English Literature – Poetry (भावानुवाद) ☆ बरगद / Banyan Tree – सुश्री निर्देश निधि ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.

Captain Pravin Raghuvanshi ji  is not only proficient in Hindi and English, but also has a strong presence in Urdu and Sanskrit.   We present an English Version of Ms. Nirdesh Nidhi’s  Classical Poetry  बरगद  with title  “Banyan Tree” .  We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation.)

आपसे अनुरोध है कि आप इस रचना को हिंदी और अंग्रेज़ी में  आत्मसात करें। इस कविता को अपने प्रबुद्ध मित्र पाठकों को पढ़ने के लिए प्रेरित करें और उनकी प्रतिक्रिया से  इस कविता की मूल लेखिका सुश्री निर्देश निधि जी एवं अनुवादक कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी को अवश्य अवगत कराएँ.

सुश्री निर्देश निधि

 ☆ बरगद ☆ 

 (मेरी यादों में बसा वह बरगद जिसे कट जाना पड़ा नवनिर्माण के लिए, और (दुःखद) परिणामस्वरूप जन्मी यह रचना–)

सुनो लकड़हारे ,

हमारे पोखर वाले खेत के मुहाने पर

ये जो बरगद वाला पेड़ है न

ये सुनाता है किस्से, कहता है कहानियाँ

हमारे दादा परदादाओं की ।

कई बार मेरे सपने में आता है कोई झुकी कमर वाला बूढ़ा

और कहता है

ये बरगद नहीं, वंश वृक्ष है

आदमी जीते हैं और मर जाते हैं

ये जीवित रहता है, पीढ़ी दर पीढ़ी

इसे कभी हमारे बुज़ुर्गों ने सौंपी थी बुज़ुर्गियत

पहनाई थी पगड़ी

खड़ा है इसीलिए, हनुमान सा चिरजीवी

सुनो लकहारे तुम

तुम इसकी जड़ें तो क्या

टहनियाँ भी मत छूना

इनमें रात भर समेटता है निशाचारी चाँदनी की ठंडक

बुरकता है दुपहरी भर थोड़ी – थोड़ी

थके मांदे राहगीरों की तपती झुलसती काया पर, करीने से

सुनो लकड़हारे

तुम उसकी टहनियाँ तो क्या

पत्तियों को भी मत छूना

ये बजकर खरताल सी, सुर साधकर साथ समीरों के

सुनाती है मंद – मंद लोरियां ,गाती हैं दीपक राग

हर नई सुबह करती हैं सिंगार

लेकर उषा से ढेर सारी लालिमा

सुनो लकड़हारे

तुम इसकी पत्तियां तो क्या

इसकी हवाओं को भी मत छूना

जिन्हें ये दिन  भर ठहराता है सबकी उखड़ती साँसों में

अंधेरी रात के बिछौने से रात भर बीनता है कालिमा

बुनकर कालीन बिछा देता है दिनभर के लिए

बना छोड़ी है सराय इसने अपनी घनी छाँव तले

बाबुल के घर लौटतीं  गाँव की बेटियों के सिर पर

पिता के आशीर्वाद सा, सेवल को खड़ा रहता है

बालकों को पुचकारता, बूढ़ों के सुर में सुर मिलाता

यौवन के सुरमई सपनों का ,

ज्वार भाटों से भरा समंदर ये

पशु और परिंदों का,

चेतन और उनींदों का बाल सखा जो है

साथ खड़ी पोखर के सीने पर चढ़ा रहता है

हंसी ठिठोली का रिश्ता जो जोड़ रखा है

जब देखो तब, आँख बचाकर उसके धुले पुंछे आँचल पर

अपनी बेकार हुई पत्तियां ठेल देता है

सुनो लकड़हारे,

तुम लकड़हारा बनकर इसे कभी मत देखना

मासूम परिंदों के साथ ही इसने पाल रखे हैं आदम खोर भी

विमर्श करता रहता  है रात भर उनसे

खड़ा रहता है चौकन्ना चौकीदार सा

वो जो हमारे पोखर वाले खेत के मुहाने पर

बरगद वाला पेड़ है न ……

 

© निर्देश निधि

संपर्क – निर्देश निधि , द्वारा – डॉ प्रमोद निधि , विद्या भवन , कचहरी रोड , बुलंदशहर , (उप्र) पिन – 203001

ईमेल – [email protected]

 ☆ Banyan Tree☆

 

O’, Woodcutter!

At the mouth of our farm land,

Next to the puddle pond

There is this banyan tree,

That tells stories,

Narrates fables of

Our grandfathers, great grandfathers…

 

Many a times, there comes

this old man in my dreams,

with a humpback…

Who proclaims

This is not just a banyan tree,

It’s a family tree

People live and die

As it lives on, generation after generation…

Long back, it was crowned with

the title of *’Ageless’* by our ancestors

Since then, it wore the  ‘turban of elders’…

And, as Lord Hanuman*

it has been standing rock-solid ever since,

Steadfast forever…!

 

Listen you, Woodcutter!

Don’t you dare touching its twigs

Leave apart even cutting its roots…

Throughout the night,

It gathers the coolness of the nocturnal moonlight…

As it sprinkles fragrant and

soothing freshness on

the scorching bodies

of the tired travelers…

 

Listen, O’ Woodcutter!

What to talk of twigs,

You don’t even touch the leaves…

It plays the zither,

with a melodious sound

Singing celestial lullabies in Deepak Raga* tune

Adorning itself with the redness

of the dawn every morning…

 

Listen, O’ Woodcutter!

Leave apart even chopping the leaves

Don’t you dare

touching its winds

Which it puffs in everyone’s breath,

throughout the day…

Picks up the ‘Kalima’ –the darkness– of the night,

Weaves a soothing layer of carpet below, for the day…

Has made a perennial

inn under its dense shade

Envelops as the blessings of father

On the heads of the daughters of the village,

 returning to their parental house…!

 

It fondles with the children,

Harmonises tone with

the aged ones and shows the

beautiful dreams to the youth,

A swollen sea full of tides

of animals and birds,

Inseparable childhood friend

of animate and  inanimate objects,

while standing by the side of puddle,

firmly as ever..

Maintaining the relationship of joy and laughters…!

Whenever it feels like,

It quietly, dumps the wasted leaves,

On the spick and span ground below…

 

Listen, O’ Woodcutter!

Don’t you ever look at it as a wood-chopper…

Along with innocent birds,

it has also raised man-eaters,

as it keeps discussing

with them all night through

Standing watchful like a sentinel,

At the mouth of our puddle-farm,

That very Banyan tree …!

 

© Captain (IN) Pravin Raghuanshi, NM (Retd),

Pune

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ चुप्पियाँ-14 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ चुप्पियाँ-14

आदमी

बोलता रहा ताउम्र,

दुनिया ने

अबोला कर लिया,

हमेशा के लिए

चुप हो गया आदमी,

दुनिया आदमी पर

बतिया रही है!

 

©  संजय भारद्वाज

प्रातः 9:44 बजे, 2.9.2018

( कवितासंग्रह *चुप्पियाँ* )

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 53 ☆ संकल्प ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  एक विचारणीय कविता  “संकल्प । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 53 – साहित्य निकुंज ☆

☆ संकल्प  ☆

दोहा – 

कोरोना के काल में, बढ़ी पेट की आग।

कोई नहीं है सुन रहा, भूखों का यह राग।।

 

संकल्प –

 

करो दृढ़ संकल्प

नहीं दूसरा विकल्प

मिलजुलकर सब साथ रहो

एक दूसरे से कुछ न कहो।

कोरोना  का छाया आतंक

करना होगा मिलजुलकर अंत

जैसे

देश की रक्षा के लिए

वीरों ने उठाई तलवार

सहे अनेकों वार

राष्ट्र की अनेकता में एकता

रखी बरकरार।

देश पर आए अनेकों संकट

उखाड़ फेंके अनेकों कंटक

हमें अब नहीं है डरना

कोरोना को पड़ेगा हारना

मिलकर हम सबको उसे मारना।।

यह महामारी

नहीं होगी हम पर भारी।

इरादे रखो मजबूत

करते रहो

प्रभु का स्मरण

करो न उन्हें विस्मरण

हमें

घर से करना सामना

पैर घर में  ही थामना।।

करना है संकल्प

नहीं दूसरा कोई विकल्प।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 44 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है शब्द आधारित  “संतोष के दोहे”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 44 ☆

☆ “संतोष के दोहे ☆

 

आँचल

माँ का आँचल जगत में,देता शीतल छाँव

माँ देवी अवतार हैं, जन्नत माँ के पाँव

 

अभिसार

ऋतु बसंत में गा रहे,भंवरे भी मल्हार

कलियों का रस पान कर,चाह रहे अभिसार

 

अनुप्रास

प्रेम जगत में भावना, हुई छंद अनुप्रास

ह्रदय हिलोरे ले रहा,लगा प्रेम की आस

 

अजेय

चीन अहम से समझता,खुद को बड़ा अजेय

आये ऊँट पहाड़ तल,भारत का यह ध्येय

 

अनिकेत

सुना राम का वन गमन,दशरथ हुए अचेत

व्याकुल नगरी चल पड़ी,बहुत हुए अनिकेत

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ एकाकी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ एकाकी 

 

नीरव अंधेरे में

दिखतेे हैं साये,

अकेलापन,

आदमी को

भूत-प्रेत कर देता है..!

 

©  संजय भारद्वाज

(13 जून 16, रात्रि 11:41)

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ मुकरी – गिरगिट चीनी पर कड़वी मुकरियां ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी” जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की  एक  समसामयिक रचना मुकरी – गिरगिट चीनी पर कड़वी मुकरियां। 

 

। इस अतिसुन्दर रचना के लिए आदरणीया श्रीमती हेमलता जी की लेखनी को नमन। )

 ☆  मुकरी – गिरगिट चीनी पर कड़वी मुकरियां  ☆ 

 

बरसों ठगुआ साथ बिताए

छोट-छोट आँखें मिचकाए

बोली बोले कैसी मिनमीन

हे सखि– साजन?

ना सखि– चीन!

 

माटीमिला भेंट लै आवै

दोइ-दोइ दे अरु एक गिनावै

जगत भरोस मुआ जीत लीन

हे सखि– साजन?

ना सखि – – चीन!

 

घूम घूम करे प्रिय बतियाँ

गले लगा छींके असगुनियाँ

घर घर कीट कीट करि दीन

हे सखि— साजन?

ना सखि— चीन!

 

भोली सुरत बनावै ठिगुना

कहे मीत बिन भाए कछु ना

लबरा बहुत बजाई बीन

हे सखि– साजन?

ना सखि— चीन!

 

बातन में ना उसके आउं

अबके हाथ उसे जो पाऊं

लेऊं मुखौटो उसको छीन

हे सखि— साजन?

ना सखि—चीन!

 

एक पग बैरी बढन ना  दूँ

देहरी पार अब करन न दूँ

विनती लाख करे बन दीन

हे सखि– साजन?

ना सखि– चीन!

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर महाराष्ट्र 440010

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 34 ☆ नवगीत – भीगिए, गाइए आज गाना ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक सकारात्मक एवं भावप्रवण नवगीत  “भीगिए, गाइए आज गाना.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 34 ☆

☆ नवगीत  – भीगिए, गाइए आज गाना ☆ 

 

फिर हुआ

आज मौसम सुहाना

आ गया बारिशों का जमाना

भीगिए

गाइए आज गाना

 

गा रही हैं फुहारें

छतों पर

दर्द लिख दीजिए

सब खतों पर

 

बचपने में चले जाइएगा

बूँदों से है

रिश्ता पुराना

 

युग-यगों से

प्रतीक्षा रही है

मीत!अब आस

पूरी हुई है

 

प्रेयसी आ गई

आज मिलने

बात मन की

उसे अब बताना

 

जागिए

अब निकलिए घरों से

उड़ चलें आज

मन के परों से

 

छेड़ दी रागिनी

पंछियों ने

देखिए

पंख का फड़फड़ाना

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 54 – होती पूर्ण कहाँ कविता है ☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता  होती पूर्ण कहाँ कविता है। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 54 ☆

☆  होती पूर्ण कहाँ कविता है ☆  

 

होती पूर्ण कहाँ कब कविता

जितने शब्द भरें हम इसमें

फिर भी घट रीता का रीता।

 

धरती लिखा, किंतु

कब इस पर किया गौर है

शुरू कहां से हुई

आखिरी कहां छोर है,

किसने नापा है

हाथों में लेकर फीता।।

 

जब आकाश लिखा,

सोचा ये भी अनन्त है

सूर्य-चांद, तारे ग्रह

फैले, दिग्दिगन्त है,

स्वर्ग-नर्क के तर्कों में

क्या विश्वसनीयता।।

 

लिखा भूख, तो

रोज पेट खाली का खाली

प्यासा मन कब भरी

एषणाओं की प्याली,

अनगिन व्याप्त

वासनाओं से कौन है जीता।।

 

अलग-अलग हिस्सों में

बंटी हुई, कविताएं

जैसे बंटा आदमी

ले, छिटपुट चिंताएं

पढ़ा, सुना है, पूर्ण

एक वह सृष्टि रचियता।।

 

होती पूर्ण कहां कब कविता

जितने शब्द भरें हम इसमें

फिर भी घट रीता का रीता।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ संवाद ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ संवाद 

उधार लिए

कुछ अक्षर मैंने,

उसने जुटाए

यहाँ-वहाँ से,

शब्दों का ढांचा

खड़ा हो पाता,

वाक्य का

ताना-बाना बुन पाता,

उससे पहले

उसकी आँख से

टपकी खारी बूँद

और मेरी पलकों की

कोरों का भीगा अहसास

सब कुछ कह गया,

निःशब्द सेतु है

अब हमारे बीच,

संवाद जिस पर

चहलकदमी कर रहा है!

 

©  संजय भारद्वाज

17.6.2013

# सजग रहें, स्वस्थ रहें।#घर में रहें। सुरक्षित रहें।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ बूढ़ी माई ☆ डॉ प्रतिभा मुदलियार

डॉ प्रतिभा मुदलियार

(डॉ प्रतिभा मुदलियार जी का अध्यापन के क्षेत्र में 25 वर्षों का अनुभव है । वर्तमान में प्रो एवं अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय। पूर्व में  हांकुक युनिर्वसिटी ऑफ फोरन स्टडिज, साउथ कोरिया में वर्ष 2005 से 2008 तक अतिथि हिंदी प्रोफेसर के रूप में कार्यरत। कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत।  इसके पूर्व कि मुझसे कुछ छूट जाए आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया डॉ प्रतिभा मुदलियार जी की साहित्यिक यात्रा की जानकारी के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें –

जीवन परिचय – डॉ प्रतिभा मुदलियार

आज प्रस्तुत है डॉ प्रतिभा जी की एक भावप्रवण कविता  बूढ़ी माई।  कृपया आत्मसात करें । )

☆ बूढ़ी माई ☆

वो जो बूढ़ी माई

बैठी है उस पार पटरी के

जोह रही

घर ले जानेवाली

रेल की राह है।

जिये जा रही थी

भीड़ में अकेली

अपनों में पराये सी,

इन्सानों में जानवरों सी।

आरामतलब घर में

जब नहीं जला पायी नेह की बाती

तब उठाएं तन को

कदमों पर अपने

निकल पड़ी

उस घर की ओर

जिसका नहीं कोई ठांव और ठोर।

गठरी में थे उसके

रोटी के दो चार टुकडे सूखे

और कुछ कपड़े  फटे पुराने

पल्लू के कोने में बांधी थी

कोई पुड़िया कागज़ की

जिसपे लिखा था

धुंधला सा नाम कोई

जिस पढ़ा  न जा सके कभी।

पूछा जब उसे जाना कहाँ है

बोली वह मुस्कुराकर

जाती घर मैं अपने

जो है मीलों दूर यहाँ से

गाडी का है मुझे इंतजार

ले जाएगी जो उस पार।

मेरा है लाल उधर

और एक घर सुंदर

नहीं रास आया यह शहर

अब मैं चली अपने घर।

नहीं निकला था शब्द भी

कोई अस्पष्ट

उसके भरोसे पर

मेरा मौन ही था उत्तर।

और उठे थे मेरे भीतर

प्रश्न कई सारे।

क्यों काट देते हैं

जड़ें अपनों की

और रोप देते हैं

मिट्टी में परायों की …

क्यों खुदगर्ज हैं इतने

कि मतलब निकलते ही

छोड़ देते हैं बेसहारा

सडकों पर,

क्यों नहीं थाम लेते हैं

कांपते हाथ

कि ला सकें एक

निखालिस मुस्कान अधरों पर

कि थम जाए थके कदम

अपनी ही

दहलीज के भीतर।

उसकी आँखों में नहीं था

कोई डर या आतंक

तैर रहा था

उसकी गहरी आँखों में

खुले आसमान के नीचे

खुली सांस लेने का

परमानंद।।

 

©  डॉ प्रतिभा मुदलियार

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी अध्ययन विभाग, मैसूर विश्वविद्यालय, मानसगंगोत्री, मैसूर 570006

दूरभाषः कार्यालय 0821-419619 निवास- 0821- 2415498, मोबाईल- 09844119370, ईमेल:    [email protected]

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