हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – इतना बदलाव कैसे? ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा  “इतना बदलाव कैसे?)

☆ लघुकथा – इतना बदलाव कैसे? ☆

राजू और दिनेश स्कूटर से कहीं जा रहे थे कि अचानक आगे से एक कार उनके ठीक सामने आ कर रुक गयी। दोनों ने एकदम से ब्रेक न लगाए होते तो अवश्य ही टक्कर हो जाती। राजू ने एक भद्दी-सी गाली निकाली, और गुस्से में स्कूटर से उतरकर कार वाले की तरफ कदम बढ़ाने ही लगा था, कि दिनेश ने उसे रोक दिया, “छोड़ न यार, हो जाता है कभी-कभी। अब सड़क पर चलेंगे तो इतना तो चलता ही रहेगा।”

“यार सीधी टक्कर हो जानी थी अभी। साले के आंखें नहीं हैं क्या? चलानी नहीं आती तो घर से निकलते ही क्यों हैं?” राजू ने फिर एक भद्दी-सी गाली दे दी।

दिनेश ने उसे चुप कराते हुए कहा, “चल रहने दे न, जाने दे। अब इतनी बड़ी गाड़ी को रास्ता भी तो चाहिए होता है उतना। यह तो मोड़ भी ऐसा है कि पता ही नहीं चलता कि आगे से कौन आ रहा है। गलती से हो गया”, दिनेश ने कार वाले को जाने का इशारा करते हुए राजू से कहा, “लिहाज किया कर कार वालों का…।”     

राजू हैरानी से दिनेश को देख रहा था, और सोच रहा था, ‘यह वही दिनेश है, जो अगर कोई जरा-सा भी उसको या उसके स्कूटर-मोटरसाइकिल को छू भी जाता था, तो कार वाले से पूरी गाली-गलौच करता था, और मरने-मारने पर उतारू हो जाता था। फिर अब ऐसा क्या हो गया?’

दिनेश ने उसे स्कूटर पर बैठने का इशारा करते हुए कहा, “चल बैठ, समझ गया कि तू क्या सोच रहा है। अब अपने पास भी कार है यार, इसलिए…। थोड़ी इज्जत कर लिया कर कार वालों की, समझा।”

‘तभी मैं कहूं कि इतना बदलाव कैसे?…।’ राजू ने अपना सिर हिला दिया।

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #77 – मन का राजा ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। 

अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से  सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से  बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)

☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #77 – मन का राजा ☆ श्री आशीष कुमार

राजा भोज वन में शिकार करने गए लेकिन घूमते हुए अपने सैनिकों से बिछुड़ गए और अकेले पड़ गए। वह एक वृक्ष के नीचे बैठकर सुस्ताने लगे। तभी उनके सामने से एक लकड़हारा सिर पर बोझा उठाए गुजरा। वह अपनी धुन में मस्त था। उसने राजा भोज को देखा पर प्रणाम करना तो दूर,  तुरंत मुंह फेरकर जाने लगा।

भोज को उसके व्यवहार पर आश्चर्य हुआ। उन्होंने लकड़हारे को रोककर पूछा, ‘तुम कौन हो?’ लकड़हारे ने कहा, ‘मैं अपने मन का राजा हूं।’ भोज ने पूछा, ‘अगर तुम राजा हो तो तुम्हारी आमदनी भी बहुत होगी। कितना कमाते हो?’ लकड़हारा बोला, ‘मैं छह स्वर्ण मुद्राएं रोज कमाता हूं और आनंद से रहता हूं।’ भोज ने पूछा, ‘तुम इन मुद्राओं को खर्च कैसे करते हो?’ लकड़हारे ने उत्तर दिया, ‘मैं प्रतिदिन एक मुद्रा अपने ऋणदाता को देता हूं। वह हैं मेरे माता पिता। उन्होंने मुझे पाल पोस कर बड़ा किया, मेरे लिए हर कष्ट सहा। दूसरी मुद्रा मैं अपने ग्राहक असामी को देता हूं ,वह हैं मेरे बालक। मैं उन्हें यह ऋण इसलिए देता हूं ताकि मेरे बूढ़े हो जाने पर वह मुझे इसे लौटाएं।

तीसरी मुद्रा मैं अपने मंत्री को देता हूं। भला पत्नी से अच्छा मंत्री कौन हो सकता है, जो राजा को उचित सलाह देता है, सुख दुख का साथी होता है। चौथी मुद्रा मैं खजाने में देता हूं। पांचवीं मुद्रा का उपयोग स्वयं के खाने पीने पर खर्च करता हूं क्योंकि मैं अथक परिश्रम करता हूं। छठी मुद्रा मैं अतिथि सत्कार के लिए सुरक्षित रखता हूं क्योंकि अतिथि कभी भी किसी भी समय आ सकता है। उसका सत्कार करना हमारा परम धर्म है।’ राजा भोज सोचने लगे, ‘मेरे पास तो लाखों मुद्राएं है पर जीवन के आनंद से वंचित हूं।’ लकड़हारा जाने लगा तो बोला, ‘राजन् मैं पहचान गया था कि तुम राजा भोज हो पर मुझे तुमसे क्या सरोकार।’ भोज दंग रह गए।

© आशीष कुमार 

नई दिल्ली

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 84 ☆ प्रेम ना जाने कोय ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है परंपरा और वास्तविकता के संघर्ष  पर आधारित मनोवैज्ञानिक लघुकथा ‘प्रेम ना जाने कोय’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस विचारणीय लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 84 ☆

☆ लघुकथा – प्रेम ना जाने कोय ☆

शादी के लिए दो साल से कितनी लडकियां दिखा चुकी हूँ पर तुझे कोई पसंद ही नहीं आती। आखिर कैसी लडकी चाहता है तू, बता तो।

मुझे कोई लडकी अच्छी नहीं लगती। मैं क्या करूँ? मैंने आपको कितनी बार कहा  है कि मुझे लडकी देखने जाना ही नहीं है पर आप लोग मेरी बात ही नहीं सुनते।

तुझे कोई लडकी पसंद हो तो बता दे, हम उससे कर देंगे तेरी शादी।

नहीं, मुझे कोई लडकी पसंद नहीं है।

अरे! तो क्या लडके से शादी करेगा? माँ ने झुंझलाते हुए कहा।

हाँ – उसने शांत भाव से उत्तर दिया।

क्या??? माँ को झटका लगा, फिर सँभलते हुए बोली – मजाक कर रहा है ना तू?  

नहीं, मैं सच कह रहा हूँ। मैं विकास से प्रेम करता हूँ और उसी से शादी करूंगा।

माँ चक्कर खाकर गिरने को ही थी कि पिता जी ने पकड लिया।

क्यों परेशान कर रहा है माँ को –  पिता ने डाँटा।

माँ रोती हुई बोली – कब से सपने देख रही थी कि सुंदर सी बहू आएगी घर में, वंश  बढेगा अपना और इसे देखो कैसी ऊल जलूल बातें कर रहा है। पागल हो गया है क्या? लडका होकर तू लडके से प्यार कैसे कर सकता है? उससे शादी कैसे कर सकता है?  बोलते – बोलते वह सिर पकडकर बैठ गई।

क्यों नहीं कर सकता माँ? लडका इंसान नहीं है क्या? और प्यार शरीर से थोडे ही होता है। वह तो मन का भाव है, भावना है। किसी से भी हो सकता है।

माँ हकबकाई सी बेटे को देख रही थी।  उसकी बातें माँ के पल्ले  ही नहीं पड रही थीं।

अब तो समझो मयंक की माँ ! कब तक नकारोगी इस सच को?

परंपरा और वास्तविकता का संघर्ष जारी है —  

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – तीन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

गणतंत्र दिवस की मंगलकामनाएँ ? ??

एक उत्तर भारतीय लोकगीत में होली-दीपावली के साथ स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस का उल्लेख देखा तो श्रद्धावनत हो उठा। अशिक्षित पर दीक्षित महिलाओं द्वारा राष्ट्रीय पर्वों को लोकजीवन में सम्मिलित कर लेना ही वास्तविक गणतंत्र है।

क्या अच्छा हो कि राष्ट्रीय पर्वों पर सांस्कृतिक त्यौहारों की तरह घर-घर रंगोली सजे, मिष्ठान बनें और परिवार सामूहिक रूप से देश की गौरवगाथा सुने।

अवसर है कि हम आज से ही इसका आरंभ करें।

वंदे मातरम्।

 – संजय भारद्वाज

? संजय दृष्टि –लघुकथा – तीन ??

तीनों मित्र थे। तीनों की अपने-अपने क्षेत्र में अलग पहचान थी। तीनों को अपने पूर्वजों से ‘बुरा न देखो, बुरा न सुनो, बुरा न कहो’ का मंत्र घुट्टी में मिला था। तीनों एक तिराहे पर मिले। तीनों उम्र के जोश में थे। तीनों ने तीन बार अपने पूर्वजों की खिल्ली उड़ाई। तीनों तीन अलग-अलग दिशाओं में निकले।

पहले ने बुरा देखा। देखा हुआ धीरे-धीरे आँखों के भीतर से होता हुआ कानों तक पहुँचा। दृश्य शब्द बना, आँखों देखा बुरा कानों में लगातार गूँजने लगा। आखिर कब तक रुकता! एक दिन क्रोध में कलुष मुँह से झरने ही लगा।

दूसरे ने भी मंत्र को दरकिनार किया, बुरा सुना। सुने गये शब्दों की अपनी सत्ता थी। सत्ता विस्तार की भूखी होती है। इस भूख ने शब्द को दृश्य में बदला। जो विद्रूप सुना, वह वीभत्स होकर दिखने लगा। देखा-सुना कब तक भीतर टिकता? सारा विद्रूप जिह्वा पर आकर बरसने लगा।

तीसरे ने बुरा कहा। अगली बार फिर कहा। बुरा कहने का वह आदी हो चला। संगत भी ऐसी ही बनी कि लगातार बुरा ही सुना। ज़बान और कान ने मिलकर आँखों पर से लाज का परदा ही खींच लिया। वह बुरा देखने भी लगा।

तीनों राहें एक अंधे मोड़ पर मिलीं। तीनों राही अंधे मोड़ पर मिले। यह मोड़ खाई पर जाकर ख़त्म हो जाता था। अपनी-अपनी पहचान खो चुके तीनों खाई की ओर साथ चल पड़े।

 

©  संजय भारद्वाज

(रात्रि 1:51 बजे, 28.9.2019)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 111 – लघुकथा – संविधान एक नियम ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा  “संविधान एक नियम”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 111 ☆

? लघुकथा – संविधान एक नियम ?

एक फूल वाली गरीब अम्मा फूल का टोकना लिए मंदिर के पास बैठी फूल बेच रही थी। तभी अचानक एक नेता का चमचा आया और अम्मा से बोलने लगा… आज हम लोग गणतंत्र दिवस मना रहे हैं। चलो यह पैसे रखो और पूरा फूल पन्नी पर पलटकर भर दो।

अम्मा ने हाथ जोड़कर कर कहा… बेटा पूरे फूल के ज्यादा पैसे होते हैं। आज अगर इसे मैं दे दूं तो मालिक को पूरा पैसा चुकाने के लिए मेरे पास पैसे नहीं है। और आज की मेरी रोजी रोटी कौन चलाएगा।

चमचा बड़े जोर से बोला… जानती हो सारा देश गुलामी की जंजीरों से आजाद हुआ था। तब कहीं भारत में इस दिन 26 जनवरी को एक संविधान बना। जिसके तहत सब कार्य करते हैं आज उसी की खुशहाली के लिए तुम्हारे पास से फूल ले रहे हैं।

फूल वाली अम्मा मजबूरी में सभी फूलों को बटोर कर भरते हुए बोली…. बेटा क्या कोई ऐसा संविधान नहीं बना कि हम गरीब लोग स्वतंत्र हो सकते?

चमचे ने बड़े जोर से कहा… तो स्वतंत्र ही तो हो, स्वतंत्रता का मतलब जानती हो तो स्वतंत्र भारत के नागरिक हो जहां चाहे वहां बैठ सकती हो रोजी रोटी कमा सकती हो।

फूल वाली अम्मा ने बड़े ही शांत भाव से कही… बेटा हमारे लिए तो कल और आज में कोई अंतर नहीं दिख रहा। हम गरीब पहले जैसा ही गुलाम हैं। बस रुप बदल गया है। बात चुभन सी लगी वह चश्मा उतार फूल वाली सयानी अम्मा को देखने लगा और सोचा… क्या सचमुच भारत स्वतंत्र हो गया है और संविधान बना तो मैं क्या कर रहा हूँ?

फूल वाली कह रही थीं… ले जाओ आज भारत माता के लिए मैं भी खुशी मना लूँगी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – असली कमाई ☆ श्री विजय कुमार, सह सम्पादक (शुभ तारिका)

श्री विजय कुमार

(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित पत्रिका शुभ तारिका के सह-संपादक श्री विजय कुमार जी  की एक विचारणीय लघुकथा  असली कमाई)

☆ लघुकथा – असली कमाई ☆

मोहन अपने रिश्तेदारों को छोड़ने रेलवे स्टेशन पर आया हुआ था। उसका दोस्त सुमन भी उसके साथ था। गाड़ी आने में अभी कुछ समय बाकी था। तभी दो लोग रेलवे पायलट की वर्दी में वहां से गुजरे। जैसे ही उनकी नजर मोहन पर पड़ी, वह एकदम उसकी तरफ लपके और हाथ जोड़कर बड़े शिष्टाचार से बोले, “नमस्कार सर, पहचाना? मैं पायलट सचिन और यह मेरा सहायक पायलट दिलबाग। और साहब, यहां कैसे?”

मोहन ने कहा, “नमस्कार, कैसे हो बंधु? बस, यह मेरे रिश्तेदार हैं, इन्हें गाड़ी चढ़ाने आया था।“

पायलट ने कुछ इशारा किया और सहायक पायलट तुरंत चला गया। थोड़ी ही देर में वह चाय और कुछ स्नैक्स लेकर प्रकट हो गया।

“अरे यह क्या?” मोहन ने अभी वाक्य पूरा भी नहीं किया था कि पायलट बोल पड़ा, “कुछ नहीं जनाब, आप बस लीजिए।“ और उन दोनों ने बिना देर किए चाय और स्नैक्स सबको पकड़ा दिए।

“सचिन भाई, यह सब…।” मोहन कुछ बोलने को हुआ, पर सचिन ने मौका ही नहीं दिया, “क्या साहब, आप हमारा इतना ख्याल रखते हैं, तो छोटे भाई होने के नाते हमारा क्या इतना भी हक नहीं बनता। प्लीज सर, बुरा मत मानना इसके लिए। अच्छा चलते हैं, नमस्कार।” कह कर दोनों चले गए। इतने में ही गाड़ी के आगमन की घोषणा हो गई और वह खा-पी कर अपना सामान संभालने लगे।

रिश्तेदारों को गाड़ी में बैठाकर जब वह बाहर निकले, तो सुमन ने पूछ ही लिया, “यह क्या था?”

मोहन, “कुछ नहीं, अपने स्टाफ के ही हैं। दरअसल मैं हेडक्वार्टर में हूं, और इनका डीलिंग क्लर्क हूं। इनकी ट्रांसफर-प्रमोशन मेरे द्वारा ही डील होती हैं। मैं अपना कर्तव्य समझकर समय से पहले ही इनका काम पूरा करने की कोशिश करता हूं, तो पूरा स्टाफ भी मेरी बहुत इज्जत करता है। अब तुम सोचो कि यदि मैं थोड़े बहुत रुपयों के लालच में, जैसा कि मेरे कई साथी करते भी हैं, इनका काम रोकूँ, इन्हें परेशान करूं, और फिर कुछ ले-देकर इनका काम करूं, तो मैं कितना धन इकट्ठा कर लूं, परंतु जो इज्जत ऐसे यह मेरी मेरे रिश्तेदारों या जान-पहचान वालों में करते हैं, क्या यह इज्जत मैं कभी पा सकता हूं? मेरे लिए तो यही असली कमाई है…।”   

“यह तो है।” सुमन को भी उसका दोस्त होने पर गर्व हो रहा था।

©  श्री विजय कुमार

सह-संपादक ‘शुभ तारिका’ (मासिक पत्रिका)

संपर्क – # 103-सी, अशोक नगर, नज़दीक शिव मंदिर, अम्बाला छावनी- 133001 (हरियाणा)
ई मेल- [email protected] मोबाइल : 9813130512

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 103 – लघुकथा – भोग ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “भोग।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 103 ☆

☆ लघुकथा — भोग ☆ 

मकर संक्रांति के दिन थाली में सजे चढ़ावे को देखकर उसकी आंखों में चमक आ गई। उसने चढ़ावा उठाया। एक अखबार में रखा। फिर दौड़ पड़ा।

दूर सामने एक झोपड़ी थी। उसमें गया। बिस्तर पर बीमार बचा लेटा हुआ था, “ले दोस्त! यह प्रसाद है। खा लेना। तेरे शरीर में कुछ ताकत आ जाएगी,” कहते हुए वापस झोपड़ी से बाहर निकल गया।

देखा। सामने पिताजी किमकर्तव्यविमूढ़ से खड़े थे।

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

13-01-2022

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – लघुकथा – मोक्ष ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – लघुकथा मोक्ष ??

उसका जन्म मानो मोक्ष पाने के संकल्प के साथ ही हुआ था। जगत की नश्वरता देख बचपन से ही इस संकल्प को बल मिला। कम आयु में धर्मग्रंथों का अक्षर-अक्षर रट चुका था। फिर धर्मगुरुओं की शरण में गया। मोक्ष के मार्ग को लेकर संभ्रम तब भी बना रहा। कभी मार्ग की अनुभूति होती भी तो बेहद धुँधली। हाँ, धर्म के अध्ययन ने सम्यकता को जन्म दिया। अपने धर्म के साथ-साथ दुनिया के अनेक मतों के ग्रंथ भी उसने खंगाल डाले पर ‘मर्ज़ बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की।’ … बचपन ने यौवन में कदम रखा, जिज्ञासु अब युवा संन्यासी हो चुका।

मोक्ष, मोक्ष, मोक्ष! दिन-रात मस्तिष्क में एक ही विचार लिए सन्यासी कभी इस द्वार कभी उस द्वार भटकता रहा।… उस दिन भी मोक्ष के राजमार्ग की खोज में वह शहर के कस्बे की टूटी-फूटी सड़क से गुज़र रहा था। मस्तिष्क में कोलाहल था। एकाएक इस कोलाहल पर वातावरण में गूँजता किसी कुत्ते के रोने का स्वर भारी पड़ने लगा। उसने दृष्टि दौड़ाई। रुदन तो सुन रहा था पर कुत्ता कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। कुत्ते के स्वर की पीड़ा संन्यासी के मन को व्यथित कर रही थी। तभी कोई कठोर वस्तु संन्यासी के पैरों से आकर टकराई। इस बार दैहिक पीड़ा से व्यथित हो उठा संन्यासी। यह एक गेंद थी। बच्चे सड़क के उस पार क्रिकेट खेल रहे थे। बल्ले से निकली गेंद संन्यासी के पैरों से टकराकर आगे खुले पड़े एक ड्रेनेज के पास जाकर ठहर गई थी।

देखता है कि आठ-दस साल का एक बच्चा दौड़ता हुआ आया। वह गेंद उठाता तभी कुत्ते का आर्तनाद फिर गूँजा। बच्चे ने झाँककर देखा। कुत्ते का एक पिल्ला ड्रेनेज में पड़ा था और मदद के लिए गुहार लगा रहा था। बच्चे ने गेंद निकर की जेब में ठूँसी। क्षण भर भी समय गँवाए बिना ड्रेनेज में लगभग आधा उतर गया। पिल्ले को बाहर निकाल कर ज़मीन पर रखा। भयाक्रांत पिल्ला मिट्टी छूते ही कृतज्ञता से पूँछ हिला-हिलाकर बच्चे के पैरों में लोटने लगा।

अवाक संन्यासी बच्चे से कुछ पूछता कि बच्चों की टोली में से किसीने आवाज़ लगाई, ‘ए मोक्ष, कहाँ रुक गया? जल्दी गेंद ला।’ बच्चा दौड़ता हुआ अपनी राह चला गया।

संभ्रम छँट चुका था। संन्यासी को मोक्ष की राह मिल चुकी थी‌।

……..धरती के मोक्ष का सम्मान करो, आकाश का मोक्षधाम तुम्हारा सम्मान करेगा।

©  संजय भारद्वाज

अपराह्न 1:51बजे, 11दिसम्बर 2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 110 – लघुकथा – हिस्सेदारी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा  “हिस्सेदारी”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 110 ☆

? लघुकथा – हिस्सेदारी ?

ट्रेन अपनी रफ्तार से चली जा रही थी। रिटायर्ड अध्यापक और उनकी पत्नी अपनी अपनी सीट पर आराम कर रहे थे। तभी टी टी ने  आवाज़… लगाई टिकट प्लीज रानू ने तुरंत मोबाइल आन कर टिकट दिखाई और कहीं जरा धीरे मम्मी पापा को अभी अभी नींद लगी है तबीयत खराब है मैं उनकी बेटी यह रहा टिकट।

टिकट चेकिंग कर वह सिर हिलाया अपना काम किया  चलता बना।

अध्यापक की आंखों से आंसू की धार बहने लगी। बरसों पहले इसी ट्रेन पर एक गरीब सी झाड़ू लगाने वाली बच्ची को दया दिखाते हुए उन्होंने उस के पढ़ने लिखने और उसकी सारी जिम्मेदारी ली थी विधिवत कानूनी तौर से।

पत्नी ने तक गुस्से से कहा था… देखना ये तुम जो कर रहे हो हमारे बेटे के लिए हिस्सेदारी बनेगी। आजकल का जमाना अच्छा नहीं है।

मैं कहे देती हूं इसे घर में रखने की या घर में लाने की जरूरत नहीं है।

अध्यापक महोदय उसको हॉस्टल में रखकर पूरी निगरानी किया करते। तीज त्यौहारों पर घर का खाना भी देकर आया करते थे।

समय पंख लगा कर निकला।बेटे हर्ष ने बड़े होने पर  अपनी मनपसंद की लडकी से शादी कर लिया। बहू के  आने के बाद घर का माहौल बदलने लगा बहू ने दोनों को घर का कुछ कचरा समझना शुरु कर दिया। दोनों अच्छी कंपनी में जॉब करते थे।

रोज रोज की किट किट से तंग होकर बहु कहने लगी घर पर या ये दोनों रहेंगे या फिर मैं।

रिटायर्ड आदमी अपनी पत्नी को लेकर निकल जाना ही उचित समझ लिया। और आज घर से बाहर निकले ही रहे थे कि सामने से बिटिया आती नजर आई।

चरणों पर शीश नवा कर कहा…मुझे माफ कर दीजिएगा पिताजी आने में जरा देर हो गई। चलिए अब हम सब एक साथ रहेंगे। माँ का पल्लू संभालते हुए  बिटिया ने कहा… बरसो हो गए मुझे माँ के हाथ का खाना नहीं मिला है। अब रोज मिलेगा। मुझे एक अच्छी सी जाब मिल गई हैं।

माँ अपनी कहीं बात से शर्मिंदा थी। यह बात अध्यापक महोदय समझ रहे थे। हंस कर बस इतना ही कहें.. अब समझ में आया भाग्यवान हिस्सेदारी में किसको क्या मिला।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 121 ☆ भूख…! ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय लघुकथा ‘भूख…!’ )  

☆ लघुकथा # 121 ☆ भूख…! ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

सास बहू की जमकर लड़ाई हुई।

सास ने बहू के मायके वालों को गरियाया, बहू ने सास के बेटे और आदमी को कुछ कुछ कहा। (समझदार को इशारा काफी)

दोनों थक गई थी, मुंह फुलाए बैठीं थी।दोपहर को दोनों को खूब भूख लगी।

सास ने गरमागरम दाल बनाईं। बहू ने स्वादिष्ट सब्जी बनाईं।

दोनों खाने बैठीं, तो सास ने सब्जी की तारीफ कर दी, तुरंत बहू ने मुस्कुराते हुए खूब सारी गरमागरम दाल सास के कटोरे में भर दी। जब सास की जीभ जल गई तो बहू ने दाल की तारीफ कर दई।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print