(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “ग़ाफ़िल हुआ सैर करना…”।)
ग़ज़ल # 82 – “ग़ाफ़िल हुआ सैर करना…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित बाल साहित्य ‘बाल गीतिका ‘से एक बाल गीत – “सदा स्वार्थ-व्यवहार…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ बाल गीतिका से – “सदा स्वार्थ-व्यवहार…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
☆
आजादी के पहले भारत में था अंग्रेजों का राज।
लूट रहे थे वे हम सबको दीन दुखी था यहाँ समाज ॥
तिलक और गाँधी ने देखे सपने, चाहा देशी राज।
कष्ट सहे, समझाया सबको, लाई चेतना और स्वराज ॥
उनके उस निस्वार्थ त्याग का सुख हम भोग रहे हैं आज ।
किन्तु खेद है उन्हें भुला कर स्वार्थमुखी हो चला समाज
सदा स्वार्थ-व्यवहार जगत् में होता है दुख का आधार ।
प्रत्येक व्यक्ती वेगळी असते हे जरी सत्य असले तरी काही व्यक्तींमध्ये काही समान धागे असू शकतात.. या समान धाग्यांमुळेच त्या व्यक्ती एकत्र येऊन समूहाने एखादे चांगले काम करू शकतात असा विश्वास देणारे हे पुस्तक…
पाहून एकच चित्र
विणला प्रत्येकीने कथेचा धागा
त्या एक एक धाग्यांला घेवून
विणला त्यांनी एक सुंदर शेला..
चार मैत्रिणी शरीर, मन, विचार, व्यवसायाने वेगवेगळ्या.. वाचन- लेखन हाच एक समान धागा.. उत्तम भाषाभ्यास, निरीक्षण क्षमता व कल्पनाशक्ती यांच्या जोरावर
त्यांनी आपल्या भेटीसाठी गुंफियेला शेला…
तो हाती माझ्या येता उबदार मज भासला….
हे पुस्तक म्हणजे एक आगळा वेगळा प्रयोग आहे . यामध्ये चारही लेखिका आग्रही,जागरूक आणि संयमाने व्यक्त झाल्याची जाणीव प्रत्येक कथेतून होते. या चौघींनी ही एकाच चित्रकृतीचा आपापल्या दृष्टीकोनातून घेतलेला शब्दवेध आणि त्यातून निर्माण झालेल्या आगळ्या वेगळ्या कथांचा हा संग्रह…
प्रत्येकीची कथा अगदी एका पानाची, वीस वाक्यांची, पण खूप काही सांगून जाणारी, कुठेच अधुरेपण नसणारी.. चित्राचा आकार, रूप, रंग आणि प्रत्यक्ष मतितार्थापलीकडच्या जाणीवांना चार लेखकांनी कथा रुपात बांधले आणि 48 चित्रप्रेरीत कथांचा हा शेला गुंफला गेला. पुस्तकातील डॉ आनंद नाडकर्णी यांची प्रस्तावना, हा शेला गुंफण्यापूर्वीचा लेखिकांचा प्रवास उलगडतो तर अच्युत पालव यांची प्रस्तावना या शेल्यास एक नाजूक किनार म्हणून शोभते. चारही लेखिकांचे मनोगत वाचताना प्रत्येकीच्या कथा वाचण्याची उत्कंठा वाटते तसेच प्रत्येकीकडून एक प्रेरणा नक्की मिळते..
एकच चित्र पाहून प्रत्येकीला कितीतरी वेगवेगळ्या आशयाच्या कथा सुचल्या त्यांची शीर्षके वाचूनच हे लक्षात येत गेलं. खूपदा वाटलं ही या चित्राशी या शिर्षकाचा काही संबंध असू शकतो का? चित्र पाहून आपल्या भावविश्वात एक कथा निर्माण होते पण प्रत्येक कथा एका वेगळ्याच विश्वाचा प्रवास घडवते. एकाच चित्राकडे पाहून चार लेखिकामधील निर्माण होणाऱ्या वेगवेगळ्या भाव भावनांचे आणि संवेदनशील मनाचे आपल्याला घडणारे दर्शन खरोखर मन थक्क करते. उदाहरणादाखल सांगायचं तर या पुस्तकात एक चित्र आहे.. एका मुलीने रंगीबेरंगी फुगे हातात घट्ट धरले आहेत आणि त्यावर लेखिका हर्षदाने लिहलेली कथा “पॅलेट” एका सुंदर क्षणी एकत्रच असताना अपघाताने कायमची ताटातूट झालेल्या रसिका आणि पुनीतची कथा.
याच चित्रावरून लेखिका सोनालीने लिहिलेली कथा-“फुगा” यात भेटते छोटीशी सुमी जी गेली पाच वर्षे आईची माय म्हणून जगत आहे आणि एकेदिवशी तिच्या आईने विहिरीत उडी मारून आत्महत्या केल्यानंतरचे तिचे आजण भावविश्व आपल्याला हळवं करतं…
लेखिका निर्मोही या चित्रावरून कथा लिहिते “स्टॅच्यू” गंमतीने खेळल्या जाणाऱ्या खेळाची एक हृदयस्पर्शी कथा..
लेखिका संपदा या चित्रावरून कथा लिहिते ” श्वेता” दत्तक बाळ वाढवताना त्याच्या वर्तमान आणि भविष्याचा विचार करायचा भूतकाळ मन गढूळ करत राहील आणि काळाबरोबर त्याचा चिखल होत राहिल. ती आपला अंकुर नसली तरी आपली सावली म्हणून वाढवावी असा सुंदर संदेश देणारी प्रबोधनात्मक कथा…
शेवटी चारही लेखिकांनी आपल्याला आवडलेलं एक एक चित्र निवडून त्या चार चित्राला एकत्रित अशा समर्पक कथा लिहिल्या. या चार चित्रांना एकाच चौकटीत आणून सलगपणे समोर ठेवून चार चित्रांची मिळून एकच कथा प्रत्येकीने लिहून आणखी एक आगळंवेगळं पाऊल उचललं आणि आत्तापर्यंत विणलेल्या सुंदर शेल्याची शेवटी एकत्रित गाठ बांधून एक सुंदर गोंडा ओवला असंच म्हणावसं वाटतंय.
एखादं चित्र फक्त चित्रच नसतं त्यामागे चित्रकाराच्या भावना दडलेल्या असतात. चित्रकाराव्यतिरिक्त फार कमी जाणकार माणसांनाच त्या जाणवतात किंवा चित्रातून दिसतात. नाहीतर चित्र म्हणजे नुसताच आकार आणि रंग- रेषांचा खेळ.. कोणी चित्र पाहून नेत्रसुख अनुभवतो. कोणी काही वेळाचं सुख – समाधान शोधतो. कोणी चित्रात असं गुंतून जातो की स्वतःच्या संवेदना मग कथेत शब्दबद्ध करतो.
‘प्रत्येकीच्या दृष्टीकोनाची न्यारी ही किमया
शब्दांच्या धाग्यांनी, ” त्यांनी गुंफियेला शेला”
पुस्तकरूपी भेटीस तो आपुल्या आला’
प्रत्येकाने पुस्तक वाचू या आणि शेल्याचा उबदारपणा अनुभवू या. या शेल्याचा उबदारपणा अनुभवू या.
परिचय – सौ विजया कैलास हिरेमठ
पत्ता – संवादिनी ,सांगली
मोबा. – 95117 62351
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख अधूरी ख़्वाहिशें। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 189 ☆
☆ अधूरी ख़्वाहिशें☆
‘कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही ठीक है/ ज़िंदगी जीने की चाहत बनी रहती है।’ गुलज़ार का यह संदेश हमें प्रेरित व ऊर्जस्वित करता है। ख़्वाहिशें उन स्वप्नों की भांति हैं, जिन्हें साकार करने में हम अपनी सारी ज़िंदगी लगा देते हैं। यह हमें जीने का अंदाज़ सिखाती हैं और जीवन-रेखा के समान हैं, जो हमें मंज़िल तक पहुंचाने की राह दर्शाती है। इच्छाओं व ख़्वाहिशों के समाप्त हो जाने पर ज़िंदगी थम-सी जाती है; उल्लास व आनंद समाप्त हो जाता है। इसलिए अब्दुल कलाम जी ने खुली आंखों से स्वप्न देखने का संदेश दिया है। ऐसे सपनों को साकार करने हित हम अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं और वे हमें तब तक चैन से नहीं बैठने देते; जब तक हमें अपनी मंज़िल प्राप्त नहीं हो जाती। भगवद्गीता में भी इच्छाओं पर अंकुश लगाने की बात कही गई है, क्योंकि वे दु:खों का मूल कारण हैं। अर्थशास्त्र में भी सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं की पूर्ति को असंभव बताते हुए उन पर नियंत्रण रखने का सुझाव दिया गया है। वैसे भी आवश्यकताओं की पूर्ति तो संभव है; इच्छाओं की नहीं।
इस संदर्भ में मैं यह कहना चाहूंगी कि अपेक्षा व उपेक्षा दोनों मानव के लिए कष्टकारी व विकास में बाधक हैं। उम्मीद मानव को स्वयं से रखनी चाहिए; दूसरों से नहीं। प्रथम मानव को उन्नति के पथ पर अग्रसर करता है; द्वितीय निराशा के गर्त में धकेल देता है। सो! गुलज़ार की यह सोच अत्यंत सार्थक है कि कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही कारग़र है, क्योंकि वे हमारे जीने का मक़सद बन जाती हैं और हमारा मार्गदर्शन करती हैं। जब तक ख़्वाहिशें ज़िंदा रहती हैं; मानव निरंतर सक्रिय व प्रयत्नशील रहता है और उनके पूरा होने के पश्चात् ही सक़ून प्राप्त करता है।
‘ख़ुद से जीतने की ज़िद्द है मुझे/ ख़ुद को ही हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ जी हां! मानव से जीवन में संघर्ष करने के पश्चात् मील के पत्थर स्थापित करना अपेक्षित है। यह सात्विक भाव है। यदि हम ईर्ष्या-द्वेष को हृदय में धारण कर दूसरों को पराजित करना चाहेंगे, तो हम राग-द्वेष में उलझ कर रह जाएंगे, जो हमारे पतन का कारण बनेगा। सो! हमें अपने अंतर्मन में स्पर्द्धा भाव को जाग्रत करना होगा और अपनी ख़ुदी को बुलंद करना होगा, ताकि ख़ुदा भी हमसे पूछे कि तेरी रज़ा क्या है? विषम परिस्थितियों में स्वयं को प्रभु-चरणों में समर्पित करना सर्वश्रेष्ठ उपाय है। सो! हमें वर्तमान के महत्व को स्वीकारना होगा, क्योंकि अतीत कभी लौटता नहीं और भविष्य अनिश्चित है। इसलिए हमें साहस व धैर्य का दामन थामे वर्तमान में जीना होगा। इन विषम परिस्थितियों में हमें आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे रखना है तथा पीछे मुड़कर कभी नहीं देखना है।
संसार में असंभव कुछ भी नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और हम वह सब सोच सकते हैं; जिसकी हमने आज तक कल्पना नहीं की। कोई भी रास्ता इतना लम्बा नहीं होता; जिसका अंत न हो। मानव की संगति अच्छी होनी चाहिए और उसे ‘रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं’ में विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं; जड़ें नहीं। जीवन संघर्ष है और प्रकृति का आमंत्रण है। जो स्वीकारता है; आगे बढ़ जाता है। इसलिए मानव को इस तरह जीना चाहिए, जैसे कल मर जाना है और सीखना इस प्रकार चाहिए, जैसे उसको सदा ज़िंदा रहना है। वैसे भी अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते; उन्हें पढ़ना पड़ता है। श्रेष्ठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। ऊंचाई पर पहुंचते हैं वे लोग जो प्रतिशोध नहीं, परिवर्तन की सोच रखते हैं। परिश्रम सबसे उत्तम गहना व आत्मविश्वास सच्चा साथी है। किसी से धोखा मत कीजिए; न ही प्रतिशोध की भावना को पनपने दीजिए। वैसे भी इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो हम दूसरों से करते हैं। जीवन में तुलना का खेल कभी मत खेलें, क्योंकि इस खेल का अंत नहीं है। जहां तुलना की शुरुआत होती है, वहां अपनत्व व आनंद भाव समाप्त हो जाता है।
‘ऐ मन! मत घबरा/ हौसलों को ज़िंदा रख/ आपदाएं सिर झुकाएंगी/ आकाश को छूने का जज़्बा रख।’ इसलिए ‘राह को मंज़िल बनाओ, तो कोई बात बने/ ज़िंदगी को ख़ुशी से बिताओ’ तो कोई बात बने/ राह में फूल भी, कांटे भी, कलियाल भी/ सबको हंस के गले से लगाओ, तो कोई बात बने।’ उपरोक्त स्वरचित पंक्तियों द्वारा मानव को निरंतर कर्मशील रहने का संदेश प्रेषित है, क्योंकि हौसलों के जज़्बे के सामने पर्वत भी नत-मस्तक हो जाते हैं। इसलिए मानव को अपनी संचित शक्तियों को पहचानने की सीख दी गयी है, क्योंकि ‘थमती नहीं ज़िंदगी, कभी किसी के बिना/ यह गुज़रती भी नहीं, अपनों के बिना।’ सो! रिश्ते-नातों की अहमियत समझते हुए, विनम्रता से उनसे निबाह करते चलें, ताकि ज़िंदगी निर्बाध गति से चलती रहे और मानव यह कह उठे, ‘अगर देखना है मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो मेरी उड़ान को।’
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे…”।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – “एक पूर्णिका – “कई चाहतें खड़ी हुई हैं…”. आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 174 ☆
☆ एक पूर्णिका – “कई चाहतें खड़ी हुई हैं…” ☆ श्री संतोष नेमा ☆
☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २७ (अग्निसूक्त) : ऋचा १ ते १२ — मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆
☆
ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २७ – ऋचा १ ते १२
ऋषी – सुनःशेप आजीगर्ति : देवता – १ ते १२ अग्नि; १३ देवगण
ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील सत्ताविसाव्या सूक्तात शुनःशेप आजीगर्ती या ऋषींनी अग्नी देवतेबरोबरच इतरही देवतांना आवाहन केलेले असल्याने हे अग्नि व अनेक देवतासूक्त म्हणून ज्ञात आहे. आज मी आपल्यासाठी हे संपूर्ण सूक्त आणि त्यांचे मराठी गीत रुपांतर सादर करीत आहे.
मराठी भावानुवाद ::
☆
अश्वं॒ न त्वा॒ वार॑वन्तं व॒न्दध्या॑ अ॒ग्निं नमो॑भिः । स॒म्राज॑न्तमध्व॒राणा॑म् ॥ १ ॥
जिराहधारी वारू तव चरणी नतमस्तक
आम्ही तुमच्या पायांवरती ठेवितो मस्तक
वंदन करुनी अनेकदा करितो तव बहुमान
यज्ञे यज्ञे तुम्ही असता सदैव विराजमान ||१||
☆
स घा॑ नः सू॒नुः शव॑सा पृ॒थुप्र॑गामा सु॒शेवः॑ । मी॒ढ्वाँ अ॒स्माकं॑ बभूयात् ॥ २ ॥
योगाच्या सामर्थ्याने हा युक्त दिव्य दाता
एक समयी सर्वव्यापी हा सकलांचा त्राता
सौख्याचा वर्षाव करी तो समस्त भक्तांवरी
कृपा करुनिया आम्हावरती सदैव धन्य करी ||२||
☆
स नो॑ दू॒राच्चा॒साच्च॒ नि मर्त्या॑दघा॒योः । पा॒हि सद॒मित्वि॒श्वायुः॑ ॥ ३ ॥
सर्व सृष्टीचा आत्मा तू तर सकलांचे जीवन
सन्निध अथवा दूर असो आम्ही तुमचे दीन
अवनीवरती कितीक जगती करुनी पापाचरण
त्यांच्या पासून तुम्ही करावे अमुचे संरक्षण ||३|| ☆ इ॒ममू॒ षु त्वम॒स्माकं॑ स॒निं गा॑य॒त्रं नव्यां॑सम् । अग्ने॑ दे॒वेषु॒ प्र वो॑चः ॥ ४ ॥
आर्त होउनीया श्रद्धेने किति स्तोत्रे रचिली
अर्पण करण्या देवांना भक्तीभावे गाईली
श्रवण अग्निदेवा करता तव मनास भावली
देव समुदायामध्ये तू स्तुती त्यांची केली||४||
☆
आ नो॑ भज पर॒मेष्वा वाजे॑षु मध्य॒मेषु॑ । शिक्षा॒ वस्वो॒ अन्त॑मस्य ॥ ५ ॥
प्राप्त कराया उत्तम मध्यम कसलेही सामर्थ्य
सन्निध अमुच्या सदा असावे मनात आम्ही आर्त
परम कोटीच्या संपत्तीला कसे करावे प्राप्त
कॢप्ती शिकवा आम्हा अग्ने होउनी अमुचे आप्त ||५||
☆
वि॒भ॒क्तासि॑ चित्रभानो॒ सिन्धो॑रू॒र्मा उ॑पा॒क आ । स॒द्यः दा॒शुषे॑ क्षरसि ॥ ६ ॥
अलौकीक कांती तेजोमय देदीप्यमान
दान करावे संपत्तीचे हा तुमचा मान
कृपा प्रसादाचा तू असशी थोर महासागर
प्रसाद लहरी सन्निध त्याला संपत्तीचा पूर ||६||
☆
यम॑ग्ने पृ॒त्सु मर्त्य॒मवा॒ वाजे॑षु॒ यं जु॒नाः । स यन्ता॒ शश्व॑ती॒रिषः॑ ॥ ७ ॥
(या ऋचांचा व्हिडीओ गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे. या व्हिडीओची लिंक देखील मी शेवटी देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे.)