हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 48 ☆ लघुकथा – वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए जिए ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक सत्य घटना पर आधारित  उनकी लघुकथा वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए जिए।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  संस्कृति एवं मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 48 ☆

☆  लघुकथा – वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए जिए ☆

फेसबुक पर उसकी पोस्ट देखी – ‘ कोरोना चला जाएगा, दूरियां रह जाएंगी’ यह क्यों लिखा इसने? मन में चिंता हुई, क्या बात हो गई? कोरोना का  दुष्प्रभाव लोगों के मानसिक स्वास्थ्य  पर भी पड़ रहा है। गलत क्या कहा उसने? समझ सब रहे हैं उसने लिख दिया।उसकी लिखी बात मेरे मन में गूँज रही थी कि व्हाटसअप पर उसका पत्र  दिखा –

यह पत्र आप सबके लिए है, कोई फेसबुक पर भी पोस्ट करना चाहे तो जरूर करे।मैं जानता हूँ कि कोरोना महामारी ने हमारा जीने का तरीका बदल दिया है।मास्क पहनना,बार–बार हाथ धोना, और सबसे जरूरी,दो गज की दूरी, जिससे वायरस एक से दूसरे तक नहीं पहुँचे।इन बातों को मैं  ठीक मानता हूँ और पूरी तरह इनका पालन भी करता हूँ।लेकिन इसके बाद भी कोरोना हो जाए तो कोई क्या कर सकता है?

मेरे साथ ऐसा ही हुआ, सारी सावधानियों के बावजूद मैं कोविड पॉजिटिव हो गया। मैं तुरंत अस्पताल में एडमिट हुआ और परिवार के सभी सदस्यों का कोविड  टेस्ट करवाया। भगवान की कृपा कि सभी की रिपोर्ट नेगेटिव आई, मैंने राहत की साँस ली, वरना क्या होता—- कहाँ से लाता इतने पैसे और  कौन करता हमारी मदद? लगभग पंद्रह दिन बाद मैं  अस्पताल  से घर आया। मेरे पूरे परिवार के लिए यह बहुत कठिन समय था। घर आने के बाद मैंने  महसूस किया कि सबके चेहरे पर उदासी  छाई है।ऐसा लगा जैसे कोई बात मुझसे छिपाई जा रही हो।बच्चे कहाँ हैं मैंने पूछा।पत्नी ने बडे उदास स्वर में कहा – बेटी खेल रही है, बेटे को नानी के पास भेज दिया है। उसे इस समय वहाँ क्यों भेजा? मैं पूरी तरह स्वस्थ नहीं था इसलिए वह मुझे सही बात बताना नहीं चाह रही थी, मेरे ज़्यादा पूछने पर वह रो पडी, उसने बताया – ‘ मेरे कोविड पॉजिटिव  होने का पता चलते ही आस –पडोसवालों का मेरे परिवार के सदस्यों के प्रति रवैया ही बदल गया। किसी प्रकार की मदद की बात तो दूर उन्होंने पूरे परिवार को उपेक्षित –सा कर दिया।स्कूल बंद थे, दोनों बच्चे मोहल्ले में अपने दोस्तों  के साथ खेला करते थे, अब सब जैसे थम गया।उनको हर समय घर में  रखना मुश्किल हो गया।बेटी तो छोटी है पर बेटे को यह सब सहन ही नहीं हो रहा था। किसी समय वह चुपचाप थोडी देर के निकला तो पडोसी ने टोक दिया – अरे, तेरे पापा को कोरोना हुआ है ना, जाकर घर में बैठ, घूम मत इधर –उधर, दूसरों को भी लगाएगा बीमारी। वह मुँह लटकाए घर वापस आ गया। घर में पडा, वह अकेले रोता रहता, धीरे- धीरे उसने सबसे बात करना, खाना -पीना छोड दिया।उसकी हालत इतनी बिगड गई  कि उसे मनोचिकित्सक के पास ले जाना पडा। उसका किशोर मन यह स्वीकार  ही नहीं कर पाया कि जिन लोगों के साथ रहकर  बडा हुआ है आज वे सब उसके साथ अजनबी जैसा व्यवहार कर रहे हैं।

जिन आस पडोसवालों को हम सुख – दुख का साथी समझते हैं उनकी बेरुखी से मुझे भी बहुत चोट पहुँची। एक पल के लिए मुझे भी लगा कि फिर समाज में रहने का क्या फायदा? कोरोना महामारी से हम सब जूझ रहे हैं, हमें देह से दो गज की दूरी रखनी है, इंसानियत से नहीं। डॉक्टर्स, नर्स और अस्पताल के कर्मचारी यदि ऐसी ही अमानवीयता कोरोना के रोगी के साथ दिखाएं तो? वे भी तो इंसान हैं, उन्हें भी तो अपनी जान की फिक्र है, उनके भी परिवार हैं?

इतना ही कहना है मुझे कि मेरा बेटा और  मेरा परिवार जिस मानसिक कष्ट से गुजरा है वैसा किसी और के साथ ना होने दें। वैक्सीन बनेगी, दवाएं आएंगी, कोरोना आज नहीं तो कल चला ही जाएगा। इंसानियत बचाकर  रखनी होगी हमें, कहीं भरोसा ही ना रहा एक-दूसरे पर तो?  ना खुशी में साथ मिलकर ठहाके लगा सकें, ना गम बाँट सकें, कितना नीरस होगा जीवन—  ।आज तक कोई ऐसी वैक्सीन बनी है जो मनुष्य को मनुष्य बनाए रखे,  संवेदनशीलता ही मनुष्य की पहचान है, हाँ फिर भी वैक्सीन हो तो बताइयेगा जरूर।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #76 ☆ व्यंग्य – कंफ्यूजन में ग्लैमर का फ्यूजन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक विचारणीय  व्यंग्य कंफ्यूजन में ग्लैमर का फ्यूजन।  इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी  का  हार्दिकआभार। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 76 ☆

☆ व्यंग्य – कंफ्यूजन में ग्लैमर का फ्यूजन ☆

कंफ्यूजन का मजा ही अलग होता है. तभी तो लखनऊ में नबाब साहब ने भूल भुलैया बनवाई थी. आज भी लोग टिकिट लेकर वहां जाते हैं और खुद के गुम होने का लुत्फ उठाते हैं. हुआ यों था कि लखनऊ में भयंकर अकाल पड़ा, पूरा अवध दाने दाने का मोहताज हो गया. लोग मदद मांगने नवाब के पास गये. वजीरो ने सलाह दी कि खजाने में जमा राशि गरीबो में बाँट दी जाये. मगर नवाब साहब का मानना था की खैरात में धन बांटने से लोगो को हराम का खाने की आदत पड़ जाएगी. इसलिए उन्होंने रोजगार देने के लिए एक इमारत का निर्माण करवाया जिसको बाद में बड़ा इमामबाड़ा नाम दिया गया. इमामबाड़े में असफी मस्जिद, बावड़ी और भूलभुलैया है. दिल्ली में भी भूल भुलैया है , जो लोकप्रिय पर्यटन स्थल है. कई बाग बगीचों में भी इसी तर्ज पर ऐसी पौध  वीथिकायें बनाई गई हैं जहां गुम होने के लिये प्रेमी जोडे दूर दूर से वहां घूमने चले आते हैं.

दरअसल कंफ्यूजन में मजे लेने का कौशल हम सब बचपन से ही सीख जाते हैं. कोई भी बाल पत्रिका उठा लें एक सिरे पर बिल्ली और दूसरे सिरे पर चूहे का एक क्विज  मिल ही जायेगा , बीच में खूब लम्बा घुमावदार ऊपर नीचे चक्कर वाला , पूरे पेज पर पसरा हुआ रास्ता होगा. बिना कलम उठाये बच्चे को बिल्ली के लिये चूहे तक पहुंचने का शार्टेस्ट रास्ता ढ़ूंढ़ना होता है. खेलने वाला बच्चा कंफ्यूज हो जाता है, किसी ऐसे दो राहे के चक्रव्यू में उलझ जाता है कि चूहे तक पहुंचने से पहले ही डेड एंड आ जाता  है.

कंफ्यूजन में यदि ग्लैमर का फ्यूजन हो जाये, तो क्या कहने. चिंकी मिन्की, एक से कपड़ो में बिल्कुल एक सी कद काठी ,समान आवाज वाली, एक सी सजी संवरी हू बहू दिखने वाली जुड़वा बहने हैं. यू ट्यूब से लेकर स्टेज शो तक उनके रोचक कंफ्यूजन ने धमाल मचा रखा है. कौन चिंकि और कौन मिंकी यह शायद वे स्वयं भी भूल जाती हों. पर उनकी प्रस्तुतियों में मजा बहुत आता है. कनफ्यूज दर्शक कभी इसको देखता है कभी उसको, उलझ कर रह जाता है , जैसे मिरर इमेज हो. पुरानी फिल्मो में जिन्होने सीता और गीता या राम और श्याम देखी हो वे जानते है कि हमारे डायरेक्टर डबल रोल से जुडवा भाई बहनो के कनफ्यूजन में रोमांच , हास्य और मनोरंजन सब ढ़ूंढ़ निकालते की क्षमता रखते हैं.

कंफ्यूजन सबको होता है , जब साहित्यकार को कंफ्यूजन होता है तो वे  संदेह अलंकार रच डालते हैं. जैसे कि “नारी बिच सारी है कि सारी बिच नारी है”. कवि भूषण को यह कंफ्यूजन तब हुआ था , जब वे भगवान कृष्ण के द्रोपदी की साड़ी अंतहीन कर उनकी लाज बचाने के प्रसंग का वर्णन कर रहे थे.

यूं इस देश में जनता महज कंफ्यूज दर्शक ही तो है. पक्ष विपक्ष चिंकी मिंकी की तरह सत्ता के ग्लेमर से जनता को कनफ्युजियाय हुये हैं. हर चुनावी शो में जनता बस डेड एंड तक ही पहुंच पाती है. इस एंड पर बिल्ली दूध डकार जाती है , उस एंड पर चूहे मजे में देश कुतरते रहते हैं. सत्ता और जनता के बीच का सारा रास्ता बड़ा घुमावदार है. आम आदमी ता उम्र इन भ्रम के गलियारों में भटकता रह जाता है. सत्ता का अंतहीन सुख नेता बिना थके खींचते रहते हैं. जनता साड़ी की तरह खिंचती , लिपटती रह जाती है. अदालतो में न्याय के लिये भटकता आदमी कानून की किताबों के ककहरे ,काले कोट और जज के कटघरे में सालों जीत की आशा में कनफ्यूज्ड बना रहता है.

चिंकी मिंकी सा कनफ्यूजन देश ही नही दुनियां में सर्वव्याप्त है. दुनियां भ्रम में है कि पाकिस्तान में सरकार जनता की है या मिलिट्री की. वहां की मिलिट्री इस भ्रम में है कि सरकार उसकी है या चीन की और जमाना भ्रम में है कि कोरोना वायरस चीन ने जानबूझकर फैलाया या यह प्राकृतिक विपदा के रूप में फैल गया. इस और उस वैक्सीन के समाचारो के कनफ्यूजन में मुंह नाक ढ़ांके हुये लगभग बंद जिंदगी में दिन हफ्ते महीने निकलते जा रहे हैं. अपनी दुआ है कि अब यह आंख मिचौली बंद हो, वैक्सीन आ जाये जिससे कंफ्यूजन में ग्लैमर का फ्यूजन चिंकी मिंकी शो लाइव देखा जा सके.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 67 – हूलोक गिबन ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “हूलोक गिबन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 67 ☆

☆ हूलोक गिबन ☆

अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड जैसे पूर्वोत्तर राज्य में पाया जाने वाला 6 से 9 किलोग्राम वजनी वानर जाति का ये अनोखा जीव है। हूलोक गिबन विलुप्त होने के कगार पर खड़ा वानर अपने जीवन साथी के साथ अपने सीमा क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से विचरण करता रहता है। दूसरा जोड़ा कभी पहले वाले जोड़े के क्षेत्र में बिना काम से नहीं आता है।

मानवीय कृत्य वैवाहिक स्वभाव से युक्त इस वानर जाति का नर का शरीर काला और मादा का शरीर हल्के भूरे रंग का होता है । दोनों की छाती पर विस्तृत रंग की लंबी और गोलाकार छाप होती हैं। हल्के काले रंग के चेहरे पर भूरी आंखें इनकी सौंदर्य में अभिवृद्धि करती है।

इंसानों की तरह चलने वाला हूलोक गिबन अपने पिछले पैरों पर संतुलन बनाकर करतब दिखाने में माहिर होता है। यह 55 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से कूदने में सक्षम और फुर्तीला प्राणी है । नटखट प्रवृत्ति के इस छोटे जीव की छलांग 15 मीटर तक लंबी होती है।

घाटी में वर्षा~

टूटी डाली से कूदे

हूलोक गिबं।

~~~~~~~

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

25-08-20

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 37 ☆ अनोखा साथ ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “अनोखा साथ”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 37 – अनोखा साथ ☆

रेड़ियो में गाना बज रहा था कजरा मोहब्बत वाला अँखियों में ऐसा डाला कजरे ने ले ली मेरी जान, हाय रे मैं तेरे कुर्बान ।

अरे भई कजरे और गजरे पर ही जान दे दोगे तो बड़े भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सद ग्रंथहिं गावा का क्या होगा। चलिए कोई बात नहीं, काजल की महिमा ही ऐसी है काजल की कोठरी से भला कोई बच कर निकल पाया है, जो आप निकल पाते ।

काले रंग की महिमा का बखान तो कोई कर ही नहीं सकता, धन भी जब तक काला न हो तब तक कोई व्यक्ति, संस्था या देश प्रसिद्ध पाता ही नहीं।आजकल केवल नाम से काम नहीं चलता उसमें विशेषण जोड़ना ही पड़ता है बदनाम बद उपसर्ग के सौंदर्य से अर्थ व महिमा दोनों ही निखर जाते हैं। अरे हाँ एक बात तो भूल ही गयी काजल और कलंक का जनम -जनम का साथ है। काजल फैला और कालिख लगी अर्थात कलंक लगना निश्चित है, उस समय कोई भी साथ नहीं देता। तब याद आती है परमेश्वर की, धन तो पहले ही विदेशी बैंकों की शोभा बढ़ा रहा होता है, अब इसके साथ-साथ लोग भी झट से विदेश को प्रस्थान करने लगे हैं।

शादी से लेकर बर्बादी तक का सफर विदेश में ही पूरा होता है। भारत में तो केवल कुर्सी की चाह ही पूरी हो सकती है। यहाँ इतनी छूट है कि जिसके पास जितना काजल उसे उतना ही लोकप्रिय बना दिया जाता है। काजल से सौंदर्य बढ़ता है ये तो सुना था पर यकीन अब होता जा रहा है। इतना महत्वपूर्ण शृंगार है ये कि जब आँखों में इसे कोई बसा लेता है तो उसके अंदर सबको घायल करने की क्षमता अनायास ही विकसित हो जाती है। पूरा जनमानस उसका फॉलोअर बन जाता है। उसके नाम से किसी का भी काम -तमाम होने में देर नहीं लगती ।

काजल और उसकी कालिख़ का कर्ज़ छोड़ कर हम सबसे मुख मोड़ कर कहाँ सुकून मिलेगा, कुछ नहीं तो अपना फर्ज़ निभाइये काजल पर क्या- क्या नहीं लिखा गया इसे सोलह शृंगार में भी स्थान मिला है। सूरदास की काली कमरी चढ़े न दूजो रंग। इन सबका मान रखिए और देखिए तो क्या-क्या काजल से किया जा सकता है –

नैन सजाया काजल से
नजर उतारी काजल से
सच्ची कोशिश अगर हुई तो
भाग जगेगा काजल से…..

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 44 ☆ नीति -रीति के दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  “नीति -रीति के दोहे.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 44 ☆

☆ नीति -रीति के दोहे ☆ 

चक्रा इस संसार में,कटु मत बोलै सत्य।

बाज और कौए करें, प्यारे तुझको मृत्य।।

 

झूठ फरेबी बढ़ रहे, सत पर करें प्रहार।

छोटी-छोटी बात पर, जमकर करते रार।।

 

सबसे अच्छा मौन है,और प्रेम है सार।

असत भाव को छोड़कर, जोड़ प्रभू से तार।।

 

झूठ -फरेवों से करूँ , रोज मित्र मुठभेड़।

कोई करता प्रेम है, कोई कहता भेड़।।

 

अनगिन मिलकर छूटते, और मिलें गलहार।

जीवन के रंगमंच पर,शूल और त्योहार।।

 

भाग्य और भगवान ही, रोज रचावें स्वांग।

कर्मों की ये बेल ही, फल की करती माँग।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 66 – होने बनने में अंतर है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना होने बनने में अंतर है…। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 66 ☆

☆ होने बनने में अंतर है… ☆  

 

होने, बनने में अन्तर है

जैसे झरना औ’ पोखर है।।

 

कवि होने के भ्रम में हैं हम

प्रथम पंक्ति के क्रम में हैं हम

मैं प्रबुद्ध, मैं आत्ममुग्ध हूँ

गहन अमावस तम में हैं हम।

तारों से उम्मीद लगाए

सूरज जैसे स्वप्न प्रखर है……

 

जब, कवि हूँ का दर्प जगे है

हम अपने से दूर भगे हैं

भटकें शब्दों के जंगल में

और स्वयं से स्वयं ठगे हैं।

भटकें बंजारों जैसे यूँ

खुद को खुद की नहीं खबर है।……

 

कविता के संग में जो रहते

कितनी व्यथा वेदना सहते

दुःखदर्दों को आत्मसात कर

शब्दों की सरिता बन बहते,

नीर-क्षीर कर साँच-झूठ की

अभिव्यक्ति में रहें निडर है।……

 

यह भी मन में इक संशय है

कवि होना क्या सरल विषय है

फिर भी जोड़-तोड़ में उलझे

चाह, वाह-वाही, जय-जय है

मंचीय हावभाव, कुछ नुस्खे

याद कर लिए कुछ मन्तर है।……

 

मौलिकता हो कवि होने में

बीज नए सुखकर बोने में

खोटे सिक्के टिक न सकेंगे

ज्यों जल, छिद्रयुक्त दोने में

स्वयं कभी कविता बन जाएं

यही काव्य तब अजर अमर है।…..

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 45 – बापू के संस्मरण-20- मैं तुम्हारा चेला बनता हूँ…. ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “मैं तुम्हारा चेला बनता हूँ ….”)

☆ गांधी चर्चा # 42 – बापू के संस्मरण – 20 – मैं तुम्हारा चेला बनता हूँ ….☆ 

आगाखां महल से छूटकर गांधीजी पर्णकुटी मैं आकर ठहरे ।

उनकी चप्पलें कई दिन पहले ही टूट थीं। मनु ने वे टूटी चप्पलें उनसे बिना पूछे मरम्मत करने के लिए मोची को दे दीं । चप्पलें देकर लौटी तो देखा कि गांधीजी अपनी चप्पलें ढूंढ़ रहे हैं । मनु को देखकर उन्होंने पूछा “तूने मेरी चप्पलें कहां रख दी हैं?”

मनु ने कहा, “बापूजी, वे तो मैं मरम्मत के लिए मोची को दे आई हूं ।” मनु ने जवाब दिया, “आठ आने मजदूरी ठहराई है, बापूजी ।”

गांधीजी बोले,” लेकिन तू तो एक कौड़ी भी नहीं कमाती और न मैं कमाता हूं । तब मजदूरी के आठ आने कौन देगा?”

मनु सोच में पड़ गयी । आखिर मोची से चप्पलें वापस लाने का निर्णय उसे करना पड़ा । लेकिन उस बेचारे को तो सवेरे-सवेरे यही मजदूरी मिली थी. इसीलिए वह  बोला, “सवेरे के समय मेरी यह पहली-पहली बोहनी है, चप्पलें तो मैं अब वापस नहीं दूंगा ।”

मनु ने लाचार होकर उससे कहा, “ये चप्पलें महात्मा गांधी की हैं. तुम इन्हें लौटा दो भाई ।”

यह सुनकर मोची गर्व से भर उठा , बोला, “तब तो मैं बड़ा भाग्यवान हूं. ऐसा मौका मुझे बार-बार थोड़े ही मिलने वाला है । मैं बिना मजदूरी लिये ही बना दूंगा, लेकिन चप्पलें लौटाऊंगा नहीं ।”

काफी वाद-विवाद के बाद मनु चप्पलें और मोची दोनों को लेकर गांधीजी के पास पहुंची और उन्हें सारी कहानी सुनाई ।

गांधीजी ने मोची से कहा, ” तुम्हें तुम्हारा भाग ही तो चाहिए न? तुम मेरे गुरु बनो, मैं तुम्हारा चेला बनता हूँ। मुझे सिखाओ कि चप्पलों की मरम्मत कैसे की जाती है?”

और गांधीजी सचमुच उस मैले-कुचैले मोची को गुरु बना कर चप्पल सीने की कला सीखने लगे । वे अपने मिलने वालों से बातें भी करते जाते थे और सीखते भी जाते थे । गुरु-चेले का यह दृश्य देखकर मुलाकाती चकित रह गये । उन्होंने जानना चाहा कि बात क्या है?

गांधीजी बोले,”यह लड़की मुझसे बिना पूछे मेरी चप्पलें मरम्मत करने दे आई थी , इसलिए इसको मुझे सबक सिखाना है और इस मोची को इसका भाग चाहिए, इसलिए मैंने इसे अपना गुरु बना लिया है ।” फिर हंसते हुए उन्होंने कहा, “देखते हैं न आप महात्माओं का मजा!”

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 17 ☆ समुंदर जैसा जीवन ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता समुंदर जैसा जीवन ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 17 ☆ समुंदर जैसा जीवन 

 

समुंदर जैसा जीवन जीने की चाह मेरे मन में नहीं,

समुंदर में उठते तूफानों को झेलना मेरे बस की  बात नहीं ||

 

सांय-सांय सी आवाज कर समुंदर में ऊँची उठती लहरें,

जिंदगी में इन लहरों से टकराना मेरे बस की  बात नहीं ||

 

तेज हवाओं से हिलोरे लेता समुंदर आक्रोशित दिखता,

समुंदर जैसा आक्रोश दिखाना मेरे बस की बात नहीं ||

 

अंतहीन समुंदर में बड़े जहाज भी हिचकोले भरते हैं,

मैं छोटी सी ताल बड़े जहाजों को झेलना मेरे बस की बात नहीं ||

 

लहरें ऊंची-नीची बहकर समुंदर तट से टकराती है,

अपनों से टकराकर अपनों के संग जीना मेरे बस की बात नहीं ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 68 – जननी – जनक ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा सोनवणे जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 68 ☆

☆ जननी – जनक ☆

माझ्या आईचा मी विचार करते तेव्हा मला खुपच चकीत व्हायला होतं, त्याकाळात सगळ्याच बायका गृहकृत्यदक्ष वगैरे असायच्या, माझी आई सुशिक्षित कुटुंबातली तिची आई सामाजिक कार्यकर्ती, वडील कोऑपरेटिव्ह बँकेचे मॅनेजर होते, निवृत्त झाल्या वर शेती करत होते ते कोकणातले आमराई ,भातशेती वगैरे ! खुप मोठा बंगला, आईचं लग्न घाटावरच्या भरपूर शेतीवाडी असलेल्या घरात झालेलं! पण ती आम्हा सख्या चुलत सहा भावंडांना घेऊन शहरात बि-हाड करून आमच्या  शिक्षणासाठी राहिली. आजोबा त्या काळात त्या भागातले मोठे बागाईतदार, त्यामुळे आईच्या हाताखाली कायम दोन तीन बायका असायच्या पण स्वयंपाक मात्र ती स्वतः करायची ! तिनं आम्हा बहिणींना कधीच घरातली कामं करायला लावली नाहीत, ती भरतकाम, विणकाम, खुपच सुंदर करायची, हौस म्हणून मशीनवर कपडे शिवायची, सुंदर  स्वेटर विणायची! स्वयंपाकात सुगरण होती, या कुठल्याच कला तिने मला शिकवल्या नाहीत किंवा मी शिकले नाही. पण तिला वाचनाची आवड होती तिची वाचनाची आवड आमच्यात उतरली, आणि पुढील काळात मी लेखन करू लागले, फार जाणीवपूर्वक तिनं काही आमची जडणघडण केली नाही, पण आरामशीर आयुष्य तिच्यामुळे मी जगत होते हातात काॅफीचा कप, आणि जेवायला ताट ही कामवाली देत असे. आई सतत आजारी असायची तरी  तिचा कामाचा झपाटा मोठा होता.

मी स्वयंपाक लग्नानंतर करायला शिकले, लग्नाच्या आधी आजीने भाकरी करायला शिकवली होती, कधीतरी चपात्या ही करत होते….. पण तिच्या सारखं प्रत्येक पदार्थ निगुतीनं करणं मला कधी जमलं नाही पण तिच्या हाताची चव मात्र माझ्या हातात उतरली आहे. भरतकाम, विणकाम, शिवण मी ही केलंय पण तिच्या इतकं सुबक नसे….. तरीही नूतन शेटे च्या ओळीप्रमाणे आज म्हणावंसं वाटतं अस्तित्व आज माझे….त्या तूच एक कारण….आपलं अस्तित्व हे आपल्या आईवडिलामुळेच! माझं हस्ताक्षर वडिलासारखं सुंदर आहे. कुरळे केस वडिलांसारखे आहेत, वडिलांची तब्येत एकदम चांगली होती, आखाडा गाजवलेले पहिलवान होते ते!

मधुमेह, संधीवात हे आजार अनुवंशाने आईकडून आलेले, आणि आता जाणवतं हे आजार तिने कसे सहन केले असतील??

आरामशीर, सुखवस्तू आयुष्य आईवडीलांमुळे जगता आलं ही कृतज्ञता आहेच! पण मला लहानपणी आईवडीलांचा नेहमीच धाक आणि दराराच होता.

 

आई बाप असतात

फक्त जन्माचे धनी

आयुष्याचे गणित

सोडवायचे ज्याचे त्यानी

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 53 ☆ आंधी ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “आंधी”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 53 ☆

☆  आंधी ☆

जब पता होता है ना

कि हम सही पथ पर हैं

और सच्चाई हमारी साथी है,

तो ज़हन के भीतर

एक आंधी सी चलने लगती है

जो हर अंग को जोश और उत्साह से

रंगीन गुब्बारे की तरह भर देती है,

खोल देती है सारे दरवाज़े

जो वक़्त ने बंद कर दिए होते हैं,

लॉक डाउन कर देती है

सभी नकारात्मक विचारों का

और दिमाग के सारे तालों की

चाबी ढूँढ़ लाती है!

 

‘गर तुम्हें अपने पर

पूरा भरोसा है

तो चल जाने दो आंधी,

बिना किसी डर के और भय के!

पहले बड़ी उथल-पुथल होगी,

पर फिर धीरे-धीरे

जैसे-जैसे आंधी थमेगी

सब हो जाएगा साफ़!

 

हो सकता है

तब तुम झूलने लगो

धनक के सात रंगों के झूलों पर!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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