मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ मकर संक्रांत ☆ सुश्री उषा जनार्दन ढगे

सुश्री उषा जनार्दन ढगे

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

☆ ? मकर संक्रांत ? ☆ सुश्री उषा जनार्दन ढगे ☆ 

१४/०१/२०२२

-उत्तरायण-

 

नूतनवर्षी होई मकर राशीतून

ऋतूकाळात सूर्याचे संक्रमण

भारतवर्षी कापणीचा हंगाम

साजरा मकरसंक्रांत नामे सण…

 

सूर्यदेवामुळेच प्रारंभ होतसे

प्रतिदिनी सार्‍या जीवसृष्टीचा

करूनी आदराने सूर्यनमन

सण हा उपकृत करण्याचा…

 

घनघोर पानिपत रणसंग्राम

गमावले मावळ्यांनी स्वःप्राण

शोक कारणास्तव या करिती

सणात नारी काळे वस्र परिधान…

तीळगूळात भरूनी सामावतो

 

गुळाचा प्राकृत खास गोडवा

तीळगूळ घ्या..गोड गोड बोला

मधुवाणीने मनामनांत स्नेह वाढवा…!

 

© सुश्री उषा जनार्दन ढगे

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #126 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल – 12 – “निकलने नहीं दिया” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “निकलने नहीं दिया”)

? ग़ज़ल # 12 – “निकलने नहीं दिया” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ? 

मजबूरियों ने घर से निकलने न दिया,

नई आफ़त ने उनको मिलने न दिया।

 

चाहते तो  मौसम बदल सकता था,

हालात ने आग को सुलगने न दिया।

 

ग़मख़्वार सुबह से  बैठे थे इंतज़ार में,

कोरोना ख़ौफ़ ने उसे निकलने न दिया।

 

ज़ख्म ख़ूब खिले बंदिशों की तीरगी में,

हसरत-ए-वस्ल ने उन्हें भरने न दिया।

 

बहुत नाज़ुक हालत में रहे दिले बीमार,

करिश्मा-ए-मुहब्बत ने मरने न दिया।

 

तन्हाई की मेहंदी रूह तलक़ उतर गई,

आफ़तों ने रंगे इश्क़ उतरने न दिया।

 

मुहब्बत हुई मुकम्मल लम्बी जुदाई में,

बमुश्किल मिले फिर बिछड़ने न दिया।

 

जज़्ब हो गई दिल में साँसों की मानिंद,

काग़ज़ ने स्याही को निकलने न दिया।

 

उनकी नशीली नज़रों ने चलाए ऐसे तीर,

मेहबूब को फिर उसने संभलने न दिया।

 

माशूका हुई दिल से कुछ इस तरह नाचूर,

मजबूरियों ने उसे पहलू बदलने न दिया।

 

बहकते गए  नीमबाज़ आँखों के नशे में,

‘आतिश’ को फिर उसने संभलने न दिया।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा 63 ☆ गजल – ’पसीने से सिंचे बागों में ही नित फूल आते है’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “’पसीने से सिंचे बागों में ही नित फूल आते है’”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # काव्य धारा 63 ☆ गजल – ’पसीने से सिंचे बागों में ही नित फूल आते है’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

बिगड़ते है बहुत से काम सबके जल्दबाजी में

जो करते जल्दबाजी वे सदा जोखिम उठाते है।

हमेषा छल कपट से जिंदगी बरबाद होती है

जो होते मन के मैले, वे दुखी कल देखे जाते है।

बिना कठिनाइयों के जिंदगी नीरस मरूस्थल है

पसीनों से सिंचे बागों में ही नित फूल आते है।

किसी को कहाँ मालुम कि कल क्या होने वाला है

मगर क्या आज हो सकता समझ के सब बताते है।

जहां बीहड़ पहाड़ी, घाट, जंगल खत्म हो जाते

वहीं से सम सरल सड़कों के सुन्दर दृश्य आते है।

कभी भी वास्तविकतायें सुखद उतनी नहीं होती

कि जितने कल्पना में दृश्य लोगों को लुभाते हैं।

निकलना जूझ लहरों से कला है जिंदगी जीना

जिन्हें इतना नहीं आता उन्हीं को दुख सताते हैं।

वही रोते है रोना, भाग्य का अपने अनेकों से

परिस्थितियों को जो अनुकूल खुद न ढाल पाते है।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #75 – अपनी पड़ताल स्वयं करे ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #75 – अपनी पड़ताल स्वयं करे ☆ श्री आशीष कुमार

“दूसरों की आलोचना करने वालों को इस घटना को भी स्मरण रखना चाहिए।”

एक व्यक्ति के बारे में मशहूर हो गया कि उसका चेहरा बहुत मनहूस है। लोगों ने उसके मनहूस होने की शिकायत राजा से की। राजा ने लोगों की इस धारणा पर विश्वास नहीं किया, लेकिन इस बात की जाँच खुद करने का फैसला किया। राजा ने उस व्यक्ति को बुला कर अपने महल में रखा और एक सुबह स्वयं उसका मुख देखने पहुँचा। संयोग से व्यस्तता के कारण उस दिन राजा भोजन नहीं कर सका। वह इस नतीजे पर पहुंचा कि उस व्यक्ति का चेहरा सचमुच मनहूस है। उसने जल्लाद को बुलाकर उस व्यक्ति को मृत्युदंड देने का हुक्म सुना दिया।

जब मंत्री ने राजा का यह हुक्म सुना तो उसने पूछा,”महाराज! इस निर्दोष को क्यों मृत्युदंड दे रहे हैं? राजा ने कहा,”हे मंत्री! यह व्यक्ति वास्तव में मनहूस है। आज सर्वप्रथम मैंने इसका मुख देखा तो मुझे दिन भर भोजन भी नसीब नहीं हुआ। इस पर मंत्री ने कहा,”महाराज क्षमा करें, प्रातः इस व्यक्ति ने भी सर्वप्रथम आपका मुख देखा। आपको तो भोजन नहीं मिला, लेकिन आपके मुखदर्शन से तो इसे मृत्युदंड मिल रहा है।

अब आप स्वयं निर्णय करें कि कौन अधिक मनहूस है। “राजा भौंचक्का रह गया। उसने इस दृष्टि से तो सोचा ही नहीं था। राजा को किंकर्तव्यविमूढ़ देख कर मंत्री ने कहा, “राजन्! किसी भी व्यक्ति का चेहरा मनहूस नहीं होता। वह तो भगवान की देन है। मनहूसियत हमारे देखने या सोचने के ढंग में होती है।

आप कृपा कर इस व्यक्ति को मुक्त कर दें। राजा ने उसे मुक्त कर दिया। उसे सही सलाह मिली।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆☆ जांच कमेटी का बैठना ☆☆ श्री श्याम संकत

श्री श्याम संकत

(श्री श्याम संकत जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। स्वान्त: सुखाय कविता, ललित निबंध, व्यंग एवं बाल साहित्य में लेखन।  विभिन्न पत्र पत्रिकाओं व आकाशवाणी पर प्रसारण/प्रकाशन। रेखांकन व फोटोग्राफी में रुचि। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  कविता ‘जांच कमेटी का बैठना’

☆ कविता ☆ जांच कमेटी का बैठना ☆ श्री श्याम संकत ☆ 

जैसे बुधिया की भैंस

बैठ जाती है धम्म से

जैसे राम आसरे की कच्ची दीवार

बैठ गई इस बारिश में

वैसे ही, फिर बैठ गई है जांच कमेटी बीते साल बैठ गई थी

दुलारे की किराना दुकान की तरह

अब होगी जांच पड़ताल

कौन कसूरवार रहा, कौन चूका

किसने किया अपराध, गड़बड़ घोटाला देखेगी, परखेगी, जांचेगी

करेगी दूध पानी अलग-अलग

जो बैठ गई है जांच कमेटी

इसका बैठ जाना सबको पता चलता है

यह उठती कब है?

क्या लेकर, कोई नहीं जानता

बस ताजी खबर यही है कि 

फिर बैठ गई है जांच कमेटी

बुधिया की भैंस की तरह।

 

© श्री श्याम संकत 

सम्पर्क: 607, DK-24 केरेट, गुजराती कालोनी, बावड़िया कलां भोपाल 462026

मोबाइल 9425113018, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 116 ☆ प्रेम, प्रार्थना और क्षमा ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख प्रेम, प्रार्थना और क्षमा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 116 ☆

☆ प्रेम, प्रार्थना और क्षमा

प्रेम, प्रार्थना और क्षमा अनमोल रतन हैं। शक्ति, साहस, सामर्थ्य व सात्विकता जीवन को सार्थक व उज्ज्वल बनाने के उपादान हैं। मानव परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ कृति है और प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव उससे अपेक्षित है…यही समस्त जीव-जगत् की मांग है। प्रेम व करुणा पर्यायवाची हैं…एक के अभाव में दूसरा अस्तित्वहीन है। सो! प्रेम में अहिंसा व्याप्त है, जो करुणा की जनक है। जब इंसान को किसी से प्रेम होता है, तो वह उसका हित चाहता है; मंगल की कामना करता है। उस स्थिति में सबके प्रति हृदय में करुणा भाव व्याप्त रहता है और उसके पदार्पण करते ही स्नेह, सौहार्द, त्याग, सहनशीलता व सहानुभूति के भाव स्वतः प्रकट हो जाते हैं और अहं भाव विलीन हो जाता है। अहं मानव में निहित दैवीय गुणों का सबसे बड़ा शत्रु है। अहं में सर्वश्रेष्ठता का भाव सर्वोपरि है तथा करुणा में स्नेह, त्याग, समानता, दया व मंगल का भाव व्याप्त रहता है। सो! किसी के प्रति प्रेम भाव होने से हम उसकी अनुपस्थिति में भी उसके पक्षधर व उसकी ढाल बनकर खड़े रहते हैं। प्रेम दूसरों के गुणों को देख कर हृदय में उपजता है। इसलिए स्व-पर व राग-द्वेष आदि उसके सम्मुख टिक नहीं पाते और हृदय से मनोमालिन्य के भाव स्वत: विलीन हो जाते हैं। प्रेम नि:स्वार्थता का प्रतीक है तथा प्रतिदान की अपेक्षा नहीं रखता।

ईश्वर के प्रति श्रद्धा व प्रेम का भाव प्रार्थना कहलाता है, जिसमें अनुनय-विनय का भाव प्रमुख रहता है। श्रद्धा में गुणों के प्रति स्वीकार्यता का भाव विद्यमान रहता है। शुक्ल जी ने ‘श्रद्धा व प्रेम के योग को भक्ति की संज्ञा से अभिहित किया है।’ प्रभु की असीम सत्ता के प्रति श्रद्धा भाव रखते हुए मानव को सदैव उसके सम्मुख नत रहना अपेक्षित है; उसकी करुणा- कृपा को अनुभव कर उसका गुणगान करना तथा सहायता के लिए ग़ुहार लगाना– प्रार्थना कहलाता है। दूसरे शब्दों में यही भक्ति है। श्रद्धा किसी व्यक्ति के प्रति भी हो सकती है…यह शाश्वत सत्य है। जब हम किसी व्यक्ति में दैवीय गुणों का अंबार पाते हैं, तो मस्तक उसके समक्ष अनायास झुक जाता है।

प्रार्थना हृदय के वे उद्गार हैं, जो उस मन:स्थिति में प्रकट होते हैं; जब मानव हैरान-परेशान, थका-मांदा, दुनिया वालों के व्यवहार से आहत, आपदाओं से अस्त-व्यस्त व त्रस्त होकर प्रभु से मुक्ति पाने की ग़ुहार लगाता है। प्रार्थना के क्षणों में वह अपने अहं को मिटाकर उसकी रज़ा में अपनी रज़ा मिला देता है। उन क्षणों में अहं अर्थात् मैं और तुम का भाव विलीन हो जाता है और रह जाता है केवल सृष्टि-नियंता, जो सृष्टि अथवा प्रकृति के कण-कण में व्याप्त होता है। उस स्थिति में आत्मा व परमात्मा का तादात्म्य हो जाता है और उन अलौकिक क्षणों में स्व-पर व राग-द्वेष के भाव नदारद हो जाते हैं… सर्व- मांगल्य व सर्व-हिताय की भावना बलवती व प्रबल हो जाती है।

जहां प्रेम होता है, वहां क्षमा तो बिन बुलाए मेहमान की भांति स्वयं ही दस्तक दे देती है और अहं का प्रवेश वर्जित हो जाता है। सो! स्व-पर व अपने-पराये का प्रश्न ही कहाँ उठता है? किसी के हृदय को दु:ख पहुंचाने, बुरा सोचने व नीचा दिखाने की कल्पना बेमानी है। प्रेम के वश में मानव क्रोध व दखलांदाज़ी करने की सामर्थ्य ही कहां जुटा पाता है? वैसे संसार में सभी ग़लत कार्य क्रोध में होते हैं और क्रोध तो दूध के उबाल की भांति सहसा दबे-पांव दस्तक देता है तथा पल-भर में सब नष्ट-भ्रष्ट कर रफूचक्कर हो जाता है। वर्षों पहले के गहन संबंध उसी क्षण कपूर की मानिंद विलुप्त हो जाते हैं और अविश्वास की भावना हृदय में स्थायी रूप से घर कर लेती है। क्रोध अव्यवस्था फैलाता है तथा शांति भंग करना उसके बायें हाथ का खेल होता है। क्रोध की स्थिति में जन्म-जन्मांतर के संबंध टूट जाते हैं और इंसान एक-दूसरे का चेहरा तक देखना पसंद नहीं करता। सो! इससे निज़ात पाने का उपाय है…क्षमा अर्थात् दूसरों को मुआफ़ कर उदार हृदय से उन्हें स्वीकार लेना। इससे हृदय की दुष्प्रवृत्तियों व निम्न भावनाओं का शमन हो जाता है। इसलिए जैन संप्रदाय में ‘क्षमापर्व’ मनाया जाता है। यदि हमारे हृदय में किसी के प्रति दुष्भावना व शत्रुता है, तो उस से क्षमा याचना कर दोस्ताना स्थापित कर लिया जाना अत्यंत आवश्यक है, जो श्लाघनीय है और  मानव स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है, हितकारी है।

वैसे भी यह ज़िंदगी चार दिन की मेहमान है। इंसान इस संसार में खाली हाथ आया है और उसे खाली हाथ लौट कर जाना है…फिर किसी से ईर्ष्या व शत्रुता भाव क्यों? जो भी हमारे पास है… हमने यहीं से लिया है और उसे यहीं छोड़ उस अनंत-असीम सत्ता में समा जाना है… फिर अभिमान कैसा? परमात्मा ने तो सबको समान बनाया है…यह जात-पात, ऊंच-नीच व अमीर-गरीब का भेदभाव तो मानव-मस्तिष्क की उपज है। सब उस प्रभु के बंदे हैं और सारे संसार में उसका नूर समाया है। कोई छोटा-बड़ा नहीं है, इसलिए सबसे प्रेम करें; दया भाव प्रदर्शित करें; संग्रह की प्रवृत्ति का त्याग कर किसी को पीड़ा मत पहुंचाएं तथा जो मिला है, उसमें संतोष करें। सो! दूसरों के अधिकारों का हनन मत करें–यही जीवन की उपादेयता है, सार्थकता है।

शक्ति, सामर्थ्य, साहस व सात्विकता वे गुण हैं, जो मानव जीवन को श्रद्धेय बनाते हैं। सो! इनके सदुपयोग की आवश्यकता है। इसलिए यदि आप में शक्ति है, तो आप तन, मन, धन से निर्बल की रक्षा करें तथा अपने कार्य स्वयं करें, क्योंकि शक्ति सामर्थ्य का प्रतीक है और जीवन का सार व प्राणी-मात्र के प्रति करुणा भाव दर्शाने का उपादान है। सो! यदि आप में शक्ति व सामर्थ्य है, तो साहसपूर्वक निरंतर कर्मशील रह कर सबका मंगल करें तथा विपरीत व विषम परिस्थितियों में आत्म-विश्वास से आगामी आपदाओं-बाधाओं का सामना करें। साहसी व्यक्ति को धैर्य रूपी धरोहर सदैव संजोकर रखनी चाहिए और निर्बल, दीनहीन व अक्षम पर कभी भी प्रहार नहीं करना चाहिए। हां! इसके लिए दरक़ार है…भावों की सात्विकता, पावनता व पवित्रता की, जिसका पदार्पण जीवन में सकारात्मक सोच, आस्था व विश्वास पर आधारित होता है। यदि मानव में स्नेह, प्रेम, करुणा व श्रद्धा के साथ क्षमा-भाव भी व्याप्त है, तो सोने पर सुहागा क्योंकि इससे सभी गलतफ़हमियां व झगड़े तत्क्षण तत्क्षण समाप्त हो जाते हैं। इसका दूसरा रूप है प्रायश्चित… जिसके हृदय में प्रवेश करते ही मानव को अपनी ग़लती का आभास हो जाता है कि वह दोषी ही नहीं; अपराधी है। सो! वह उसे न दोहराने का निश्चय करता है तथा उससे क्षमा मांग कर अपने हृदय को शांत करता है। उस स्थिति में दूसरे भी सुक़ून पाकर धन्य हो जाते हैं। शायद! इसीलिए कहा गया है कि ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात’ अर्थात् क्षमा भाव सबसे श्रेष्ठ गुण है। क्षमा याचना करना अथवा दूसरों को क्षमा करना… इन दोनों स्थितियों में मानव हृदय की कलुषता व मनोमालिन्य समाप्त हो जाता है अर्थात् जब छोटे ग़लतियां करते हैं, तो बड़ों का दायित्व है… वे उन्हें क्षमा कर उदारता व उदात्तता का परिचय दें। इसलिए यदि आप क्रोध अथवा अज्ञानवश किसी जीव के प्रति निर्दयता भाव रखते हैं और उसे शारीरिक व मानसिक कष्ट पहुंचाते हैं, तो आपको उससे क्षमा याचना कर अपना बड़प्पन दिखाना चाहिए। परंतु अहंनिष्ठ व्यक्ति से ऐसी अपेक्षा रखने की कल्पना करना भी बेमानी है।

‘सो! रिश्ते जब मज़बूत होते हैं, बिन बोले महसूस होते हैं तथा ऐसे संबंध अटूट होते हैं; ऐसी सोच के लोग महान् कहलाते हैं।’ उनका सानिध्य पाकर सब गौरवान्वित अनुभव करते हैं। वास्तव में ऐसी सोच के धनी…’व्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व होते हैं।’ परंतु वे अत्यंत कठिनाई से मिलते हैं। इसलिए उन्हें भी अमूल्य धन-सम्पदा व धरोहर की भांति सहेज-संभाल कर रखना चाहिए तथा उनके गुणों का अनुसरण करना चाहिए, ताकि वे उन्मुक्त भाव से अपना जीवन बसर कर सकें। वास्तव में वे आपको कभी भी चिंता के सागर में अवगाहन नहीं करने देते।

प्रेम, प्रार्थना व क्षमा अनमोल रत्न हैं। उन्हें शक्ति, सामर्थ्य, साहस, धैर्य व सात्विक भाव से तराशना अपेक्षित है, क्योंकि हीरे का मूल्य जौहरी ही जानता है और वही उसे तराश कर अनमोल बना सकता है। इसके लिए आवश्यकता है कि हम उन परिस्थितियों को बदलने की अपेक्षा स्वयं को बदलने का प्रयास करें …उस स्थिति में जीवन के शब्दकोश से कठिन व असंभव शब्द नदारद हो जायेंगे। इसलिए आत्मसंतोष व सब्र को जीवन में धारण करें, क्योंकि ये दोनो अनमोल रत्न हैं; जो आपको न तो किसी की नज़रों में झुकने देते हैं और न ही किसी के कदमों में। इसका मुख्य उपादान है– आपका मधुर व्यवहार, जीवन में समझौतावादी दृष्टिकोण व सुख दु:ख में सम रहने का भाव समरसता का द्योतक है। सो! अपने दैवीय गुणों व सकारात्मक दृष्टिकोण द्वारा सबके जीवन को उमंग, उल्लास व असीम प्रसन्नता से आप्लावित कर; उनकी खुशी के लिए स्वार्थों को तिलांजलि दे ‘सुक़ून से जीएँ व जीने दें’ तथा ‘सबका मंगल होय’ की राह का अनुसरण कर जीवन को सुंदर, सार्थक व अनुकरणीय बनाएं।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 67 ☆ धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना अपराध से कम नहीं ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना अपराध से कम नहीं ।)

☆ किसलय की कलम से # 67 ☆

☆ धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना अपराध से कम नहीं ☆ 

ईश्वर ब्रह्मांड की सर्वोच्च-शक्ति का पर्याय है। यही शक्ति जगत नियंता के नाम से भी जानी जाती है। आदि मानव से वर्तमान मानव के विकास में अनेक पड़ाव आए। मानव का प्राकृतिक गोद में जन्म लेने के कारण मानव और प्रकृति का अभिन्न नाता बना हुआ। है शनैः शनैः मानव द्वारा कृतज्ञता, भय, उपलब्धियों एवं अलौकिक चमत्कारों को देख-देखकर कुछ अदृश्य शक्तियों, प्रतीकों, जीवों आदि को पूजा-आराधना की श्रेणी में रखने का क्रम शुरू किया गया। सामाजिक व्यवस्थाओं की शुरुआत होते-होते कुछ शक्तिशाली, विशेष लोगों, महापुरुषों, राजा-महाराजाओं व ऋषि-मुनियों द्वारा उल्लिखित सिद्धांतों का अनुगमन करना तथा उनकी स्तुतियाँ करना आदि प्रारंभ हो गया। समय के साथ-साथ कुछ प्रतीकों व दिव्य प्रतिभावानों को देवी-देवताओं के रूप में मान्यता प्राप्त हो गई।

दुनिया में समाज व संस्कृति विकसित होती गई। अनेक धर्म व संप्रदाय बनते चले गए। एक समय ऐसा भी आया कि लोगों द्वारा अपने-अपने धर्मों की श्रेष्ठता और वर्चस्व स्थापित करने हेतु तरह-तरह के नैतिक-अनैतिक कार्य किए जाने लगे। समय बदला और बदलता भी जा रहा है, लेकिन आज भी कहीं न कहीं, किसी न किसी के ऊपर अपने धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करने का भूत सवार हो ही जाता है, जबकि यह प्रामाणिक बात है कि सभी धर्म मानवीय हितों के संवाहक होते हैं।

आज संपूर्ण विश्व में लोग अपने अपने धर्मों की मान्यतानुसार अपना जीवन जी रहे हैं। यह एक सत्यता है कि विसंगतियों एवं सहमति-असहमतियों का क्रम आदि काल से ही शुरू हो गया था और अनादि काल तक चलता रहेगा। हमारा देश विभिन्न धर्मावलंबियों का देश है। सभी को धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त है और उसी के अनुरूप सभी जीवन जी भी रहे हैं। पूर्व के शासकों की गलतियों, दुष्प्रचारों एवं तानाशाही रवैये से हमारी सामाजिक सद्भावना को पूर्व में ही बहुत क्षति पहुँच चुकी है। समय व परिवेश बदलने के बावजूद आज भी लोग पूर्व की कड़वाहट, गलतियों एवं कट्टरपंथियों के अनैतिक विचारों का अनुकरण करने से नहीं चूकते। आज भी हमें कहीं कहीं अवांछित कृत्य व व्यवहार नजर आ ही जाते हैं, जो समाज की फिजा बिगाड़ने में अहम भूमिका का निर्वहन करते हैं। अनजाने में किए गए अधार्मिक कृत्यों को क्षमा करना माननीय गुण है, लेकिन जानबूझकर अनैतिक व अधार्मिक कृत्य कभी उचित नहीं हो सकते।

यह सभी जानते हैं कि हमारे सनातन धर्म में मूर्ति पूजा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। गाय को माता का दर्जा दिया गया है और उसकी पूजा की जाती है। ईश्वर का नाम श्रद्धा, आदर और पवित्रता के साथ लिया जाता है, बावजूद इसके यदि हमारे देवी-देवताओं राम, कृष्ण, शिव, दुर्गा, लक्ष्मी आदि के नाम पर मटन शॉप खोले जाएँ, भगवान राम के नाम पर जूते चप्पलों की दुकान खोली जाए। जूते-चप्पलों पर गणेश जी अथवा अन्य देवी-देवताओं के चित्रों को छापा जाए, तब यह हिंदू धर्मावलंबियों के लिए निश्चित रूप से आपत्तिजनक बात है। लक्ष्मी के चित्र वाले पटाखे, जिनके फूटने पर उनके चिथड़े बिखरें और उनके पवित्र चित्रों को हमारे पैर रौंदें, वाकई कष्टप्रद है। अन्य देशों में भले ही गौ-मांस खाया जाता है, लेकिन आपके सामने ही माँ का दर्जा प्राप्त गाय का कत्ल किया जाए तो आत्मा आहत होगी ही।

आजकल ऐसा देखा गया है कि दुर्भावना अथवा स्वार्थवश हिंदु देवालयों के निकट मटन, शराब, बीयर बार खोल दिए जाते हैं। इसी प्रकार सद्भावना का वातवरण बिगाड़ने तथा अशांति फैलाने के उद्देश्य से देवालयों के नज़दीक अन्य धर्मावलंबियों द्वारा अपने प्रार्थना स्थलों का निर्माण करा दिया जाता है। पूजाघरों में जहाँ शांति, साधना, एकाग्रता आदि की महती आवश्यकता होती है, यह जानते हुए भी कुछ असामाजिक प्रवृत्ति के लोग इन स्थलों के पास ध्वनि विस्तारकों, विभिन्न व्यक्तिगत, सामाजिक, सांस्कृतिक, सांगीतिक तथा अन्य तरह के कार्यक्रमों द्वारा अशांति, अव्यवस्था एवं शोरगुल किया जाता है, ऐसी बातें भी अक्सर प्रकाश में आती रहती हैं। शरारती तत्त्वों द्वारा मूर्तियों व देवालयों को खंडित करने, तोड़फोड़ करने, अपवित्र करने आदि की घटनाएँ अक्सर देखने और सुनने में आती रहती हैं। विघ्नसंतोषियों द्वारा पूजाघरों में मांस, वर्जित सामग्री, अपवित्र सामग्री आदि फेंकने तथा धर्म स्थलों में मारपीट, दंगे-फसाद की वारदातें भी यदा-कदा दिखाई दे जाती हैं। चोर, झूठ बोलने वाले, दारूखोरों द्वारा भी मूर्तियों, दानपेटियों व देवी-देवताओं के आभूषणों की चोरी के मामले भी देखे जाते हैं। ये कृत्य किसी भी धर्मावलम्बी द्वारा किए जाएँ शर्मनाक व अधार्मिक ही कहलाएँगे।

आजकल देखा गया है कि कुछ लोग सार्वजनिक मंचों से देवी-देवताओं का, उनके स्वरूप, उनके कार्यों आदि का उल्लेख करते हुए उनका माखौल उड़ाते हैं। उन पर अशोभनीय टिप्पणियाँ करते हैं। उन पर केंद्रित अमर्यादित चुटकुले सुनाते हैं। प्रहसन, मंचन, चलचित्रों तक में धार्मिक आख्यानों को तोड़-मरोड़ कर हमारी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाले निंदनीय दृश्य प्रस्तुत किए जाते हैं, जो किसी भी तरह से उचित नहीं हैं। हमें कष्ट तो तब होता है जब श्रोतागण, पाठक अथवा दर्शक बजाय विरोध करने के उन बातों पर मजा लेते हैं, जबकि होना यह चाहिए कि उनका विरोध किया जाए और उन गतिविधियों को तत्काल प्रभाव से बंद किया जाए जो हमारी धार्मिक भावनाओं को आहत करते हैं। यहाँ यह बात भी उल्लेखनीय है कि ये चतुर-चालाक लोग कानून एवं तर्कों का हवाला देते हुए इन सभी बातों को सही सिद्ध करने की भरपूर कोशिश करते हैं। वहीं कानूनविद कानून के वशीभूत होते हैं और कानून की मंशा का ध्यान में न रखने हेतु विवश रहते हैं। कानून के शब्द हमारे संविधान में पत्थर की लकीर जैसे हैं। ऐसे कानूनों की आड़ में ही अनगिनत अपराध और अनैतिक कार्य खुलेआम किए जाते हैं और आम आदमी मुँह ताकता रह जाता है। स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति के नाम पर कानूनों की भावना के विपरीत लोगों का अनर्गल प्रलाप मानवता के लिए कदापि उचित नहीं है हो सकता।

हम सभी जानते हैं कि आज से सौ दो सौ साल पूर्व जो बातें समाज में मान्य थीं, वर्तमान के समाज ने उन्हीं बातों को अमान्य कर दिया है, इसलिए युग, समय और बदलते परिवेश के चलते तत्कालीन धर्मग्रंथों में लिखी गईं उन बातों का विरोध भी तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि हम आज के रचयिता से तो रूबरू हो सकते हैं, लेकिन प्राचीन ग्रंथों के रचयिताओं ने तो उन्हीं बातों का उल्लेख किया है, जो उस समय प्रचलन में रहीं और समाज में जिन्हें मान्यता प्राप्त थी। इसी तरह संयुक्त परिवार, वर्णप्रथा, जातिगत कर्म, छूत-अछूत भी है, जिन्हें आज नकारा जा चुका है। अब तो लिंगभेद, खून के रिश्ते, त्याग, समर्पण, पड़ोसी-धर्म, सच्चाई, न्याय, शिष्टाचार सभी कुछ अवसरवादिता पर आधारित हो गए हैं।

आज के जमाने में पिछड़े क्षेत्रों व ख़ासतौर पर अशिक्षित लोगों को धन, नौकरी, छोकरी व विभिन्न तरह से मदद के नाम पर बरगलाया जाकर धर्मांतरण कराया जाने लगा है। ये बातें अक्सर समाचारों में आती रहती हैं और इनकी सत्यता भी उजागर हो चुकी है। कुछ अन्य धर्मों के युवक छद्म हिंदु नाम रख लेते हैं और हिंदु लड़कियों को सतरंगी सपने दिखाकर उनसे विवाह ही इसलिए करते हैं कि उनके धर्मावलंबियों का दायरा बढ़े। बाकायदा इसके लिए उन्हें उनके संगठनों से पैसा भी प्राप्त होता है, ऐसा सुना गया है। यह भी देखा गया है कि दूसरे धर्मावलंबी तरह-तरह से धार्मिक परचे निकालते हैं,जो उनके धर्म को श्रेष्ठ बताते हुए उस धर्म को अपनाने की बात की जाती है। अपने सामुदायिक भवनों, शिक्षालयों व धार्मिक स्थानों पर ऐसे कार्यों हेतु प्रशिक्षण भी दिया जाता है। कानून को ठेंगा दिखाकर हमारी आँखों के सामने सब कुछ होता रहता है। अपने धर्म की आड़ में दूसरे धर्म की आलोचना से आज की पीढ़ी को दिग्भ्रमित किया जाना चिंताजनक विषय बन गया है।

इस तरह हम देखते हैं कि जब आज के प्रगतिशील युग में नवयुवक देश-विदेश में अपने बुद्धि-कौशल से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर रहे हैं। उन्हें अपनी, अपने परिवार व अपने देश की प्रगति का जुनून सवार है। आज के परिवेश में कहा जाए कि जब से युवा पीढ़ी देश और धर्म से ऊपर उठकर अपना अस्तित्व बनाने में लगी है, तब उसी पीढ़ी को कुछ धूर्त, आतताई, कट्टरपंथी और अवसरवादी लोग दिग्भ्रमित करें यह कदापि बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। सर्वधर्म-समभाव की भावना को जन-जन में जगाना चाहिए। सभी धर्मों के लोगों को अन्य धर्मों का सम्मान करना चाहिए। दूसरी ओर अराजक तत्त्वों को भी इतना भान होना चाहिए कि आज के बदलते समय में उनके कृत्य अब ज्यादा प्रभावकारी सिद्ध नहीं हो पाएँगे। हमें अपने, अपने परिवार, अपने समाज व अपने देश के लिए ईमानदार इंसान बनना होगा। हम किसी भी धर्म के हों, हमारे आदर्श संस्कार, हमारी आदर्श शिक्षा तथा प्रेम भाईचारे का भाव ही समाज व देश में शांति का वातावरण निर्मित कर सकेगा। धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाना किसी भी धर्म के लिए उचित नहीं है। यह अपराध से कम नहीं है, इसका बंद होना ही हम सभी के हित में है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

दिनांक: 6 जनवरी 2022

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 115 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 115 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

बलख बलख आकाश में, उड़ने लगी पतंग।

हर्ष उल्लास छा रहा, बाल सखा के संग।।

 

पतझड़ का मौसम गया, जीवित हुआ बसन्त।

नवपल्लव छाने लगा, है पतझड़ का अंत ।।

 

पौधों पर छाने लगा, कलियों का विन्यास।

दस्तक देता द्वार पर, खड़ा हुआ मधुमास।।

 

पौधे भी अब कर रहे, कलियों की ही आस।

देखो दस्तक दे रहा, खड़ा हुआ मधुमास।।

 

सरसों पर छाने लगे, खिलते पीले फूल।

दिन रवि के आने लगे, है मौसम अनुकूल।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 104 ☆ साल नया अब निखर रहा है ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “साल नया अब निखर रहा है…. । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 104 ☆

☆ साल नया अब निखर रहा है ….

बूढ़ा  दिसंबर   गुजर  रहा है

साल नया अब निखर रहा है

 

जवां जनवरी जोश में आई

मौसम  देखो  संवर  रहा  है

 

उम्र की माला का इक मोती

नये  साल  में   झर   रहा   है

 

कुछ खोया कुछ पाया हमने

जीवन   ऐसे   उतर  रहा   है

 

गुनगुनाती  है   धूप   सुहानी

तन कंप कंप यूँ ठिठुर रहा है

 

बिरहन पिय की राह ताकती

एक  आस  नव सहर रहा  है

 

जोश  होश   “संतोष”   रहेगा

वर्ष  बाइसवां   बिखर  रहा है 

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 109 – घरकुल ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? साप्ताहिक स्तम्भ # 109 – विजय साहित्य ?

☆ घरकुल  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

 रंगत संगत पायाभरणी,सजले घरकुल छान 

अंतरात या तुला शारदे ,देऊ पहिला मान

 

अनुभव आणि अनुभूतीचा , सडा शिंपला परसात

व्यासंगाची सडा रांगोळी, हळव्या काळीज दारात

भाव फुलांची पखरण आणि, देऊ अक्षर वाण …!

 

किलबिल डोळे नवकवितेचे, कथा छानशी स्वागता

ललित लेख हा दिवाण खाणी, आवड सारी नेणता

पाहुणचारा चारोळ्या, किस्से, शायरी अक्षरांचे दान   ..!

 

पै पाहुणा आला गेला,बघ रंग रंगोटी जोरात

घर शब्दांचे,नांदत आहे, आयुष्याच्या सदनात

कलागुणांना काव्यकलेला सृजनाचे वरदान…!

 

घरकुल माझे साहित्याचे, अवीट नाते जडलेले

राग लोभ नी क्षमायाचना, आनंदाने भरलेले

कादंबरी चे रूप देखणे, या सदनाची शान …!

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते 

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  9371319798.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares
image_print