हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 23 ☆ इच्छाशक्ति, संतोष और सफलता ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “इच्छाशक्ति, संतोष और सफलता)

☆ किसलय की कलम से # 23 ☆

☆ इच्छाशक्ति, संतोष और सफलता ☆

सुख की चाह समग्र जीव जगत में पाई जाती है। इंसान में सुख केवल चाह न रहकर आवश्यकता बनता जा रहा है। सुख की खातिर आदमी आज कुछ भी करने को तैयार है। वह भविष्य को सुखमय बनाने के लिये नैतिक-अनैतिक हर कार्य करने से नहीं हिचकता। आज ईमानदारी, सत्यता और न्याय की बातें किताबी लगने लगी हैं। नीति, आदर्श और परोपकार की कथायें और संस्मरण अब लोग सुनने से भी कतराने लगे हैं। आज के बदलते परिवेश और सुख-स्वार्थ की अन्धी दौड़ में हम अपनी संस्कृति और धर्म को भूलते जा रहे हैं।

हमारा वेदोक्त वाक्य “संतोषम् परम् सुखम्” अब हमारी सुख-सुविधाओं के रास्ते का रोड़ा जैसा प्रतीत होने लगा है। संतोष शब्द अब अभाव और अक्षमता का प्रतीक माना जाने लगा है। आज चादर को ही ऐन-केन-प्रकारेण पैरों के बराबर बड़ा करने का प्रचलन है, भले ही इसके लिये हमें कितना भी ऋण क्यों न लेना पड़े या अनैतिकता को अपनाना पड़े। आज किसी को ईश्वर या समाज का डर नहीं रह गया है। सामाजिक निन्दा को प्रसिद्धि जैसा माना जाता है। आयकर के छापे को करचोरी नहीं स्टेटस सिम्बॉल के रूप में देखा जाता है। सारा विश्व संतोष नामक मृग-मरीचिका के पीछे भागता नजर आ रहा है। इंसान जितनी सुख-सुविधायें और संपन्नता पाता है, संतोष का लक्ष्य उससे उतना ही दूर होता जाता है। पैदल चलने वाला सायकल, सायकल वाला कार और कार वाला हवाई साधन चाहता है। शहरों, महानगरों, विदेश के बाद आज ऐशोआराम हेतु धनाढ्य स्वयं के छोटे-छोटे द्वीप तलाशने लगे हैं।

एक गरीब और अमीर के शरीर की भौतिक एवं आंतरिक संरचना समान होने के बाद भी दोनों के बीच जमीन-आसमान जैसा अंतर बढ़ गया है। गरीब सूखी रोटी और झोंपड़ी में रहकर उतना आत्मसंतोष प्राप्त करता है जितना कि एक अमीर छप्पन भोग और आलीशान कोठी में रहते हुए प्राप्त करता है। इस आत्म संतुष्टि और खुशी में कोई अन्तर नहीं होता क्योंकि खुशी खुशी होती है। वह अमीर और गरीब में भेद नहीं करती। स्वरूप भले ही बदल सकता है, परिमाण समान रहता है। यहाँ पर सबसे अहम् बात इच्छाशक्ति की आती है। संतोष और इच्छाशक्ति का सम्बन्ध बिलकुल चोली-दामन जैसा है। इच्छाशक्ति पर संतोष और संतोष पर इच्छाशक्ति का नियंत्रण निर्धारित होता है । हम सब एक जैसे पैदा होते हैं, एक जैसे मरते हैं। हर आदमी की प्रसिद्धि, यश-कीर्ति और सामर्थ्य होती है, बस अंतर होता है तो उसके स्वरूप का। हर इंसान अपने छोटे या बड़े वृत्त के अंदर रहने वाले मानव समाज में एक जैसी सम्वेदनायें और एक जैसी स्मृतियाँ छोड़कर जाता है।

आज हम संतोष की चाह में इतने सम्वेदनशून्य हो गये हैं कि हमें अपने माँ-बाप, भाई-बहन, पत्नी और बच्चों के प्रति अपनत्व की भी सुध नहीं रह पाती, लेकिन जब होश आता है या पीछे मुड़कर देखते हैं तब तक देर हो चुकी होती है। अपनों द्वारा प्राप्त होने वाली इस दुनिया की सबसे अमूल्य निधि “अपनत्व” से हम बहुत बड़ी दूरी बना बैठते हैं। संतोष की चाह में हम उसी संतोष से इतने दूर निकल जाते हैं कि फिर से इस जन्म में वह दुबारा नहीं मिल पाता, न ही वे बचपन, जवानी और गृहस्थी के क्षण दोहराये जाते, जिनके लिये हम किसी समय सर्वस्व तक लुटाने के लिये तैयार रहा करते थे।

हम कह सकते हैं कि निःशुल्क उपलब्ध इच्छाशक्ति के रथ पर सवार होकर हम संतोष रूपी लक्ष्य को आसानी से प्राप्त कर सकते हैं, बशर्ते हम उन आदर्शों को समझ लें जो मानव जीवन के लिये श्रेष्ठतम् उपहार हैं। मैं अंत में पुनः कहना चाहूँगा कि यदि हम अपने ज्ञानवान ऋषियों की वाणी और वेद-ऋचाओं का अध्ययन करें, उनमें मानवीय संवेदनाओं, परोपकारी भाव तथा आत्मशान्ति को ढूँढें तो हमें “संतोष” ही सुगम पथ नजर आयेगा, जो केवल हमारी इच्छाशक्ति के नियंत्रण से संभव हो सकता है। इसी इच्छाशक्ति से प्राप्त संतोष की भावना और लगनपूर्वक किये गये प्रयास सदैव सफलता ही दिलाते हैं इसमें संशय की किंचित गुंजाइश नहीं है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 69 ☆ लघुकथा – कोठे की शोभा ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं उनकी एक सार्थक लघुकथा  “कोठे की शोभा। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 69 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – कोठे की शोभा ☆

हर वर्ष की तरह इस बार भी कालेज में डांस कंपटीशन  हुआ । हर बार की तरह   प्रतिभाओं की भी कोई कमी नहीं थी।  परन्तु  स्निग्धा उन सबसे अलग साबित हुई । उसके  नृत्य ने सबका मन मोह लिया ।इतनी छोटी सी उम्र में उसके पांवों की थिरकन और वाद्यों की सुरताल के साथ उनका सामंजस्य अदभुत था । निर्णायको ने एक मत से उसे विजेता घोषित करने में जरा भी देर नहीं की । कालेज का खचाखच भरा हाल इस निर्णय पर देर तक तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजता रहा । इतना ही नहीं उसे अंतर्विश्वविद्यालयीन  प्रतियोगिता के लिए भी नामांकित कर दिया गया ।

पुरस्कार देते समय मंच पर जज महोदय ने कहा ‘बेटा  ! इस अवसर पर हम चाहते हैं कि आपकी माता जी को भी सम्मानित किया जाय क्योंकि आपकी इस प्रतिभा को निखारने में उनका योगदान निश्चय ही सबसे अधिक रहा होगा ।यदि वे यहां उपस्थित हों तो उन्हें भी मंच पर बुलाइए । उस महान हस्ती से हम भी  मिलना चाहेंगे । ”

तभी  नीचे से आवाज आईं ,” सर , स्निग्धा  डांस इसलिए अच्छा करती है , क्योंकि इनकी माता जी किसी कोठे की शोभा हैं । वे स्निग्धा के किसी कार्यक्रम में नहीं जातीं क्योंकि ,  कोठे की शोभा कोठे में ही शोभा देती है।”

जजों के साथ ,सारा कक्ष इस सूचना से हतप्रभ था ।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 60 ☆ माँ ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “माँ । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 60 ☆

☆  माँ  ☆

बच्चे माँ से कर रहे, बस यह एक सवाल

कब दोगी माँ तुम हमें, रोटी के संग दाल

 

माँ की ममता जगत में, होती है अनमोल

जन्नत चरणों में बसे, समझें माँ का मोल

 

बिन शिक्षक शिक्षा नहीं, गुरु बिन मिले न ज्ञान

जीवन में मिलता सदा, शिक्षा से सम्मान

 

सूर्योदय लाता सदा, खुशी और उत्साह

केसर-सी चमके किरण, जिसका रंग अथाह

 

रखें राष्ट्र हित सामने, हो ऐसा निर्माण

देश-भक्ति जिनके नहीं, उनके दिल पाषाण

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈



मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य – साकारली गझल ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

☆ विजय साहित्य – साकारली गझल ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

अंधार वेधण्याला सोकावली गझल

पाहून दीप दारी, वेडावली गझल…!

 

एकेक माणसांला, वाचीत चाललो

सा-या स्वभाव दोषा, नादावली गझल…!

 

अंधार अंतरीचा, वाटून टाकला

सोशीक यातनांना, लोभावली गझल…!

 

होकार देत गेलो,  प्रत्येक याचका

ते घाव झेलताना, आकारली गझल…..!

 

आसूत नाहलो नी, हासूत थांबलो

शब्दात मांडताना, साकारली गझल….!

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ घालमेल ☆ श्रीशैल चौगुले

☆ कवितेचा उत्सव ☆ घालमेल…. ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

पुस्तकांनी हात ओले

करावे म्हंटले

मनाच्या तळव्यावर,

शब्दांच्या मेहंदीची

पानेतर कुठे सापडतात

कळजातल्या आठवांच्या

झोपडीत ?

भावनांनी रंगवावी

असे जीवनच नाही राहीले

स्वप्नांचे !

पेक्षा ढसढसणारी प्रतिभा

घरीच असते

कवितेच्या पदराशिवाय

ऊगीच रिमोटवर काहीबाही

चाळत-बाळत.

 

© श्रीशैल चौगुले

९६७३०१२०९०

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈




मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ मौत से ही मुहब्बत निभायेंगे हम – क्रमश: भाग 4 ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

☆ जीवनरंग ☆ मौत से ही मुहब्बत निभायेंगे हम – क्रमश: भाग 4 ☆ सौ. गौरी सुभाष गाडेकर ☆

अचलाने अभिजितला दाखवली ती आत्महत्येची बातमी.

क्षणभर त्याचा चेहरा गंभीर झाला. पण लगेचच दोन्ही हात वर करून तो ‘हेss’ म्हणून ओरडला. अगदी सुजयसारखंच.

“अभि?”

“अग अचला, ही बातमी खरीच  दिसतेय.आता तर आपला चित्रपट….. ”

“अभि……”तिच्या आवाजातला तिरस्कार त्याला आरपार भेदून गेला.

मग दर एक-दोन दिवसांआड अशा बातम्या  येऊ लागल्या.

अचलाला तर तिसऱ्या पानावरचा  वरचा उजवा कोपरा बघायचा धसकाच बसला. अभिजित तिची नजर चुकवू लागला.

त्या दिवशी रात्री मात्र अचलाने ठामपणे सांगितलं, “अभिजित,मला तुझ्याशी महत्त्वाचं बोलायचं आहे.”

“मी दमलोय.”

“मला एस्क्युजेस नकोयत. मी काय सांगणार आहे, ते तुला ऐकावंच लागेल.”

“ठीक आहे. लवकर आटप.”

“आतापर्यंत अकरा दुणे बावीस मुलांनी आत्महत्या केल्यायत. कसल्यातरी खुळचट कल्पनांवर विश्वास ठेवून.”

“सत्य आणि सिनेमा यातला फरक न कळण्याएवढी लहान ती नक्कीच नव्हती.”

“सत्य आणि सिनेमा यातला फरक समजण्याएवढी मोठी होती ती मुलं. पण खरी बातमी आणि खोटी बातमी यातला फरक ओळखू शकली नाहीत. निदान पहिल्या जोडीला तरी ती बातमी खरी वाटली. नंतरच्यांनी त्यांच्यावर विश्वास  ठेवला. कॉम्पिटिशनचं युग आहे ना हे !आमचं प्रेमही त्यांच्याइतकंच उत्कट आहे, हे दाखवायचा मोह झाला असणार त्यांना.”

“असेलही.”अभिजितने खांदे उडवले.

“पण कोणत्याही परिस्थितीत तू तुझी जबाबदारी टाळू शकत नाहीस.”

“म्हणजे? “अभिजित तुच्छतेने काही बोलला, की अचला सरळ तिथून निघून जात असे. आज मात्र त्याच्या ‘म्हणजे’मधली तुच्छता लक्षातच न आल्यासारखी  ती बोलत राहिली.

“तू प्रेस कॉन्फरन्स घे आणि सांगून टाक. सांगून टाक की ती पहिली बातमी खोटी होती. सांगून टाक, की चित्रपटाचा शेवट हाही एक स्टंटच आहे. चित्रपट ओरिजनल वाटावा म्हणून केलेला. वास्तवाच्या जगात त्याला काहीही अर्थ नाही, स्थान नाही. तेव्हा कोणीही तो चित्रपट गांभीर्याने घेऊ नये. पाहिजे तर तो चित्रपट ‘ऍडल्ट’ करून टाका.”

“झालं तुझं बोलून?”

“हे सगळं उद्याच्या उद्या झालं पाहिजे.”

“हे बघ, अचला. या गोष्टी माझ्या हातात नाहीत.नवीनभाईच काय ते ठरवू शकतील.”

“मग बोल त्यांच्याशी. समजाव त्यांना. म्हणावं, पैशापेक्षा माणसाचं आयुष्य कितीतरी पटीने मौल्यवान आहे. की  मी बोलू त्यांच्याशी?”

“तू नको. मीच बघतो.”

पण तो नवीनभाईंशी काहीच बोलला नाही. नवीन चित्रपटांची सिटींग्ज चालू होती. अशी काहीतरी मुर्खासारखी स्टेप घेऊन  तो स्वतःच्या पायावर कुऱ्हाड मारून घेणार नव्हता.

ही कालची गोष्ट. आज मात्र अचलाने निश्चयच केला. आज कोणत्याही परिस्थितीत ती अभिजितला कन्फेशन द्यायला लावणार होती. प्रेम म्हणजे काय, याची जाणीवही नसणाऱ्या त्या निरागस, कोवळ्या प्रेमिकांना अपील करायला लावणार होती.

© सौ. गौरी सुभाष गाडेकर

संपर्क –  1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈




मराठी साहित्य – विविधा ☆ आम्ही मध्यम वर्गीय ☆ सौ. श्रेया सुनील दिवेकर

☆ विविधा ☆ आम्ही मध्यम वर्गीय ☆ सौ. श्रेया सुनील दिवेकर ☆

माझा होशील ना, सिरियल पाहिली आणि नकळत डोळ्या समोरून सारे बालपण गेले. सुखात होतो मध्यम वर्गीयात. श्रीमंतीत असणार्‍या लोकांसारखे जास्त अपेक्षेचे ओझे घेऊन फिरत नव्हतो डोक्यावरून. सुखी समाधानी होतो आम्ही . हव्यास संपतच नाही ह्या लोकांचा, अजून पैसा, अजून एक गाडी, अजून एक जागा खरेदी…..

कपाट भरलेले असते सिल्कच्या साड्यांनी, सुटनी आणि दागदागिन्यांनी. पण ही श्रीमंती मिरवताना स्वतः च कधी गरीब होऊन जातात मनानी, हेच त्यांना कळतं नाही. नात्यांच्या गोधडीला प्रेमाची ऊब लागते पैश्यांची नाही, हे त्यांच्या लक्ष्यातच येत नाही. आणी जेव्हा लक्ष्यात येते तोवर खुप उशीर झालेला असतो. रणरणत्या उन्हात एसी गाडीतून फिरतांना डेरेदार झाडाच्या सावलीचा आनंद कधीच अनुभवता येत नाही त्यांना.

ताजं कढवत ठेवलेल्या लोणकढी तुपाच्या वासाचा घमघमाट आम्हां मध्यमवर्गीयांनाच माहिती, तो खमंग वास रेडी बटर, आणि चिझ ला कुठे ?? जेव्हा घरी बेसनाचे लाडू बनताना खमंग वास दरवळतो ना, सगळीकडे आणि तोंडाला पाणी सुटते तो अनुभव फक्त आम्हालाच. भडंग करतांना लसणीचा खमंग वास घरभर फिरतो आणि वर्दी देऊन जातो ताज्या भडंगावर ताव मारण्याची, तो रेडीमेड भडंगात कुठे?

पॉकेट मनी साठवून आपल्या आई बाबांच्या वाढदिवसाला सरप्राईज गिफ्ट आणण्याचे सुख आमच्याच नशिबात, हां आता सो कॉल्ड ग्रँड पार्टी आमच्या दैवात नसेल, ना तो भपका आणि पैश्यांची उधळपट्टी, कारण आम्ही वर्षभर विचार करून साधारण तेच गिफ्ट घेतो ज्याची खरच गरज आहे आणि जे आमच्या खिशाला परवडणार पण आहे.

सगळीच नाही काही, पण असे बरेच श्रीमंत लोक आहेत जे फक्त आपला स्टेटस जपण्यासाठी पैश्यांची उधळपट्टी करतात. डिनर पार्टीला, एक पंधरा वीस तरी आयटम असतात खायला, ज्यातले निम्मे अधिक फुकट जातात. आम्ही भले दोनच जिन्नस करू पण वाया नाही कुठला घालवणार. आम्हां मध्यमवर्गीयांना गरजेला सारे काही पण उधळपट्टी कधी जमली नाही आणि श्रीमंतांना गरजेपुरते अस काही असते हेच कधी कळले नाही.

मला आठवतय चार लहान खोल्या असल्या तरी अगदी सगळे नातेवाईक मे महिन्यात जमलो की मस्त पंधरा पंधरा दिवस धमाल करायचो कधी अडचण नाही झाली आम्हाला कोणाची आणि तेच श्रीमंतीत राहणार्‍यांचा महाल असला ,तरी चार चे पाच जण झाले तरी त्यांची स्पेस हरवल्या सारखी वाटते त्यांना. आत्ता पटते माणसांच्या मनात स्पेस लागते, जागेत नाही.

श्रीमंतां सारखे गरजेपुरता माणूस, अस नसते आमच्यासाठी. लोकं कामापुरती मनात अस होत नाही. आम्ही नाती पैश्यांसाठी, कामापुरती जपत नाही, एकदा नाते जोडले तर ते मनापासून जोडतो आणि ह्रदयात जपतो कायमकरता. It is not a deal or contract for us or a source to earn money.काम झाले की हात पुसून टीशुपेपर सारखे फेकून देत नाही, कारण मुळात टीशुपेपर हेच आधी आमच्या संस्कृतीत बसत नाही.

मातीत बागडून, खेळून धडपडून मोठे झालो आम्ही. उन्हाचे चटके बसले की सावली कशी शोधायची हे शिकवायला लागले नाही आम्हाला. सुखी आहोत ह्याचे कधी नाटक नाही करावे लागले, कारण खरच होते त्यात सुखी होतो आम्ही. तेच श्रीमंतांना एसीत बसुन घाम फुटतो, आणि किती ही सुखी असला माणूस तरी वर्षाच्या शेवटी त्यांच्या balance sheet मधे समाधानी आहोत हे मांडावे लागते.

सहज मनाच्या कोपऱ्यातून ?

 

©  सौ. श्रेया सुनील दिवेकर

05.10.2020

मो 9423566278

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈




मराठी साहित्य – विविधा ☆ दत्तक विधान ☆ सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई ☆

सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई

☆ विविधा ☆ दत्तक विधान ☆ सौ पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई ☆ 

कुणाचं नशीब कसं आणि कधी बदलेल ते सांगता येत नाही.

असाच एक घडलेला प्रसंग. रस्त्यात एका झुडुपात एका कुत्रीला चार पिल्ले झाली होती. भुकेने बिचारी खूप रडत होती. ओरडत होती. रस्त्याने जाणारे येणारे फक्त बघून पुढे जात होते. दुसरे दिवशी ही पिलांची आई आली नव्हती. तिचं काय झालं कोण जाणे? पिल्ल‌ सारखी आईसाठी आक्रोश करत होती. हर्षद ने चित्र पाहिले आणि त्याला रहावले नाही. त्याने चारही पिल्ले घरी आणली. घरात  कुरबूर झाली. त्यांना दूध दिल्यानंतर ती शांत झाली आणि झोपी गेली. त्यांना एका वेगळ्या खोलीत ठेवले. त्यांचं काय करायचं ते बघूया, असं ठरलं. पैकी दोन पिल्ले सांभाळायला चांगल्या घरी दिली. उरलेल्या दोन पिलांनी घरातल्या सगळ्यांना जीव लावला. मोठी झाली की राखण करतील असू देत आपल्याकडे असं ठरलं. त्या दोघांचं भाऊ-बहीणीच नामकरण झालं. गुंड्या आणि बंडी. दोघांच्या कुस्ती लपंडाव आणि अनेक खेळाने सर्वांची खूप छान करमणूक होत होती. आता त्यांनी सगळ्यांनाच लळा लावला होता.

घरातल्या सगळ्यांना अचानक परगावी जायलाच हव असं निमित्त निघाल. आता या दोन्ही पिलांचं काय करायचं? प्रश्नचिन्ह निर्माण झालं. शेवटी असं ठरलं की, “राहत” या प्राणी प्रेमी संस्थेत त्यांना देऊया. जड अंतकरणाने त्यांना त्या संस्थेत दाखल केलं. लवकरच बंड्या आणि गुंडी तेथील प्राणीपक्ष्यांबरोबर छान रुळली. मजेत राहू लागली.

या संस्थेतच मालकांनी दुर्लक्ष केल्याने, अतिश्रमाने, जखमी झालेली काही गाढवे जप्त करून, त्यांच्यावर उपचार करून बरी झाली होती. त्यांना डॉंन्की यार्डमध्ये उटीला पाठवायचे ठरले होते. (मसीनगुडी) उटी याठिकाणी डॉक्टर इलोना ओटर या नार्वेच्या व्हेटर्नरी डॉक्टर व त्यांचे पती नायजेल ओटर यांनी 20 एकर जागेत इंडिया प्रोजेक्ट फॉर नेचर ही संस्था सी स्थापन केली आहे. असे प्राणी मुक्तपणे मोकळे आणि निवृत्त जीवन जगत असतात. तेथे “राहत” मधील गाढवांना व त्यांच्याबरोबर बंड्या आणि गुंडी यांनाही पाठवायचे ठरले. समाजसेवी संस्था किंवा व्यक्ती तेथील प्राण्यांना दत्तक घेतात. म्हणजे त्यांचा खर्च पाठवतात. बंड्या आणि गुंडी उटीला पोहोचले. त्यांचे फोटो पाहून अमेरिकन जोडप्याने त्यांना पसंत केले. कागदपत्रांची पूर्तता झाली .दत्तकविधान झाले. त्यांच्या पालकांनी खर्च पाठवायला सुरुवात केली. नवीन मालकांनी त्यांची दत्तक नावे पा़ँल आणि नन्सी अशी ठेवली. बंड्या आणि गुंडीचे  पाँल आणि नैन्सी झाले.पूर्ण आयुष्य बदलून गेले. मराठी होते ते  अमेरिकन झाले.

रस्त्याच्या कडेला झुडुपात आईविना दिवसरात्र भुकेने कासावीस होऊन ओरडत राहिलेली बंड्या आणि गुंडी पाँल आणि नँन्सी होऊन आनंदी आणि मुक्त जीवन जगायला लागले. काय नशीब असतं ना एकेकाच!

 

©  सौ. पुष्पा नंदकुमार प्रभुदेसाई

मो. ९४०३५७०९८७

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈




अध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता ☆ पद्यानुवाद – अष्टदशोऽध्याय: अध्याय (56) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता 

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अध्याय 18

( भक्ति सहित कर्मयोग का विषय )

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः।

मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्‌॥

 

सभी कर्म कर सदा जो , अर्पण करते भाव

वह पाते हैं ब्रहम पद, कहीं न कोई अभाव ।।56।।

 

भावार्थ :  मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो संपूर्ण कर्मों को सदा करता हुआ भी मेरी कृपा से सनातन अविनाशी परमपद को प्राप्त हो जाता है॥56॥

Doing all actions always, taking refuge in Me, by My Grace he obtains the eternal, indestructible state or abode.

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’  

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 51 ☆ लघुकथा – चकनाचूर सपनें ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है मानवीय संवेदनाओं और स्त्री विमर्श पर आधारित  उनकी लघुकथा ‘चकनाचूर सपनें। ऋचा जी के ही शब्दों में –  “महिलाओं  के  शोषण का यह रूप भी समाज में देखने को मिलता है  । भावनात्मक शोषण  का यह रूप बहुत भयावह होता है क्योंकि अपने ही परिवारजनों द्वारा होने वाले इस कृत्य की  कहीं शिकायत  भी  नही  की जाती   है ।  माँ  पुत्र मोह में  बेटियों के भविष्य का विचार नहीं करती।”डॉ डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  संस्कृति एवं मानवीय दृष्टिकोण और स्त्री विमर्श परआधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 51 ☆

☆  लघुकथा – चकनाचूर सपनें

दिन भर मशीन की तरह वह एक के बाद एक घर के  काम निपटाती जा रही  थी। उसका चेहरा भावहीन था, सबसे बातचीत भले ही कर रही थी पर आवाज में कुछ उदासी थी। जैसे मन ही मन झुंझला रही हो। उसके छोटे भाई की शादी थी। घर में हँसी मजाक चल रहा था लेकिन वह उसमें शामिल नहीं थी,  शायद वह वहाँ रहना ही नहीं चाहती थी।  कुमुद ऐसी तो नहीं थी, क्या हो गया इसे? मैंने उसकी अविवाहित बडी बहन से पूछा, अरे कोई बात नहीं है, बहुत मूडी है। उसने बात टाल दी। मुझे यह बात खटक रही थी कि दो बडी बहनों के रहते छोटे भाई की शादी की जा रही है। कुमुद के मन में भी शायद ऐसा ही कुछ चल रहा हो? लडकियाँ खुद ही शादी करना ना चाहें तो बात अलग है पर जानबूझकर उनकी उपेक्षा करना? उनकी भी तो कुछ इच्छाएं, कुछ सपने होंगे? खैर छोडो, दूसरे के फटे में पैर कौन अड़ाए ?

शादी के घर में रिश्तेदारों का जमावड़ा हो और आपस में निंदा – पुराण ना हो, ऐसा कभी हो सकता है क्या? महिला संगीत चल रहा था और साथ में महिलाओं की खुसपुसाहट भी – जवान बहनें बिनब्याही बैठी हैं और छोटे भाई की शादी कर रहे हैं माँ – बाप। बड़ी तो अधेड़ हो गई है, कुमुद के लिए तो देखना चाहिए। ढोलक की थाप के साथ नाच – गाने तो चल ही रहे थे, निंदा रस भी खुलकर बरस रहा था। अरे कुमुद ! अबकी तू उठ, बहुत दिन से तेरा नाच नहीं देखा, ससुराल जाने के लिए थोडी प्रैक्टिस कर ले – बुआ ने हँसते हुए कहा। भाभी अब कुमुद के लिए लड़का देखो, नहीं तो यह भी कोमल की तरह बुढ़ा जाएगी नौकरी करते- करते, फिर कोई दूल्हा ना मिलेगा इसे। ढोलक की थाप थम गई और बात चटाक से लगी घरवालों को। नाचने के लिए उठते कुमुद के कदम मानों वहीं थम गए लेकिन चेहरा खिल गया। ऐसा लगा मानों किसी ने तो उसके दिल की बात कह दी हो । वह उठी और दिल खोलकर नाचने लगी।

कुमुद की माँ अपनी ननद रानी से उलझ रही थीं – बहन जी आपको रायता फैलाने की क्या जरूरत थी सबके सामने ये सब बात छेड़कर। इत्ता दान दहेज कहाँ से लाएं दो – दो लडकियों के हाथ पीले करने  को। ऐरे – गैरे घर में जाकर किसी दूसरे की जी- हजूरी करने से तो अच्छा है अपने छोटे भाई का परिवार पालें। छोटे को सहारा हो जाएगा, उसकी नौकरी भी पक्की ना है अभी। कोमल तो समझ गई है ये बात, पर इस कुमुद के दिमाग में ना बैठ रही। खैर समझ जाएगी यह भी —

कुमुद मगन मन नाच रही थी। ढोलक की थाप और तालियों के शोर में माँ की बात उसे  सुनाई नहीं दे रही थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

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