श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर रचना “अनोखा साथ”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 37 – अनोखा साथ ☆

रेड़ियो में गाना बज रहा था कजरा मोहब्बत वाला अँखियों में ऐसा डाला कजरे ने ले ली मेरी जान, हाय रे मैं तेरे कुर्बान ।

अरे भई कजरे और गजरे पर ही जान दे दोगे तो बड़े भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सद ग्रंथहिं गावा का क्या होगा। चलिए कोई बात नहीं, काजल की महिमा ही ऐसी है काजल की कोठरी से भला कोई बच कर निकल पाया है, जो आप निकल पाते ।

काले रंग की महिमा का बखान तो कोई कर ही नहीं सकता, धन भी जब तक काला न हो तब तक कोई व्यक्ति, संस्था या देश प्रसिद्ध पाता ही नहीं।आजकल केवल नाम से काम नहीं चलता उसमें विशेषण जोड़ना ही पड़ता है बदनाम बद उपसर्ग के सौंदर्य से अर्थ व महिमा दोनों ही निखर जाते हैं। अरे हाँ एक बात तो भूल ही गयी काजल और कलंक का जनम -जनम का साथ है। काजल फैला और कालिख लगी अर्थात कलंक लगना निश्चित है, उस समय कोई भी साथ नहीं देता। तब याद आती है परमेश्वर की, धन तो पहले ही विदेशी बैंकों की शोभा बढ़ा रहा होता है, अब इसके साथ-साथ लोग भी झट से विदेश को प्रस्थान करने लगे हैं।

शादी से लेकर बर्बादी तक का सफर विदेश में ही पूरा होता है। भारत में तो केवल कुर्सी की चाह ही पूरी हो सकती है। यहाँ इतनी छूट है कि जिसके पास जितना काजल उसे उतना ही लोकप्रिय बना दिया जाता है। काजल से सौंदर्य बढ़ता है ये तो सुना था पर यकीन अब होता जा रहा है। इतना महत्वपूर्ण शृंगार है ये कि जब आँखों में इसे कोई बसा लेता है तो उसके अंदर सबको घायल करने की क्षमता अनायास ही विकसित हो जाती है। पूरा जनमानस उसका फॉलोअर बन जाता है। उसके नाम से किसी का भी काम -तमाम होने में देर नहीं लगती ।

काजल और उसकी कालिख़ का कर्ज़ छोड़ कर हम सबसे मुख मोड़ कर कहाँ सुकून मिलेगा, कुछ नहीं तो अपना फर्ज़ निभाइये काजल पर क्या- क्या नहीं लिखा गया इसे सोलह शृंगार में भी स्थान मिला है। सूरदास की काली कमरी चढ़े न दूजो रंग। इन सबका मान रखिए और देखिए तो क्या-क्या काजल से किया जा सकता है –

नैन सजाया काजल से
नजर उतारी काजल से
सच्ची कोशिश अगर हुई तो
भाग जगेगा काजल से…..

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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