हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 27 ☆ कवि कुछ ऐसा लिख… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “कवि कुछ ऐसा लिख…” ।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 27 ☆ कवि कुछ ऐसा लिख… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

कवि कुछ ऐसा लिख

कि जनता जागे

वरना गूँगे रह जायेंगे

गीत अभागे

 

कौन कहाँ पर

देता है आवाज़ किसी को

बैठे ठाले

कोसा करते नई सदी को

 

कर ऐसा उद्घोष कि

जड़ता भागे।

 

प्रत्युत्तर में

नहीं दबे आलोचक दृष्टि

अनहद गूँजे

विप्लव पाले सारी सृष्टि

 

तोड़ वर्जनाओं को

बढ़ तू आगे।

 

समय कठिन है

घोर अराजकता है फैली

शब्द निरंतर

भाव नदी की चादर मैली

 

छोड़ दुखों को बुन ले

सुख के धागे।

    ……

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – धूप ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – धूप ? ?

एसी कमरे में

अंगुलियों के इशारे पर

नाचते तापमान में,

चेहरे पर लगा लो

कितनी ही परतें,

पिघलने लगती है

सारी कृत्रिमता

चमकती धूप के साये में,

मैं सूरज की प्रतीक्षा करता हूँ,

जिससे भी मिलता हूँ

चौखट के भीतर नहीं,

तेज़ धूप में मिलता हूँ..!

© संजय भारद्वाज 

(प्रात: 7:22 बजे, 25.1.2020)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्राद्ध पक्ष में साधना नहीं होगी। नियमितता की दृष्टि से साधक आत्मपरिष्कार एवं ध्यानसाधना करते रहें तो श्रेष्ठ है। 💥

🕉️ नवरात्र से अगली साधना आरंभ होगी। 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ झिलमिला लो जरा देर तुम जुगनुओं… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना ” झिलमिला लो जरा देर तुम जुगनुओं“)

✍  झिलमिला लो जरा देर तुम जुगनुओं… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

सामने जब वफ़ा का हिसाब आएगा

होश सारा ठिकाने जनाब आएगा

दौलतों की मुरीद आज दुनिया भले

दंग होगी जो मेरा निसाब आएगा

ज़हलियत का अँधेरा सिमटने लगे

इल्म का जब खिला आफ़ताब आएगा

जिसका आगाज़ होगा नहीं ठीक से

उंसका अंजाम समझो खराब आएगा

झिलमिला लो जरा देर तुम जुगनुओं

बज़्म में अब मेरा माहताब आएगा

झूठ के हामी बनके अगर तुम जिये

सच सवालों का कैसे जबाब आएगा

हम मुहाजिर कहेंगे मसीहा उसे

लेके जो भी वतन की तुराब आएगा

ज़ुल्म जब हद से ज्यादा बढेगें अरुण

मान लेना जहां में अजाब आएगा

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 174 ⇒ स्वीकारोक्ति… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “स्वीकारोक्ति”।)

?अभी अभी # 174 ⇒ स्वीकारोक्ति? श्री प्रदीप शर्मा  ?

Confession

अक्सर लोग सच को, अपनी गलती को, अथवा किए गए अपराध को आसानी से स्वीकार नहीं करते, और अगर वे स्वीकार कर लें, तो उसे कन्फेशन अथवा स्वीकारोक्ति कहा जाता है। स्वीकारोक्ति के भी दो प्रकार होते हैं, एक ऐच्छिक और एक अनिवार्य। हम यहां केवल ऐच्छिक की ही चर्चा करेंगे।

आ बैल मुझे मार ! गांधीजी ने इसे सत्य के प्रयोग कहा। बहुत से लोगों ने आत्म कथा का सहारा लेकर यह, स्वीकार किया मैने, वाला खेल बहुत रोचक तरीके से खेला। मधुशाला वाले बच्चन जी ने भी क्या भूलूं क्या याद करूं और नीड़ का निर्माण जैसे अपने संस्मरणों से पाठकों का मन मोह लिया।।

आत्मकथा हो या संस्मरण, इन सभी में स्वीकारोक्ति भी ऐच्छिक ही होती है। कोई आपका हाथ पकड़कर आपसे जबरन कुछ लिखवा नहीं सकता लेकिन जिसे अपने पांव पर खुद ही कुल्हाड़ी मारना हो, तो बन जाइए गांधी, और हो जाइए महान। वैसे यह नहीं इतना आसान।

अपनी स्वयं की खूबियां तो इंसान खुशी खुशी बयां कर देता है लेकिन कमजोरियों को छुपा लेता है। यह मानवीय स्वभाव है, जिसे आप चोर मन भी कह सकते हैं। देखिए, कितनी खूबसूरती से इस चोर मन की व्याख्या की गई है ;

तोरा मन बड़ा पापी सांवरिया रे।

मिलाए छल बल से

नजरिया रे।।

साहिर कुछ कदम और आगे चले गए हैं। वे इसी मन को दर्पण मानते हैं।

कहते हैं दर्पण झूठ नहीं बोलता, लेकिन फिर भी सच हमसे इतनी आसानी से स्वीकार नहीं होता। यही सच है।।

आप चाहे इसे कारगर तरीका ना मानें, लेकिन यह सच है कि हमारे पास गिरजाघरों जैसा कोई कन्फेशन बॉक्स नहीं, जहां जाकर हम अपनी भूल अथवा गुनाह कुबूल कर लें। वैसे अगर ईश्वर को गवाह मानें, तो यह कार्य इतना मुश्किल भी नहीं। सवाल यह है कि ईश्वर कहां है, और कहां नहीं, और क्या अपराध स्वीकार कर लेने से मामला सुलझ जाता है ? इसीलिए शायद हमने ओम जय जगदीश हरे जैसी आरती को अपना आधार बना लिया है। यह ऑल इन वन (all in one) है। विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा, और मैं मूरख खल कामी।

लो जी हो गए सभी अपराध स्वीकार। कितना सुख मिला सामूहिक स्वीकारोक्ति में।

इसे ही पर्युषण पर्व भी कहते हैं। व्रत, उपवास, मौन, आत्म संयम के साथ साथ चित्त की शुद्धिकरण का भी प्रयास ही तो है। जैसे जैसे अच्छाई बढ़ती जाएगी, बुराई धीरे धीरे रसातल में चली जाएगी।।

हमने यह स्वीकारोक्ति पुरखों के पुण्य स्मरण से प्रारंभ की है। जीते जी जिनकी सेवा नहीं की, आज उनकी स्मृति में तर्पण, ब्राह्मण भोज और दान पुण्य क्या नहीं किया। आपको शायद याद नहीं, मुझे ऐसी कई घटनाएं याद हैं, जब मैने उनकी अवज्ञा की है, उनका दिल दुखाया है।

यह उनकी महानता और बड़प्पन है कि आज भी उनकी छत्र छाया और आशीर्वाद मेरे साथ है। उन्होंने हमेशा मुझे माफ किया, और सही राह दिखाई। अपने दोषों को देखने और उन्हें स्वीकार करने के प्रेरणास्रोत भी वे ही हैं। बस वे मेरी कलम थाम लें तो मेरे लिए यह काम और भी आसान हो जाए। मैं गणेश ना सही, लेकिन वे तो शिव पार्वती से कम नहीं। मुझे इंतजार रहेगा उस कल का, जिस दिन से स्वीकारोक्ति अभियान रंग लाएगा।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 86 – प्रमोशन… भाग –4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आलेखों की एक नवीन शृंखला “प्रमोशन…“ की अगली कड़ी।

☆ आलेख # 86 – प्रमोशन… भाग –4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

जब शाखा को पता चला कि प्रमोशन टेस्ट होने वाले हैं तो पहली जिज्ञासा कट ऑफ डेट जानने की हुई. जो इसके पात्र बने वो तनावग्रस्त हुये और जो कट ऑफ डेट से कटते कटते बचे वो प्रफुल्लित हुये क्योंकि उन्हें मौका मिला प्रमोशन के पात्रों को जज करने का, तानेबाजी का और ये कहने का, ‘कि हमको क्या, हमें तो वैसे भी नहीं लेना था’. हम तो प्रमोशन लेकर भी छोड़ने वालों में से हैं, हालांकि बैंकों में ऐसा प्रावधान होता नहीं है. जो कट ऑफ डेट से वाघा /अटारी बार्डर जैसे चूक गये उन्होंने इसे प्रबंधन की साजिश समझा और गुस्से में दो चार दिन अपने रोजाना के कोटे और गति से कम काम किया. उनका नजरिया यह था कि अब तो जो अफसर बनने वाले हैं, उनको ही ज्यादा काम करने और घर लेट जाने की आदत डाल लेना चाहिए. घर वाले भी जल्दी समझ जायेंगे.

उस जमाने में न तो रेडीमेड हेंडनोट्स होते थे न ही हर ब्रांच में अपना एक्सट्रा टाइम देकर कोचिंग देने वाले लोकोपकारी युवा अधिकारी. प्रमोशन पाने का सारा दारोमदार “प्रेक्टिस एंड लॉ ऑफ बैंकिंग” और नेवर लेटेस्ट बैंकिंग (एवर लेटेस्ट बैंकिंग :असली नाम) पर ही आता. प्रत्याशी बैंक आने के पहले पढ़ते, बैंक में समय पाकर पढ़ते और फिर बैंक से यथासंभव जल्दी घर पहुंच कर पढ़ते. जब पड़ोसी : विशेष रूप से पड़ोसने तहकीकात करतीं और अपने पतियों पर देर से घर आने पर शक की सुइयां चुभाती तो इन्हीं प्रत्याशियों की भार्याएँ प्रतिस्पर्धात्मक गर्व से सूचित करतीं कि हमारे “इनका” प्रमोशन होने वाला है. पड़ोसने जलभुन कर बोलतीं “बहुत देर से हो रहा है” हमारे जेठ तो तीन साल में ही प्रमोशन पा लिये थे. फिर जवाब भी टक्कर का मिलता कि “क्यों, क्या तीनों पार्ट वाले हैं क्या. बैंक में भी वो जो इस प्रमोशन टेस्ट के पात्र नहीं थे, सिक्योरिटी गार्ड्स और संदेशवाहकों के बीच बैठकर हांकते “दिन रात पढ़ने की जरूरत नहीं है, ये तो हम अपने नॉलेज के आधार पर बिना पढ़े ही निकाल सकते हैं. जिन्हें टेस्ट देना होता वो इन सबको इग्नोर कर अपने जैसे ही साथियों से और नवपदोन्नत अधिकारियों से प्रेरणा और मार्गदर्शन लेते. जो आज पढ़ा उस पर डिस्कशन होता बैंक में, रिक्रिएशन हॉल में, चाय और पान की टपरे नुमा शॉप्स में जहाँ मौका मिलता वहाँ डिस्कशन होता. कभी कभी डिस्कशन का ओवरडोज इतना हो जाता कि चाय के टपरे वाला भी “निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट “समझने और समझाने लगता और नॉन बैंकिंग कस्टमर्स पर इस एक्ट की टर्मिनालाजी का उपयोग कर धौंस जमाने लगता था.

प्रमोशन की तैयारियों में परिवार का एक्सट्रा सहयोग मिलता, बच्चे फरमाइशों से तंग नहीं करते, पढ़ते वक्त चाय /काफी बिना मांगे मिलती, डेली शॉपिंग से भी मुक्ति मिल जाती और पढ़ने वाला इस दहशत में सीरियसली पढ़ता कि पास नहीं हुआ तो ये नाकामी, कॉलोनी में पत्नी की बनी बनाई रेप्यूटेशन मिट्टी में मिला देगी. फिर तो ये सारी इंपार्टेंस और सुविधाओं का मिलना बंद हो जायेगा और काबलियत पर “शक करते ताने” जीना मुश्किल कर देंगे.

जिन्हें किसी भी तरह से प्रमोशनटेस्ट पास करना है वे शाखाप्रबंधक की खुशियों का बहुत ख्याल रखते और अकेले में पूछते भी कि सर हमारा तो हो जायेगा ना. जो समझदार प्रबंधक होते वो शरारत से यही कहते “अरे तुम्हारा नहीं होगा तो फिर किसका होगा. सारी ब्रांच की उम्मीद तुम पर टिकी हैं. पूछने वाला “इस उम्मीद टिके होने” के नाम पर और भी ज्यादा तनावग्रस्त हो जाता और सीधे होटल पहुंचकर सिगरेट के कश के साथ स्पेशल ऑर्डर पर बनी कॉफी पीता. होटल के मालिक की पारखी नजरें सब समझ जातीं और फिर पेमेंट के समय वो भी आश्वस्त करता “अरे साहब वैसे तो हमारे होटल में कई आते हैं पर आपकी और आपकी काबलियत पर तो हमारी 100% गारंटी है. राहत महसूस कर और छुट्टे जानबूझकर वापस लेना भूलकर मिस्टर 100% बैंक आकर बूस्ट की गई गति से काम करता हालांकि उसका मन तो किताबों के किसी पेज पर ही अटका रहता. उसे यह तो मालूम था ही कि रिटनटेस्ट तो पढ़कर ही पास होना है और मेरिट के अनुसार न्यूनतम मार्क्स यहाँ भी पाने पड़ते हैं.

इस श्रंखला में कपिलदेव, मोहिंदर अमरनाथ और गावस्कर के अलावा किसी भी वास्तविक या काल्पनिक व्यक्ति/स्थान के नाम का प्रयोग नहीं किया गया है. कोशिश आगे भी जारी रहने का प्रयास रहेगा.

प्रमोशनटेस्ट की कथा चलती रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ ध्यास… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

☆ ध्यास… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

(व्योमगंगा)

जोडलेले प्रेमधागे तोडता येणार का हो ?

वेदना मग काळजाला बांधता येणार का हो?

 

काळ वेडा धावणारा घेवुनी गेला सुखाला

सुखवणा-या परत वेळा मागता येणार का हो?

 

आतताई या मनाला वेगळी चिंता सतावे

संकटांच्या डोंगराना झेलता येणार का हो?

 

वचन होते जे दिले ते आजही आहेच ओझे

फार मोठा भार आहे पेलता येणार का हो?

 

कैदखाने तोडुनीया जाहल्या आहेत भेटी

वास्तवाच्या या कथांना सांगता येणार का हो?

 

श्वास झाला मोकळा पण ध्यास आहे कैद झाला

हा दुरावा तोडलेला जोडता येणार का हो?

 

चिखलकेला वेदनांचा अंतरंगी काळजाने

भावना जर उसळल्या तर मारता येणार का हो?

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 202 ☆ दुधावरची साय ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 202 ?

☆ दुधावरची साय ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

भाद्रपदातली एक प्रसन्न सकाळ…

गर्भार सुनेला

इस्पितळात घेऊन जाताना

मनाची उलघाल…..

मनोमन ईश्वराची आराधना,

ईशस्तवन!

प्रसुतीगृहाच्या दारातला प्राजक्त,

मन मोहविणारा!

येणा-या सुगंधी क्षणांचा

साक्षीदारच जणू!

प्रतिक्षा….वेणा….वेदना….

सारं शब्दातीत….

पदरात पडलेलं निसर्गाचं दान अमूल्य  !

टॅ हॅ ऽऽऽटॅ हॅ ऽऽऽ चा प्रथम स्वर

जिवाचा कान करून ऐकलेला !

आजीपणाची कृतार्थ जाणीव…..

सा-या भूमिका पार पाडून,

येऊन पोहचलोच आपण,

या ठिकाणी!

कसं अन काय…

दुधावरची साय…

इवलासा जीव कवेतलं आकाश…

हृदयातला अथांग अर्णव…

आयुष्याची सार्थकता….जगण्याचा अर्थ नवा !

© प्रभा सोनवणे

१४ सप्टेंबर २००८

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ कागदाची पुडी… ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

सुश्री विभावरी कुलकर्णी

 🌸 विविधा 🌸

कागदाची पुडी… ☆ सुश्री विभावरी कुलकर्णी ☆

आज सकाळी फुले आणायला गेले आणि बघतच राहिले.त्या मावशींनी एक वृत्तपत्राचा कागद घेतला त्यात फुले,तुळस,बेल ठेवले आणि मोठ्या निगुतीने छान पुडी बांधली.आणि त्यावर छान दोरा गुंडाळला.त्यांची एकाग्रता बघून असे वाटले,जणू त्या खूप मौल्यवान वस्तू किंवा औषध त्यात बांधत आहेत.आणि तसे तर ते  होते.ज्या फुलांनी देवाची पूजा होणार आहे ती असामान्यच!

त्यांनी तो दोरा गुंडाळत असताना मनाने मला पण गुंडाळले ( फसवले नव्हे ).माझे भरकटत चाललेले मन जागेवर आणले.त्या फुलांच्या पुडीमुळे मी मात्र बालपणात पोहोचले.आणि आठवले कित्येक वर्षात आपण अशी कागदी पुडी पाहिलीच नाही.दुकानात जायचे आणि चकचकित प्लास्टिक मध्ये टाकून वस्तू आणायच्या.त्यातील बऱ्याच वस्तू मशीनमध्येच चकचकित कपडे घालून येतात.मग लक्षात आले,माझ्या लहानपणी सर्वच वस्तू कागदाच्या पुडी मधून यायच्या.ही आजची फूल पुडी बघून मन भूतकाळात शिरले.

मला चांगलेच आठवते प्रत्येक दुकानात वस्तू बांधून देण्याचे कागद वेगवेगळ्या पद्धतीने ठेवलेले असायचे.त्या वरून दुकानदाराची पारख करता यायची.काही दुकानदार त्या कागदांची प्रतवारी करून ठेवायचे.म्हणजे प्रत्येक वस्तू साठी व वस्तूच्या वजना प्रमाणे ( वजना प्रमाणे आकारमान पण बदलायचे ) कागदाचे वेगवेगळ्या आकारात तुकडे करुन ठेवलेले असायचे.काही जण ते लहान मोठे तुकडे वेगवेगळ्या कप्प्यात ठेवायचे.अगदी इस्त्री केल्यासारखे!आणि वस्तूचे वजन करून झाल्यावर मोठ्या काळजीने कागद काढून घ्यायचे.व व्यवस्थित घडीवर घडी घालून पदार्थ त्यात ठेवायचे.त्यावेळी असे वाटायचे जणू हे त्या पदार्थला कपडेच घालत आहेत.  काही जण दुकानातच वेगवेगळ्या सुतळीत किंवा जाड दोऱ्यात सर्व कागदाच्या तुकड्यांचे कोपरे जुळवून ओवून ठेवायचे.त्यातही लहान मोठे अशी वर्गवारी असायची.आही जण मात्र वृत्तपत्राचे गठ्ठेच एका कोपऱ्यात ठेवायचे.व वस्तू मापून झाली की टरकन कागद फाडून त्यात वस्तू गुंडाळायचे.त्या वस्तू कागदात बांधताना सुद्धा वेगवेगळ्या पद्धती असायच्या. 

आतील कागद बाहेरच्या कागदाला आधार देत असायचा.जणू लहानांचे महत्वच सांगत असायचा.त्या नंतर त्यावर दोरा बांधला जायचा.तो दोरा मात्र खूप ठिकाणी एकाच पद्धतीने दिसायचा.बहुतेक तराजूच्या अगदी बाजूला किंवा वरच्या बाजूला मोठे रिळ असायचे.व त्याचे एक टोक खाली लोंबत असायचे.आणि ते टोक ओढले गेल्यावर ते रिळ एकाच लयीत नाचत असायचे!दोरा संपत असेल तरी कोणाच्या तरी उपयोगी पडतो म्हणून त्यालाही आनंद होत असावा.

प्रत्येक दुकानाची पुड्या बांधायची खास शैली असायची.आणि ती बघूनच वस्तू कोणत्या दुकानातून आणली ते समजायचे.हे झाले दुकानदाराचे कौशल्य!

आमचे कौशल्य या पुड्या घरी आल्या नंतरचे!त्या कागदात काय आहे याची इतकी उत्सुकता असायची कारण कागद पारदर्शक नसल्याने आणि त्याला दोऱ्यात गुंडाळल्या मुळे आत काय आहे ते दिसायचेच नाही.ती पुडी दुसऱ्या कोणी आणली असेल तर ही उत्सुकता जरा जास्तच असायची.आणि स्वतः वस्तू आणलेली ( मोठ्यांच्या सांगण्यावरून ) असेल तर पोटात बारीक धडधड व छोटासा गोळा यायचा.कारण आणायला सांगितलेली वस्तू चांगली असेल तर कौतुक व शाबासकी,वस्तू ठीक असेल तर काही नाही पण जर वस्तू नीट नसेल तर जगबुडी झाल्या सारखी बोलणी आणि एक दोन धपाटे ठरलेले असायचे.नीट बघता आले नाही का ते काका कोणती वस्तू देतात? असा आमच्या अकलेचा उद्धार ठरलेला असायचा.आमचे कौशल्य या पुढचे.डब्यात गेलेल्या वस्तूने परिधान करुन आईच्या हाताने सोडलेला कागद घ्यायचा आणि त्यावर हात फिरवून छान सरळ करायचा.तो दोन्ही बाजूंनी वाचायचा.त्या वरची चित्रे बघायची व्यंग चित्रे असतील तर हसून घ्यायचे.सिनेमाच्या जाहिराती असतील तर मोठ्यांच्या चोरुन बघून घ्यायच्या.हो आमच्या लहानपणी तेवढेच करावे लागायचे.त्या नंतर तो कागद पलंगाच्या गादीच्या खाली राहिलेली इस्त्री करायला जायचे.त्यावेळी हे कागद फेकून दिले जात नसत.काही दिवसांनी तो कागद घरातील कोणती जागा मिळवणार आहे ते ठरायचे.म्हणजे काही कागद डब्यांच्या खाली जायचे.काही डब्यांच्या झाकणाच्या आत बसायचे.काहींच्या नशिबात चकलीचे चक्र असायचे तर काहींना तळलेली चकली मिळायची.आणि काही कागद तेलकट डबे,निरांजन पुसणे याच्या कामी यायचे.तिच व्यवस्था पुडी बरोबर आलेल्या दोऱ्याची.तो दोरा सोडल्यावर एखाद्या काडीला किंवा दोरा संपून राहिलेल्या रिकाम्या रिळाला गुंडाळून ठेवला जायचा.आणि योग्य ठिकाणी वापरला जायचा.त्या वेळी भराभर फेकून देणे हा प्रकार नव्हता.आणि हे सगळे करण्यात कोणाला कमीपणा पण वाटत नसे.तेव्हा कोणालाच प्लास्टिक चे वारे लागले नव्हते.आणि हायजीन च्या कल्पना वेगळ्या होत्या.समाजातील गरीब,श्रीमंत सगळेच एकाच दुकानातून व वृत्तपत्राच्याच कागदातून सामान आणायचे.कारण मॉल उदयाला आले नव्हते.विशेष म्हणजे रिड्यूस,रीयूज आणि रिसायकल ही त्रिसूत्री आचरणात आणली जायची.

आयुष्यात किराणामाल या शिवाय अनेक पुड्या यायच्या.कित्येक घरी फूल पुडी यायची ती पानात बांधलेली असायची.भेळेच्या गाडी वरची भेळ पण खायला व बांधून कागदातच मिळायची.आणि भेळ खाण्यासाठी चमचा पण जाड कागदाचाच असायचा.या शिवाय भाजलेले शेंगदाणे,फुटाणे शंकूच्या आकारातील निमूळत्या पुडीत मिळायचे.ती पुडी फारच मोहक दिसायची आणि ती पुडी घरात कोणी आणली की बाळ गोपाळ आनंदून जायचे.देवळातील अंगाऱ्याची चपटी पुडी परीक्षेला जाताना खूप आधार देऊन जायची.त्या वेळी केळी सुद्धा कागदात बांधून यायची.यात अजून विशेष पुडे आहेतच.बघायला आलेल्या मुलीला पेढ्यांचा मोठा पुडा मिळायचा.शिवाय साखर पुड्यात पण त्या ताटांमध्ये साखरेचे पुडे इतर साध्या पुड्यांमध्ये रंगीत कागदात ऐटीत बसायचे.

आता हे वाचून जर कोणाला असे वाटले की मी पुड्या सोडत आहे.तर त्याला माझा इलाज नाही.ज्यांनी तो काळ अनुभवला आहे त्यांना यातील सत्यता नक्कीच पटेल.आणि लहानपणात तेही थोडा फेरफटका मारुन येतील.

तर माझं हे असं होतं.अशी कोणतीही वस्तू मला आठवणीत घेऊन जाते.आणि मी असे काही लिहिते.असो!तुम्ही वाचता म्हणून किती लिहायचे ना?

या पुडीच्या निमित्ताने सगळ्या पुड्या डोळ्यासमोर उभ्या राहिल्या.आणि ही आठवणींची एक पुडी मी सोडून दिली आहे. आता ही पुडी तुम्हाला कोणकोणत्या पुड्यांची आठवण देते ते आठवा बरं!

© सुश्री विभावरी कुलकर्णी

२९/९/२०२३

सांगवी, पुणे

मोबाईल नंबर – ८०८७८१०१९७

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ‘आभारी आहे भाऊ…’ – लेखक – अज्ञात ☆ अनुवाद – श्री मेघःशाम सोनवणे ☆

श्री मेघःशाम सोनवणे

?जीवनरंग ?

☆ ‘आभारी आहे भाऊ…’ – लेखक – अज्ञात ☆ अनुवाद – श्री मेघःशाम सोनवणे ☆

किदवई नगर चौकात टेम्पोमधून उतरून पुढे जाऊ लागताच तीन चार सायकल रिक्शावाले माझ्याकडे येत म्हणाले, ” चला साहेब, के-ब्लॉक….”

सकाळ संध्याकाळचे तेच प्रवासी व तेच रिक्शेवाले. सर्व एक दुसऱ्याचे चेहरे ओळखू लागले आहेत. ज्या रिक्शांवर बसून मी सायंकाळी घरी पोहोचायचो ते मोजके तीन चारच होते. माझ्या स्वभावामुळे मी नेहमीची खरेदीसाठीची दुकानं, वाहने किंवा मित्र निवडकच ठेवतो, त्यांच्यावरच विश्वास ठेवतो आणि त्यांना पुन्हा पुन्हा बदलतही नाही.

एका रिक्शावर मी बसलो. आज ऑफिसमध्ये डायरेक्टरसाहेब विनाकारणच माझ्यावर नाराज झाले होते, म्हणून डोके जड व मन दुःखी होते. रिक्शा मुख्य रस्त्यावरून केव्हा वळली आणि केव्हा घरासमोर येऊन उभी राहिली मला समजलेच नाही. 

“चला, साहेब, आपले घर आले.” रिक्षावाल्याचा आवाज ऐकून मी विचारातून बाहेर आलो. रिक्शा घरासमोर पोहोचल्याचे बघून मी खाली उतरलो व खिशातून पैसे काढून रिक्शावाल्याला दिले आणि घराकडे जाऊ लागलो. 

“ साहेब ” …  

रिक्शावाल्याचा आवाज़ ऐकून मी मागे वळलो आणि प्रश्नार्थक नजरेने त्याच्याकडे पहात म्हणालो, 

” काय, चुकून पैसे कमी दिले का मी? “

” नाही साहेब.”

” मग काय आहे? तहान लागली आहे का? “

” नाही साहेब.”

” मग भाऊ, काय झाले?”

” साहेब, ऑफीसमध्ये काही बिघडले आहे का?”

“ हो… पण तुला कसे समजले ! ” मी आश्चर्यचकित होत विचारले.

” साहेब, आज तुम्ही घर येइपर्यंत रिक्शात बसून माझ्याशी काहीच बोलले नाही. माझ्या घर परिवाराविषयी काही विचारलेही नाही. प्रवासात गप्प गप्प व अगदी शांत बसून होतात‌. “

” हो भाऊ, आज मन जरा अशांत आहे म्हणून गप्प बसलो होतो मी. पण पैसे तुला तर पूर्ण दिले ना !”

“साहेब, पैसे तर दिले पण …”

” पण काय …?”

” साहेब, थैंक्यू नाही म्हटले आज तुम्ही.. साहेब, आम्हा रिक्षेवाल्यांच्या  जीवनात आम्हाला सन्मानाने कोण वागवतो. काही लोक तर भाडे पण नाही देत. काही तर मारपीट पण करतात. एक तुम्ही आहात जे रिक्शात बसताच आमची चौकशी करता, घर परिवाराविषयी, मुलांचे शिक्षण, अभ्यासाविषयी विचारपूस करता, खूप चांगलं वाटतं जेव्हा कुणी आपलेपणा दाखवतो. हे सर्व करून तुम्ही भाडे तर पूर्ण देताच, घरी येऊन थंड पाणी ही प्यायला देता आणि वरून आम्हाला थैंक्यू पण म्हणता. आम्ही चौकातले लोक तुमच्याविषयी बोलताना  ” थैंक्यूवाले साहेब ” म्हणून बोलतो… पण आज तर…” त्याचा आवाज भरून आला होता.

मी आपली पाठीवरची बॅग काढून गेटजवळ ठेवली, त्यांच्या खांद्यावर हात ठेवला आणि हळूच म्हणालो, ” भाऊ मला माफ कर. मन अशांत होते म्हणून ही सर्व गड़बड़ झाली. माझ्या घरापर्यंत आणून सोडल्याबद्दल तुझे मनापासून आभार व धन्यवाद. थैंक्यू भाऊ।”

तो हसला आणि पॅडलवर पाय मारत तेथून निघून गेला.

हिंदी लेखक – अनामिक

मराठी अनुवाद – मेघःशाम सोनवणे

मो 9325927222

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ डॉक्टर फॉर बेगर्स ☆ कुणी जीव घेता का जीव???… भाग – 1 ☆ डॉ अभिजीत सोनवणे ☆

डॉ अभिजीत सोनवणे

© doctorforbeggars 

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☆ डॉक्टर फॉर बेगर्स ☆ कुणी जीव घेता का जीव???… भाग – 1 ☆ डॉ अभिजीत सोनवणे ☆

एक होता गरुड…! नावाप्रमाणेच आकाशात उंच भरारी घेणारा… ! 

साजेशी बायको पाहून याने एका पक्षीणीशी लग्न केलं… 

हा दररोज सकाळी कामावर जायचा, संध्याकाळी घरी यायचा, दिवसभर काबाड कष्ट करायचा…  जमेल तितकं पक्षिणीला आनंदात ठेवायचा…! 

कोल्हापूर जिल्ह्यातलं याचं छोटंसं एक गाव… गरुडच तो … याने स्वप्न पाहिलं, बायकोला म्हणाला, “ मी पुण्यात जाऊन आणखी कष्ट करतो, म्हणजे आपल्याला आणखी सुखाचे दिवस येतील… !”

पुण्या मुंबईच्या आकाशात हा गरुड उंच झेप घेऊ लागला…  मिळेल तो दाणापाणी बायकोला घरी पाठवू लागला, प्रसंगी स्वतःच्या पोटाला चिमटा काढला… ! 

“माझी ती पक्षीण” इतकंच त्याचं आयुष्य होतं… ! तिनं सुखी आणि आनंदी राहावं इतकंच त्याचं माफक स्वप्न होतं…. त्यासाठी तो स्वतःच्या शक्तीबाहेर काम करू लागला…. प्रकृती ढासळली… पंख थकले… आता दाणापाणी कमी मिळू लागलं …. ! हा स्वतःच्या मनाला खायचा, तरीही काम करतच होता… !  पक्षिणीला जास्तीत जास्त सुखी कसे ठेवता येईल, याचाच तो सतत विचार करायचा… ! याने आणखी चार कामे धरली आणि प्रकृती आणखी ढासळत गेली…. 

मधल्या काळात पक्षिणीला एका धष्टपुष्ट श्रीमंत “गिधाडाने” साद घातली, ती भुलली, तिला मोह झाला आणि ती त्याच्याबरोबर भूर्र उडून गेली…. ! मनापासून प्रेम करणाऱ्या गरुडाला ती सोडून गेली… ! 

गरुड असला तरी चालता बोलता जीवच तो… हा धक्का त्याला सहन झाला नाही… ! तो  पूर्ण खचला…. 

‘आता कमवायचं कोणासाठी ?’  हा विचार करून रस्त्यात वेड्यासारखा तो फिरायला लागला…. होती ती नोकरी गेली, तेव्हापासून पुण्यातल्या रस्त्यावर विमनस्क अवस्थेत तो फिरू लागला…. याला बरीच वर्षे लोटली… तरुणपण सरलं… डिप्रेशनच्या याच अवस्थेत एके दिवशी एक्सीडेंट झाला, उजव्या पायाची तीन हाडे मोडली… जिथे एक्सीडेंट झाला तिथेच पुण्यातल्या एका नामांकित रस्त्यावरच्या फुटपाथवर तो गरुड पडून राहिला… घायाळ जटायू सारखा…! 

पक्षिणीला याबद्दल माहीत असण्याचे काही कारण नव्हते…. कळवणार कोण ? आणि कळलं असतं तरी ती थोडीच येणार होती ? कारण तिच्यासाठी ते श्रीमंत “गिधाड” हेच तिचं सर्वस्व होतं… ! 

 

प्रसंग २

मी पुण्यातल्या भीक मागणाऱ्या लोकांसाठी काम करतो, रस्त्यावर पडलेल्या लोकांसाठी काहीतरी करायचा प्रयत्न करतो. माझे एकूण 60 स्पॉट आहेत.  यात जवळपास पुणे पिंपरी चिंचवड असे सर्व भाग कव्हर होतात. 

मला नेहमी असं वाटतं, की मी जे काही काम करतोय ते मी करतच नाही… कोणीतरी माझ्याकडून हे करवून घेतंय, माझ्याही नकळत….. कोण ???  ते मलाही माहीत नाही !!!  मी पण शोधतोय त्याला….

तर ..

एकदा १८ सप्टेंबर २०२३ रोजी सकाळी मला एक फोन आला, संध्याकाळी माझा त्यांनी सत्कार ठेवला होता. त्यांनी पत्ता सांगितला, संध्याकाळी मी त्या पत्त्यावर गेलो. जाताना आजूबाजूचा परिसर पाहिला, मला हा परिसर थोडा नवीन होता. परिसर चकाचक असला तरी फुटपाथवर अनेक निराधार लोक मला दिसले. 

या नवीन ठिकाणी पुन्हा यायचं, असं मी मनाशी ठरवलं आणि २२ सप्टेंबर २०२३ म्हणजे शुक्रवारी, मी या परिसरात फेरफटका मारला. अनेक जीवाभावाचे लोक भेटले, अंध आणि अपंग…. माझ्या परीने मला जे जे शक्य होतं, ते ते मी त्यांच्यासाठी त्या दिवशी केलं आणि तिथून अत्यंत समाधानाने परत फिरलो. 

परत निघालो , पण अचानक एका ठिकाणी माझी मोटरसायकल बंद पडली. किक मारून, बटन स्टार्ट करून थकलो, गाडी काही केल्या सुरू होईना… ! पेट्रोल पण भरपूर होतं…. मग झालंय काय हिला ??? 

घामाने निथळणारा मी ….आता थंड पाण्याची बाटली कुठे मिळते का ? म्हणून शोधत फुटपाथवरून चालत, चरफडत निघालो…. 

फुटपाथ वर कुणीतरी एक भिजलेलं गाठोड टाकलं होतं… आधीच वैतागलेला मी…. वाटेत पडलेल्या त्या भिजलेल्या गाठोड्याला रागाने लाथ मारून बाजूला सरकवण्याचा प्रयत्न केला…. !  

मला वाटलं तेवढं ते गाठोड हलकं नव्हतं….माझ्या पायाने ते सरकवलं गेलं नाही …. मी रागाने त्या गाठोड्याला अजून जोराने लाथ मारली आणि मला त्याच्यातून “आयो” म्हणून किंचाळल्यासारखा आवाज आला…! .. मी दचकलो… घाबरलो … मलाही काही कळेना ! 

भिजलेल्या त्या बोचक्यातून आधी एक दाढीवाला चेहरा बाहेर आला, त्यानंतर मला एक हात दिसला, मग दुसरा हात दिसला, दोन्ही हाताने त्याने ती चादर खाली केल्यानंतर मला त्या व्यक्तीचे पोट आणि पाय दिसले…. ! 

डॉक्टर म्हणून अनेक बाळंतपण आजवर पाहिली…. पण बोचक्यातून दाढीवाले बाळ जन्माला येताना आज पहिल्यांदाच पहात होतो…. !  गर्भातून लहान बाळ जन्माला येणं हे नैसर्गिक…. परंतु बोचक्यातून दाढीवाले बाळ जन्माला येणं हे अनैसर्गिक… ! …. फेकलेल्या बोचक्यातून म्हातारे आई बाप हल्ली रस्त्यावर जन्माला येतात, ही आजच्या समाजाची शोकांतिका आहे ! 

तर, भिजलेल्या बोचक्यातून बाहेर पडलेल्या त्या बाबांची मी पाया पडून माफी मागितली आणि त्यांची चौकशी केली आणि समजले …. हो…. हाच तो पाय तुटलेला तो गरुड !!! 

हा “गरुड” पाय तुटल्यापासून पाच महिने याच जागेवर पडून आहे. दया म्हणून कोणीतरी याला ब्लॅंकेट दिलं होतं, या ब्लँकेटमध्ये तो स्वतःला गुंडाळून घेतो… भर पावसात  हे ब्लॅंकेट भिजून आणि कुजून गेलं आहे… त्याच्या आयुष्यासारखं….! 

खूप वेळ पाण्यात बोटं भिजल्यानंतर, पाणी त्वचेच्या आत जातं, बोटं पांढरी फटक होतात, त्यावर सुरकुत्या पडतात…. ! जवळपास सर्वांना हा अनुभव कधीतरी आला असेल…. पण कपाळापासून ते पायाच्या अंगठ्यापर्यंत यांचं संपूर्ण शरीर पांढरंफटक पडलं होतं….शरीरातल्या प्रत्येक भागाच्या त्वचेच्या आत पाणी गेलं होतं… पाण्यात भिजून स्पंज जसा फुलतो तसं संपूर्ण शरीर फुललं होतं… फुग्यासारखं…! जिथे पाय तुटला होता तिथल्या जखमांमध्ये किडे वळवळ करत होते…. थंडीने ते कुडकुडत होते, दात वाजत होते, हात थरथरत होते, डोळे निस्तेज पडले होते….टेबलाच्या अगदी कडेला एखादी वस्तू ठेवावी आणि ती कधी पडेल असं वाटावं, तसं डोळे खोबणीतून कधी बाहेर पडतील असं वाटत होतं…. 

एखादयाला असं पाहणं खूप त्रासदायक असतं…. ! पहिल्यांदा ती ओली घाणेरडी ब्लँकेट काढून मी फेकून दिली… आणि घाणेरड्या वासानेही शरमेनं लाजावं इतकी दुर्गंधी त्यावेळी मला जाणवली… !

” पॅन्ट नावाचं जे वस्त्र त्यांनी घातलं होतं, त्यात पाच महिन्यांची मल मूत्र विष्ठा होती…” या एका वाक्यात दुर्गंधीची कल्पना यावी ! पण ते तरी काय करणार ? पायाचे तीन तुकडे झालेला माणूस जागेवरून हलेल कसा ? 

खरं सांगू ? बाबांच्या आधी, मी या पँटचा विचार करायला लागलो….कारखान्यात जेव्हा हे कापड तयार झालं असेल, तेव्हा या कपड्याला काय वाटलं असेल… ? मी आता एका प्रतिष्ठिताच्या अंगावर सफारी म्हणून जाईन किंवा नवरदेवाचा कुर्ता होईन किंवा एखाद्या नवरीचा शालू होईन… ! मग माझ्या अंगावर सुगंधाचे फवारे उडतील आणि मला जपून ते कपाटात ठेवतील…! अहाहा….!!! 

पण झालं उलटंच…. या कपड्याची पॅन्ट शिवली गेली आणि ती नेमकी या गरुडाच्या पदरी पडली…!

तेव्हापासून हे कापड … पँट होवून, त्या गरुडाची मलमूत्रविष्ठा अंगावर घेऊन सांभाळत आहे… !

किती स्वप्नं पाहिली होती आयुष्यात, आणि आता अंगभर एखाद्याची मलमूत्रविष्ठा, तोंडावर फासून घेताना काय वाटत असेल या कपड्याला ? कुणी विचार केलाय ??

देवाच्या पायाशी पडलेल्या फुलांचे कौतुक मला नाही… त्यांना सन्मान मिळतोच ! एखाद्या चितेवर आपण फुलं उधळतो… आपल्या इच्छेसाठी…..  मनात नसूनही ती फुलं मात्र चितेवर सहज जळून खाक होतात… आपल्या आनंदासाठी…. मला त्या फुलांचं कौतुक आहे…. !!!  कुणाच्या आनंदासाठी असं सहज जळून खाक होणं… इतकं सोपं असतं का ? .. जळून खाक झालेल्या त्या फुलांपुढे मी मात्र नतमस्तक आहे… ! 

पण …. काहीतरी स्वप्नं घेऊन जन्माला आलेल्या त्या कपड्याला मात्र आज कुणाची तरी मलमूत्रविष्ठा सांभाळावी लागते… आता माझी नजर बदलते… मी त्या पॅन्टकडे कृतज्ञतेने बघू लागतो… नमस्कार करतो…. !  पॅंटीचे ते कापड मला यावेळी कानाशी येऊन म्हणतं…. , “ डॉक्टरसाहेब एकाच खाणीत अनेक दगड सापडतात…. त्यातले काही पायरी होतात …कोणी मूर्ती होतात… तर कोणी कळस होतात… 

आमच्यासारखे काही दगड मात्र  “पाया” म्हणून स्वतःला जमिनीखाली गाडून घेतात… कळस दिसतो… मूर्ती दिसते …पायरीलाही लोक नमस्कार करतात…! ते मंदिर…तो कळस… ती आरास… धान्याची ती रास… ती मूर्ती… ती आकृती… हे सगळं जमिनीखाली गाडल्या गेलेल्या आमच्यासारख्या दगडांमुळे उभं असतं साहेब…. !” 

मी शहारून जातो…. अंगावर काटा येतो ! 

काही गोष्टी अव्यक्त राहतात …. आणि म्हणूनच सारं व्यक्त होतं…. !!! 

.. आयुष्यभर जगून हे सत्य मला कधी कळलं नाही… आज मलमूत्रविष्ठा धारण केलेल्या या निर्जीव कपड्याने मला कानात येऊन मात्र हे सगळं सांगितलं… !!! तेव्हापासून मंदिरात मी देव शोधत नाही…. मंदिराच्या खाली गाडला गेलेला तो अव्यक्त दगड शोधतोय… !!! 

– क्रमशः भाग पहिला 

© डॉ अभिजित सोनवणे

डाॕक्टर फाॕर बेगर्स, सोहम ट्रस्ट, पुणे

मो : 9822267357  ईमेल :  [email protected],

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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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