श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “रिव्यू के व्यू”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 75 – रिव्यू के व्यू

आजकल किसी भी कार्य की गुणवत्ता उसकी रेटिंग के आधार पर तय होती है। लोगों ने क्या रिव्यू दिया ये सर्च करना कोई नहीं भूलता। इसे साहित्यकारों की भाषा में समीक्षा कह सकते हैं। हमारे कार्यो को कसौटी पर कसा जाता है। हम लोग तो भगवान श्रीराम व श्रीकृष्ण तक के गुण दोषों का आँकलन करने से नहीं चूकते तो भला इंसानी गतिविधियों को कैसे छोड़ दें।

वैसे इसका सबसे अधिक उपयोग पार्सल वाली सर्विसेज में होता है।कोई होटल सर्च करने से लेकर कपड़े, किताबें, ट्रैवेल एजेंसी या खाना मंगवाना आदि में पहले लोगों के विचारों को पढ़ते हैं कितनी रेटिंग मिली है उसी आधार पर दुकानों का चयन होता है। मजे की बात है कि डॉक्टर व हॉस्पिटल भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। मैंने एक डॉक्टर का नाम जैसे ही गूगल पर  डाला तो सैकड़ों कमेंट उसकी बुराइयों में आ गए, पर मन तो बेचारा है वो वही करता है जो ठान ले। बस फिर क्या उसी के पास पहुँच गए दिखाने के लिए। बहुत सारी जाँचों के बाद ढेर सारी दवाइयाँ लिखी गयीं पर सब बेअसर क्योंकि डॉक्टर रोग को समझ ही नहीं पाए थे। तब जाकर समझ में आया कि रेटिंग की वेटिंग पीछे थी और रिव्यू कमजोर थे पर अब तो रिस्क ले लिया था सो मन मार कर रह गए।

ऐसा ही पुस्तकों के सम्बंध में भी होता है, जिसकी ज्यादा चर्चा हो उसे ही अमेजॉन से आर्डर कर दिया जाता है। सबसे ज्यादा बिकनी वाली पुस्तकें व उसके लेखक सचमुच योग्य होते हैं। बेचने की कला ने ही विज्ञापन को जन्म दिया है और उसे खरीदने पर विवश हो जाना वास्तव में समीक्षा का ही कमाल होता है।

पत्र पत्रिकाओं में सबसे पहले लोग पुस्तक चर्चा ही पढ़ते थे। अपनी तारीफ करवाने हेतु बूस्ट पोस्ट कोई नई बात नहीं है। आखिर जब तक लोगों को जानकारी नहीं होगी वे कैसे सही माल खरीदेंगे। साहित्य में तो आलोचना का विशेष महत्व है कई लोग स्वयं को आलोचक के रूप में स्थापित करके ही आजतक विराजित हैं। जब चिंतन पक्ष में हो तो समीक्षा की परीक्षा अच्छी लगती हैं किंतु जब विपक्ष में बैठना पड़े तो मन कसैला हो जाता है। खैर जो भी  हो गुणवत्ता का ध्यान सभी को अवश्य रखना चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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