हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 40 – मिल गया, जिन्दगी का सहारा मुझे… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – मिल गया, जिन्दगी का सहारा मुझे।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 40 – मिल गया, जिन्दगी का सहारा मुझे… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

मुस्कुराकर जो तुमने निहारा मुझे 

मिल गया आशिकी का इशारा मुझे

*

टूटकर मैं बिखरने लगा था, तभी 

जाने क्यों, आपने फिर सँवारा मुझे

*

करके बर्बाद तुमने, निरंतर दिया 

अपनी यादों का ‘भत्ता गुजारा’ मुझे

*

आज लोगों ने कितनी खुशी बक्श दी 

नाम के सँग तुम्हारे, पुकारा मुझे

*

एक दूजे का विश्वास, हम बन गये 

मिल गया, जिन्दगी का सहारा मुझे

*

प्यार का सिन्धु, आगोश में ले चुका 

चाहता हूँ मिले ना किनारा मुझे

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से…  – गोपालदास और श्री कृष्ण ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  गोपालदास और श्री कृष्ण)

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – गोपालदास और श्री कृष्ण ?

एक राहगीर सड़क पर चल रहा था। अभी दोपहर का समय था। धूप सिर पर थी। पर ठंडी के दिन थे तो चलने वाले राहगीर को कष्ट नहीं हो रहा था। सड़क भी अच्छी और नई बनी हुई थी। खास लोगों का आना -जाना न हो रहा था। एकाध गाड़ी कभी पास से गुज़र जाती अन्यथा सड़क सूनी ही थी। राहगीर को अपने गाँव पहुँचना था। वह भी गति बनाकर चल रहा था।

इतने में उसके पास आकर एक गाड़ी रुकी। गाड़ी चालक ने मधुर स्वर में राहगीर से गाड़ी में बैठने को कहा। वह बोला – आओ मित्र गाड़ी में बैठो । कहाँ जाना है? मैं उतार दूँगा वहाँ। उसके मुख पर मुस्कान थी।

राहगीर थोड़ा हक्का-बक्का रह गया। फिर संभलकर बोला – नहीं साहब, पूछने के लिए शुक्रिया। मैं थोड़ी देर में पहुँच जाऊँगा। पास ही है मेरा गाँव।

पर चालक अपनी ज़िद पर अड़ा रहा बोला

– अरे आ जाओ दोस्त, मैं द्वारिका तक जा रहा हूँ। बीच में तुम्हें जहाँ जाना हो उतार दूँगा। घबराओ नहीं यहाँ से पोरबंदर अभी पंद्रह किलोमीटर है। आओ बैठो।

उसने अब दरवाज़ा खोल दिया। राहगीर सिमटकर सीट पर बैठ गया। अब दोनों साथ बैठे तो गाड़ी चल पड़ी। राहगीर ने गाड़ी में बैठते ही साथ कहा “कृष्णा कृष्णा। “

चालक ने पूछा – तुम्हारा नाम क्या है मित्र?

– गोपालदास।

– कहाँ जा रहे हो ?

– पोरबंदर

– सुदामा के गाँव?

– जी हमारा पूरा कुनबा आज कई वर्षों से यहीं रहता आ रहा है।

– आप द्वारिका में रहते हैं?

– नहीं, कभी रहा करता था। सुना है अब पनडुब्बियों में बिठाकर हज़ारों वर्ष पुराना कृष्ण नगरी की समुंदर में सैर करने की व्यवस्था की जा रही है। बस वही सब देखने का उत्साह है।

– हाँ साहब सुना है कि समुंदर के नीचे स्वर्ण नगरी द्वारका मिली है।

– पोरबंदर अभी बीस – पच्चीस मिनिट में पहुँच जाएँगे। तुमने बैठते ही साथ कृष्णा का नाम क्यों लिया?

– वे हमारे आराध्य हैं साहब । हम सब उसी को पूजते हैं।

– पर वह तो चोर था, मक्खन चुराता था, गोपियों के मटके फोड़ता था। कालिया को उसने मारा था फिर अपने मामा कंस को भी मारा। साथ में महाभारत के भीषण युद्ध में भी रथ पर सवार सारी लड़ाई का खेल देखता रहा। उसके तो कई अवगुण थे।

– साहब गाड़ी रोको।

– क्यों ? क्या हुआ?

– हम अपने आराध्य के विरुद्ध एक शब्द नहीं सुन सकते। मुझे उतार दीजिए साहब। मैं उसी का मनन करते हुए घर पहुँच जाऊँगा।

– अरे क्षमा करो मित्र ! तुम्हें आहत करना मेरा उद्देश्य न था। मैं तो उसके अवगुणों के बारे में ही अधिक जानता हूँ।

– तो गलत जानते हो। राहगीर क्रोधित होकर बोला। – कृष्ण पालनहार हैं। संसार से बुराइयों को दूर करने के लिए ही उनका जन्म हुआ था। एक बार गीता पढ़ लो साहब सकारात्मक सोच पैदा हो जाएगी। फिर कृष्ण के अवगुण भूल जाओगे। आप गाड़ी वाले अधूरा ज्ञान रखते हैं। सच क्या है यह भी तो जानिए।

– वाह! हज़ारों साल बाद भी कृष्ण के प्रति तुम्हारी आस्था देखकर आनंद आया। क्षमा करो मित्र मैंने अनजाने में तुम्हें आहत किया।

अब उसने गाड़ी रास्ते के किनारे लगाई और बोला – लो बातों – बातों में तुम्हारा गाँव आ गया।

– धन्यवाद साहब। आपने अपना नाम नहीं बताया?

– मेरा नाम कृष्ण है।

राहगीर गाड़ी से उतरने लगा बोला – कृष्ण नाम है और तब भी कृष्ण के गुणों के बारे में नहीं जानते? आधुनिक दुनिया के पढ़े -लिखे लोग कृष्ण से कितने दूर हैं! गीता अवश्य पढ़िएगा।

गाड़ी से उतरकर दरवाज़ा बंद करने के लिए जब वह मुड़ा तो वहाँ कोई गाड़ी न थी। दूर दूर तक कोई दिखाई न दिया। न गाड़ी के पहियों के निशान थे। हाँ उस स्थान पर मोर का एक पंख अवश्य पड़ा था।

राहगीर गोपाल दास अपने घुटनों पर बैठ गया। मोर पंख को माथे से लगाकर फफक- -फफककर वह रोने लगा।

न जाने किस रूप में नारायण मिल जाएँ।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 116 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 116 – मनोज के दोहे… ☆

1 रतजगा

सैनिक करता रतजगा, सीमा पर है आज।

दो तरफा दुश्मन खड़े, खतरे में है ताज।।

2 प्रहरी

उत्तर में प्रहरी बना, खड़ा हिमालय राज।

दक्षिण में चहुँ ओर से, सागर पर है नाज।।

3 मलीन

मुख-मलीन मत कर प्रिये,चल नव देख प्रभात।

जीवन में दुख-सुख सभी, घिर आते अनुपात।।

4 उमंग

पुणे शहर की यह धरा, मन में भरे उमंग।

किला सिंहगढ़ का यहाँ, विजयी-शिवा तरंग।।

5 चुपचाप

महानगर में आ गए, हम फिर से चुपचाप।

देख रहे बहुमंजिला, गगन चुंबकी नाप ।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 259 ☆ व्यंग्य – घर की सरकार का बजट ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – घर की सरकार का बजट)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 259 ☆

? व्यंग्य – घर की सरकार का बजट ?

बतंगड़ जी मेरे पड़ोसी हैं। उनके घर में वे हैं, उनकी एकमेव सुंदर सुशील पत्नी है, बच्चे हैं। मैं उनके घर के रहन सहन परिवार जनो के परस्पर प्यार, व्यवहार का प्रशंसक हूं। जितनी चादर उतने पैर पसारने की नीति के कारण इस मंहगाई के जमाने में भी बतंगड़ जी के घर में बचत का ही बजट रहता है। परिवार में सदा सादा जीवन उच्च विचार वाली आदर्श आचार संहिता का सा वातावरण होता है। देश, प्रदेश में हर साल प्रस्तुत होते बजट, बजट के पूर्व एवं पश्चात टी वी डिबेट डिस्कशन का असर बतंगड़ जी के घर पर भी हुआ। बतंगड़ जी की पत्नी, और बच्चो के अवचेतन मस्तिष्क में लोकतांत्रिक भावनाये संपूर्ण परिपक्वता के साथ घर कर गई। उन्हे लगने लगा कि घर में जो बतंगड़ जी का राष्ट्रपति शासन चल रहा है जो नितांत अलोकतांत्रिक है। बच्चो को लगा उनके खर्चों में कटौती होती है। पत्नी को अपनी किटी पार्टी में बजट बढ़ोतरी की आवश्यकता याद आई।

बतंगड़ जी को अमेरिका से कंम्पेयर किया जाने लगा, जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकतांत्रिक सिद्धांतो की सबसे ज्यादा बात तो करता है पर करता वही है जो उसे करना होता है। बच्चो के सिनेमा जाने की मांग को उनकी ही पढ़ाई के भले के लिये रोकने की विटो पावर को चैलेंज किया जाने लगा, पत्नी की मायके जाने की मंहगी डिमांड बलवती हो गई। मुझे लगने लगा कि एंटी इनकंम्बेंसी फैक्टर बतंगड़ जी को कही का नही छोड़ेगा। अस्तु, एक दिन चाय पर घर की सरकार के लोकतांत्रिक स्वरूप को लेकर खुली बहस हई। महिला आरक्षण का मुद्दा गरमाया। संयोग वश मै भी तब बतंगड़ जी के घर पर ही था, मैने अपना तर्क रखते हुये भारतीय संस्कृति की दुहाई दी और बच्चो को बताया कि हमारे संस्कारो में विवाह के बाद पत्नी स्वतः ही घर की स्वामिनी होती है, बतंगड़ जी जो कुछ करते, कहते है उसमे उनकी मम्मी की भी सहमति होती है। पर मेरी बातें संसद में विपक्ष के व्यक्तव्य की तरह अनसुनी कर दी गई।

तय हुआ कि घर के सुचारु संचालन के लिये बजट बनाया जाए जिसे सभी सदस्यों की सहमति से पारित किया जाए। बजट प्रस्तुती हेतु बतंगड़ जी मुझसे सलाह कर रहे थे, तो आय से ज्यादा व्यय अनुमान देख मैने उन्हें बताया कि जब खर्च के लिये देश चिंता नही करता तो फिर आप क्यों कर रहे हैं ? देश विश्व बैंक से लोन लेता है, डेफिशिट का बजट बनाता है, आप भी लोन लेने के लिये बैंक से फार्म ले आयें। बतंगड़ जी के घर के बजट में बच्चो के मामा और बुआ जी के परिवार अपना प्रभाव स्थापित करने के पूरे प्रयास करते दिख रहे है, जैसे हमारे देश के बजट में विदेशी सरकारे प्रगट या अप्रगट हस्तक्षेप करती है। स्वतंत्र व निष्पक्ष आब्जरवर की हैसियत से बतंगड़ जी के दूसरे पड़ोसियो को भी बजट के डिस्कशन के दौरान उपस्थिति का बुलावा भेजा गया है।

 बजट पर बहस के नाम पर ही बतंगड़ जी के घर में रंगीनियो का सुमधुर वातावरण है, और हम सब उसका लुत्फ ले रहे हैं।

यूं भी बजट आश्वासनों का पुलिंदा ही तो होता है। घर की सरकार चलानी है तो बजट बनेगा। तय है कि विपक्ष अच्छे से अच्छे बजट को भी पटल पर रखे जाते ही बिना पढ़े ही उसे आम आदमी के लिये बोझ बढ़ाने वाला निरूपित करेगा। वोटर भी जानता है कि चुनावो वाले साल में बजट ऐसा होगा जिससे भले ही देश को लाभ न हो पर बजट बनाने वाली पार्टी को वोट जरूर मिलें।

शब्दो, परिभाषाओ में उलझा वोटर प्रतिक्रिया में कुछ न कुछ अच्छा बुरा कहेगा, ध्वनिमत से बजट पास भी हो जायेगा। पता नही कितना आबंटन उसी मद में खर्च होगा जिस के लिये निर्धारित किया जायेगा। पता नही कब कैसी विपदा आयेगी और सारा बजट धरा रह जायेगा, खर्च की कुछ नई ही प्राथमिकतायें बन जायेंगी, पर हर हाल में बजट की चर्चा और उम्मीद के सपने संजोये बजट हमेशा प्रतिक्षित रहेगा। बजट में योजना का प्रावधान ही जनता को आनंदित करने में सक्षम है। बजट प्रस्तुत होने के बाद भी जब जीवन में कोई क्रांतिकारी बदलाव नही ला पायेगा तो हम सब पागल अगले साल के बजट से उम्मींदें करने की गलतफहमियां पाल लेंगे। फिलहाल बतंगड़ जी के घर की सरकार के बजट की आहट से उन के दिल में शेयर बाजार के केंचुए की चाल की तरह धड़कने ऊपर नीचे होती दिख रही हैं, और उनकी पत्नी, बच्चो सहित कुछ आबंटन की आशा में प्रसन्न दिखती हैं।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 70 – देश-परदेश – हवाई यात्रा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 70 ☆ देश-परदेश – हवाई यात्रा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

यूरोप के देश फिनलैंड में अब हवाई यात्रा से पूर्व, यात्री का भी वजन लिया जाएगा, ताकि हवाई जहाज की कुल भार वाहक क्षमता से कुल वजन अधिक ना हो जाए।

वर्तमान में तो सिर्फ यात्री के सामान का ही वजन किया जाता हैं। उसमें भी इतनी परेशानी होती है। यात्रा से पूर्व सूटकेस के वजन को अनेकों बार चेक किया जाता है, कि कहीं तय वजन से अधिक तो नहीं हो गया हैं।

हमारे देश के लोग तो कपड़ों की कई लेयर पहनकर यात्रा करते है, ताकि सामान का वजन निर्धारित सीमा में रहें। यदि ठंडे स्थान पर जा रहे हैं, तो ओवरकोट/ शाल इत्यादि हाथ में पकड़े रहते हैं।

विदेश अध्ययन करने के लिए चयनित बच्चे तो कोर्स की सबसे मोटी पुस्तक भी हाथ में रखते है, ये कहते हुए यात्रा के समय अध्यन करना हैं।

हमे तो लग रहा है, आने वाले समय में व्यक्ति और सामान के वजन अनुसार किराया शुल्क तय होगा। इस प्रावधान से यात्री, यात्रा से कुछ समय पूर्व भोजन और जल भी नही ग्रहण करेंगे, ताकि किराया कम लगें।

हमारे जैसे यात्री जिनको एयरपोर्ट लाउंज में प्रायः निशुल्क भर पेट खाने की सुविधा प्राप्त है। जम कर मुफ्त की रोटियां तोड़ेंगे। ये भी हो सकता है, वजन हवाई जहाज में ही लिया जाय, ताकि  हेरा फेरी की संभावना नगण्य रहे।

जिम वाले भी हवाई यात्रा के लिए बहुत कम समय में वजन को कम करने के विशेष पैकेज परोसने लगेंगे। कार्यालय में कम वजन वालों को ही कार्यालय से संबंधित यात्रा में भेजा जाने लगेगा।

अब समय आ गया है, हम सब अपना वजन कम करें। खाने पीने पर नियंत्रण तो रखें साथ ही साथ मोबाईल के इस्तेमाल पर भी अंकुश रखें, क्योंकि मोबाईल के अधिक उपयोग से भी वजन बढ़ना तय होता हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 181 – लघुकथा – अखंड सुहागन ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा अखंड सुहागन”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 181 ☆

☆ लघुकथा 🚩अखंड सुहागन🚩 

सुहागन कहने से नारी का दमकता हुआ मुखड़ा माँथे पर तेज चमकती लाल बिंदी, माँग भरी सिंदूर की रेखा।

भवानी जगदंबा का मंदिर गुप्त नवरात्रि पर्व को जानने, समझने पूजन अर्चन करने सभी भक्त कतारों पर लगे भगवती की आराधना में लीन थे।

सखियों के साथ रश्मि जी, क्या कहें जैसा नाम वैसा रूप गुण और एक आकर्षक व्यक्तित्व की धनी। चेहरे पर तेज नैनों में ममता से भरी दो पुतलियां चारों तरफ निगाह… 🙏 सर्वे भवंतु सुखिनः की मनोकामना लिए सुहागले पूजन करने माँ भवानी के दरबार में पूरे विधि- विधान से पहुंच गई सखियों के साथ।

मंदिर प्रांगण में कई और भी मातृ- शक्तियों की टोलियाँ अपने-अपने समूह में सुहागले पूजा कर रही थी।

नारी की चंचलता और धरा की सुंदरता की कोई सीमा नहीं होती। पूजन का कार्यक्रम सभी सखियों के साथ विधि- विधान से हो रहा था।

आरती कर भोजन प्रसाद ग्रहण करने के समय!एक आकर्षक नयन  नक्श वाली महिला, रंग गहरा काला, एक झोली पर कुछ लाल चुनरियाँ और गोद में एक अबोध मासूम बच्ची लिए धीरे-धीरे पास आते दिखी।

चुनरियाँ ले लो, चुनरियाँ ले लो,माई सुहागन चुनरियाँ ले लो।मै भी एक सुहागन हूँ।

छोटे बड़े भिन्न-भिन्न साइज की लाल – लाल चुनरी सब सखियों का मन मोह रही थी।

अचानक रश्मि ने अपनी भोजन की थाली से मुँह में जाती कौर को रोक कर देखने लगी।

यह कैसी सुहागन न मांग में सिंदूर न माँथे पर बिन्दीं। गोद में बच्ची और दुआएँ सदा सुहागन दे रही। अपने को सुहागन बता रही है।

वह उसे बिना पलक झपकाए देखती रही। डिब्बों से पूरा भोजन प्रसाद देते… उसके मन में विचार उठ रहा था कि?? क्या इनके साथ सुहागले पूजा नहीं होती होगी।

चुनरी वाली महिला अपने आप में बोले जा रही थी…. मैं कब सुहागन बनी पता नहीं चला, परंतु गोद में बच्ची आने पर माँ जरूर बन गई।

आंँखें चार होते देर ना लगी। जयकारा लगाते सभी बस में बैठ गंतव्य घर की ओर चल पड़े। रश्मि ने माता भगवती से दोनों कर जोड़ चुपके से प्रार्थना करती दिखीं… गालों पर अश्रुं मोती लुढ़क आये।

हे जगदंबिके सब की झोली भरना🙏 सभी को खुश सुहागन रखना।

उनकी प्रार्थना और बस से दूर जाती आवाज… चुनरी ले लो माता की की चुनरी ले लो!!!!! आप भी इस बात पर विचार करें।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #224 ☆ परिपाठ… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 224 ?

☆ परिपाठ… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

जीव भांड्यात पडला

भांडे गॕसवर होते

आग देहाची या माझ्या

विस्तवाशी पक्के नाते

*

सखा हिरमुसलेला

शिट्टी वाजवी कूकर

परातीत पीठ पाणी

तव्यावरती भाकर

*

माझ्या हाताला चटके

त्याची भूक चाळवते

त्याला झुणका आवडे

बेसन मी कालवते

*

पहाटेला उठायाचे

रोजचाच परिपाठ

हाडे मोडती दिवसा

रात्री बिछान्याला पाठ

*

सुख दुःखाचा हा खेळ

त्याला संसार हे नाव

रुक्ष शब्दांनी केलेले

सारे लपवले घाव

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 176 – गीत – सुबह सुबह देखा है सपना…. ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका एक अप्रतिम गीत – सुबह सुबह देखा है सपना।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 176 – गीत  – सुबह सुबह देखा है सपना…  ✍

सुबह सुबह देखा है सपना

तेरी गोदी में सिर अपना।

अवचेतन में जो कुछ होता

वही स्वप्न में ढल जाता है

अंधे को दिख जाती दुनिया

पगविहीन भी चल जाता है।

ऐसा ही कुछ किस्सा अपना

सुबह सुबह देखा है सपना।

 *

कहते सपने वे सच होते

जो भी देखे जायें सबेरे

कितनी आँखें सच्ची होंगी

कितने लोग तुम्हें हैं घेरे।

अपना तो जीवन ही सपना

सुबह सुबह देखा है सपना

 *

सुबह सुबह देखा है सपना

तेरी गोदी में सिर अपना।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 175 – “एक चित्र बादल का…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  “एक चित्र बादल का...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 173 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “एक चित्र बादल का...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

सूरज की किरनों को

ऐसे मत टाँक री

फिसल रहा हाथों से

ईश का पिनाक री

 *

खुद की परछाईं जो

दुबिधा में छोटी है

उसको इतना छोटा

ऐसे मत आँक री

 *

ऐंठ रही धूप  तनिक

खड़ी कमर हाथ धरे

देखती दुपहरी को

ऊँची कर नाक  री

 *

एक चित्र बादल का

ऐसे दिखाई दे

ज्यों दबा दशानन हो

बाली की काँख री

 *

छाया छत से छूटी

टँगी दिखी छींके पर

लगा छींट छप्पर की

जा गिरी छमाक री

 *

घिर आई शाम धूप

फुनगी पर पहुँच गई

पीली उम्मीद बची

एक दो छटाँक री

 *

हौले हौले नभ में

उतर रहा चन्द्रमा

लगता है लटक रही

मैंदा की गाँकरी

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

06-02-2024 

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता # 224 ☆ “आम आदमी की फिक्र” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता – “आम आदमी की फिक्र)

☆ कविता  आम आदमी की फिक्र☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

हम और तुम

तुम और हम

शून्य में

आंखें गड़ाए 

टुकर टुकर

क्या ताक रहे हैं?

* *

हम और तुम

तुम और हम 

क्रांति और बदलाव

के नाम पर अजीब

अजीब हरकतें

क्यों करते जा रहे हैं?

* *

हम और तुम

तुम और हम

सच को झूठ

झूठ को सच कहकर

तरह तरह के

क्यों कयास लगा रहे हैं?

**

हम और तुम

तुम और हम

इन अजीब

हरकतों के दौरान

आम आदमी की

तकलीफों की

क्यों फिक्र नहीं कर रहे हैं?

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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