पर उसके गर्भ में कालातीत होने की संभावना छिपी है। 

शब्द और उसके अर्थ के अंतर्जगत से निकलकर खुली आँख से दिखते वाह्यजगत में लौटते हैं।

वाह्यजगत में सनातन संस्कृति जीवात्मा को चौरासी लाख योनियों में परिक्रमा कराती है। लख चौरासी के संदर्भ में पद्मपुराण कहता है,

जलज नव लक्षाणि, स्थावर लक्ष विंशति:, कृमयो रुद्रसंख्यक:।

पक्षिणां दश लक्षाणि त्रिंशल लक्षाणि पशव: चतुर्लक्षाणि मानव:।

अर्थात 9 लाख जलचर, 20 लाख स्थावर पेड़-पौधे, 11 लाख सरीसृप, कीड़े-मकोड़े, कृमि आदि, 10 लाख पक्षी/ नभचर, 30 लाख पशु/ थलचर तथा 4 लाख मानव प्रजाति के प्राणी हैं।

सोचता हूँ जब कभी घास-फूस-तिनका बना तब जन्म कहाँ पाया था? किसी घने जंगल में जहाँ खरगोश मुझ पर फुदकते होंगे, हिरण कुलाँचे भरते होंगे, सरीसृप रेंगते होंगे। हो सकता है कि फुटपाथ पर पत्थरों के बीच से अंकुरित होना पड़ा हो जहाँ अनगिनत पैर रोज मुझे रौंदते होंगे। संभव है कि सड़क के डिवाइडर में शोभा की घास के रूप में जगत में था, जहाँ तय सीमा से ज़रा-सा ज़्यादा पनपा नहीं कि सिर धड़ से अलग।

जलचर के रूप में केकड़ा, छोटी मछली से लेकर शार्क, ऑक्टोपस, मगरमच्छ तक क्या-क्या रहा होऊँगा! कितनी बार अपने से निर्बल का शिकार किया होगा, कितनी बार मेरा शिकार हुआ होगा।

पेड़-पौधे के रूप में नदी किनारे उगा जहाँ खूब फला-फूला। हो सकता है कि किसी बड़े शहर की व्यस्त सड़क के किनारे खड़ा था। स्थावर होने के कारण इसे ऐसे भी कह सकता हूँ कि जहाँ मैं खड़ा था, वहाँ से सड़क निकाली गई। कहने का तरीका कोई भी हो, हर परिस्थिति में मेरी टहनियों ने जब झूमकर बढ़ना चाहा होगा, तभी उनकी छंटनी कर दी गई होगी। विकास से अभिशप्त मेरा कभी फलना-फूलना न हो सका होगा। स्वाभाविक मृत्यु भी शायद ही मिली होगी। कुल्हाड़ी से काटा गया होगा या ऑटोमेटिक आरे से चीर कर वध कर दिया होगा।

सर्प का जीवन रहा होगा, चूहे और कनखजूरे का भी। मेंढ़क था और डायनासोर भी। केंचुआ बन पृथ्वी के गर्भ में उतरने का प्रयास किया, तिलचट्टा बन रोशनी से भागता रहा। सुग्गा बन अनंत आकाश में उड़ता घूमा था या किसी पिंजरे में जीवन बिताया होगा जहाँ से अंतत: देह छोड़कर ही उड़ सका।

माना जाता है कि मनुष्य जीवन, आगमन-गमन के फेरे से मुक्ति का अवसर देता है। जानता हूँ कि कर्म ऐसे नहीं कि मुक्ति मिले। सच तो यह है कि मैं मुक्ति चाहता भी नहीं।

चाहता हूँ कि बार-बार लौटूँ इहलोक में। हर बार मनुज की देह पाऊँ। हर जन्म लेखनी हाथ में हो, हर जन्म में लिखूँ, अनवरत लिखूँ, असीम लिखूँ।

इतना लिखूँ कि विधाता मुझे मानवमात्र का लेखा लिखने का काम दे। तब मैं मनुष्य के भीतर दुर्भावना जगाने वाले पन्ने कोरे छोड़ दूँ। दुर्भावनारहित मनुष्य सृष्टि में होगा तो सृष्टि परमात्मा के कल्पनालोक का जीता-जागता यथार्थ होगी।

चाहता हूँ कि इस कल्पना पर स्वयं ईश्वर कहें, ‘तथास्तु।’

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मार्गशीर्ष साधना 28 नवंबर से 26 दिसंबर तक चलेगी 💥

🕉️ इसका साधना मंत्र होगा – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 232 ⇒ पकड़ लो, हाथ गिरधारी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पकड़ लो, हाथ गिरधारी।)

?अभी अभी # 232 ⇒ पकड़ लो, हाथ गिरधारी… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

बात आज की नहीं, कई बरसों पुरानी है, एक फिल्म आई थी शहनाई, जिसमें राजेंद्र कृष्ण का एक गीत रफी साहब की आवाज में था, जो सुनते सुनते, जबान पर चढ़ गया था ;

ना झटको, जुल्फ से पानी,

ये मोती फूट जाएंगे।

तुम्हारा कुछ ना बिगड़ेगा

मगर दिल टूट जाएंगे।।

सन् १९६४ की यह फिल्म थी, और हमने ज़ुल्फ और हुस्न जैसे शब्द केवल सुन ही रखे थे, इनके अर्थ के प्रति हम इतने गंभीर भी नहीं थे। आप चाहें तो कह सकते हैं, हम उदासीन की हद तक मंदबुद्धि थे। ऐ हुस्न, जरा जाग तुझे इश्क जगाए, जैसे गीत हमें जरा भी जगा ना सके, और शायद इसीलिए ये गीत हमें सुनने में तो अच्छे लगते थे, लेकिन हम कभी सुर में गा न सके। फिर भी हम यह मानते हैं कि सुर की साधना भी परमेश्वर की ही साधना है।

तब अखबारों में भी विज्ञापन आते थे, और जगह जगह लाउडस्पीकर पर फिल्मी कथावाचक फिल्मी धुनों पर अच्छे अच्छे भजन प्रस्तुत किया करते थे। संगीत अगर कर्णप्रिय हो, तो सुधी श्रोता के कानों में प्रवेश कर ही जाता है।।

महिलाएं कामकाजी हों या घरेलू, पूजा पाठ, व्रत उपवास और भजन सत्संग के लिए समय निकाल ही लेती है। शादी ब्याह हो या कोई मंगल प्रसंग, सत्य नारायण की कथा अथवा कम से कम भजन कीर्तन तो बनता ही है। महिलाओं की शौकिया और कम खर्चीली भजन मंडलियाॅं भी होती हैं, जो केवल एक ढोलक की थाप पर ऐसा समाॅं बाॅंधती हैं, कि देखते ही बनता है।

भजन और आरती संग्रह का साहित्य ही इनकी जमा पूंजी होता है। रात दिन गाते गाते इन्हें सभी भजन कंठस्थ हो चुके होते हैं।

गृह कार्य से निवृत्त हो, जब इनकी मंडली जमती है, तो कुछ ही समय में सभी देवताओं का आव्हान कर लिया जाता है। राम जी भी आना, सीता जी को भी साथ लाना। करना ना कोई बहाना बहाना।।

महिला संगीत तो आजकल विवाह समारोहों का एक आवश्यक अंग बन चुका है। खुशी का मौका होता है, गाना बजाना और डांस तो बनता ही है।

परिवार वालों की महीनों प्रैक्टिस होती है, एक एक गीत के लिए। इवेंट मैनेजमेंट का एक प्रमुख हिस्सा है महिला संगीत, कोई मजाक नहीं।

जो पुरुष ताउम्र कहीं नहीं नाचा, उसे उसकी पत्नी और बच्चे सबके सामने नचाकर ही मानते है। और गीत भी कैसा, लाल छड़ी, क्या खूब लड़ी, क्या खूब लड़ी।

पिछली रात आसपास की महिलाएं यूं ही घर में मिल बैठी तो बिना ढोलक के ही सुर निकलने लगे। महिलाओं का स्वर पुरुष के स्वर से अधिक मीठा और अधिक सुरीला होता है। अचानक एक भजन पर मेरा ध्यान चला गया, वही मेरी प्यारी धुन लेकिन कितने खूबसूरत बोल ;

पकड़ लो हाथ बनवारी

नहीं तो डूब जाएंगे।

तुम्हारा कुछ ना बिगड़ेगा

तुम्हारी लाज जाएगी।।

 

धरी है, पाप की गठरी

हमारे सर पे ये भारी।

वजन पापों का है भारी

इसे कैसे उठाएंगे।।

 

तुम्हारे ही भरोसे पर

जमाना छोड़े बैठे हैं।

जमाने की तरफ देखो

इसे कैसे निभाएंगे।।

 

दर्दे दिल की कहें किससे

सहारा ना कौन देगा।

सुनोगे आप ही मोहन

और किसको सुनाएंगे।।

 

फॅंसी है, भॅंवर में नैया

प्रभु अब डूब जाएगी।

खिवैया आप बन जाओ

तो बेड़ा पार हो जाए।।

 

पकड़ लो हाथ गिरधारी ..

कोई बुद्धि, दिखावे और प्रपंच का खेल नहीं, कोई बहस, विवाद, तर्क वितर्क नहीं, बस कुछ पल का बिना शर्त समर्पण है यह ;

सौंप दिया अब जीवन का सब भार तुम्हारे चरणों में।

अब जीत भी तुम्हारे चरणों में

और हार भी तुम्हारे चरणों में।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 231 ⇒ घुसपैठ… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “घुसपैठ।)

?अभी अभी # 231 ⇒ घुसपैठ… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

पहले तो बिना इजाजत कहीं भी घुस जाना और फिर धूनी जमाकर बैठ जाना आखिर घुसपैठ नहीं तो और क्या है। यह तो वही हुआ, चोरी और सीना जोरी।

जितने सुरक्षित हम आज हैं, उतने पहले कभी नहीं थे। गए वो जमाने, जब हमसे पहले हमारे पलंग और बिस्तर पर खटमलों का राज था। अरे, उनकी दीवारों से तो क्या, खिड़की दरवाजों तक से मिलीभगत थी। इन खून चूसने वाले घुसपैठियों को रात रात भर जाग जागकर घासलेट की पिचकारी से नहलाना पड़ता था और कुछ को तो जीते जागते ही जल समाधि देनी पड़ती थी। आज अगर खाट नहीं, तो खटमल भी नहीं।।

आज के मच्छरों और मक्खियों को भी आप चाहें तो घुसपैठिया कह सकते हैं। लेकिन वास्तव में आज भी हमारे देश में मक्खी मच्छरों का ही साम्राज्य है। इन्हें भगाने के लिए पहले हमें गंदगी को भगाना पड़ता है, भारत को स्वच्छ ही नहीं रखना पड़ता, अपने घरों के दरवाजों और खिड़कियों में जाली भी लगवानी पड़ती है। फिर भी आप नाना पाटेकर को यह डायलॉग मारने से नहीं रोक सकते ;

एक मच्छर साला आदमी को हिजड़ा बना देता है।

कार के बंद शीशों में जब एक मक्खी अथवा मच्छर घुस जाता है, तो वह भी किसी घुसपैठिए से कम नहीं होता। एक अकेला सब पर भारी ! खिड़की खोलो, फिर भी बाहर जाने को तैयार नहीं। उसे कार से बेदखल करने के बाद सबके चेहरे पर विजयी मुस्कान आसानी से देखी जा सकती है।।

सीसीटीवी कैमरे, और अन्य महंगे सुरक्षा उपकरण, जिनमें वफादार कुत्ते भी शामिल हैं, चोर, डाकू, और बिन बुलाए मेहमान से तो आपकी सुरक्षा कर सकते हैं, लेकिन बिना इजाजत घुसी एक मक्खी से आपको नहीं बचा सकते। मच्छरदानी से mosquito bat तक की यात्रा इसकी गवाह है।

बिना मुंह लगाए, वह हमारे मुंह पर मंडराया करती है, प्रेयसी की तरह चिपकने की कोशिश करती है। ना जाने कहां कहां से मुंह काला करके आई होती है कलमुंही।

कभी कभी परिचित सज्जनों के साथ कुछ ऐसे अनचाहे, अनवांटेड व्यक्ति भी जीवन में प्रवेश कर जाते हैं, जो घुसपैठ में माहिर होते हैं। थोड़ी सी पहचान ही काफी होती है उन्हें, घुसपैठ करने के लिए। साहित्य, संगीत, घर परिवार, कथा सत्संग और राजनीति सभी क्षेत्रों में इनकी तगड़ी घुसपैठ होती है।।

हर शादी ब्याह, उठावना, पुस्तक मेला, परिचय सम्मेलन, में आपको इनके दर्शन हो जाएंगे। आप कितना भी मुंह फेरें, वे तपाक से आपसे मिलेंगे और आपके साथ वाले से हाथ मिला लेंगे। ये लोग परिचय के मोहताज नहीं होते। इन्हें सब जानते हैं।

थोड़ी बहुत घुसपैठ और मेल मिलाप भी जीवन में जरूरी है। लेकिन अगर किसी ने मक्खी की तरह चिपकने की कोशिश की तो उसे दूध में से मक्खी की तरह निकालकर फेंकना भी जरूरी है।

घुसपैठियों से सावधान।

मक्खी, मच्छरों, अब तुम्हारी खैर नहीं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #211 ☆ बहुत तकलीफ़ होती है… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख बहुत तकलीफ़ होती है…। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 211 ☆

बहुत तकलीफ़ होती है…

‘लोग कहते हैं जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो तकलीफ़ होती है; परंतु जब कोई अपना पास होकर भी दूरियां बना लेता है, तब बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है।’ प्रश्न उठता है, आखिर संसार में अपना कौन…परिजन, आत्मज या दोस्त? वास्तव में सब संबंध स्वार्थ व अवसरानुकूल उपयोगिता के आधार पर स्थापित किए जाते हैं। कुछ संबंध जन्मजात होते हैं, जो परमात्मा बना कर भेजता है और मानव को उन्हें चाहे-अनचाहे निभाना ही पड़ता है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अकेला नहीं रह सकता और वह कुछ संबंध बनाता है; जो बनते-बिगड़ते रहते हैं। परंतु बचपन के साथी लंबे समय तक याद आते रहते हैं, जो अपवाद हैं। कुछ संबंध व्यक्ति स्वार्थवश स्थापित करता है और स्वार्थ साधने के पश्चात् छोड़ देता है। यह संबंध रिवाल्विंग चेयर की भांति अस्थायी होते हैं, जो दृष्टि से ओझल होते ही समाप्त हो जाते हैं और लोगों के तेवर भी अक्सर बदल जाते हैं। परंतु माता-पिता व सच्चे दोस्त नि:स्वार्थ भाव से संबंधों को निभाते हैं। उन्हें किसी से कोई संबंध-सरोकार नहीं होता तथा विषम परिस्थितियों में भी वे आप की ढाल बनकर खड़े रहते हैं। इतना ही नहीं, आपकी अनुपस्थिति में भी वे आपके पक्षधर बने रहते हैं। सो! आप उन पर नेत्र मूंदकर विश्वास कर सकते हैं। आपने अंग्रेजी की कहावत सुनी होगी ‘आउट आफ साइट, आउट ऑफ मांइड’ अर्थात् दृष्टि से ओझल होते ही उससे नाता टूट जाता है। आधुनिक युग में लोग आपके सम्मुख अपनत्व भाव दर्शाते हैं; परंतु दूर होते ही वे आपकी जड़ें काटने से तनिक भी ग़ुरेज़ नहीं करते। ऐसे लोग बरसाती मेंढक की तरह होते हैं, जो केवल मौसम बदलने पर ही नज़र आते हैं। वे गिरगिट की भांति रंग बदलने में माहिर होते हैं। इंसान को जीवन में उनसे सदैव सावधान रहना चाहिए, क्योंकि वे अपने बनकर, अपनों को घात लगाते हैं। सो! उनके जाने का इंसान को शोक नहीं मनाना चाहिए, बल्कि प्रसन्न होना चाहिए।

वास्तव में इंसान को सबसे अधिक दु:ख तब होता है, जब अपने पास रहते हुए भी दूरियां बना लेते हैं। दूसरे शब्दों में वे अपने बनकर अपनों से विश्वासघात करते हैं तथा पीठ में छुरा घोंपते हैं। आजकल के संबंध कांच की भांति नाज़ुक होते हैं, जो ज़रा-सी ठोकर लगते ही दरक़ जाते हैं, क्योंकि यह संबंध स्थायी नहीं होते। आधुनिक युग में खून के रिश्तों पर भी विश्वास करना मूर्खता है। अपने आत्मज ही आपको घात लगाते हैं। वे आपको तब तक मान-सम्मान देते हैं, जब तक आपके पास धन-संपत्ति होती है। अक्सर लोग अपना सब कुछ उनके हाथों सौंपने के पश्चात् अपाहिज-सा जीवन जीते हैं या उन्हें वृद्धाश्रम में आश्रय लेना पड़ता है। वे दिन-रात प्रभु से यही प्रश्न करते हैं, आखिर उनका कसूर क्या था? वैसे भी आजकल परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं, क्योंकि संबंध-सरोकारों की अहमियत रही नहीं। वे सब एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होते हैं, जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ता है। प्राय: वे ग़लत संगति में पड़ कर अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं।

अक्सर ज़िदंगी के रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोगों की बातों में आकर हम अपनों से उलझ जाते हैं। मुझे स्मरण हो रहे हैं कलाम जी के शब्द ‘आप जितना किसी के बारे में जानते हैं; उस पर विश्वास कीजिए और उससे अधिक किसी से सुनकर उसके प्रति धारणा मत बनाइए। कबीरदास भी आंखिन-देखी पर विश्वास करने का संदेश देते हैं; कानों-सुनी पर नहीं। ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।’ इसलिए उनकी बातों पर विश्वास करके किसी के प्रति ग़लतफ़हमी मत पालें। इससे रिश्तों की नमी समाप्त हो जाती है और वे सूखी रेत के कणों की भांति तत्क्षण मुट्ठी से फिसल जाते हैं। ऐसे लोगों को ज़िंदगी से निकाल फेंकना कारग़र है। ‘जीवन में यदि मतभेद हैं, तो सुलझ सकते हैं, परंतु मनभेद आपको एक-दूसरे के क़रीब नहीं आने देते। वास्तव में जो हम सुनते हैं, हमारा मत होता है; तथ्य नहीं। जो हम देखते हैं, सत्य होता है; कल्पना नहीं। ‘सो! जो जैसा है; उसी रूप में स्वीकार कीजिए। दूसरों को प्रसन्न करने के लिए मूल्यों से समझौता मत कीजिए; आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चले आइए।’ महात्मा बुद्ध की यह सीख अनुकरणीय है।

‘ठहर! ग़िले-शिक़वे ठीक नहीं/ कभी तो छोड़ दीजिए/ कश्ती को लहरों के सहारे।’ समय बहुत बलवान है, निरंतर बदलता रहता है। जीवन में आत्म-सम्मान बनाए रखें; उसे गिरवी रखकर समझौता ना करें, क्योंकि समय जब निर्णय करता है, तो ग़वाहों की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए किसी विनम्र व सज्जन व्यक्ति को देखते ही यही कहा जाता है, ‘शायद! उसने ज़िंदगी में बहुत अधिक समझौते किए होंगे, क्योंकि संसार में मान-सम्मान उसी को ही प्राप्त होता है।’ किसी को पाने के लिए सारी खूबियां कम पड़ जाती हैं और खोने के लिए एक  ग़लतफ़हमी ही काफी है।’ सो! जिसे आप भुला नहीं सकते, क्षमा कर दीजिए; जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते, भूल जाइए। हर क्षण, हर दिन शांत व प्रसन्न रहिए और जीवन से प्यार कीजिए; आप ख़ुद को मज़बूत पाएंगे, क्योंकि लोहा ठंडा होने पर मज़बूत होता है और उसे किसी भी आकार में ढाला नहीं जा सकता है।

यदि मन शांत होगा, तो हम आत्म-स्वरूप परमात्मा को जान सकेंगे। आत्मा-परमात्मा का संबंध शाश्वत् है। परंतु बावरा मन भूल गया है कि वह पृथ्वी पर निवासी नहीं, प्रवासी बनकर आया है। सो! ‘शब्द संभाल कर बोलिए/ शब्द के हाथ ना पांव/ एक शब्द करे औषधि/  एक शब्द करे घाव।’ कबीर जी सदैव मधुर वाणी बोलने का संदेश देते हैं। जब तक इंसान परमात्मा-सत्ता पर विश्वास व नाम-स्मरण करता है; आनंद-मग्न रहता है और एक दिन अपने जीवन के मूल लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर लेता है। सो! परमात्मा आपके अंतर्मन में निवास करता है, उसे खोजने का प्रयास करो। प्रतीक्षा मत करो, क्योंकि तुम्हारे जीवन को रोशन करने कोई नहीं आएगा। आग जलाने के लिए आपके पास दोस्त के रूप में माचिस की तीलियां हैं। दोस्त, जो हमारे दोषों को अस्त कर दे। दो हस्तियों का मिलन दोस्ती है। अब्दुल कलाम जी के शब्दों में ‘जो आपके पास चलकर आए सच्चा दोस्त होता है; जब सारी दुनिया आपको छोड़कर चली जाए।’ इसलिए दुनिया में सबको अपना समझें;  पराया कोई नहीं। न किसी से अपेक्षा ना रखें, न किसी की उपेक्षा करें। परमात्मा सबसे बड़ा हितैषी है, उस पर भरोसा रखें और उसकी शरण में रहें, क्योंकि उसके सिवाय यह संसार मिथ्या है। यदि हम दूसरों पर भरोसा रखते हैं, तो हमें पछताना पड़ता है, क्योंकि जब अपने, अपने बन कर हमें छलते हैं, तो हम ग़मों के सागर में डूब जाते हैं और निराशा रूपी सागर में अवगाहन करते हैं। इस स्थिति में हमें बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है। इसलिए भरोसा स्वयं पर रखें; किसी अन्य पर नहीं। आपदा के समय इधर-उधर मत झांकें। प्रभु का ध्यान करें और उसके प्रति समर्पित हो जाएं, क्योंकि वह पलक झपकते आपके सभी संशय दूर कर आपदाओं से मुक्त करने की सामर्थ्य रखता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 230 ⇒ होना, और कुछ नहीं होना… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “होना, और कुछ नहीं होना…।)

?अभी अभी # 230 ⇒ होना, और कुछ नहीं होना… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कुछ ना कुछ तो जरूर होना है।

सामना आज उनसे होना है।।

जब जब, जो जो होना होता है, तब तब सो सो होता है, बिंदु की मां ! क्या कुछ होने के लिए किसी का सामना होना जरूरी है।

जब कि हमने तो सुना है कि होता वही है, जो मंजूरे खुदा होता है और शुद्ध हिंदी में, ईश्वर की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता। यह तो वही हुआ कि पत्ता अगर किसी के डर के मारे हिल गया, तो उसमें भी डराने वाले की मर्जी शामिल हो गई।

जिसकी मर्जी होती है, उसका हमारे सामने रहना भी जरूरी नहीं।

हमने न तो डर को देखा और न ही उस रब को। बस महसूस किया और या तो काम हो गया, अथवा काम तमाम हो गया। कहते हैं, डर के आगे जीत है और उस यारब के आगे तो हार ही हार है। उनसे मिली नज़र, तो मेरे होश उड़ गए।।

होना हमारी नियति है और होना ही प्रकृति भी। अगर हम नहीं होते तो क्या होता और अगर यह दुनिया ही नहीं होती तो क्या होता, जैसे प्रश्न हमारे मन में इसलिए नहीं आते, क्योंकि हम हैं और हमारे कारण ही यह कायनात भी। हमारे नहीं होने का प्रश्न तब पैदा होता, जब हम नहीं होते। अगर हम नहीं होते, तो इस कायनात का भी प्रश्न पैदा नहीं होता। हमसे है जमाना, जमाने से हम नहीं। हम किसी से कम नहीं।

क्या कभी इस सृष्टि में ऐसा भी वक्त आया होगा, जब कुछ भी नहीं होगा। जब कुछ भी नहीं होगा, तो न चांद होगा, न सूरज होगा, और न ये आसमान होगा। तब तो फिर इस धरती का भी अस्तित्व नहीं रहा होगा, हमारी आपकी तो खैर बात ही छोड़िए।

दर्शन, ज्ञान विज्ञान और हमारी कई धार्मिक मान्यताएं आदम हव्वा, adam eve और मनु और श्रद्धा से हमारी उत्पत्ति बताते हैं तो इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के लिए तो हमारे ब्रह्मा जी ही काफी हैं। थ्री इन वन ब्रह्मा विष्णु और महेश, फिर क्या रह जाता शेष।।

होने को ही हम होनी भी कहते हैं। जो नहीं होना चाहिए, उसे हमने अनहोनी नाम दिया है। जो हो रहा है, जो अस्तित्व में है उसे हम मैनिफेस्टेशन, प्रकृति,

कायनात, मजहर अथवा व्यक्त मानते हैं। अव्यक्त, अशेष, ही अनादि, अनंत, अजन्मा, निराकार ओंकार स्वरूप है। एक महामानव ने इसका नाम ब्लैक होल दे दिया। कितनी आसान अभिव्यक्ति है शून्य, जिसमें सब कुछ समाया हुआ है।

कहते हैं ज्ञानी, दुनिया है फानी। निदा फाजली तो यहां तक कहते हैं ;

दुनिया जिसे कहते हैं

जादू का खिलौना है।

मिल जाए तो मिट्टी

खो जाए तो सोना है।।

हम भी तो यही चाहते हैं। जो हो, अच्छा ही हो। हम भी बस पाना ही पाना तो चाहते हैं, कौन यहां कुछ खोना चाहता है। हमारा होना ही हमारा अस्तित्व है, हम नहीं जानते, हमारे नहीं होने पर क्या होना जाना है।

हमारे जीवन में बहुत कुछ घटता है, चाहा, मनचाहा, अनचाहा। घटना, बढ़ना जीवन की आम घटना है। हमारी घटती उम्र को हम बढ़ती उम्र समझते हैं। बहुत कुछ हुआ है, अभी बहुत कुछ होना बाकी है। जहां अभी और अपेक्षा है, वहां उत्साह, उमंग और महत्वाकांक्षा है, जहां संतोष, तसल्ली और संतुष्टि है, वहां, बाकी भी इसी तरह, गुजर जाए तो अच्छा, ऐसी भावना है।

फिर भी एक अंदेशा है, आंतरिक संकेत है कि कुछ ना कुछ तो जरूर होना है, सामना आज उनसे होना है। यह आज कब आता है, बस उस कल की, उस पल की प्रतीक्षा है, सामना किससे होना है, यह हम नहीं बताएंगे।।

जब वह साक्षात सामने प्रकट हो जाएगा, आप जान जाएंगे, लेकिन फिर किसी को बताने लायक नहीं रह जाएंगे। अभी बहुत कुछ होना बाकी है;

हम इंतजार करेंगे,

तेरा कयामत तक।

खुदा करे, कि कयामत हो

और तू आए।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ बच्चे कहानी कविता क्यों पढ़े? ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

☆ आलेख ☆ बच्चे कहानी कविता क्यों पढ़े ♥ ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(बाल-साहित्य की ‘आर्थिक उपयोगिता’)

‘मर जाने पर भी पैसे की कीमत का अहसास तुम्हे रहता है!’

– नोबल विजयी तुर्की लेखक ओरहॉन पामुक. (मेरा नाम लाल है।)

कथापीठ :

बनारस की मलाई गिलोरी हो या कोलकाता के प्रख्यात भीमनाग का संदेष – इनके रसास्वादन के लिए स्वाद, सौन्दर्य और विपणन (मार्केटिंग) वगैरह के अलावा दो बातें बहुत ही जरूरी है। एक, ये मिठाई कहीं से बिके ; दूसरी – ग्राहक इन्हें खाने तो आयें। बाल-साहित्य के सम्बन्ध में भी यह अत्यन्त आवश्यक है कि बाल-साहित्य पत्रिकायें निकलें एवं बच्चे (और उनके घरवाले भी) उन कहानी-कविता-नाटकों को कम से कम एकबार तो पढ़े…       

और आज के कोरोना काल में जब पूरे देश दुनिया में लॉक डाउन की स्थिति बन गई है, बच्चों को घर में ही रह कर ऑन लाइन पढ़ाई करनी है, उन्हें बार बार कहा जा रहा है कि वे घर से बिलकुल न निकले तो मनोग्राही बाल साहित्य की आवश्यकता का एक बार नये ढंग से अहसास हो जाता है। सारा दिन घर बैठे वे सिर्फ लैपटॉप पर ही तो आँख गड़ाये बैठे नहीं रह सकते। मनोरंजन के लिए वे कहानी की एक किताब हाथों में ले सकते हैं। 

‘बातचीत’ के दौरान अकादमी अवार्ड से आदृत अमरकान्त ने अपना विचार यूँ रक्खा :‘साहित्यिक पत्रिकाएँ निकालना घाटे का सौदा बन गया है। इसलिए बड़े घरानों ने इधर से हाथ खड़े कर लिये हैं।’

(पुनर्नवाः दै.जागरण. 11.1.08.)

इस पहलू को छोड़ हमारी चर्चा का विषय है – कहानी-कविता पढ़ने से बच्चों को (एवं उनके अभिवावकों को) फायदा क्या? वैसे तो ‘बाल साहित्य’ का मतलब यही लगा लिया जाता है कि ‘कोई’ स्वदेश प्रेम, पर्यावरण, बड़ों का आदर करना – यानी नीति शिक्षा पर बाँचने के लिए तैयार बैठा है। हद तो यह है कि एक अखबार के बालपृष्ठ पर प्रकाशित  कहानी के अंत में -‘इससे क्या शिक्षा मिलती है?’ – इसे टिप्पणी के रूप में प्रस्तुत की जाती है।           

ज्ञान वितरण के चक्कर में वे भूल जाते हैं -‘जहाँ आनन्द है, वहीं सत्य है। साहित्य काल्पनिक वस्तु है, पर उसका प्रधान गुण है – आनन्द प्रदान करना।’

( प्रेमचंदः मानसरोवरः एक)

जन्म से लेकर जीविकोपार्जन की ड्योढ़ी तक पहुँचने में एक बच्चे की जिंदगी में विभिन्न पड़ाव आते हैं : बचपन, पढ़ना-खेलना, बाल-मजदूरी, कम्पटीशन, एडमिशन, कैरियर, और रोजगार से लेकर सेविंग या शेयर निवेश तक। चलिए देखें कि इस ‘दुनियादारी’ को निभाने में बाल-साहित्य कैसे हमारे बच्चों का हाथ पकड़ कर हम सफर बन सकता है – शुद्ध आर्थिक आकलन की दृष्टि से …..।

बेवज़ह नाक भौं सिकोड़ने से कोई फायदा नहीं। आज के लक्ष्मीवाद के बाज़ार में बैठे सिर्फ सरस्वती की वीणा बजाऊँ, इतना बड़ा लक्ष्मीवाहन भी नहीं हूँ। तो –

बचपन :

‘‘माँ ओ’ कहकर बुला रही थी, मिट्टी खाकर आई थी। कुछ मुँह में कुछ लिए हाथ में, मुझे खिलाने आई थी।’(मेरा नया बचपन)। सुभद्राकुमारी चौहान की इस कविता का वात्सल्य रस अगर किसी नन्हे पाठक को सराबोर कर देता है, तो भविश्य में इसकी उपयोगिता क्या है?

आपने टीवी में सौन्दर्य या सफाई – साबुन का ऐड नहीं देखा? कैसे माँ अपनी नन्ही सी प्यारी सी परी को साबुन लगाती है, या पलक झपकते उसके गंदे कपड़ों को साफ कर देती है। हाँ, तो ऐसी कल्पनाओं से प्रेरणा पाकर ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ के सृष्टि विज्ञापन जादूगर अभिजीत अवस्थी (दै.जागरण. 19.1.08.) की तरह आपका बेटा भी डॉक्युमेन्टरी या ऐड फिल्म का प्रणेता बन सकता है। उनमें नौकरी पा सकता है। आज जब एम0बी0ए0 की ध्वजा सर्वत्र बुलन्द होकर फरफरा रही है – उसमें एडमिशन लेने में, या एडमिशन के बाद प्रोजेक्ट तैयार करने में शायद ‘झाँसीवाली रानी’ की रचयित्री काम आ जाएँ ……..

बाज़ार :

इसका टार्गेट भी बचपन है । माल या वस्तु (कमॉडिटी) की व्याख्या करते हुए कार्ल मार्क्स ‘पूँजी’ का बिस्मिल्लाह इस तरह करते हैं :‘माल का अस्तित्व हमसे पृथक है। वह किसी न किसी रूप से हमारी किसी माँग की आपूर्ति करता है। यह माँग पेट की हो चाहे मन की …..’

उन्होंने माल के लिए जड़ जगत से कोट या सूत वगैरह का ही उदाहरण प्रस्तुत किया। मगर आज ‘मनोभावना’ भी एक कमॉडिटी है। दो मिनट में फट से तैयार होनेवाला खाना हो या टूथपेस्ट – सभी ऐड का ‘टार्गेट-ग्राहक’ बच्चे हैं। जिन्हें मद्दे नज़र रखते हुए इन ऐड्स् की सृष्टि होती है। आखिर वे ही अपनी माँ से उन वस्तुओं को खरीद देने की माँग करेंगे।

शिक्षा :

विष्णु शर्मा ने पंचतंत्र जैसे बाल साहित्य की सृष्टि महज इसलिए की थी कि महिलारोप्य नगर के राजा अमर शक्ति के तीन उच्छृंखल एवं मूर्ख कुमारों (बहुशक्ति, उग्रशक्ति और अनन्तशक्ति) को सही मार्ग पर लाया जाएँ। वे राज्य-लक्ष्मी को सँभाल सकें। यानी विशुद्ध वित्तीय उद्देष्य! (डा0 श्रीप्रसाद रचित बाल साहित्य का उद्देष्य से ये नाम लिए गये हैं।)                       

एन.सी.ई.आर.टी. का निर्देशक श्री कृष्णकुमार के अनुसार : ‘शिक्षा की प्राचीन अवधारणा यह नहीं बताती कि हर बच्चा एक ‘अर्थ’ ढूँढ़ने का प्रयास करता है। वर्तमान शिक्षा पद्धति में जोर इस बात पर है कि पठन एवं कहानी-कथन को जोड़ा जाय …..।’

(हिन्दूःअंग्रेजीः 22.1.08.)

एक चीनी कहावत है : पहली दफा किसी किताब को पढ़ने का मतलब है एक नया दोस्त बनाना, दूसरी बार पढ़ने का मतलब है बिछड़े हुए यार से मिलना।

(हिन्दू यंगवर्ल्ड :28.3.08)

मामूली नर्सरी में एडमिशन की त्रासदी को ‘मैं लड्डू नहीं खाता’ कहानी (बालहंसः अप्रैलःद्विः2003) में दर्शाया गया है। नर्सरी से लेकर बारहवीं तक भाषा की भूमिका को कौन अस्वीकार कर सकता है? ध्यान रहे – हिन्दी भी एक ‘विषय’ है। तो कहानी/कविता की भूमिका क्या है? 

1.‘बिल्ली बोली म्याऊँ म्याऊँ मुझको हुआ जुकाम/ चूहे चाचा चूरन दे दो जल्दी हो आराम।’(श्रीप्रसाद)। एडमिशन के समय बच्चा इसे सुना सकता है।

2. एकबार धड़का खुल जाए तो वह आगे चलकर अपनी शैली में, अपने ठंग से दूसरे विषयों का भी जवाब दे सकता है।

3. विज्ञान कथाओं से उनमें विज्ञान के प्रति रुचि पैदा होती है। (उदाः लूशियन का रहस्य – डा0 हरिकृष्ण  देवसरे : पाठक मंच बुलेटिन, अंतरिक्ष के लुटेरे : विष्णु प्रसाद चतुर्वेदी, बालवाटिका)।

4. प्रवेश परीक्षाओं के जी.के. पेपर को हल करने में आसानी हो सकती है। जैसे – नौरोज़ क्या है? ईरान का नव-वर्ष। (नव वर्श की निराली प्रथाएँ – प्रेमलता, बालवाणी, जन/फर .2008).

5. जैसे स्कूटर या कार में मशीन को चुस्त रखने के लिए पेट्रोल के साथ मोबिल की भी जरूरत होती है, उसी तरह लगातार अध्ययन के दौरान बच्चा अगर ऊबने लगे तो (सिर्फ मनोरंजन के लिए ही) कहानी वगैरह पढ़ लेने से उसका दिमाग तरोताज़ा हो जाता है।

6. यहाँ तक कि अन्य विषय के किसी पाठ को मनोग्राही ठंग से आरम्भ करने के लिए भी कविता का सहारा लिया जाता है। डी. आर. लॉरेन्स की भेषज-विज्ञान की पुस्तक में दर्द निवारक औषधियोंवाला चैप्टर मिल्टन के ‘पैराडाइज लॉस्ट’ की पंक्तियों से आरम्भ होता है : ‘वो बेमिसाल ताकत किस काम का ? जब ख़ुद दर्द से हो कराह रहा …’।

7.ग्रुप डिसकॅशन में सुविधा : इधर सी.बी.एस.ई. नई परीक्षा पद्धति लागू कर रही है। पुनरावृत्ति एवं पहले जैसे प्रश्नपत्रों (मोर ऑफ द सेमः एम.ओ.टी.एस.) के बदले व्याख्या एवं ज्ञान का संश्लेषण पर आधारित (हायर आर्डर थिंकिंग स्किल्स : एच.ओ.टी.एस.) प्रश्न  पूछे जायेंगे। (हिन्दूः11.2.08.).

8. बताते चलें 10$2 कक्षाओं में कुछ नये विषय आरंभ हो चुके हैं। जैसे – क्रिएटिव राइटिंग, ट्रान्स्लेशन स्टडीज। जिसे साहित्य के प्रति लगाव है, वह आसानी से इन विषयों में रुचि ले सकता है। फिल्म एवं मीडिया तथा जेन्डर स्टडीज वगैरह भी आने वाले विषय हैं।(हिन्दूः वही)

भौतिकविद प्रो0 यशपाल के अनुसार : ‘मीडिया के प्रभाव से यह भाव पैदा हो गया है कि पार्टियों में जाना और नाचना गाना ही सभ्यता है। … ज्यादातर अनपढ़ लोग सभ्य होते हैं … जबतक उनके साथ कोई नाइन्साफी न हो! हेराफेरी करनेवाले ज्यादातर लोग पढ़े लिखे होते हैं। आमतौर पर उच्च शिक्षा प्राप्त लोग अंध विश्वासी होते हैं। … हमारी शिक्षा व्यवस्था सामाजिक सरोकारों से जुड़ी होनी चाहिए। वरना बच्चे शिक्षित तो हो जायेंगे, बेहतर इंसान नहीं।

(दै.जा.5.1.08. बृज बिहारी चौबे से बातचीत)  

‘बाल शिक्षा बालक का अधिकांशतः औपचारिक विकास करती है, जबकि बाल-साहित्य बालक का बौद्धिक और भावनात्मक, दोनों स्तरों पर विकास करता है ।’

(डा0 श्रीप्रसादः बा.सा.की अवधारणा पृ.5)

अब कुमाऊँ लोककथा पर आधारित शिवानी की कहानी ‘नदी किनारे’ (नंदनः अप्रैल 03) पर ज़रा गौर फ़रमाइये। व्यापारी पुत्री रजुला और बैराठराज मालूसाही एक दूसरे से विवाह करना चाहते हैं। रजुला का धनलोभी पिता सुनपता हूंणदेश के नृशंस राजा चंद विरवैपाल से उसकी शादी करवाना चाहता है। जोहार, बगड़, तेजम और बागेश्वर (कुमाऊँ का भूगोल) आदि से होकर रजुला भागती है। मिलने पर राजा को छोटा नन्हा बनाकर उसने उसे अपनी चोटी में खोंस लिया। रजुला की माँ गंगोली ने दामाद को विषैली खीर खिला दी। अंततः मालूसाही को उसके भाई बचा लेते हैं। फिर दोनों सुख पूर्वक राज्य शासन करने लगे। ज़रा सोचिए इस लोक कथा की उपयोगिता क्या हो सकती है ?

1.हूंण के बारे में जानकारी। इतिहास (पाठ्यक्रम का एक विषय। आप चाहे या न चाहे इसे पढ़ना पड़ता है। इसमें भी पास होना पड़ता है।) में इनका जिक्र आता है।

2. पहाड़ का विशिष्ट व्यंजन : घुइयां के पत्तों को पिसे हुए चावल लपेटकर बनाई गई पतौड़े की पकौड़ी की जानकारी। होमसाइंस से लेकर फुड टेक्नोलॉजी या होटल मैनेजमेन्ट में कोई नया प्रयोग कर सकता है। तरला दलाल या संजीव कपूर की आर्थिक सफलता क्या कम है?

भले ही आप इसे ‘कष्ट कल्पना’ कह लें। परंतु क्या करूँ? शिव की पूजा में धतूरे की ही ज़रूरत होती है। और आजके ‘पाठकों’ को रिझाने के लिए ‘लक्ष्मी-चालीसा’ की ।

यहाँ तक कि सुकरात ने भी कहा है :- खाद से भरा बोरा भी सुन्दर है, क्योंकि इसकी उपयोगिता है। (एसथेटिक्स : यूरी बोरेव)

फिर भी …

याज्ञवल्क ने गार्गी से कहा था :‘नवा अरे वित्तस्य कामाय वित्तं प्रियं भवति। आत्मनस्तु कामाय वित्तं प्रियं भवति।। वित्त की कामना भर से वित्त प्रिय नहीं हो जाता, आत्मा की कामना है इसीलिए वित्त प्रिय है।’

(विश्व साहित्य : रवीन्द्ररचनावली 10 पृ.325)

स्वास्थ्य और मनोरंजन :

‘सत्य ही सौन्दर्य है। परंतु सौन्दर्य का रस तभी मिलता है, जब हृदय में उसकी अनुभूति हो। (शुष्क) ज्ञान से नहीं, स्वीकृति से।’

– साहित्य का स्वरूप : रवीन्द्रनाथ

बाल-साहित्य का भी मुख्य उद्देश्य निर्मल आनन्द और मनोरंजन ही होना चाहिए (उपदेशामृत नहीं )। आज जब चारों ओर ठहाका-क्लबों का निर्माण हो रहा है, तो यह मानी हुई बात है कि स्वस्थ रहने के लिए हँसना, खुश रहना और मनोरंजन जरूरी है। और स्वास्थ्य की कीमत क्या सिर्फ पैसों से आँकी जा सकती है? वैसे हाँ, आज के अर्थशास्त्री यह भी गणना कर लेते हैं कि अस्वस्थ रहने पर टके के हिसाब से कितने का घाटा हुआ !

यह भी बता दें – ब्रिटेन में मोटापे के लिए ‘फैट टैक्स’ (?) का प्रचलन हो चुका है। यानी बीमा कम्पनियां मोटे लोगों से 50 प्रतिशत अधिक प्रीमियम लेने की सोच रही हैं। धूम्रपान करने पर या दूसरी खास बीमारी की स्थिति में यह वृद्धि 400 फीसदी तक हो सकती है।

(हिन्दू 25.2.08.)

तो मनोरंजन / स्वास्थ्य के लिए भी कहानी। सिगरेट से बचने के लिए भी कहानी। (बस, किताबें खरीद कर पढ़ा करें। दूसरों से उधार लेकर नहीं।)

डब्ल्यू. एच. ओ. के परिभाषानुसार (1978) केवल रोगों का न होना ही स्वास्थ्य का लक्षण नहीं है। बल्कि शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक रूप से सकुशल रहना ही स्वास्थ्य है।

अगर बच्चा मनोरंजन के लिए टीवी देखना ही ज्यादा पसन्द करे, तो? फिर सुनिए :‘प्रतिदिन दो घंटों से कम टीवी देखनेवाले बच्चों की तुलना में दो से चार घंटों तक टीवी देखनेवाले बच्चों में हाई ब्लड-प्रेशर की संभावना ढाईगुणा ज्यादा होती है।’

(एस. लक्ष्मीसुधाः हिन्दू 30.12.07.)

मनोरंजन के साथ कहानी का रिश्ता कितना गहरा है – यह देखिए – ‘जोधा अकबर’ के निर्देशक आशुतोष गोवारिकर के मंतव्य में :‘मेरे लिए तो हर फिल्म एक ‘रिस्क’ है। मेरा ध्यान सर्वथा यह रहता है कि कितने मनोग्राही ठंग से कहानी सुनाई जाए।’

(हिन्दू :01.02.08.)

‘कौआ और मगरमच्छ’ नामक अंग्रेजी बाल पुस्तक के प्रकाशन के अवसर पर ‘कथावाचिका’ नूपुर अवस्थी ने बच्चों से उस कहानी के नाट्य रूप का मंचन करवाया। प्रकाशक ‘कथा बुक्स’ की प्रशंसा  करते हुए उन्होंने कहा,‘मनोहारी चित्रण के जरिए ये कहानी को ही आगे बढ़ाते हैं। इस तरह ये भारत की इस कथा-वाचन की परंपरा को ही समृद्ध करते हैं।’

(यंग वर्ल्डः हिन्दूः 01.02.08.)  

कैरिअर की स्वर्णलंका तक पहुँचने के लिए ही विज्ञान के बुलन्द दरवाजे पर भेड़िया धँसान मची हुई है। जुले वर्न और एच.जी.वेल्स ने दिखा दिया था कल्पना-कहानी एवं विज्ञान में कितना प्रगाढ़ रिश्ता है। हाल ही में दिवंगत प्रख्यात विज्ञान कथा लेखक आर्थर सी. क्लर्क ने 1945 में ही उपग्रहों की मदद से दूर संचार की कल्पना कर ली थी, जो बीसों साल बाद यथार्थ में संभव हो सका।

(जी.एस.ओ. – जीओसिन्क्रोनस सैटेलाइट ऑरबिट)

इतनी वकालत के बावजूद यह सही है – पढ़ने लायक कहानी ही नहीं होगी तो पढ़ेगा कौन? एक अंग्रेजी कविता-संग्रह के बारे में खुशवंत सिंह की टिप्पणी :-‘आधुनिक कविता को समझने में मुझे उतनी ही मुश्किल होती है, जितनी कि उनके नाम उच्चारण करने में। …इसका ज्यादातर हिस्सा मेरी समझ में नहीं आया।’

(दैनिक जागरण 19.01.08)

यानी छपने से ही सामग्री पठनीय/रोचक नहीं हो जाती।

बालसाहित्य में आदर्श / नीतिशिक्षा :

‘यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। सत्यप्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।’ (गीताः 3ः21)। आम लोग श्रेष्ठपुरुश को आदर्श मानते हुए उनके आचरण का अनुसरण करते हैं। यूँ देश के लिए जज्बात, बाप-माँ-भाई-बहन के प्रति लगाव, परोपकार, सत्यनिष्ठा, घूस से घृणा आदि आदर्शों को कोई सिक्कों के मोल तौलना चाहे तो उनसे विनम्र निवेदन है कि बच्चों के लिए बाल-रामायण का पाठ इसलिए जरूरी नहीं है कि पुरुषोत्तम राम स्वयं नर-रूपी नारायण थे, बल्कि इसलिए जरूरी है कि बेटा अगर ‘राम जैसा’ बने तो बाप को उससे कुछ उम्मीद बँध सकती है। रिटायरमेन्ट बेनिफिट। वरना राम के ही देश में पिता माता की देखभाल के लिए ‘कानून’ बनाने पड़ते हैं!! गंगा किनारे भगीरथ प्यासा !

लेकिन बाल साहित्यकार लिखेगा क्या?

‘वही आरुणि श्रवणकुमार और एकलव्य की नैतिक कथाएँ, जिन्हें पढ़ पढ़ कर हम अनैतिक हो गये हैं। वही उपदेश ……. जिन्हें सुनते पढ़ते हमारी कितनी ही पीढ़ियाँ बुढ़ा गईं।’

(स्कूली किताबों से अलग – रामकुमार कृषक :: आजकल. नवं./07)

‘कल कल करते बहते झरने /शोर मचाती नदियाँ हैं ’(पेड़ों की माया – राधेश्याम भारतीय. बालवाटिका. दिसं/07) पर्यावरण पर यह लिखना ही काफी है? साथ में यह बताना आवश्यक नहीं है कि देश के ‘सर्वोच्च पदाधिकारी के अंदामान/निकोबार भ्रमण के समय सुरक्षा के नाम पर चार सौ पेड़ों को ‘कत्ल’ कर दिया गया था ? वांदुर, गुप्तपाड़ा, पोर्टब्लेयर आदि स्थानों के मछुआरों को समुद्र में जाने से मना कर दिया गया ? रोज़ कमाने वाले खायेंगे क्या?

(हिन्दूः 13.01.08) 

किताबों का व्यर्थ बोझ, परीक्षा का ‘टेंशन’, कम्पटीशन, रैगिंग, शिक्षकों के द्वारा प्रताड़णा, फर्जी डिग्री, यौन शोषण, दुराचार और अंत में बेकारी… इनके बावजूद हम कब तक यह माँग करते रहेंगे कि बाल कहानिओं का अंत ‘सुखान्त’ ही हो?

आर्थिक चश्मा/शेयर/खुली निगाह :

गुरुवर हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा था :‘भौतिक समृद्धि बढ़ाने का प्रयत्न होना चाहिए, पर उसे संतुलित करने के लिए साहित्य और संगीत आदि का बहुत प्रचार वांछनीय है।’ (साहित्य का मर्म)

अमरीकी आर्थिक मंदी के चलते बी.एस.ई. सूचकांक 1408.35 अंक लुढ़क गया (7.41 फीसदी)। मामूली निवेशकों को 6.6 लाख करोड़ (यह होता कितना है, जनाब?) का चूना लगाया गया, (दैनिक जागरण : 22.01.08.)। यूँ लक्ष्मी की आरती उतारने के चक्कर में आपके (कमाऊ) पूत का जीवन ही अंधकारमय न हो जाए, इसलिए जरूरी है इस ‘वैश्वीकरण एवं बड़बोलेपन की धुरी’ को भी वह ज़रा समझ ले। ‘रेतीली’ कहानी (झिलमिल जुगनूः जु-03) में इराक में भेजे गये अभागे अमरीकी सैनिक की नज़र से ही उस युद्ध का मुआयना कर सकते हैं।

ऐसे ही जीने के लिए एक कबाड़ी बच्चे को दुनियादारी की ‘टिप्स’ मिलती है,‘मैं ने (कबाड़ी लड़के ने) उसके नौकर से कहा,‘तुम कम तौल रहे हो,’ तो मालिक ने मेरा सारा प्लास्टिक उठाकर फेंक दिया। – ‘ले जाओ अपना कूड़ा कचरा -’

(कूड़ा – डा0 श्रीप्रसाद)

परिवार / समाज/ जिम्मेदारी और पैसा :

गांव से लेकर शहर की गलिओं में जो बच्चे घूम रहे हैं, पढ़-खेल रहे हैं, बरतन धोने, कालीन बुनने से लेकर कूड़ा बिनने का काम कर रहे हैं – हर एक के जीवन में कहानी की भूमिका है। गोर्की की आत्मकथा (मेरा बचपन, जनता के बीच, मेरा विष्वविद्यालय ) पढ़ने से पता चलता है – एक कबाड़ी से लेकर गोदी मज़दूर तक की भूमिका में – उसने क्या काम नहीं किया ? फिर भी लोगों के जीवन रोशन करनेवाला उपन्यास ‘माँ’ लिख डाला।

प्रेमचन्द के शंकर ने ‘सवा सेर गेहूँ’ उधार क्या लिया, केवल व्याज चुकाते चुकाते उसका जीवन दीप ही बुझ गया। तभी तो आज भी ‘हमके ओढ़ा दऽ चदरिया’ का कीर्तन गाना पड़ता है।

(न. ज्ञानोदयः नवं :07ः उषाकिरन खान)

‘अल्ग्योझा’ (प्रेमचन्द) पढ़ने से यह फायदा हो सकता है कि आज की मूलिया भाई भाई में बँटवारा न करवाये। आज के रघु को शायद पेंशन  मिल जाए …

अंततः

शुद्ध आर्थिक फायदे की ऐनक से साहित्य की लाख पैरवी की जाए, सच्चाई यह है कि कहानी-कविता में चाँदी की चमक नहीं होती। वह तो उस सूर्य-प्रकाश की तरह है जिसमें तम को मिटाने की ताकत है। जिससे अन्न के बीज अंकुरित होते हैं, जाड़े में जिसमें अवगाहन करके इन्सान एकाएक कह उठता है – आह! उसी तरह किसी भी रचनाकार की मेहनत तब सफल हो जाती है जब उसकी कहानी/कविता को पढ़ कर पाठक के मुँह से अनायास निकल पड़ता है – वाह!

यह भी जरूरी नहीं कि हर एक को कहानी- कविता अच्छी ही लगे। नौशाद को दुख है कि उनके पोतों का लगाव शास्त्रीय संगीत के प्रति नहीं, बल्कि ‘झमाझम म्युजिक’ के प्रति ही अधिक है। कबीर का बेटा कमाल अगर ‘राम नाम को छाड़ि के’ घर में सिर्फ ‘माल’ ले आता है, तो किया क्या जाए ?

‘सुसाहित्य’  बच्चों के मन की खिड़किओं को खोल सकता है। फिर चाहे वह किसी खिड़की से स्वाती या ध्रुव नक्षत्र को देखे, या अन्य खिड़की से सावन की जलधारा को …। मगर इसके लिए बाल साहित्यकारों के सामने भी खड़ी चुनौती हैः- अनुभूति, हास्य, रहस्य-रोमांच, विज्ञान (केवल रोबॉट और अंतरिक्षयान नहीं ), प्रकृति, जीवन के सुखदुख, संघर्ष, एडवेंचर, या भूतकथा (चौंकिए मत। कोई ‘कुसंस्कार नहीं पनपेगा।’ देः आजकलः नवं/07) आदि विषयों पर मन को छू लेने वाले संवेदात्मक साहित्य रूपी इन्द्रधनुष का निर्माण करें। तभी तो…

अदिति सीरीज (अं ) की लेखिका सुनीति नामजोशी के शब्दों में -‘मैं (बच्चों को ) सोचने के लिए कहती हूँ। मैं कहती हूँ – यही तुम्हारा सबसे बड़ा हथियार है!’

(हिन्दूः 03.02.08)

‘शिशु का जीवन’ कविता में रवीन्द्रनाथ ने ऐसा ही सवाल उठाया है :

‘किसमें हिम्मत बनने की है

             नन्हा बच्चा छोटा ?

                    जीते हैं बस बूढ़े ही बनकर ।

तिनका तिनका जोड़ चले हैं

             बक्सा भारी मोटा ,

                     पल पल केवल लेते हैं बस भर !’  

तो अच्छी कहानी- कविता पढ़ने की हिम्मत या फुर्सत  है?

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी

नया पता: द्वारा, डा. अलोक कुमार मुखर्जी, 104/93, विजय पथ, मानसरोवर। जयपुर। राजस्थान। 302020

मो: 9455168359, 9140214489

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 228 ⇒ चैन की नींद… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चैन की नींद।)

?अभी अभी # 228 ⇒ चैन की नींद… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कुछ लोग रात भर जागते रहते हैं, सिर्फ चैन की नींद की तलाश में, क्योंकि हर तलाश के लिए जागना जरूरी होता है। उनकी तलाश करवटें बदलने से शुरू होती है जो बिस्तर की सलवटें मिटाने, पंखे और एसी की स्पीड कम ज्यादा करने और खिड़की खोलने बंद करने के बाद भी खत्म नहीं होती। जब रात को नींद नहीं आती, तो न सुबह होती है, न शाम होती है, बस रात यूं ही तमाम होती रहती है।

नींद एक ऐसी परी है, जो कहीं आती नहीं, कहीं जाती नहीं, फिर भी कभी नजर नहीं आती। आती है तो दबे पांव आती है, और जब उड़ती है तो एक पंछी की तरह। शायद इसीलिए इसे निद्रा देवी भी कहा गया है। एक वत्सला मां की तरह, चुपचाप सिर पर हाथ धर देती है, तो थका हुआ इंसान उसकी गोद में अपना सर रखकर सो जाता है। नींद में कैसी भूख प्यास, गरीब अमीर, अच्छा बुरा, पशु पक्षी, मानव, दैत्य। मां की तरह नींद भी निष्ठुर नहीं होती, यहां कोई पापी, पुण्यात्मा नहीं, किसी को कोई वीआईपी ट्रीटमेंट नहीं। ।

हमेशा जागते रहने के लिए सोना भी उतना ही जरूरी है। इनवर्टर की तरह हमारे मस्तिष्क में भी एक बूस्टर लगा है, जो शरीर और मन की थकान का हिसाब रखता है, तन और मन को केवल भोजन की ही नहीं, एक अच्छी नींद की भी जरूरत होती है। भूखे पेट तो भजन भी नहीं होता। जब कि कुछ लोगों का तो भोजन के बाद खर्राटा ही भजन होता है।

जो जागेगा सो पाएगा, जो सोएगा सो, खोएगा ! क्या यह सोते शेर को जगाना नहीं ? बस, एकाएक इंसान जाग उठता है, वह खुद ही नहीं जागता, दुनिया को भी जगाना शुरू कर देता है।

जागो सोने वालों, सुनो मेरी जुबानी ;

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत …

जॉर्ज बर्नार्ड शॉ तो कह भी गए हैं, जो चाहते हो, पा लो। वर्ना जो पाया है, उसे ही चाहने लगोगे। चाह में कभी आह है तो कभी वाह ! रात दिन एक करके ही कुछ हासिल किया जाता है। प्रयत्न और पुरुषार्थ से बड़ा कोई मोटिवेशनल स्पीच नहीं। सफलता, उपाधि, उपलब्धि, और यश कीर्ति, इंसान फूला नहीं समाता। चंद लम्हों की क्षणिक नींद कब इन सुखों के आगे पानी भरने लग गई, पता ही नहीं चला। बस सफलता और सम्मान ओढ़िए बिछाइए, लेकिन नींद कहां चली गई, कुछ पता ही नहीं चला।

नींद से बड़ा कोई सौदेबाज नहीं। आप जब तक रात्रि काल में अपना सब कुछ निद्रा देवी को अर्पित नहीं कर देते, वह आपको अपने आगोश में नहीं आने देती।

चिंता, फिक्र, राग द्वेष, लाभ हानि और मान अपमान का गट्ठर सर पर उठाए इंसान के द्वार नींद कभी नहीं फटकती। खाते रहें नींद की गोली, बदलते रहें करवटें रात भर। ।

ईश्वर मिलेगा जब मिलेगा, फिलहाल तो अगर आपको चैन की नींद अगर मिल रही है, तो किसी कीमत पर उसे ना ठुकराएं। नींद के ख्वाब नहीं देखे जाते, नींद में ही ख्वाब देखे जाते हैं।

ठंड का मौसम है, अगर रात में बिस्तर है, रजाई है, तो ;

किस किस को याद कीजिए

किस किस को रोइए।

आराम बड़ी चीज है

मुंह ढांककर सोइए। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – खोज ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – खोज ? ?

ढूँढ़ो, तलाशो,

अपना पता लगाओ,

ग्लोब में तुम जहाँ हो

एक बिंदु लगाकर बताओ,

अस्तित्व की प्यास जगी,

खोज में ऊहापोह बढ़ी,

कौन बिंदु है, कौन सिंधु है..?

ग्लोब में वह एक बिंदु है या

ग्लोब उसके भीतर एक बिंदु है..?

© संजय भारद्वाज 

(रात्रि 10:11 बजे, दि. 25 नवंबर 2015)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 मार्गशीर्ष साधना 28 नवंबर से 26 दिसंबर तक चलेगी 💥

🕉️ इसका साधना मंत्र होगा – ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🕉️

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 227 ⇒ लेखन और अवचेतन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “लेखन और अवचेतन।)

?अभी अभी # 227 ⇒ लेखन और अवचेतन… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

लेखन का संबंध सृजन से है,चेतना और विचार प्रक्रिया से है । पठन पाठन,अध्ययन,चिंतन मनन ,अनुभव और अनुभूति के प्रकटीकरण का माध्यम है लेखन,जिसमें वास्तविक घटनाओं एवं कल्पनाशीलता का भी समावेश होता है । एक अच्छे लेखक के लिए,एक अच्छी याददाश्त और अनुभवों का खजाना बहुत जरूरी है। अगर चित्रण रुचिकर ना हुआ,तो लेखन नीरस भी हो सकता है।

जिन लोगों का चेतन अधिक सक्रिय होता है, वे अच्छे लेखक बन जाते हैं लेकिन जिनका अवचेतन अधिक प्रबल होता है, वे केवल सपने ही देखते रह जाते हैं ।।

लेखन की ही तरह एक संसार सपनों का भी होता है,जहां कथ्य भी होता है,घटनाएं भी होती है,सस्पेंस,रोमांस और मर्डर मिस्ट्री,क्या नहीं होता अवचेतन के इस संसार में ! लेकिन अफसोस,यहां कर्ता केवल दृष्टा बनकर सोया होता है,मानो किसी ने उसके हाथ पांव बांधकर पटक दिए हों। जब इस लाइव टेलीकास्ट वाले एपिसोड का अंत आने वाला होता है,तब उसे सपने के अवचेतन के चंगुल से मुक्त कर होश में ला दिया जाता है। ना कोई डायरी ना कोई वीडियो शूटिंग,सब कुछ सपना सपना ।

सपना मेरा टूट गया । जागने पर चेतन मन अवचेतन की कड़ियों को जोड़ने की कोशिश जरूर करता है,लेकिन कामयाब नहीं होता,क्योंकि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं था। जागृत और सुषुप्तावस्था में यही तो अंतर है। सोते समय बहुत कुछ याद रहता है,जो अवचेतन को प्रभावित करता है,लेकिन जागने के बाद अवचेतन मन इतना प्रभावित नहीं करता। सपनों के सहारे कोई लेखक नहीं बना । केवल जाग्रत प्रयास से ही कई लेखकों के सपने सच हुए हैं और वे एक अच्छा लेखक बन पाए हैं ।।

लेखन साहित्य का विषय है मनोविज्ञान का नहीं , सपने और अवचेतन,मनोविज्ञान का विषय है,लेखन का नहीं । लोग कभी सपनों को गंभीरता से नहीं लेते,उनकी अधिक रुचि सपनों को सच करने में होती है,जो जाहिर है,कभी कभी सपने में भी सच हो जाती है,जब वे कहते हैं,मैने तो सपने में भी नहीं सोचा था, मैं एक सफल लेखक बन पाऊंगा ।

सपनों का एक लेखक के जीवन में कितना योगदान होता है,यह तो कोई लेखक ही बता सकता है। सुना है लेखन में एक लेखक को इतना आत्म केंद्रित होना पड़ता है कि भूख प्यास और नींद सब गायब हो जाती है। मुर्गी की तरह विचार अंडा देने को बेताब होते हैं और तब तक देते रहते हैं,जब तक सुबह मुर्गा बांग नहीं दे देता। उधर सूर्योदय और इधर हमारे सूर्यवंशी जी ऐसी तानकर सोते हैं कि आप चाहो तो घोड़े बिकवा लो।

सपना तो पास ही नहीं फटक सकता उनके और गहरी नींद के बीच ।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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