हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 77 ☆ वाह रे इंसान ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘वाह रे इंसान !’ डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस विचारणीय लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 77 ☆

☆ लघुकथा – वाह रे इंसान ! ☆

शाम छ: बजे से रात दस बजे तक लक्ष्मी जी को समय ही नहीं मिला पृथ्वीलोक जाने का। दीवाली पूजा  का मुहूर्त ही समाप्त नहीं हो रहा था। मनुष्य का मानना है कि  दीवाली  की रात  घर में लक्ष्मी जी आती हैं। गरीब-  अमीर सभी  घर के दरवाजे खोलकर लक्ष्मी जी की प्रतीक्षा करते रहते हैं। खैर, फुरसत मिलते ही लक्ष्मी जी दीवाली-  पूजा के बाद पृथ्वीलोक के लिए निकल पडीं।

एक झोपडी के अंधकार को चौखट पर रखा नन्हा – सा दीपक चुनौती दे रहा था।  लक्ष्मी जी अंदर गईं, देखा कि झोपडी में एक बुजुर्ग स्त्री छोटी बच्ची के गले में हाथ डाले निश्चिंत सो रही थी। वहीं पास में लक्ष्मी जी का चित्र रखा था, चित्र पर दो-चार फूल चढे थे और एक दीपक यहाँ भी मद्धिम जल रहा था। प्रसाद के नाम पर थोडे से खील – बतासे एक कुल्हड में रखे हुए थे।      

लक्ष्मी जी को याद आई – ‘एक टोकरी भर मिट्टी’  कहानी की बूढी स्त्री। जिसने उसकी  झोपडी पर जबरन अधिकार करनेवाले जमींदार से  चूल्हा  बनाने के लिए झोपडी में से एक  टोकरी मिट्टी उठाकर देने को कहा। जमींदार ऐसा नहीं कर पाया तो बूढी स्त्री ने कहा  कि एक टोकरी मिट्टी का बोझ नहीं उठा पा रहे हो तो यहाँ की हजारों टोकरी मिट्टी का बोझ कैसे उठाओगे ? जमींदार ने लज्जित होकर  बूढी स्त्री को उसकी झोपडी वापस कर दी। लक्ष्मी जी को पूरी कहानी याद आ गई, सोचा – बूढी स्त्री तो अपनी पोती के साथ चैन की नींद सो रही है,  जमींदार का भी हाल लेती चलूँ।

जमींदार की आलीशान कोठी के सामने दो दरबान खडे थे। कोठी पर दूधिया प्रकाश की चादर बिछी हुई थी। जगह – जगह झूमर लटक रहे थे। सब तरफ संपन्नता थी ,मंदिर में भी खान – पान का वैभव भरपूर था। उन्होंने जमींदार के कक्ष में झांका, तरह- तरह के स्वादिष्ट व्यंजन खाने के बाद भी उसे नींद नहीं आ रही थी। कीमती साडी और जेवरों से सजी अपनी पत्नी से  बोला – ‘एक बुढिया की झोपडी लौटाने से मेरे नाम की जय-जयकार हो गई, बस यही तो चाहिए था मुझे। धन से सब हो जाता है, चाहूँ तो कितनी टोकरी मिट्टी भरकर बाहर फिकवा दूँ मैं। गरीबों पर ऐसे ही दया दिखाकर उनकी जमीन वापस करता रहा तो जमींदार कैसे कहलाऊँगा। यह वैभव कहाँ से आएगा, वह गर्व से हँसता हुआ मंदिर की ओर हाथ जोडकर बोला – यह धन – दौलत सब लक्ष्मी जी की ही तो कृपा है।‘  

जमींदार की बात सुन लक्ष्मी जी गहरी सोच में पड गईं।

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 124 ☆ अमेरिका में  छुट्टियाँ ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय आलेख  ‘अमेरिका में  छुट्टियाँ। इस विचारणीय आलेख के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 124 ☆

? अमेरिका में  छुट्टियाँ ?

अभी सालभर में मात्र  11 छुट्टियाँ अमेरिका में  है ।

इन छुट्टियों को  इस तरह डिज़ायन किया गया है  की कम छुट्टियों में याद सबको कर लिया जाए.

अमेरिका के सारे राष्ट्रपतियों की याद में प्रेसिडेंट डे मना लिया जाता है.

सिवल वार में शहीद हुये लोगों के लिए मेमोरीयल डे होता है.

सैनिकों को सम्मान देने के लिए वेटरन डे.

श्रम शक्ति के लिए लेबर डे , कोलंबस डे , मूल निवासी रेड इंडियन्स को धन्यवाद देने के लिए  थैंक्स गिविंग डे. क्रिसमस, न्यू year और स्वतंत्रता दिवस है ही.

इन छुट्टियो में भी कई फ़िक्स डेट में नहीं होतीं , बल्कि सोमवार या शुक्रवार को मना ली जाती हैं. जैसे कोलंबस डे 8 ऑक्टोबर से 14 के बीच जो सोमवार हो, उसमें माना जाएगा.  रविवार छुट्टी होती ही है  साथ में सोमवार भी छुट्टी हो गई तो  फ़ायदा यह होता है कि लोगों को लम्बा वीकेंड मिल जाता है,

इससे पर्यटन को भी बढ़ावा मिलता है ।

ईस्टर , गुड फ़्राइडे आदि की छुट्टी वहाँ नहीं होती ।

छुट्टियों के मामले में इतने न्यून दिवस वाले देश अमेरिका में संसद में विधेयक आया है कि दीपावली को राष्ट्रीय छुट्टी घोषित किया जाए.

यद्यपि हिंदू अमेरिका में बमुश्किल 1 % हैं , पर सांसद का तर्क है कि दीवाली विश्व का त्योहार है. बुराई पर अच्छाई की जीत, अंधेरे पर उजाले की जीत.

अतः , हर अमेरिकन को यह रोशनी का पर्व मनाना चाहिए.

 

अमेरिका इसीलिए विश्व मे सर्वोच्च है क्योंकि वे अच्छी बात सीखने और स्वीकार करने में नहीं हिचकते. सारी दुनिया की अच्छाई स्वीकार कर उसे अमेरिकन कर देते हैं.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 75 ☆ रिव्यू के व्यू ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “रिव्यू के व्यू”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 75 – रिव्यू के व्यू

आजकल किसी भी कार्य की गुणवत्ता उसकी रेटिंग के आधार पर तय होती है। लोगों ने क्या रिव्यू दिया ये सर्च करना कोई नहीं भूलता। इसे साहित्यकारों की भाषा में समीक्षा कह सकते हैं। हमारे कार्यो को कसौटी पर कसा जाता है। हम लोग तो भगवान श्रीराम व श्रीकृष्ण तक के गुण दोषों का आँकलन करने से नहीं चूकते तो भला इंसानी गतिविधियों को कैसे छोड़ दें।

वैसे इसका सबसे अधिक उपयोग पार्सल वाली सर्विसेज में होता है।कोई होटल सर्च करने से लेकर कपड़े, किताबें, ट्रैवेल एजेंसी या खाना मंगवाना आदि में पहले लोगों के विचारों को पढ़ते हैं कितनी रेटिंग मिली है उसी आधार पर दुकानों का चयन होता है। मजे की बात है कि डॉक्टर व हॉस्पिटल भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। मैंने एक डॉक्टर का नाम जैसे ही गूगल पर  डाला तो सैकड़ों कमेंट उसकी बुराइयों में आ गए, पर मन तो बेचारा है वो वही करता है जो ठान ले। बस फिर क्या उसी के पास पहुँच गए दिखाने के लिए। बहुत सारी जाँचों के बाद ढेर सारी दवाइयाँ लिखी गयीं पर सब बेअसर क्योंकि डॉक्टर रोग को समझ ही नहीं पाए थे। तब जाकर समझ में आया कि रेटिंग की वेटिंग पीछे थी और रिव्यू कमजोर थे पर अब तो रिस्क ले लिया था सो मन मार कर रह गए।

ऐसा ही पुस्तकों के सम्बंध में भी होता है, जिसकी ज्यादा चर्चा हो उसे ही अमेजॉन से आर्डर कर दिया जाता है। सबसे ज्यादा बिकनी वाली पुस्तकें व उसके लेखक सचमुच योग्य होते हैं। बेचने की कला ने ही विज्ञापन को जन्म दिया है और उसे खरीदने पर विवश हो जाना वास्तव में समीक्षा का ही कमाल होता है।

पत्र पत्रिकाओं में सबसे पहले लोग पुस्तक चर्चा ही पढ़ते थे। अपनी तारीफ करवाने हेतु बूस्ट पोस्ट कोई नई बात नहीं है। आखिर जब तक लोगों को जानकारी नहीं होगी वे कैसे सही माल खरीदेंगे। साहित्य में तो आलोचना का विशेष महत्व है कई लोग स्वयं को आलोचक के रूप में स्थापित करके ही आजतक विराजित हैं। जब चिंतन पक्ष में हो तो समीक्षा की परीक्षा अच्छी लगती हैं किंतु जब विपक्ष में बैठना पड़े तो मन कसैला हो जाता है। खैर जो भी  हो गुणवत्ता का ध्यान सभी को अवश्य रखना चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 94 – लघुकथा – विजय ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “विजय।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 94 ☆

☆ लघुकथा — विजय ☆ 

“पापाजी! आपके पास इतनी रीवार्ड पड़े हैं, आप इनका उपयोग नहीं करते हो?”

“बेटी! मुझे क्या खरीदना है जो इनका उपयोग करुँ,” कहते हुए पापाजी ने बेटी की अलमारी में भरे कपड़े, सौंदर्य प्रसाधन वाले सामान के ढेर को कनखियों से देखा। जिनमें से कई एक्सपायर हो चुके थे।

“इनमें 25 से लेकर 50% की बचत हो रही है। हम इसे दूसरों को बेचकर 50% कमा सकते हैं।”

” हूं।” धीरे से करके पापाजी रुक गए।

तब बेटी ने कहा,” आप मुझे अपना फोन दीजिए। मैं आपको 50% की बचत करके देती हूं।”

” मेरे लिए कुछ मत मंगवाना। मुझे बचत नहीं करना है,” पापाजी ने जल्दी से और थोड़ी तेज आवाज में कहा,” मैं इतनी सारी बचत कर के कहां संभालता फिरूंगा।”

यह सुनते ही बेटी का पारा चढ़ गया, ” पापाजी, आप भी ना, रहे तो पुराने ही ख्यालों के। आप को कौन समझाए कि ऑनलाइन शॉपिंग से कितना कमा सकते हैं?”

” हां बेटी, तुम सही कहती हो। पुराने जमाने के हम लोग यह सब करते नहीं हैं, नए जमाने वाले सभी यही सोचते हैं कि वे खरीदारी करके 50% कमा रहे हैं,” कहते हुए पापा जी ने बेटी को अपना मोबाइल पकड़ा दिया, ” बेटी, तुझे जो उचित लगे वह मंगा लेना। मुझे तो अब इस उम्र में कुछ बचाना नहीं है।”

कहकर पापाजी एकांतवास में चले गए।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

29-09-2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 84 ☆ गीत – बीते बचपन की यादें ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  एक भावप्रवण गीत  “बीते बचपन की यादें

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 84 ☆

☆ गीत – बीते बचपन की यादें ☆ 

धूप गुनगुनी बैठे छत पर

      सेंक रहे इकले नाना।

बीते बचपन की यादों का

    है सुंदर छिपा खजाना।।

 

गाँव था अलबेला – सा अपना

     जिसमें थी पेड़ों की छइयाँ।

गौधूलि में कितनी ही आतीं

    बैल, भैंस , बकरी औ गइयाँ।

 

फूस – छप्परों के घर सबके

   क्या सुखद था इक जमाना।

बीते बचपन की यादों का

     है सुंदर छिपा खजाना।।

 

संगी – साथी , कुआ , बाबड़ी

     घने नीम की छाँव भली।

आमों के थे बाग – बगीचे

      धुर देहाती गाँव – गली।

 

याद रहा अट्टे की छत पर

      नभ के नीचे सो जाना।

बीते बचपन की यादों का

    है सुंदर छिपा खजाना।।

 

राखी औ’ सावन के झूले

     त्योहारों की धूम निराली।

पथबारी की पूजा रौनक

     बजते थे डमरू औ’ थाली।

 

लोकगीत में मस्त मगन हो

     नाच – कूद होता गाना।

बीते बचपन की यादों का

    है सुंदर छिपा खजाना।।

 

मिट्टी के गुड़िया – गुड्डों का

    मिलजुल करके ब्याह रचाए।

इक्का, ताँगा, रेढू गाड़ी

    दुल्हन घूँघट से शरमाए।

 

ढपर – ढपर से बैंड साज पर

     घोड़ी ठुम – ठुम नचकाना।

बीते बचपन की यादों का

     है सुंदर छिपा खजाना।।

 

झर लग जाते वर्षा के जब

     छतें टपाटप थी करतीं।

चौपालों में करें मसखरी

    राग – मल्हारें थीं गवतीं।

 

टूटा घर अब हुआ खंडहर

     बस केवल आज फ़साना।

बीते बचपन की यादों का

      है सुंदर छिपा खजाना।।

 

ढकीमीचना , कंचा – गोली

      गिल्लीडंडा औ’ गेंदतड़ी।

खिपड़े खूब नचा सरवर में

       जल बर्षा में नाव पड़ी।

 

अ आ इ ई ऊ लिखें पहाड़े

      शेष बचा ताना – बाना।।

बीते बचपन की यादों का

     है सुंदर छिपा खजाना।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 86 – मला वाटले.. ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #86 ☆ 

☆ मला वाटले.. ☆ 

मला वाटले, भेटशील एकदा नंतर नंतर

कळले नाही, कसले तूझे हे जंतरमंतर…!

 

येते म्हणाली, होतीस तेव्हा जाता जाता

किती वाढले, दोघांमधले अंतर अंतर…!

 

रोज वाचतो, तू दिलेली ती पत्रे बित्रे

भिजून जाते, पत्रांमधले अक्षर अक्षर…!

 

तूला शोधतो, अजून मी ही जिकडेतिकडे

मला वाटते, मिळेल एखादे उत्तर बित्तर…!

 

स्वप्नात माझ्या, येतेस एकटी रात्री रात्री

नको वाटते, पहाट कधी ही रात्री नंतर…!

 

उभा राहिलो, ज्या वाटेवर एकटा एकटा

त्या वाटेचाही, रस्ता झाला नंतर नंतर…!

 

विसरून जावे, म्हणतो आता सारे सारे

कुठून येते, तूझी आठवण नंतर नंतर…!

 

मला वाटले, भेटशील एकदा नंतर नंतर

कळले नाही, कसले तूझे हे जंतरमंतर…!

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #106 – प्रकाश की ओर….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी  एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय लघुकथा  “प्रकाश की ओर…..”। )

☆  तन्मय साहित्य  #106 ☆

☆ प्रकाश की ओर…..

“यार चंदू! इन लोगों के पास इतने सारे पैसे कहाँ से आ जाते हैं, देख न कितने सारे पटाखे बिना जलाये यूँ ही छोड़ दिए हैं। ये लछमी माता भी इन्हीं पर क्यों, हम गरीबों पर मेहरबान क्यों नहीं होती”

दीवाली की दूसरी सुबह अधजले पटाखे ढूँढते हुए बिरजू ने पूछा।

“मैं क्या जानूँ भाई, ऐसा क्यों होता है हमारे साथ।”

“अरे उधर देख वो ज्ञानू हमारी तरफ ही आ रहा है , उसी से पूछते हैं, सुना है आजकल उसकी बस्ती में कोई मास्टर पढ़ाने आता है तो शायद इसे पता हो।”

“ज्ञानु भाई ये देखो! कितने सारे पटाखे जलाये हैं इन पैसे वालों ने। ये लछमी माता इतना भेदभाव क्यों करती है हमारे साथ बिरजू ने वही सवाल दोहराया।”

“लछमी माता कोई भेदभाव नहीं करती भाई! ये हमारी ही भूल है।”

“हमारी भूल? वो कैसे हम और हमारे अम्मा-बापू तो कितनी मेहनत करते हैं फिर भी…”

“सुनो बिरजू! लछमी मैया को खुश करने के लिए पहले उनकी बहन सरसती माई को मनाना पड़ता है।”

“पर सरसती माई को हम लोग कैसे खुश कर सकते हैं” चंदू ने पूछा।

“पढ़ लिखकर चंदू। सुना तो होगा तुमने, सरसती माता बुद्धि और ज्ञान की देवी है। पढ़ लिख कर हम अपनी मेहनत और बुद्धि का उपयोग करेंगे तो पक्के में लछमी माता की कृपा हम पर भी जरूर होगी।”

पर पढ़ने के लिए फीस के पैसे कहाँ है बापू के पास हमें बिना फीस के पढ़ायेगा कौन?”

“मैं वही बताने तो आया हूँ तम्हे, हमारी बस्ती में एक मास्टर साहब पढ़ाने आते है किताब-कॉपी सब वही देते हैं, चाहो तो तुम लोग भी उनसे पढ़ सकते हो।”

चंदू और बिरजू ने अधजले पटाखे एक ओर पटके और ज्ञानु की साथ में चल दिए।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है।  अब आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

“असहमत ” से दूसरी मुलाकात मोबाइल स्टोर में हुई. हमने जिज्ञासावश पूछ लिया क्या नया मोबाइल फोन लेने आये हो जिसका नाम अब स्मार्ट फोन हो गया है.

जवाब : देखिये सर आजकल तो हर राहचलता स्मार्ट फोन रख रहा है तो अगर स्मार्ट फोन रखने से स्मार्टनेस आती तो क्या बात होती.

हमने कहा कि भाई ये फोन के लिये उपयोग में आ रही शब्दावली है. आदमी तो वही है, बदला नहीं है. गुडमॉर्निंग गुड नाईट क्या पहले नहीं होते थे, जन्मदिन पर बधाई फोन पर कब कब और किस किस को दिया करते थे, निधन की RIP का संदेश हर जाने अनजाने को किस लिये देते हैं जबकि न तो मृतक उन्हें पढ़ सकता न ही उसके परिजनों को ये संदेश सांत्वना दे पाते हैं.

जन्मदिन पर किसी अज़ीज दोस्त से चंद मिनिट हंसी मजाक कर लेना या उसको बर्थडे पार्टी के लिये मजबूर करने और फिर मित्रों की चंडाल चौकड़ी के साथ पार्टी सेलीब्रेट करने का आनंद ही अलग है जो ये वाट्सएपी फोन कभी नहीं समझ पायेंगे.

वाट्सएप नामक मृगमरीचिका की तो बात ही अलग है. जब तक आदमी इससे अनजान रहता है, बड़ा शांत, स्थिरचित्त और आनंदमय रहता है. पर जैसे ही वो इस एप के मकड़जाल में घुसा तो उसकी स्थिति “अभिमन्युः ” हो जाती है. पहले सुप्रभात फिर बधाई और सांत्वना और फिर गूगल से कॉपी कर कर के विद्वत्ता झाड़ने का शौक उसमें दोस्तों और परिचितों को लाईक के आधार पर वर्गीकृत करने की आदत विकसित कर देता है. लगता यही है कि ये मोबाइल क्रांति पहले तो नयापन को समझने की प्रकृति प्रदत्त उत्सुकता के चलते लोगों को पास लाती है और वे ये छद्मवादी समीपता का आनंद लेते रहते हैं पर धीरे धीरे नयेपन के प्रति आकर्षण उसी तरह कम हो जाता है जैसे…..  के प्रति आकर्षण. फिर वही स्वाभाविक मानवीय दुर्बलतायें हावी होने लगती हैं जो पास आये दिलों के दूर जाने के बहाने बन जाती हैं. चूंकि मुलाकातें होती नहीं हैं या बहुत कम होती हैं तो गलतफहमियों के दूर होने की संभावनायें जो कि मिलने से संभव हो पातीं, अब तकनीकी दौर में कम हो जाती हैं.

फोन से दोस्तियां बनती नहीं हैं बल्कि दोस्तियों में गर्मजोशी की आंच ठंडी होने के ज्यादा चांसेस रहते हैं. हर संबंध चाहे वो दोस्ती हो या प्रेम आंखों के मिलने से, एक दूसरे की धड़कनों के स्पंदन को महसूस करने से पक्का होता है. मीडिया या टेक्नालाजी पर सिर्फ फ्रॉड और धोखाधड़ी ही हो पाते हैं. शायद इसलिए ही ये गीत सालों पहले लिख दिया गया कि “दिल का मुआमला है कोई दिल्लगी नहीं ” इस दिल्लगी शब्द में टेक्नालाजी भी जोड़ना मुनासिब होगा क्योंकि ये  गीत लिखने के उस दौर में टेक्नालाजी शब्द का प्रचलन नहीं था.

यार, आदरणीय असहमत जी हम तो आपको हास परिहास के लिये ढूंढ़ते हैं और आप बड़ी बड़ी गहरी बातें कर जाते हो, पता नहीं वो ये सब पसंद करते भी हैं या “छोटा मुँह बड़ी बात ” का सिक्सर मारकर बॉल बाउंड्री के पार भेज देते हैं.

“असहमत” ने अंत में बड़ी बात कह दी कि “देखिये सर, अगर मुझसे दोस्ती की है तो मेरी छाया याने ‘असहमति’ से मत डरिये”.आप वही करिये जो दिल को सही लगे.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक- १४ – भूतान – सौंदर्याची सुरेल तान-भाग ४ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

✈️ मी प्रवासीनी ✈️

☆ मी प्रवासिनी  क्रमांक- १४ – भाग ४ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️भूतान – सौंदर्याची सुरेल तान – भाग ४ ✈️

भूतानच्या विशिष्ट भौगोलिक स्थानामुळे भूतानमध्ये अनोखे जैववैविध्य आहे. अनेक प्रकारच्या वनस्पती, बेंगाल टायगर, रेड पांडा, सुसरी- मगरी, रानटी म्हशी, अनेक प्रकारचे दुर्मिळ पक्षी इथे आढळतात. रक्तवर्णी पिजंट, हिमालयीन कावळा म्हणजे रॅवन अशा अनेकांचे दर्शन आम्हाला म्युझियममधील शोकेसमध्ये झाले. या छोट्याशा देशाचा ६० टक्के भाग संरक्षित जंगलांनी व्यापलेला आहे. इथल्या निसर्ग आणि प्राणी संपदेचा अभ्यास करण्यासाठी जगभरचे पर्यावरणतज्ज्ञ, शास्त्रज्ञ भूतानला आवर्जून भेट देतात.

बौद्ध हा प्रमुख धर्म असलेल्या भूतानमध्ये लोकशाही पद्धतीचे राज्य असले तरी अजूनही लोकांच्या मनात राजा व राजघराणे यांच्याविषयी कमालीचा आदर व श्रद्धा आहे. मातृसत्ताक पद्धती असल्यामुळे सर्वत्र स्त्री राज्य आहे. प्रत्येक दुकानाच्या काउंटरवर, रेस्टॉरन्टच्या काउंटरवर स्त्रिया असतात. विणकाम, रंगकाम, साफ-सफाई सारी कामे स्त्रिया करतात. पारंपारिक पद्धतीनुसार जमिनीची मालकी कुटुंबातल्या स्त्रीकडे असते. लग्नानंतर पती, पत्नीच्या घरी राहायला येतो व तिला घरकामात मदत करतो. लग्नानंतर पटले नाही तर स्त्री सहजतेने नवऱ्याला घटस्फोट देऊ शकते. त्यामुळे अनेक लग्न, अनेक मुले अशी परिस्थिती असते. पण कुटुंब ,समाज म्हणून त्यांचे जीवन सुखी समाधानी असते. शाळेत जाणाऱ्या मुला-मुलींपासून ऑफिसला जाणाऱ्या स्त्री पुरुषांपर्यंत सर्वजण पारंपरिक पेहराव करतात. कमरेपासून पायापर्यंत येणारे, सुंदर उठावदार डिझाइन्स व उजळ रंग असणारे लुंगी सारखे वस्त्र व त्यावर लांब हाताचे जाकीट अशा स्त्रियांच्या पोशाखाला किरा असे म्हणतात. पुरुषांचा ‘घो’ हा पोशाख गुडघ्यापर्यंत असतो .ते कातडी तळव्यांचे गुडघ्याइतके उंच बूट वापरतात.

भूतानी लोक बिनदुधाचा, मीठ घातलेला चहा पितात. त्याला सुजा म्हणतात. एकूणच भूतानी लोकांचे सपक जेवण आपल्या पसंतीस उतरत नाही. लाल, जाडसर तांदुळाचा भात आणि याकचे चीज गुंडाळून तळलेल्या मिरच्या आमच्या फारशा पचनी पडल्या नाहीत. डेझर्ट या जेवणानंतरच्या प्रकाराला भूतानमध्ये स्थान नाही. इथे सर्वत्र धूम्रपान बंदी आहे. सार्वजनिक स्वच्छता काटेकोरपणे जपली जाते. सगळे रस्ते चकाचक असतात. परंपरा, कला आणि धर्म यांची जोपासना कटाक्षाने केली जाते. भारतीय प्रवाशांना वेगळा व्हिसा घ्यावा लागत नाही. आपले निवडणूक ओळखपत्र पुरेसे होते. नूलटूम हे त्यांचे चलन भारतीय रुपयाशी जोडलेले आहे. त्यामुळे आपले रुपये सहज स्वीकारले जातात. धनुर्विद्या इथला राष्ट्रीय खेळ आहे. फुटबाल लोकप्रिय आहे आणि आता हळूहळू क्रिकेटचे वेडही आले आहे. हिमालयीन नद्यांच्या सुपीक खोऱ्यात भात, सफरचंद, अननस, संत्री यांचे उत्पादन होते. ॲल्युमिनियम, सिलिकॉन, जिप्सम, वीज यांची निर्यात होते. पर्यटन व्यवसाय वाढत आहे. शिक्षण आणि वैद्यकीय सेवा विनामूल्य आहे.

भूतान हा आनंदी, समाधानी लोकांचा देश समजला जातो. देशाची प्रगती ग्रास डोमेस्टिक प्रॉडक्टवर न मोजता ती ग्रास  नॅशनल हॅपिनेसवर मोजायची असा निर्णय भूतानचे राजे जिग्मे वांगचुक यांनी घेतला. भौतिक सुविधा व आत्मिक समाधान यांची योग्य सांगड घातली तर लोक सुखी होतील, आधुनिक सुधारणा अमलात आणायच्या पण देशाचे पाश्र्चात्यीकरण करायचे नाही असे हे धोरण आहे. उच्चशिक्षणासाठी परदेशी गेलेले तरुण मातृभूमीच्या ओढीने परत येतात. पण आता भूतान संथगतीने बदलत आहे. बाहेरच्या जगाची चव चाखलेली तरुणाई अनेक प्रश्न आणि मागण्या घेऊन उभी आहे. रात्री इथल्या डिस्कोथेकमध्ये, पबमध्ये तरुणाईचा आवाज घुमतो.कानठळ्या बसविणारे संगीत व पाश्चात्य वेशात नाचणारी तरुणाई असते. सिगारेटच्या धुराने ,मदिरेने डिस्कोथेक भरून जातात. ज्याप्रमाणे आपल्या तरुणाईला आता जुन्या काळात जगायला आवडणार नाही तसंच भुतानच्या तरुणाईला आचार, विचार, पोशाख यांचे आधुनिकीकरण हवे आहे. विकासाची गती अधिक हवी आहे. सर्वांचे ड्रेस सारखे असले तरी गरीब-श्रीमंत ही दरी तिथे आहेच! सारे जग प्रचंड गतीने बदलत असताना, फार काळ भूतान सुधारणांचे वारे पर्वतरांगाआड थोपवून धरू शकेल असं वाटत नाही.

 भूतान समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 7 – प्रश्न कर रहा फिर बेताल …☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है सजल “प्रश्न कर रहा फिर बेताल…”। अब आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 7 – प्रश्न कर रहा फिर बेताल … ☆ 

सजल

समांत-आल

पदांत- —

मात्राभार- 15

 

प्रश्न कर रहा फिर बेताल।

विपदा पर क्यों बढ़े दलाल।।

 

प्राणों पर संकट गहराया,

ऑक्सीजन पर मचा बवाल।

 

विश्वगुरु कहलाता जग में

देव धरा का कैसा हाल ।

 

दवा हुई दृष्टि से ओझल,

ब्लैक मार्केटिंग करे हलाल।

 

नक्कालों की तूती बोली,

जहर बेचकर हुए निहाल।

 

कोस रहे जो कुछ सत्ता को,

इन दुष्टों पर नहीं मलाल।

 

कुर्सी खातिर होड़ मची है,

फैलाते हैं नित भ्रमजाल।

 

मौत के देखो सौदागर ,

बढ़ा रहे जी का जंजाल।

 

देश जूझता है संकट से

जनता होती है बेहाल।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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