हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 57 ☆ जनता जनार्दन… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर विचारणीय रचना “जनता जनार्दन…”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 57 – जनता जनार्दन…

एक हाथ से लेना दूसरे हाथ से देना , ये तो अनादिकाल से चला आ रहा। आप यदि किसी को कुछ नहीं देते हैं तो भी वो अपनी योग्यता अनुरूप हासिल कर ही लेगा, तो क्यों न बहती गंगा में हाथ धोने के साथ -साथ स्नान भी कर लिया जाए। वो कहते हैं न मन चंगा तो कठौती में गंगा। ये गंगा भी श्रीहरि के चरणों से निकलकर, ब्रह्मा जी के कमण्डल तक जा पहुँचीं , फिर वहाँ से निकलकर भोले नाथ की जटा  में समा गयीं। अब भगीरथ को तो अपना कुल तारने के लिए गंगा जल की ही आवश्यकता थी। सो शिव की जटाओं से निकलकर भगीरथ के पीछे- पीछे वे गंगोत्री तक जा पहुँची और अलकनंदा से बहते हुए हरिद्वार, प्रयागराज , काशी से पटना (बिहार), झारखंड,,पश्चिम बंगाल होती हुई हिंद महासागर में समाहित हो गयीं।

ये सब कुछ केवल नदियों के साथ होता है , ऐसा नहीं है , हम सभी इसी तरह अपने को गतिमान बनाए हुए ,ये बात अलग है कि हमारा कर्म क्षेत्र सीमित है , हम स्वयं को तारने में ही सारा जीवन लगा देते हैं। कहते यही हैं कि तेरा तुझको अर्पण पर राम कहानी कुछ और ही होती है। आजकल तो जिस दल की हवा चल पड़ी समझो सारे लोग उसी में जाकर समाहित होने का ढोंग करने लगते हैं। ये हवा प्रायोजित होती है ,इसके मार्ग का चयन आयोजक करते हैं और प्रायोजकों को ढेर सारे धन के साथ पद लाभ भी देने का वादा करते हैं। फिल्मी तर्ज पर इसमें प्रोड्यूसर व कहानी लेखक का भी महत्वपूर्ण रोल होता है। मजे की बात तो ये की दोनों में जनता ही जनार्दन होती है। चाहे बॉक्स ऑफिस में सौ करोड़ की कमाई का आँकलन हो या  पोलिंग बूथ पर मतदाताओं की भीड़। सभी किसी न किसी के भाग्य लिखने का माद्दा रखते हैं।

मिशन 2021 से लेकर 2024 तक चारों ओर अपना ही डंका बजता रहना चाहिए तभी तो आगे की राह सरल होगी। वैसे बाधा आने पर सुंदर से प्रपात भी बनाए जा सकते हैं। कृत्रिम झीलों का निर्माण तो बाँध बनाने के दौरान हो ही जाता है। कितनी साम्यता है प्रकृति के कण – कण में सजीव, निर्जीव , जीव -जंतु, पशुपक्षी व मानव सभी इसी राह के अनुयायी बन ,अनवरत कर्मरत हैं।

छाया सक्सेना प्रभु

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 18 ☆ व्यंग्य ☆ बौने कृतज्ञ हैं, बौने व्यस्त हैं ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य  “बौने कृतज्ञ हैं, बौने व्यस्त हैं । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 18 ☆

☆ व्यंग्य – बौने कृतज्ञ हैं, बौने व्यस्त हैं ☆

वो हमारे घर आया करती थी, सिर पर टोकरा रखे, किसम किसम के बर्तनों से सजा टोकरा लिये. माँ उससे बर्तन ले लेती और बदले में पुराने कपड़े दे देती. फिर वो एक दूसरे अवतार में बदल गई, उसकी भूमिका भी बदल गई, उसका बेस भी बदल गया, उसके काम की व्याप्ति प्रदेश और देश के स्तर पर हो चली. मगर उसका मूल काम वही का वही रहा, अब उसके टोकरे में मिक्सर, कलर टीवी, स्कूटी, लैपटॉप, मंगलसूत्र, स्मार्ट फोन, फ्री वाईफ़ाई और साईकिल जैसी चीज़ें होती हैं, बदले में आपको उसके कहने पर महज़ एक वोट देना होता है. तस्दीक करना चाहते हैं आप? ध्यान से देखिये माई के टोकरे को, टोकरा इक्कीस-बाईस के बजट का. पूरे सवा दो लाख करोड़ रुपये का ऐलान चस्पा कर दिया गया है तमिलनाडु, केरल, बंगाल, असम के लिये. गिव, गेव, गिवन. उन्होने दे दिया है फिलवक्त रिस्पॉन्ड इन चारों राज्यों के वोटरों को करना है. ज्यादा कुछ नहीं, बैलट मशीन में उनकी छाप का बटन दबाकर आना है, बस हो गया, थैंक-यू. दर्जनों परियोजनाओं का शुभारंभ, भूमिपूजन या लोकार्पण उस राज्य में जहां चुनाव का तम्बू गड़ चुका. घबराईये नहीं आपके राज्य को भी मिलेगा, दो हजार चौबीस आने तो दीजिये. पुरानी पेंट सा कीमती वोट संभालकर रखियेगा अभी हम जरा दूसरे राज्यों में फेरी लगाकर आते हैं.

बर्तनों के उनके टोकरों ने अब तो स्टॉल का आकार ले लिया है, जनतंत्र के मेले में ‘फ्री-बीज़’ के स्टॉल्स, छांटो-बीनों हर माल एक वोट में. क्या करियेगा पुरानी पेंटों का – कम से कम एक पतीली ही ले लीजिये कि धरा रह जाएगा आपका वोट अठ्ठाईस तारीख की शाम पाँच बजे के बाद – हमें ही दे दीजिये, हम आपको साथ में एक बोतल भी दे रहे हैं. बाद में पेंट-कमीज़-वोट का क्या आचार डालियेगा. जब तक जनतंत्र है वोट की मंडी लगी पड़ी है. रंगीन टीवी, लैपटॉप और स्मार्ट-फोन – एक वोट में तीन आईटम फ्री बाबूजी. प्रोमो-कोड ‘VOTE’ डालिये और पाईये अपनी जात-बिरादारी के आदमी को मंत्री बनवाने का सुनहरा मौका. हमारी पार्टी को रेफर करिये और पाईये कैश-बैक सीधे खाते में. अभी मौका है, फिर पाँच साल तक न टोकरा रहेगा, न बर्तन, न पुरानी पेंटों पर एक्सचेंज की सुविधा.

जनतंत्र के मेले में दरियादिली की चकाचौंध इस कदर मची है कि दाताओं के मन का अंधियारा भांप नहीं पाते आप. इसका मतलब यह भी नहीं कि अंधेरा पसरा नहीं है. कृत्रिम उजास है, चुनाव की बेला में ‘गुडी-गुडी’ का एहसास कराता हुआ. अधिसूचना के जारी होते ही पाँच साल का स्याह समां गुलाबी हो उठता है, वोटिंग की शाम से पाँच साल के लिये काला हो जाने की नियति लिये. सारी चकाचौंध बस मशीन का खटका दबाने की घड़ी तक ही है, फिर तो अंधियारा ही अंधियारा है. अंधियारा बेरोजगारी का, महंगाई का, मुफ़लिसी का, बेबसी का. स्मार्ट फोन एक नहीं दो ले लीजिये – रोजगार नहीं दे पायेंगे.

सुपर-रिच घरों के कपड़ों में निकलते हैं बिग-टिकट इलेक्टोरल बॉन्ड, टोकरों में धरे महंगे सरोकार उन्ही के लिये हैं. टुच्चे प्रतिफल हैं आपके लिये – सस्ते घिसे पुराने कपड़ों के बद्दल. पुराने कपड़ों के ढ़ेर से बने चढ़ाव बौने नायकों को उंचे ओहदों तक पहुँचा सकते हैं. पहुँचा क्या सकते हैं कहिये कि पहुँचा दिये हैं, आसन जमा लिया है उन्होने वहाँ. वे वहाँ बने रहें इसी में उस एक प्रतिशत का फायदा है जो काबिज हैं मुल्क की सत्तर प्रतिशत संपदा पर. बौने जब पुरानी कमीज़-पेंट ले जाते हैं तब वे चुपके से जनतंत्र पर से आपका भरोसा भी ले जाते हैं और आपको पता भी नहीं चल पाता. बौने कृतज्ञ हैं – बर्तनवाली माई ने राह जो दिखाई है. ध्यान से देखिये – फिलवक्त, बौने इसी लेन-देन में व्यस्त हैं.

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 88 ☆ व्यंग्य – भारतीय पतियों की खराब ग्रहदशा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘भारतीय पतियों की खराब ग्रहदशा‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 88 ☆

☆ व्यंग्य – भारतीय पतियों की खराब ग्रहदशा

यह दिन की तरह साफ है कि भारत में पतियों की ग्रहदशा गड़बड़ चल रही है। टीवी पर हर दूसरे दिन किसी न किसी पति की फजीहत पत्नी के हाथों हो रही है—वही पत्नी जिसके लिए पति ‘प्रान पियारे’ और ‘प्रान अधार’ हुआ करता था। अब प्रान अधार प्रान बचाते फिर रहे हैं और प्रानपियारी उन्हें पछया रही है। और इन टीवी वालों को भी कोई काम नहीं, कैमरा लटकाये पत्नियों की बगल में दौड़ रहे हैं। घोर कलियुग! महापातक! निश्चय ही ऐसी पत्नियों के साथ ये टीवी वाले भी नर्क के भागी बनेंगे। सबसे खराब बात यह है कि पतियों की पिटाई टीवी पर बार बार दिखायी जाती है, जैसे कि टीवी की सुई वहीं अटक गयी हो। सबेरे सबेरे टीवी खोलते ही कोई न कोई पति पिटता मिल जाता है। निश्चय ही यह स्थिति भारतीय पतियों के मनोबल के लिए घातक है।

एक पति की उनकी पत्नी ने कैमरे के सामने जी भर कर पिटाई की। एक और पति चौराहे पर पत्नी और उसके रिश्तेदारों द्वारा लात जूतों से सम्मानित हुए। एक पत्नी उस वक्त शादी के स्टेज पर पहुँच गयीं जब पतिदेव सज-सँवर कर दूसरी पत्नी के साथ वरमाला की तैयारी में थे। इस घटना में पति के साथ भावी सौत का भी पर्याप्त सम्मान हुआ। एक मोहतरमा अपने पति द्वारा छद्म नाम से की गयी शादी के बाद आयोजित दावत में पहुँच गयीं। वहाँ पतिदेव पर तो कुर्सियाँ फेंकी ही गयीं, वहाँ पधारे मेहमानों की भी अच्छी आवभगत हुई। इसी सिलसिले में एक ऐसे पतिदेव की भी हड्डियाँ टूटीं जो चार बच्चों के बाप होने के बावजूद चुपचाप दूसरी शादी रचा रहे थे।

दरअसल जब से टीवी आया है तब से भारतीय संस्कृति की चूलें हिलने लगी हैं। पहले पति सौत वौत ले आता था तो पत्नी बिलखती हुई गंगा जी का रुख़ करती थी, अब वह सबसे पहले टीवी वालों को ढूँढ़ती है। बेचारा पति बीवी से तो निपट लेता था, लेकिन इन टीवी वालों से कैसे निपटे? ये तो साधु-सन्तों को भी काले धन को सफेद करते दिखा रहे हैं। कोई वर दहेज माँगने पर जेल के सींखचों के पीछे पहुँच जाए तो वहाँ भी टीवी वाले फोटू उतारने पहुँच जाते हैं ताकि सनद रहे और वक्त ज़रूरत काम आवे, जबकि सर्वविदित है कि दहेज हमारी सदियों की पाली- पोसी परंपरा है। टीवी ऐसे ही चीरहरण करता रहा तो हमारी संस्कृति की महानता खतरे में पड़ सकती है।

हमारे देश में हमेशा से पति का दर्जा परमेश्वर का रहा है। पत्नियाँ तीजा और करवाचौथ के व्रत रखती रहीं ताकि पतिदेव स्वस्थ प्रसन्न रहें और पत्नी का सुहाग अजर अमर रहे। मैंने एक पत्रिका में पढ़ा था कि एक समय पत्नियाँ पति के पैर के अँगूठे को धोकर जो जल प्राप्त होता था उसी को पीती थीं,और यदि पतिदेव कुछ समय के लिए घर से बाहर जाते थे तो अँगूठा धो धो कर घड़े भर लेती थीं ताकि पतिदेव की अनुपस्थिति में अन्य जल न पीना पड़े। लेख में यह स्पष्ट नहीं किया गया था कि अँगूठा धुलवाने से पहले पतिदेव पाँव धोते थे या नहीं। फिल्मों में पत्नियाँ गाती थीं—‘कौन जाए मथुरा, कौन जाए काशी, इन तीर्थों से मुझे क्या काम है; मेरे घर में ही हैं भगवान मेरे, उनके चरणों में मेरे चारों धाम हैं।’

लेकिन अब पत्नियों ने पता नहीं कौन सा चश्मा पहन लिया है कि उन्हें पति में परमेश्वर के बजाय मामूली आदमी नज़र आने लगा है। अर्श से फर्श पर उतरने के बाद बेचारा पति परेशान है क्योंकि वह इस नयी हैसियत से तालमेल नहीं बैठा पा रहा है।

मेरी मति में पतियों की इस दुर्दशा का कारण स्त्री-शिक्षा का बढ़ना और स्त्री का स्वावलम्बी होना है। पहले स्त्री अल्पशिक्षित होती थी और इस कारण पूरी तरह से पति पर निर्भर होती थी। वह उतनी ही किताबें पढ़ती थी जो पति को परमेश्वर सिद्ध करती थीं और जो उसे सिर्फ चिट्ठी- पत्री के काबिल बनाती थीं। अब स्त्रियाँ दुनिया भर की ऊटपटाँग किताबें पढ़ने लगी हैं और बड़ी बड़ी कुर्सियों पर बैठने लगी हैं। उन्हें पता चल गया है कि संविधान और कानून ने उन्हें बहुत से अधिकार दिये हैं। इस मामले में स्त्रियों को बरगलाने में टीवी ने खूब विध्वंसकारी भूमिका निभायी है। अब कम पढ़ी-लिखी पत्नी भी जानती है कि पतिदेव की टाँग कैसे पकड़ी जा सकती है। नतीजा यह कि पति की हैसियत दो कौड़ी की हो गयी है।

फिर भी पत्नियों को पति के बहकने पर गुस्सा करने से पहले हमारे इतिहास पर विचार करना चाहिए। पुरुषों में दांपत्य के राजमार्ग से बहकने भटकने की प्रवृत्ति हमेशा रही है और स्त्री सदियों से इसे अपनी नियति मानकर सन्तोष करती रही है। एकनिष्ठ होने की अपेक्षा पत्नियों से ही रही है, पतियों से नहीं। धर्मग्रंथों में पतिव्रताओं की महिमा खूब गायी गयी, लेकिन जो पति एकनिष्ठ रहे उनका नाम कोई नहीं लेता। राजाओं नवाबों के रनिवास और हरम पत्नियों से इतने भरे रहे कि पतिदेव अपनी पत्नियों और सन्तानों को पहचान नहीं पाते थे, लेकिन पत्नी बहकी तो गयी काम से। ‘साहब बीवी गुलाम’ के बाबू लोग रोज़ गजरा लपेटकर कोठों की सैर करते थे, लेकिन छोटी बहू ने भूतनाथ से कुछ मन की बात कर ली तो तत्काल उसकी ज़िन्दगी का फैसला हो गया।

इसलिए भारत सरकार से मेरी दरख्वास्त है कि पतियों की पिटाई टीवी पर दिखाने पर तत्काल रोक लगायी जाए और इस संबंध में ज़रूरी कानून बनाया जाए ताकि पतियों की हैसियत और उनके मनोबल मेंं और गिरावट न हो। इसके साथ ही पतियों के खराब ग्रहों की शान्ति के लिए कुछ अनुष्ठान वगैरः भी कराया जाए।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 56 ☆ कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर विचारणीय रचना “कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा…”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 56 – कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा…

साधना किसी की भी हो परन्तु आराधना तो मेरी ही होनी चाहिए। इसी को आदर्श वाक्य बनाकर लेखचन्द्र जी सदैव की तरह अपनी दिनचर्या शुरू करते हैं। जो कुछ करेगा, उसे बहुत कुछ मिलेगा, ये राग अलापते हुए वे निरंतर एक से बड़े एक फैसले धड़ाधड़ लेते जा रहे हैं। और उनके अनुयायी, रहिमन माला प्रेम की जिन तोड़ो चिटकाय के रास्ते पर चलते हुए हर आदेशों को प्रेम भाव से स्वीकारते जा रहें हैं। भई विश्वास हो तो ऐसा कि आँख, कान, मुँह बंद कर भी किया जा सके। हो भी क्यों न उनके आज तक के सभी निर्णय सफल हुए हैं,ये बात अलग है कि इस सफलता के पीछे मूलभूत आधार स्तम्भों की भक्ति सह शक्ति कार्य कर रही है।

यहाँ फिर से कार्य आ धमका, आराम हराम होता है, अतः कुछ तो करना ही है सो क्यों न सार्थक किया जाए, जिससे सभी के मुँह में घी -शक्कर  हो। इतिहास गवाह है, जब- जब सबके हित में कार्य किया गया है तो अवश्य ही उम्मीद से ज्यादा लाभ कार्य शुरू करने वाले को हुआ है।

पल में तोला, पल में माशा, अपनी खुशी का रिमोट किसी के भी हाथों में देकर हम लोग नेतृत्व करने का विचार रखते हैं। अरे भई जब हमारा स्वयं पर ही नियंत्रण नहीं है तो दूसरों पर कैसे होगा। हमारा व्यवहार तो इस बात पर निर्भर करता है कि सामने वाले ने हमारे साथ कैसा आचरण किया है। इसी कड़ी में एक चर्चा और निकल पड़ी कि ऐसे लोग जो हर दल में शामिल होकर केवल मलाई खाकर ही अपना गुजर बसर चैन पूर्वक करते चले आ रहें हैं, जब वे कुछ करते हैं तो कैसे -कैसे बखेड़े खड़े हो जाते हैं। एक आयोजन में सभी दल के लोग आमंत्रित थे। एक ही आमंत्रण पत्र सारे दलों के व्हाट्सएप  पर सबके पास पहुँच गया। पार्टी में भाँति- भाँति के लोगों से खूब रौनक जमीं। सारे लोग दलगत राजनीति भूलकर एक दूसरे से गले मिलते हुए एक ही मेज पर बैठकर रसगुल्ले,चमचम उड़ा रहे थे।

इस मेल मिलाप से प्रेरित हो सारे मीडिया कर्मी भी एकजुट होकर, एक जैसी रिपोर्ट बनाकर ही प्रसारित करेंगे ये फैसला मन ही मन ले बैठे। अब तो वे एक साथ सारी बातों को समेटने लगे। अगले दिन जब खबर छपी तो इधर के नाम उधर, उधर के नाम इधर छप चुके थे। अब तो  हड़कंप मच गया। सारे दलों के मुखिया भयभीत हो अकस्मात अपने – अपने पार्टी कार्यालयों में मीटिंग करते दिखे, उन्हें ये भय सताने लगा कि कहीं सचमुच ऐसा ही तो नहीं होने वाला है क्योंकि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कभी गलत हो ही नहीं सकता,आखिर आँखों देखी ही तो कहते हैं, लिखते व दिखाते हैं। मन ही मन बैचैन होकर वे लोग अंततः किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पा रहे थे। कहीं से कोई ऑडियो वायरल होने की खबर, तो कहीं से लार टपकाते लोग दिखाई देने लगे। ये कहीं शब्द तो एकजुटता पर भारी होता हुआ प्रतीत होने लगा, तभी मुस्कुराते हुए अनुभवीलाल जी कहने लगे कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, जितना तोड़ा उतना जोड़ा।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ इथे साहित्याचे साचे मिळतील ☆ श्री अमोल अनंत केळकर

श्री अमोल अनंत केळकर

 ☆ विविधा ☆ इथे साहित्याचे साचे मिळतील ☆ श्री अमोल अनंत केळकर ☆ 

पत्ता: माझी टवाळखोरी  मॉल, हास्यदा रोड, टवाळपूर, ४२०४२०

‘हॅलो, नमस्कार, बोला ….

‘टवाळखोरी मॉल’ आहे ना हा?’

‘हो, हो. बोला की’

‘आम्हाला  मॉल  बघायला यायचे होते आज. प्रसिध्द्व ’फॉरवर्डकार’ खेळकर यांनी त्यांचा  रेफरन्स देऊन तुम्हाला  फोन करायला सांगितलय. आम्ही  त्यांचे जवळचे स्नेही.  अपॉईनमेंट  घेऊन यावे लागते ना तुमच्या मॉलला  म्हणून फोन केला.’

‘बरं बरं. पण शनिवार/रविवार बुकींग फुल्ल आहे हो. सोमवार नंतर नाही का जमणार?’

‘बघा ना  प्लिज.’

‘खेळकरांनीच  सांगितले, माझे नाव सांगा, देतील अपॉईमेंट.’

‘आता तुम्ही एवढं मोठं नाव घेतलय. नाही कसं म्हणणार?  या दुपारपर्यत!’

………………………………………..

‘नमस्कार!  आम्ही तुम्हाला  सकाळी फोन केला होता.’

‘हो हो, या या.’

बोला, काय पाहिजे तुम्हाला ?

आम्हाला पूर्ण मॉल  कसा आहे,  म्हणजे कुठे काय आहे, कुठे कोणत्या प्रकारचे साचे आहेत, हे  सांगाल का, मग आम्ही ठरवू.’

‘ठीक आहे.  हे  बघा  आमच्या कडे  सर्व प्रकारचे, सर्व विषयावरील  लेखन – साचे मिळतील.  तुम्हाला ते  कुठल्या सोशल मीडियावर पोस्ट करायचे आहेत, त्यानुसार ते ठरवावे लागतील.’

‘म्हणजे?

म्हणजे असं बघा, तुम्हाला  व्हाट्सअप/सिग्नल/टेलिग्राम साठी पाहिजे असेल तर पहिला मजला. फेसबुक/ब्लॉग या मंचासाठी दुसरा मजला.  या दोन्ही मजल्यावर जाण्यासाठी  काही फी नाही म्हणजे ’विंडो शॉपिंग’ सारखं नुसतं फेरफटकाही मारू शकता.  तिथे  प्रत्येक मजल्यावर परत  वेगवेगळे विभाग आहेत.  वाढदिवस शुभेच्छा/ आभार/व्हिडीओ, दिन विशेषानुसार लेखन ( स्मृती दिन/जन्म दिन ), गुड मोर्नीग  ते शुभ  रात्री  – गुलाबाची फुले/निसर्गचित्र सोबत एखादा  मराठी/हिंदी/इंग्रजी सुविचार, धार्मिक दिन विशेष,सण, परंपरा, प्रासंगिक  घटनेवर मिम्स, तसेच इतिहासातील  कोण कुणास, केव्हा काय म्हणाले/लाव रे तो व्हिडीओ, लघुकथा, रहस्य  कथा, बालगीते, विडंबन,  असे हटके विभाग  आहेत. सध्या दोन्ही मजल्यावरचे ’राजकारण’विभाग मात्र एकदम  फुल्ल आहेत. तिथे मात्र तुम्हाला किमान १० दिवस आधीच  नाव नोंदवून यावे लागेल.’

‘एक मिनिट हं….  हा  बोला  राम भाऊ.’

‘काय म्हणता  कंप्लेंट करायची आहे ?   अहो मग  ग्राहक सेवा विभागाला  फोन करून तक्रार  नोंदवा.  हा घ्या  नंबर ४२०४२०४२०….  काय? मी ऐकून तरी  घेऊ?  बर  सांगा…..  काय म्हणता? या विनोदाने  अपमान होतोय ?  कुठला विनोद?   रामभाऊ  तुम्ही आमचे नियम वाचलेत का?  ? एकदा विकत घेतलेल्या साहित्यावर काही आक्षेप असल्यास २-३ तासात बदल करून घ्यावेत, नंतर तक्रार चालणार नाही ? असं स्पष्ट  लिहिलंय आम्ही.  आता हा विनोद एव्हढा व्हायरल झाला, कुण्या ज्ञानवंताने तुम्हाला जाब विचारला मग जागे झालात तुम्ही?  तरी देखील तुम्ही तक्रार नोंदवा आम्ही योग्य तो बदल करून देऊ’

‘हा! सॉरी हं… मधेच फोन आल,  हे  रामभाऊ आमचं नेहमीचं गि-हाईक.’

‘असू दे असू दे, पण तिसर्‍या मजल्यावर काय आहे?

‘हा तिथे जाण्यासाठी मात्र तुम्हाला आमचे ’प्राईम कस्टमर’ असणे आवश्यक आहे. तो खास लोकांचा ’ट्विटर’ विभाग आहे.  ट्विट बद्दलची सर्व माहिती’अ’पासून’’ज्ञ’ पर्यत, ट्विट्स वगैरे आम्ही सर्व शिकवतो. कमी शब्दातील अनेक’ट्विट’तिथे तुम्हाला सहज मिळतील.  ते कसे पोस्ट करायचे त्यावर  रिट्विट कसे करायचे,  ते व्हायरल कसे करायचे,  इतरांना फाँलो कसे करायचे, फाईल अपलोड करून डिलीट कशी करायची इ इ इ…. तिथे मेंबरशीप घेण्यासाठी तुम्हाला हा फॉर्म भरून द्यावा लागेल.’

‘आणखी एक प्रत्येक मजल्यावर, प्रत्येक विभागात  भाऊ, अण्णा, आक्का, तोडकर, काटकर  असे अनेक  मार्गदर्शक आहेत, ते तुम्हाला हवे तसे साहित्य, हव्या त्या शब्दात/प्रकारात लगेच करून देतील. आणि हो  १००० रु च्या खरेदीवर  एक’ऑनलाईन स्पर्धेसाठी  तुमचा एक व्हिडीओ’आम्ही  फ्री मध्ये बनवून देऊ,  ही स्पेशल ऑफर फक्त काही दिवसासाठी बर का… बरं मग येताय मॉल पाहून?’

‘हो हो…’

………………………………………

मंडळी, एक चिमटा काढा स्वतःला.  अहो हळू हळू  किती जोरात काढलात? दुखलं ना?

अहो, स्वप्नात नाही आहात हे  सांगण्यासाठी सांगितलं चिमटा काढायला.  होय स्वप्न नाहीय हे येत्या  गुढीपाडव्याला हा ‘टवाळखोरी मॉल’ सुरु होतोय तेव्हा अवश्य भेट द्या

(टवाळखोर मालक) अमोल टवाळपूरकर 

*आमची ’टवाळपूर’ सोडून कुठेही शाखा नाही 

 

©  श्री अमोल अनंत केळकर

बेलापूर, नवी मुंबई, मो ९८१९८३०७७९

poetrymazi.blogspot.in, kelkaramol.blogspot.com

≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 87 ☆ व्यंग्य – गाँव चलने का! ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘गाँव चलने का!‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 87 ☆

☆ व्यंग्य – गाँव चलने का!

‘ग्रैब एंड ग्रैब इंटरनेशनल’ के मैनेजिंग डायरेक्टर मिस्टर विलियम कनिंग इंडिया में अपने ऑफिस में बैठे बाल नोंच रहे हैं। उनके आसपास चेहरे पर भारी ‘कंसर्न’ ओढ़े उनका स्टाफ बैठा है।

मिस्टर कनिंग दुखी स्वर में कहते हैं, ‘आप लोक कुच्च नईं करेंगा। ऐसई हाट पे हाट रखके बैठा रहेगा। टाइम इज़ रनिंग आउट। इंडिया का सेवेन्टी परसेंट लोक गाँव में रैटा। ए डेको,ए पेपर में लिका है कि गाँव में बिलियंस आफ रुपीज़ का मार्केट हय। फ्रिज का मार्केट हय, टीवी का मार्केट हय,बाइक का मार्केट हय, शैम्पू का मार्केट हय, वाशिंग मैशिन का मार्केट हय। लेकिन आप लोक कुच्च नईं करेंगा। डूसरा कंपनी गाँव का पूरा मार्केट कैप्चर कर लेगा एंड वी विल बी लेफ्ट विथ दिस।’

वे अपने दोनों अंगूठे हिलाते हैं।

इंडिया में उनके मार्केटिंग चीफ मिस्टर डी. डैस कहते हैं, ‘बट सर, इंडियन विलेजेज़ में ‘पेनिट्रेट’ करना ईज़ी नहीं है। इनफ्रास्ट्रक्चर इज़ वेरी पुअर एंड पीपुल डोंट हैव दैट काइंड ऑफ इनकम।’

मिस्टर डी. डैस का असली नाम धरमदास है। मिस्टर कनिंग उनकी बात पर हाथ उठाकर कहते हैं, ‘नो,नो! यू डोंट हैव द विल। विल अउर डेटरमिनेशन हय टो यू कैन एचीव एनीथिंग। राइट एटीट्यूड होने चाइए। दैट मेक्स ऑल द डिफरेंस।’

डैस साहब चुप्पी साध जाते हैं। अपने को नालायक कैसे साबित करें? साहब की नज़र में अपनी काबिलियत साबित करने के लिए मुट्ठी उठाकर जोश से कहते हैं, ‘सर,यू आर हंड्रेड परसेंट राइट। वी शैल अचीव। टु द विलेजेज़! टु द विलेजेज़!’

दूसरे दिन दो गाड़ियां भारत के एक नज़दीकी गाँव की तरफ दौड़ रही हैं। पूरा स्टाफ जोश में है। गाँव को फतह करना है। इट इज़ नथिंग लैस दैन ए वार।

गाड़ियां धूल उड़ातीं गाँव में घुसती हैं। कनिंग साहब उतर कर चेहरे और कपड़ों की धूल झाड़ते हैं।  ‘टु हैल विथ दीज़ विलेजेज़। इटना ढूल काँ से आ जाटा है?’ फिर मुस्करा कर कहते हैं, ‘एनी वे, इट इज़ पार्ट ऑफ द गेम। लेट अस प्रोसीड ऑन अवर मिशन।’

वे उतरकर स्टाफ के साथ गाँव की गलियों में घूमते हैं। गाँव के लोग उन्हें देखकर उत्सुकता से बाहर निकल आये हैं। थोड़ी ही देर में चिलकती धूप में साहब का चेहरा लाल टमाटर हो जाता है। पसीना सिर और चेहरे से बह कर शर्ट को गीला करता है, लेकिन साहब ओंठ फैलाकर लगातार मुस्कराते हैं। हाथ उठाकर गाँव वालों को ‘नमस्टे’ कहते हैं,बच्चों के गाल थपकते हैं। एकाध बच्चे को गोद में उठाने की सोचते हैं, लेकिन अपने कपड़ों का खयाल करके इरादा छोड़ देते हैं।

नीम के एक पेड़ के नीचे उनके लिए प्लास्टिक की कुर्सियाँ और मूढ़े रख दिये जाते हैं और साहब मन ही मन ‘थैंक गॉड’ कह कर बैठ जाते हैं। अपने ऊपर नीम के पेड़ को देखकर गाँववालों से कहते हैं, ‘ए नीम ट्री अमारा एनिमी हय, डुश्मन हय। इसके वजा से गाँव का लोक टूथपेस्ट नईं करटा। डाटुन (दातुन) करटा। आप लोक ब्रश और पेस्ट करने का। अम आपको फ्री टूथपेस्ट डेगा। नीम इज़ अनहाइजिनिक,गंडा (गंदा) हय। इसका डाटुन नईं करने का।’

फिर लड़कियों की तरफ देखकर कहते हैं, ‘अम अबी सब लरकियों अउर लेडीज़ को फ्री शैम्पू पाउच डेगा। उसको इस्टेमाल करने का। बाल में मिट्टी उट्टी नईं लगाने का। मिट्टी बउट गंडा होटा। अबी इंडिया शाइनिंग है टो गाँव का लेडीज़ का बाल बी शाइनिंग होने को मांगटा।’

पास ही एक आदमी साइकिल थामे साहब की बात सुन रहा है। साहब उससे कहते हैं, ‘ए साइकिल नईं चलाने का। थ्रो इट अवे। मोटरबाइक करीडने का। उस पर वाइफ को बैटाकर फादर इन लॉ के गर जाएंगा टो फादर इन लॉ खुस होएंगा। नो बाइसिकिल।’

आदमी दाँत निकाल कर पूछता है, ‘पेट्रोल के पैसे कौन देगा?’

साहब हँस कर जवाब देते हैं, ‘फादर इन लॉ डेगा।’ फिर छाती पर हाथ रखकर कहते हैं, ‘अम डेगा। अम इराक से लाकर डेगा। इराक को काये को ‘कांकर’ किया?’

फिर साहब लड़कियों को लक्ष्य करके कहते हैं, ‘अम सब गाँव में ब्यूटी-पार्लर कुलवाएगा। सब लरकी अउर लेडीज़ एवरी वीक ब्यूटी ट्रीटमेंट लेगा। फिर सब गाँव में ब्यूटी कॉन्टेस्ट कराएगा। गाँव का लरकी मिस इंडिया बनेगा, मिस वर्ल्ड बनेगा, मिस यूनिवर्स बनेगा। अम इंडियन विलेजेज़ में रेवोल्यूशन लाएगा।’

फिर गाँववालों से कहते हैं, ‘अबी अम आप लोक को फ्रिज डेगा,टीवी डेगा। फ्रिज का पानी पीने का, आइसक्रीम काने का। मिट्टी का बर्टन का पानी नईं पीने का। वो अनहाइजिनिक होटा। अम आपको वाशिंग मैशीन बी डेगा। हाट (हाथ) से कपरा नईं ढोने का। लेडीज़ का हाट कराब होटा।’

एक आदमी पूछता है, ‘साहब, इनके लिए पैसा कहाँ से आएगा?’

साहब हाथ उठाकर कहते हैं, ‘अम बैंक आफिसर्स को लाएगा। वो आपको कर्जा डेगा। नो प्राब्लम। फिकर नईं करने का।’

वही आदमी पूछता है, ‘करजा कैसे चुकेगा साहब?’

साहब जवाब देते हैं, ‘कोई प्राब्लम नईं। जब कर्जा होएंगा टो उसको पे करने के वास्टे आप जाडा काम करेगा। अबी आप आराम करटा, फिर आप आराम नईं करेगा। जाडा काम करेगा टो  जाडा पइसा बी आएगा। नो प्राब्लम।’

साहब डैस साहब से कहते हैं, ‘मिस्टर डैस, सबका डिमांड नोट करिए। सब कुच करीडने का। कल्चर्ड बनने का।’

डैस साहब उत्साह से गाँववालों की डिमांड नोट करते हैं। कनिंग साहब गाड़ी से सॉफ्ट ड्रिंक की पंद्रह बीस बोतलें मंगवाते हैं, गाँववालों में बँटवाते हैं। कहते हैं, ‘शरबट उरबट नईं पीने का। एई पीने का। कल्चर्ड बनने का। लाइक दिस, सर उटा के पियो।’

फिर साहब जाने के लिए उठते हैं, गाँव वालों की तरफ हाथ हिलाकर कहते हैं, ‘अम बैंकर को लेकर जल्डी आएगा। रेवोल्यूशन होएंगा। फिकर नईं करने का। गाँव को बडलने का।’

साहब गाड़ी में बैठ जाते हैं। चलने को होते हैं कि एक गाँववाला खिड़की में सिर डाल देता है। कहता है, ‘साहब! फिरिज और टीवी खरीद कर क्या करेंगे? बिजली तो आधे दिन रहती नहीं। आती जाती रहती है।’

साहब हँस कर जवाब देते हैं, ‘सो व्हाट?आप टो फ्रिज अउर टीवी करीडो। जब करजा चरेगा टो आप गवमेंट से बिजली के लिए लराई करेगा। लरेगा टो बिजली जरूर मिलेगा। टीवी अउर फ्रिज जरूर करीडने का। फिकर नईं करने का। ओके?’

साहब हाथ हिलाते चले जाते हैं और सवाल करनेवाला भकुआ सा उनकी तरफ देखता रह जाता है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 55 ☆ हीला हवाली ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर विचारणीय रचना “हीला हवाली”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 55 – हीला हवाली

अक्सर लोग परिचर्चा की दिशा बदलने हेतु एक नया राग ही छेड़ देते हैं। बात किसी भी विषय पर चल रही हो पर उसे  अपनी ओर मोड़ने की कला तो कोई गिरधारी लाल जी से सीखे। सारी योजना धरी की धरी रह जाती है, जैसे ही उनका प्रवेश हुआ कार्य विराम ही समझो। नयी योजना लिए हरदम यहाँ से वहाँ भटकते रहते हैं, उनके पास खुद का कुछ भी नहीं होता बस दूसरे पर निर्भर रहकर एक झटके से सब कुछ हड़पने में उन्हें महारत हासिल होती है।

पहले की बात और थी जब लोग रिश्तों, उम्र व अनुभवों का लिहाज करते थे, परंतु जब से जीवन के हर पहलुओं पर तकनीकी घुसपैठ हुई है, तब से अनावश्यक की भावनाओं पर मानो अंकुश लग गया हो। किसी के  प्रोत्साहन की बात पर तो सभी लोग सहमत होते हैं लेकिन जैसे ही ये कार्य उनके जिम्मे आता है, तो तुरंत ही सर्वेसर्वा बनकर लोगों को बड़ी तेजी से धक्का मारते नजर आते हैं। कारण पूछने पर हमेशा की तरह हीला हवाली से भरे एक ही तरह के उत्तरों की झड़ी लगा देते हैं। अब बेचारा मन इस तरह के अनुभवी उत्तरों के तैयार ही नहीं होता है, सो एक ही झटके में सारा मनोबल छूमंतर हो जाता है और गिरधारी लाल जी मन ही मुस्कुराते हुए सब कुछ लील जाने का जश्न मनाने लगते हैं। जिसने आयोजन का खर्चा किया वो चुपचाप लीलाधर की लीला देखता रह जाता है।

किसी के तीर से किसी का शिकार बस अनजान बनकर लाभ लेते रहो। ये सब सुरसा के मुँह की तरह बढ़ता ही जा रहा था तभी खैराती लाल जी अपनी लार टपकाते हुए आ धमके। कहने लगे क्या चल रहा है,कोई मुझे भी तो बताएँ, आखिर मैं यहाँ का सबसे पुराना सदस्य हूँ। तभी चकमक लाल जी ने मौका देखकर अपना राग भी अलाप ही दिया, क्या करें? जो भी तय करो, तो ये गिरधारी लाल जी हड़प लेते हैं। अरे आपके पास भी तो अपनी टीम है वहीं माथा पच्ची कीजिए यहाँ हमारी योजनाओं पर पानी फेरने हेतु काहे पधार जाते हैं। आप की बातों पर यहाँ कोई  ध्यान नहीं देता,तो काहे ज्ञान बघार रहें हैं।

कुटिलता भरी मुस्कान के साथ गिरधारी लाल जी ने एक बार चकमक लाल जी की ओर व एक बार खैराती लाल जी की ओर देखकर गंभीर मुद्रा बनाते हुए कहा, आजकल तो भलाई का जमाना ही नहीं रहा। सब चकाचौंध में डूब कर भाषा का सत्यानाश कर रहे हैं। अरे भाई जब सब कुछ मैं मुफ्त में ही कर देता हूँ तो आप लोग काहे इधर-उधर भटकते हुए अपना धन और श्रम दोनों व्यर्थ करते हैं। जाइये चैन की बंशी बजाते हुए अपने अधिकारों हेतु आंदोलन करिए आखिर कर्तव्यों की पूर्ति हेतु आपका बड़ा भाई जोर -शोर से लगा हुआ है। सारी मेहनत हमारी टीम कर रही है, आप तो बसुधैव कुटुंबकम का पालन कर अपने साथ देश -विदेश के लोगों को जोड़िए और इसे अंतरराष्ट्रीय रूप देकर भव्य बनाइए।

चर्चा का इतना खूबसूरत अंत तो आप ही कर सकते हैं, चकमक लाल जी ने खिसियानी मुद्रा बनाते हुए अपने कदम बढ़ा बाहर की ओर बढ़ा लिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 83 ☆ व्यंग्य – “खटिया का बजट” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है । आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य  “खटिया का बजट”। ) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 83

☆ व्यंग्य – “खटिया का बजट” ☆

जनता का बजट है, जनता के लिए बजट है,पर सरकार कह रही है कि ये फलांने साब का लोकलुभावन बजट है।खूब सारे चेहरों को बजट के बहाने साब की चमचागिरी करने का चैनल मौका दे रहे हैं।विपक्ष अपना धर्म निभा रहा है ताकि जनता को पता चले कि विपक्ष भी होता है। गंगू किसान आन्दोलन से लौटा है, दो दिन का भूखा प्यासा खटिया पर लेटकर एक चैनल में बजट देख रहा है, चमकते माॅल में बजट बाजार लिखा है, पीछे से दुकानदार निकल निकल कर हंस रहे हैं, सजी धजी लिपिस्टिक लगी एंकर चिल्ला रही है, बजट में गांव की आत्मा दिख रही है, माॅल के कुछ लोग तालियां बजा रहे हैं।

गंगू का भूखा पेट गुड़गुड़ाहट पैदा कर रहा है, गैस बन रही है, माॅल में जो दिख रहा उसे देखना मजबूरी है। एकदम से चैनल पलटी मार कर इधर लंच के दौरान बजट पर चर्चा पर आकर रुकता है, पार्टी के बड़े पेट वाले और कुछ बिगड़े बिकाऊ पत्रकार भी बैठे हैं, लाल परिधान में लाल लाल ओंठ वाली बजट के बारे में बता रही है, सबके सामने थालियां सज गयीं हैं, थाली में बारह तेरह कटोरियां बैंठी हैं, दो दुबले-पतले खाना परोसने वाले मास्क लगाकर खाना परोस रहे हैं, इतने सारे बड़े पेट वाले बिना मास्क लगाए, स्वादिष्ट व्यंजन सूंघ रहे हैं, बजट पर चर्चा चल रही है, कुछ लोग खाने के साथ बजट खाने पर उतारू हैं। कोरोना दूर खड़ा हंस रहा है। भूखा प्यासा गंगू जीभ चाटते हुए सब देख रहा है। साब बार बार प्रगट होकर कहते हैं  बजट की आत्मा में गांव है और गांव के किसान के लिए बजट है। गंगू करवट लेने लगता है और खटिया की पाटी टूट जाती है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 86 ☆ व्यंग्य – घिस्सू भाई की लात ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘घिस्सू भाई की लात‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 86 ☆

☆ व्यंग्य – घिस्सू भाई की लात

दरवाज़े की घंटी बजी। देखा, संतोस भाई थे। संतोष भाई अपने को ‘संतोस’ कहते थे, इसलिए वे संतोस ही हो गये थे। मैंने देखा संतोस भाई का चेहरा पके टमाटर सा लाल-लाल हो रहा था। मुँह लटका हुआ था। लगता था मुँह को लिये-दिये ज़मीन पर गिर पड़ेंगे।

संतोस भाई भीतर आकर कुर्सी पर ढेर हो गये। मैंने चिन्तित होकर पूछा, ‘क्या हुआ?’

वे बड़ी देर तक चेहरे पर हथेलियाँ रगड़ते रहे। संक्षिप्त उत्तर दिया, ‘कुछ नहीं।’

मैंने कहा, ‘तुम्हारी हालत तो कुछ और कह रही है।’

वे थोड़ी देर ज़मीन की तरफ देखते रहे, फिर बोले, ‘क्या कहें? कहने लायक हो तो बतायें।’

मैंने कहा, ‘बोलो। जी हल्का हो जाएगा।’

वे कुछ क्षण सोचते रहे, फिर बोले, ‘आज साले घिसुआ ने जबरदस्त इंसल्ट कर दी।’

मेरे कान खड़े हुए, पूछा, ‘घिस्सू भाई ने? कैसी इंसल्ट कर दी?’

संतोस भाई रुआँसे हो गये, बड़ी मुश्किल से बोले, ‘लात मारी।’

मैंने साश्चर्य पूछा, ‘तुम्हें?’

वे रुँधे गले से बोले, ‘हाँ।’

मैंने पूछा, ‘कहाँ?’

वे थोड़ी देर मौन रहकर आर्त स्वर में बोले, ‘पिछवाड़े।’

मैंने कहा, ‘यह तो भारी बेइज्जती की बात हो गयी। कैसे हुआ?’

संतोस भाई थोड़ा प्रकृतिस्थ होकर बोले, ‘क्या बतायें कैसे हुआ। हम दोनों ‘नसे’ में थे। वह भाभी की तारीफ कर रहा था और मैं सुन रहा था। सुनते सुनते मेरे मुँह से निकल गया कि गुरू कुछ भी कहो, तुम भाभी के चपरासी जैसे लगते हो। बस फिर मुझे पता ही नहीं चला कि वह उठ कर कब मेरे पीछे पहुँच गया। जब लात पड़ी तभी समझ में आया। मैं मसनद पर बैठा था। मुँह के बल गद्दे पर गिरा। पीछे से वह बोला, ‘हरामजादे, औकात में रह’।’

मैंने अफसोस ज़ाहिर किया, कहा, ‘मामला गंभीर हो गया।’

वैसे बात ज़्यादा चिन्ता की नहीं थी क्योंकि संतोस भाई घिस्सू भाई के प्रधान चमचे के रूप में नगर-विख्यात थे। रोज़ ही उनका दारू-पानी दरबार में होता था और इज़्ज़त में इज़ाफे या कमी का सिलसिला भी चलता रहता था। लेकिन अभी संतोस भाई गुस्से में थे।

मैंने पूछा, ‘क्या करोगे?’

वे नथुने फुलाकर बोले, ‘मैंने तो भीम की तरह उस आदमी की जंघा तोड़ने का प्रण ले लिया है। जिस टाँग से उसने मेरी इज्जत पर प्रहार किया है उसमें मल्टीपल फ्रैक्चर पैदा किये बिना मैं चैन से नहीं बैठने वाला।’

संतोस भाई का ग़म हल्का करने के लिए उन्हें चाय पिलायी। एक घंटा तक घिस्सू भाई को कोसने और उनकी टाँग तोड़ने का प्रण कई बार दुहराने के बाद वे बड़ी मुश्किल से विदा हुए।

फिर आठ दस दिन तक संतोस भाई के दर्शन नहीं हुए। करीब दस दिन बाद नन्दू के चाय के खोखे पर चाय सुड़कते टकराये। मैंने हाल-चाल पूछा तो बोले, ‘आनन्द है।’

मैंने पूछा, ‘फिर घिस्सू भाई से मिले क्या?’

उन्होंने हाथ उठाकर जवाब दिया, ‘अरे राम कहो। मैं भला उस कुचाली के पास क्यों जाऊँ?’

मैंने विनोद में पूछा, ‘टाँग तोड़ने का प्रण अभी याद है कि भूल गये?’

वे भवें चढ़ाकर बोले, ‘भूल गये? कैसे भूल गये? इतनी बड़ी इंसल्ट को कोई भूल सकता है क्या?’

फिर वे थोड़े मौन के बाद बोले, ‘वैसे मैं उस दिन की घटना को दूसरे ढंग से ले रहा हूँ। आप किसी की गाली से इसीलिए अपमानित महसूस करते हैं क्योंकि उस गाली को ग्रहण कर लेते हैं। यदि आप गाली को स्वीकार ही न करें तो कैसा अपमान? दूसरे ने गाली दी, लेकिन हमने ली ही नहीं, तो?’

मैंने कहा, ‘लेकिन यह तो लात का मामला है। ठोस लात पड़ी है। उसे कैसे नामंज़ूर करोगे?’

संतोस भाई का मुँह उतर गया, बोले, ‘ठीक कह रहे हो। लात को अस्वीकार कैसे किया जा सकता है?’

वे चिन्ता में डूब गये और मैं उन्हें विचारमग्न छोड़ चलता बना।

चार छः दिन बाद वे फिर आ गये। दो तीन मिनट इधर उधर की बातें करने के बाद मेरी आँखों में आँखें डालकर बोले, ‘का रहीम हरि कौ गयो जो भृगु मारी लात। क्या समझे?’

मैंने कहा, ‘समझ गया प्रभु। अब समझने को क्या बाकी रह गया है?’

वे बोले, ‘बड़़े को ‘छमासील’ होना चाहिए। टुच्चई करना छोटों का काम है। ठीक कहा न?’

मैंने कहा, ‘बिलकुल दुरुस्त कहा।  तुमसे यही उम्मीद थी।’

वे मुस्कुराये। ज़ाहिर था कि वे पदाघात वाली घटना पर धूल डालने के मूड में आ गये थे।

फिर एक रात संतोस भाई आंधी की तरह मेरे घर में घुस आये। बोले, ‘माफ करना गुरू! वो घिस्सू भाई वाली बात में तुमने हमें बहुत ‘मिसगाइड’ किया। हमें बहुत बरगलाया। हम इतने दिन से बराबर सोच रहे थे कि आखिर हमारे हितचिन्तक घिस्सू भाई ने हमें लात क्यों मारी। सोचते सोचते आज दोपहर को अचानक मेरी समझ में आया। घिस्सू भाई ने पीछे से मुझे लात मारी और मैं आगे जाकर गिरा। दरअसल घिस्सू भाई ने लात मारकर मुझे ‘सन्देस’ दिया कि मैं आगे बढ़ूँ। बड़़े लोग ऐसे ही बिना बोले ‘सन्देस’ देते हैं। समझने के लिए अकल चाहिए। तुमने कई पहुँचे  हुए साधुओं को देखा होगा जो लोगों को गालियाँ देते हैं या मारने को दौड़ते हैं। वे इसी तरह लोगों का कल्याण करते हैं। घिस्सू भाई ने भी यही किया, लेकिन तुमने मुझे सही अर्थ ग्रहण नहीं करने दिया। मैं वापस अपने परम ‘हितैसी’ घिस्सू भाई की ‘सरन’ में जा रहा हूँ, लेकिन तुमको चेतावनी देकर जा रहा हूँ कि आगे किसी दोस्त के साथ ऐसी घात मत करना।’

वे मेरी तरफ चेतावनी की उँगली उठाकर आँधी की तरह ही बाहर हो गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 54 ☆ हाशिए पर…☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर विचारणीय रचना “हाशिए पर…”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 54 – हाशिए पर…

एक दिन पहले मैंने सुझाव देते हुए सहयोग की अपील की  और अगले ही दिन मुस्कुराते हुए कहा आप से बेहतर इसे कोई नहीं कर सकता अब इसे आप संभालें। जब डिब्बे में घुन का ही राज्य हो तो अनाज अपने आप ही पिस जायेगा। गेंहू के साथ घुन भी पिसता है,ये तो तब होगा जब गेंहू चक्की में पिसने हेतु जाए। पर यदि अनाजों में घुन लगा हो तो क्या होगा ?

आकर्षक रंग रोगन से युक्त डिब्बा है ही इतना सुंदर कि कोई ये देखता भी नहीं कि इसमें कीड़े तो नहीं पड़े हैं। बस सुंदरता पर मोहित हो भर दिया सारा अनाज, अब न तो रोते बन रहा है न हँसते। धीरे – धीरे बिना चक्की के सारा अनाज बुरादे में बदलता जा रहा है। वो कहते हैं न कि जो होता है, अच्छे के लिए होता है। सो सकारात्मक सोच लेकर बढ़ते रहो। जो लोग सचेत नहीं होंगे उनका नुकसान तो बनता ही है। जब कुछ मिटेगा तभी तो नए का सृजन होगा। नए का दौर चलते ही रहना चाहिए वैसे भी रुका हुआ जल, पुरानी सोच व एक ही व्यक्ति इन सबको समय के साथ बदलना तो चाहिए। बदलाव तो उन्नति का चिन्ह है।

सबको बदलते हुए व्यक्ति ये भूल जाता है कि आज नहीं तो कल वो भी समय के तराजू में तौला जाने वाला है। क्या करें समय और बाँट किसी के सगे नहीं होते। ये तो वही दिखाते हैं जितना असली वज़न होता है।अब व्यवहार का क्या है ? ये तो कभी असली  कभी नकली मुखौटा पहन कर सबको धोखा देने में माहिर होता है। कई बार देखकर सब कुछ अनदेखा करना ही पड़ता है। शांति और सामंजस्य की कीमत चुकाना कोई आसान कार्य नहीं होता है इसके लिए तिल – तिल कर जलना होगा।

जलना और जलाना इन्हीं दो शास्त्रों पर तो पूरी दुनिया टिकी हुई है। बस कुछ न कुछ करते रहिए, क्योंकि खाली दिमाग शैतान का घर होता है। जब कर्म करेंगे तो कभी न कभी फल मिलेगा ही। हो सकता है सूद सहित मिले। वैसे भी गीता का गान तो यही कहता है कि फल की इच्छा न रखें। महँगाई और कीटनाशकों का प्रभाव फलों भी पड़ रहा है सो  फलों को खाकर ताकत आयेगी ये कहना भी आसान नहीं है।

चक्कर पर चक्कर चलाते हुए वे सबको घनचक्कर बना रहे हैं और एक हम हैं जो पृथ्वी गोल है ये मानकर ही हर बार अपनी धुरी पर घूमते हुए जहाँ से चले थे वहीं पहुँच कर अपना पुनर्मूल्यांकन करते नजर आते हैं। और हर बार स्वयं से प्रण करते हैं कि इस बार चौगुनी तेजी से कुछ नया कर गुजरेंगे। बस इसी जद्दोजहद में उम्र तमाम हुई जा रही है। जब कदम बढ़ते हैं, तभी न जाने कहाँ से हाशिया आ जाता है और हम स्वयं को हाशिए पर खड़ा पाते हैं। पर क्या करें, हम तो ठहरे भगवतगीता के अनुयायी सो कृष्ण मार्ग पर चलते हुए आज नहीं तो कल चक्रव्यूह भेद कर ही दम लेंगे और विजयी भव के साथ अपना परचम फहराते हुए कुछ नया कर गुजरेंगे।

जैसे ही कोई नया कार्य शुरू हुआ कि झट से कोई न कोई शिकारी बाज की तरह टपक पड़ता है, अब कार्य पर ध्यान दें या शिकारियों पर। खैर वही घिसा पिटा राग अलापते हुए उसी दौड़ में फिर से शामिल हो गए। जोड़- तोड़ में तो उनकी मास्टरी है। जहाँ उनको स्नेह से बुलाया नहीं कि  सारी योजना चौपट, फिर वही अपना रंग फैलाते हुए हर समय सबको अपने रंग में रंगने की अचूक कोशिश करने लगते हैं। यहाँ भी वही पृथ्वी गोल है का किस्सा, जिन नीतियों को कोई पसंद नहीं करता है, उसे फिर से चलाने लगे। अब क्या किया जाए चुपचाप देखते रहो क्योंकि जैसे ही सक्रियता बढ़ाई, सबके चहेते बनने की कोशिशें की, तभी पुनः हाशिए पर धकेलने हेतु कोई न कोई नयी योजना द्वार पर दस्तक देते हुए कह उठेगी आप लोग जागरूक बन कर चिंतन करें। स्वयं के साथ- साथ सबको जगाएँ।

कितना भी प्रयास करो हाशिए पर आना ही होगा,ये बात अलग है कि यदि पूरी ताकत से कोशिश की जाए तो हाशिए पर आप की जगह आपको हाशिए पर पहुँचाने वाला हो सकता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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