श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है।  अब आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

“असहमत ” से दूसरी मुलाकात मोबाइल स्टोर में हुई. हमने जिज्ञासावश पूछ लिया क्या नया मोबाइल फोन लेने आये हो जिसका नाम अब स्मार्ट फोन हो गया है.

जवाब : देखिये सर आजकल तो हर राहचलता स्मार्ट फोन रख रहा है तो अगर स्मार्ट फोन रखने से स्मार्टनेस आती तो क्या बात होती.

हमने कहा कि भाई ये फोन के लिये उपयोग में आ रही शब्दावली है. आदमी तो वही है, बदला नहीं है. गुडमॉर्निंग गुड नाईट क्या पहले नहीं होते थे, जन्मदिन पर बधाई फोन पर कब कब और किस किस को दिया करते थे, निधन की RIP का संदेश हर जाने अनजाने को किस लिये देते हैं जबकि न तो मृतक उन्हें पढ़ सकता न ही उसके परिजनों को ये संदेश सांत्वना दे पाते हैं.

जन्मदिन पर किसी अज़ीज दोस्त से चंद मिनिट हंसी मजाक कर लेना या उसको बर्थडे पार्टी के लिये मजबूर करने और फिर मित्रों की चंडाल चौकड़ी के साथ पार्टी सेलीब्रेट करने का आनंद ही अलग है जो ये वाट्सएपी फोन कभी नहीं समझ पायेंगे.

वाट्सएप नामक मृगमरीचिका की तो बात ही अलग है. जब तक आदमी इससे अनजान रहता है, बड़ा शांत, स्थिरचित्त और आनंदमय रहता है. पर जैसे ही वो इस एप के मकड़जाल में घुसा तो उसकी स्थिति “अभिमन्युः ” हो जाती है. पहले सुप्रभात फिर बधाई और सांत्वना और फिर गूगल से कॉपी कर कर के विद्वत्ता झाड़ने का शौक उसमें दोस्तों और परिचितों को लाईक के आधार पर वर्गीकृत करने की आदत विकसित कर देता है. लगता यही है कि ये मोबाइल क्रांति पहले तो नयापन को समझने की प्रकृति प्रदत्त उत्सुकता के चलते लोगों को पास लाती है और वे ये छद्मवादी समीपता का आनंद लेते रहते हैं पर धीरे धीरे नयेपन के प्रति आकर्षण उसी तरह कम हो जाता है जैसे…..  के प्रति आकर्षण. फिर वही स्वाभाविक मानवीय दुर्बलतायें हावी होने लगती हैं जो पास आये दिलों के दूर जाने के बहाने बन जाती हैं. चूंकि मुलाकातें होती नहीं हैं या बहुत कम होती हैं तो गलतफहमियों के दूर होने की संभावनायें जो कि मिलने से संभव हो पातीं, अब तकनीकी दौर में कम हो जाती हैं.

फोन से दोस्तियां बनती नहीं हैं बल्कि दोस्तियों में गर्मजोशी की आंच ठंडी होने के ज्यादा चांसेस रहते हैं. हर संबंध चाहे वो दोस्ती हो या प्रेम आंखों के मिलने से, एक दूसरे की धड़कनों के स्पंदन को महसूस करने से पक्का होता है. मीडिया या टेक्नालाजी पर सिर्फ फ्रॉड और धोखाधड़ी ही हो पाते हैं. शायद इसलिए ही ये गीत सालों पहले लिख दिया गया कि “दिल का मुआमला है कोई दिल्लगी नहीं ” इस दिल्लगी शब्द में टेक्नालाजी भी जोड़ना मुनासिब होगा क्योंकि ये  गीत लिखने के उस दौर में टेक्नालाजी शब्द का प्रचलन नहीं था.

यार, आदरणीय असहमत जी हम तो आपको हास परिहास के लिये ढूंढ़ते हैं और आप बड़ी बड़ी गहरी बातें कर जाते हो, पता नहीं वो ये सब पसंद करते भी हैं या “छोटा मुँह बड़ी बात ” का सिक्सर मारकर बॉल बाउंड्री के पार भेज देते हैं.

“असहमत” ने अंत में बड़ी बात कह दी कि “देखिये सर, अगर मुझसे दोस्ती की है तो मेरी छाया याने ‘असहमति’ से मत डरिये”.आप वही करिये जो दिल को सही लगे.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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