हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – * ठंड है कि मानती नहीं * – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

ठंड है कि मानती नहीं  

सुबह सुबह पड़ोसी लाल कंपकंपाते हुए, दोनों हाथों को रगडते हुए हमारे यहाँ आ धमके और आते ही हमारे ऊपर प्रश्न दाग दिया — ” सिंह साहब, ये ठंड कब जायेगी ? अब तो जनवरी भी खत्म हो गई है । आप तो कहते थे कि मकर संक्रांति के बाद तिल तिल करके ठंड कम होने लगती है । लेकिन कम होने की जगह यह तो बढ़ती ही जा रही है । अब आप ही बताइये ऐसा क्यों हो रहा है ?”

हमने पड़ोसी लाल को आराम से सोफे पर बैठने का इशारा करते हुए श्रीमती जी को अदरक वाली चाय बंनाने को कहा ।  फिर पड़ोसी लाल की ओर मुखातिब होते हुए कहा — “आप क्यों इतना घबरा रहे हो,  मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार यह जो ठंड पड़ रही है यह लंदन से आयातित है, अपने यहां ठंड का स्टॉक खत्म हो गया था न इसलिये लंदन से ठंड मंगवायी है ।जिस वजह से कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ों पर भारी बर्फ बारी होने से ठंड का दौर कुछ लम्बा खिंच गया है लेकिन जैसे दिये की लौ बुझने से पहले और तेजी से जलने लगती है उसी प्रकार ठंड का यह आखिरी दौर है । ठंड अब कुछ दिनों की मेहमान है । हमें मालूम है कि आप रजाई में दुबके  दुबके बोर हो गये हैं और रजाई से छुटकारा पाना चाहते हैं । अभी तक आप सिकुड़े हुए थे,अब अकड़ना चाहते हैं ।”

पड़ोसी लाल ने मुस्कराते हुए कहा –” सिंह साहब,  अच्छा है जो वैज्ञानिकों ने बता दिया, नहीं तो विपक्ष सरकार पर ही इतनी ठंड पड़ने का आरोप लगाकर सरकार से इस्तीफा मांगने लगता । आप तो  जानते हैं, बहुत दिन हो गये सिकुड़े हुए, सिकुड़ने का यही हाल रहा तो फिर सिकुड़े सिकुड़े ही अकड़ न जायें ।इस बार की ठंड में ऐसी घटनायें कुछ ज्यादा ही हो रही हैं । ऐसे में वास्तविक रूप से अकड़ने का मौका हाथ से न निकल जावे । अब तो  अकड़ दिखाने का मौका आ गया है, देखो बजट भी पेश हो गया है । बजट के हलुआ का प्रसाद जो केवल वित्त मंत्रालय के अधिकारियो , नेताओं के अलावा किसी को भी प्राप्त न हो पाता था, इस बार  किसान, मजदूर गरीबों के साथ ही मध्यम वर्ग को भी मिल गया है  । चुनावी वर्ष में ये सभी अकड़ने को तैयार हैं लेकिन ठंड है कि मानती नहीं ।  वसन्त भी एक कोने में दुबका खड़ा है इस इंतजार में कि ठंड जाए तो फिर मैं चहुँ ओर अपना जलवा बिखेरकर जनमानस को बौराना शुरू करूं । बसन्ती बयार भी बहने को बेताब हैं । लेकिन रह रहकर चलने लगती  शीत लहर के कारण वह भी ठिठक जाती हैं । युवा वर्ग भी अपना वसन्त ( वेलेंटाइन डे ) मनाने की तैयारी में है, वह भी अपने शरीर पर लदे जैकेट,स्वेटरों से छुटकारा पाने के लिये छटपटा रहा है ।  किसान कर्ज के बोझ तले दबा है ।उसके पास न रजाई है न स्वेटर  वह ठंड से कंपकंपा रहा है और सरकार कर्ज माफी का अलाव जलाकर खुद अपनी ठंड दूर कर रही है । बेरोजगार सिकुड़ रहा है नोकरी की आस में, कब नोकरी मिले और वह भी अकड़ दिखा सके ।”

पड़ोसी लाल की चिंता की वजह अब समझ आयी ।  हमने कहा — “आप तो ऐसे चिंता कर रहे हैं जैसे इस देश के चौकीदार आप ही हो । अरे भाई ठंड का क्या है ,आज नहीं तो कल चली ही जायेगी । लेकिन आपको भी मालूम है कि ठंड के जाते ही गर्मी अपना असर दिखाने लगेगी इसलिए कुछ दिन और ठंड का मजा ले लो । फिर गर्मी के साथ साथ चुनावी गर्मी का भी आनन्द उठाना।”

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002

 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – * फूलों के कद्रदाँ * – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

फूलों के कद्रदाँ 

(कई लोगों को अड़ोस-पड़ोस, बाग-बगीचे सोसायटी गार्डेन से फूल चुराने  की एक आम बीमारी है। डॉ  कुन्दन सिंह परिहार  जी की पैनी कलम से ऐसी किसी भी सामाजिक बीमारी से ग्रस्त लोगों का बचना असंभव है। प्रस्तुत है फूल चुराने की बीमारी से ग्रस्त उन तमाम लोगों के सम्मान में  समर्पित एक व्यंग्य)
कहावत है कि मूर्ख घर बनाते हैं और अक्लमन्द उनमें रहते हैं। उसी तरह यह भी कहा जा सकता है कि मूर्ख फूल उगाते हैं और होशियार उनका उपभोग करते हैं।
यकीन न हो तो कभी सबेरे पाँच बजे उठकर दरवाज़े या खिड़की से झाँकने का कष्ट करें।अलस्सुबह जब अँधेरा पूरी तरह छँटा नहीं होता और फूलों के मालिक घर के भीतर ग़ाफ़िल सोये हुए होते हैं तभी हाथों में छोटे छोटे झोले और लकड़ियां लिये फूलों के असली कद्रदानों की टोलियां निकलती हैं।किसी भी घर में फूल देखते ही ये अपने काम में लग जाते हैं। फूल चारदीवारी के पास हुए तो फिर कहना क्या, अन्यथा जैसे भी हों,उन्हें तोड़कर झोले के हवाले किया जाता है।कई बार खींचतान में पूरी डाल ही टूट जाती है। फूलों का मालिक जब सोया था तब घर में बहार थी, सबेरे जब उठता है तो ख़िज़ाँ या वीराना मिलता है। ‘कल चमन था आज इक सहरा हुआ, देखते ही देखते ये क्या हुआ!’
फूलों की चोरी में कोई निचले दर्जे के लोग या छोकरे ही नहीं होते।इनमें ऐसे लोग भी होते हैं जिन्हें भद्र पुरुष या भद्र महिला कहा जाता है।इन्हें आप रंगे-हाथों पकड़ भी लें तब भी चोरी का इलज़ाम लगाना मुश्किल होता है।
एक सज्जन दूध का डिब्बा लेकर सपत्नीक निकलते हैं। दूध लेकर लौटते वक्त फूलों के दर्शन होते ही पति पत्नी दोनों एक एक पौधे पर चिपक जाते हैं। फायदा यह होता है कि दस मिनट का काम पाँच मिनट में मुकम्मल हो जाता है। स्त्री के साथ होने से मकान-मालिक के द्वारा कोई बड़ी बदतमीज़ी करने का भय कम रहता है।
एक महिला हैं जो स्लीवलेस ब्लाउज़ और मंहगी साड़ी पहन कर सुबह की सैर को निकलती हैं। ‘गंगा की गंगा, सिराजपुर की हाट’ की शैली में सैर के साथ फूलों का संग्रह होता चलता है।
एक और सज्जन हैं जो हाथ में लकड़ी लेकर निकलते हैं जिसके छोर पर कोई कील जैसी चीज़ है। वे चारदीवारी के पार से पौधे की गर्दन कील में फँसाकर अपनी तरफ खींच लेते हैं और फिर इत्मीनान से फूल तोड़ लेते हैं। कील की मदद से दूरियां नज़दीकियों में तब्दील हो जाती हैं।
एक साइकिल वाले हैं जो फूल देखते ही अपनी साइकिल धीरे से स्टैंड पर लगाते हैं और बड़ी खामोशी से झटपट फूल तोड़कर ऐसे आगे बढ़ जाते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो। अमूमन साइकिल वाले से झगड़ा करने या उसे गालियाँ देने में फूल-मालिक को ज़्यादा दिक्कत नहीं होती।ये सज्जन भी कई बार फूल-मालिकों की गालियाँ खा चुके हैं, लेकिन वे ‘स्थितप्रज्ञ’ के भाव से आगे बढ़ जाते हैं। पीछे से कितनी भी गालियां आयें, वे पीछे मुड़ कर नहीं देखते, न ही उनके पुष्प-संग्रह के कार्यक्रम में कोई तब्दीली होती है।
कुछ महिलाएं घर की बेटियों को लेकर फूलों के विध्वंस को निकलती हैं। माताएँ एक तरफ खड़ी हो जाती हैं और बेटियाँ फूलों पर टूट पड़ती हैं। देश की भावी माताओं को ट्रेनिंग दी जा रही है।आगे यही माताएँ अपनी संतानों को फूल चुराने की ट्रेनिंग देंगीं। परंपरा आगे बढ़ेगी। पुण्य कमाने के काम में कैसा पाप?
किशोरों की टोलियाँ अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर पुष्प-संहार के लिए निकलती हैं। शायद इनके जनक-जननी घर में आराम से सो रहे होंगे।जब पुत्र अपने विजय-अभियान से लौटेंगे तब माता-पिता नहा धो कर पूजा-पाठ में लगेंगे। देश की अगली पीढ़ी का ज़रूरी प्रशिक्षण हो रहा है।आगे रिश्वतखोरी और कमीशन-खोरी करने में दिक्कत नहीं होगी।अभी से मन की हिचक निकल जाये तो अच्छा है। शायद इसी को अंग्रेजी में ‘पर्सनैलिटी डेवलपमेंट’ कहते हैं। ये लड़के उन्हें बरजने वाले गृहस्वामियों को दूर से कमर हिलाकर मुँह चिढ़ाते हैं। बात बढ़े तो पत्थर भी फेंक सकते हैं।
एक दिन सबेरे सबेरे हल्ला-गुल्ला सुना तो आँख मलते बाहर निकला।देखा, सामने के मकान वाले नवीन भाई स्लीवलेस ब्लाउज़ वाली मैडम से उलझ रहे थे।
मैडम गुस्से से कह रही थीं,’थोड़े से फूल तोड़ लिये तो कौन सी आफत आ गयी। फूल कोई खाने की चीज़ है क्या?’
नवीन भाई ने उसी वज़न का उत्तर दिया,’आपको पूछ कर फूल तोड़ना चाहिए था। इस तरह चोरी करना आपको शोभा नहीं देता।’
मैडम चीखीं,’व्हाट डू यू मीन?मैं चोर हूँ? जानते हैं मेरे हज़बैंड मिस्टर सोलंकी आई ए एस अफसर हैं।’
नवीन भाई हार्डवेयर के व्यापारी हैं।आई ए एस का नाम सुनते ही वे ‘हार्डवेयर’से बिलकुल ‘साफ्टवेयर’ बन गये। हकलाते हुए बोले,’मैडम,मेरा मतलब है आप कहतीं तो मैं खुद आपको फूल दे देता।’
मैडम बोलीं,’वो ठीक है, लेकिन आप किस तरह से बात करते हैं! आप में ‘मैनर्स’ नहीं हैं।’
वे अपना झोला नवीन भाई की तरफ बढ़ाकर बोलीं,’आप अपने फूल रख लीजिए।आई डोंट नीड देम।’
नवीन भाई की घिघ्घी बँधने लगी, बोले,’नईं नईं मैडम।आप फूल रखिए। मैंने तो यों ही कहा था।आप रोज फूल ले सकती हैं।गुस्सा थूक दीजिए।’
मैडम अपना झोला लेकर चलने लगीं तो पीछे से नवीन भाई बोले,’अपने हज़बैंड से,मेरा मतलब है ‘सर’ से, मेरा नमस्ते कहिऐगा।’
फूल चुराने वालों में से कइयों को देखकर ऐसा लगता है कि वे महीनों नहाते नहीं होंगे। फिर सवाल यह उठता है कि वे किस लिए फूल चुराते हैं?लगता यही है कि ये सज्जन दूसरों को पुण्य कमाने में मदद करते होंगे। इस बहाने आधा पुण्य उन्हें भी मिल जाता होगा।
पूछने पर कुछ पुष्प-चोरों से मासूम सा जवाब मिलता है कि देवता पर चोरी के फूल चढ़ाने से ज़्यादा पुण्य मिलता है। उस हिसाब से अगर देवता पर चढ़ाने के लिए दूकानों से नारियल और प्रसाद चुराये जाएं तो पुण्य की मात्रा दुगुनी हो जाएगी।
© कुन्दन सिंह परिहार

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – * नई थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी – रिलेटिंग मॉडर्न इंडिया विथ प्राचीन भारत * – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

नई थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी – रिलेटिंग मॉडर्न इंडिया विथ प्राचीन भारत

(प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का नवीन , सटीक एवं सार्थक व्यंग्य ।  इसके संदर्भ में मैं कुछ लिखूँ/कहूँ इससे बेहतर है आप स्वयं पढ़ें और अपनी राय कमेन्ट बॉक्स में  दें तो बेहतर होगा।)

समानान्तर नोबेल पुरस्कार समिति ने रसायन शास्त्र, भौतिकी और चिकित्सा विज्ञान श्रेणी में अलग अलग पुरस्कार देने की बजाए वर्ष 2019 का विज्ञान समग्र पुरस्कार प्रोफेसर रामप्रबोध शास्त्री को देने का निर्णय किया है. चयन समिति के वक्तव्य के कुछ अंश इस प्रकार हैं.

प्रो. शास्त्री ने कौरवों के जन्म की मटका टेक्नोलॉजी को आईवीएफ टेक्नॉलोजी या टेस्ट ट्यूब बेबीज से रिलेट किया है. उन्होंने बताया कि उस काल में मटका-निर्माण की कला अपने चरम पर थी. कुम्भकार मल्टी-परपज मटके बनाया करते थे. गृहिणियों का जब तक मन किया मटका पानी भरने के काम लिया. जब संतान पाने का मन किया, उसी में फर्टिलाइज्ड ओवम निषेचित कर दिए. मटका टेक्नोलॉजी परखनलियों के मुकाबिल सस्ती पड़ती थी. सौ से कम कौड़ियों में काम हो जाता था और बेबीज के पैदा होने की सक्सेज रेट भी हंड्रेड परसेंट थी. सौ के सौ बालक पूर्ण स्वस्थ. नो इशू एट द टाईम ऑफ़ डिलीवरी कि पीलिया हो गया, कि इनक्यूबेटर में रखो. वैसे आवश्यकता पड़ने पर उसी मटके को उल्टा रख कर इनक्यूबेटर का काम भी लिया जा सकता था. इस तरह उन्होंने मॉडर्न टेक्नॉलोजी को प्राचीन टेक्नॉलोजी से रिलेट तो किया ही, प्राचीन टेक्नॉलोजी को बेहतर निरुपित किया. प्रो. शास्त्री का दावा है कि उन्होने जो रिलेटिविटी कायम करने का काम किया है उससे दुनिया भर के वैज्ञानिक तो चकित हैं ही अल्बर्ट आईंस्टीन की आत्मा भी चकित और मुदित है.

प्रो. शास्त्री ने महाभारत काल में संजय की दिव्य-दृष्टि को लाईव टेलीकास्ट से भी रिलेट किया है. पूर्णिया, बिहार से प्रकाशित साईंस जर्नल ‘प्राचीन विज्ञानवा के करतब’ में प्रो. शास्त्री ने बताया कि टीवी का अविष्कार प्राचीन विज्ञान का ही एक करतब है. संजय की दिव्यदृष्टि और कुछ नहीं बस एक डीटीएच चैनल था जो युध्द का सीधा प्रसारण किया करता था. आज भी नियमित रूप से योगा करने से ऐसी दिव्य दृष्टि प्राप्त की जा सकती है. एक बार दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई तो आप केबल की मंथली फीस और नेटफ्लिक्स का खर्च बचा सकते हैं. उन्होंने अपने अनुसन्धान कार्य से यह भी सिद्ध किया है कि इन्टरनेट तब भी था. नारद मुनि केवल मुनि नहीं थे, वे गूगल टाईप एक सर्च इंजिन थे जिन्हें दुनिया-जहान की जानकारी थी.

प्रो. शास्त्री की अन्य उपलब्धियों में पक्षियों की प्रजनन प्रक्रिया के अध्ययन के उनके निष्कर्ष भी हैं. वे बताते हैं कि मोर संसर्ग नहीं किया करते. मोर रोता है तो उसके आंसू पीने से मोरनी गाभिन हो जाती है. वे अब इस परियोजना पर कार्य कर रहे हैं कि यही प्रक्रिया होमो-सेपियंस, विशेष रूप से मानव प्रजाति में कैसे लागू की जा सकती है. उनके अनुसन्धान के सफल होते ही सामाजिक संरचना में क्रांतिकारी परिवर्तन आने की संभावना है.

प्रो. शास्त्री ने बायोलॉजिकल एन्थ्रोपोलॉजीकल स्टडीज को लेकर जो शोध-पत्र सबमिट किया है उसमें उन्होंने इस अवधारणा को भी ख़ारिज किया है कि हमारे पूर्वज बन्दर, चिम्पांजी या गोरिल्ला थे. इसके लिए वे सल्कनपुर के जंगलों में कई बार एक्सपेडिशन पर भी गए और बहुत ढूँढने की कोशिश की, कोई तो ऐसा आदमी मिले जिसने बन्दर को आदमी में बदलते देखा हो. अफ़सोस उन्हें कोई ऐसा नहीं मिला. स्वयं का वंशवृक्ष बहुत पीछे जाने पर भी सरयूपारीय ब्राह्मण ही मिला. अंततः उन्होंने इस अवधारणा को सिरे से ख़ारिज कर दिया है कि हमारे पूर्वज बन्दर थे.

प्रो. शास्त्री ने खगोल विज्ञान के क्षेत्र में भी महत्पूर्ण कार्य किया है. जहाँ अन्य वैज्ञानिक कुछेक सालों का आगे का सूर्य और चन्द्र ग्रहण अनुमानतः बता पाते हैं, प्रो. शास्त्री का डिजाइन किया हुआ लाला रामनारायण रामस्वरूप, जबलपुरवाले का पंचांग देखकर कोई भी पंडित हजारों वर्ष आगे के ग्रहण का समय बता सकता है.

प्रो. शास्त्री ने पर्यावरण के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय कार्य किया है. हवा में घटती ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाने के लिए b3t1=O2 का नया फ़ॉर्मूला ईज़ाद किया है. वे सिद्ध करके बताते हैंकि तीन या उससे अधिक बतखें(b3) पानी के एक तालाब(t1) में तैरने से सिक्स पीपीम अतिरिक्त ऑक्सीजन (O2) का निर्माण होता है. सबसे कम बतखें दिल्ली में हैं इसीलिए वहां वायु प्रदूषण सर्वाधिक है.

प्रो. शास्त्री अपनी अवधारणाओं, निष्कर्षों को साईंस जर्नलों तक सीमित नहीं रखते बल्कि उसे दीक्षांत समारोहों, विज्ञान परिषदों, विज्ञान मेलों, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों, विश्व विद्यालयों, के अलावा राजनैतिक मंचों पर भी संबोधित करते हुए तार्किक ढंग से रखते हैं. इस प्रकार वे विज्ञान के प्रसार के क्षेत्र में कार्ल सेगान और स्टीफन हॉकिंस को भी पीछे छोड़ते हैं. आनेवाले समय में जिम्मेदार मंचों पर हमें उनसे और प्रो.रा.प्र.शा. स्कूल ऑफ़ साईंसेस के विद्यार्थियों से ऐसे और भी आकलन पढ़ने, सुनने को मिलेंगे.

अंत में, प्रो. शास्त्री ने रिलेटिंग मॉडर्नसाईन्स विथ प्राचीन भारत विज्ञान की जो नई थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी दी हैं,सरकारें अब उनका संज्ञान ले रही हैं. सरकार और शोध संस्थाएँ अनुसन्धान के क्षेत्र में हो रहे डुप्लीकेशन पर गंभीरता से विचार कर रही हैं. व्हाय टू रिइनवेंट अ व्हील. जो अनुसंधान हजारों वर्ष पूर्व हो चुके हैं उनकी वर्तमान परियोजनाओं को बंद करके संसाधनों की  बचत की जा सकती है. आर्यावर्त में हज़ारों वर्ष पूर्व हो चुके अनुसन्धान गर्व के विषय हैं. जब गर्व से ही काम चला सकता हो तो इतनी प्रयोगशालाएँ चलाना ही क्यों ? समान्तर नोबेल पुरस्कार चयन समितिइस विचार से शत-प्रतिशत सहमति रखती है. इसीलिए विज्ञान के क्षेत्र में दिये गए प्रो. रामप्रबोध शास्त्री के अवदान का सम्मान करते हुए उन्हें वर्ष 2019 के विज्ञान समग्र का पुरस्कार दिए जाने की सर्वसम्मति से अनुशंसा करती है.

 

© श्री शांतिलाल जैन 
मोबाइल : 9425019837

Please share your Post !

Shares
image_print