हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 226 – वात्सल्य धर्मिता ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “वात्सल्य धर्मिता”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 226 ☆

🌻लघु कथा🌻 वात्सल्य धर्मिता 🌻

पहलगाम घटना के बाद सोशल मीडिया पर धर्म को लेकर बड़ा उछाल होने लगा। आज सिध्दी अपने होटल पर परिवार वालों के साथ बैठी थी। अच्छी खासी भीड़ थी।

वह एक गायक कलाकार था। होटल में गाना गाता था। लोगों के बीच गाना गा रहा था परन्तु डर और बेबसी उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी।

वह मेनैजर से बात करने लगी। बातों के इशारे को गायक को समझते देर न लगी। मेनैजर बता रहा था–हम तो अभी निकाल दे मेडम आप कहें तो?? लेकिन यह कमाने वाला अकेला माँ बाप और भाई बहन का बोझ लिए यह काम करता है और शाम को हमारे होटल में 4-5 घंटे गाना गाता है। आवाज अच्छी है।

सिध्दी ने कागज नेपकिन में कुछ रुपये बाँधे जाते समय उसे देते बोली–खुश रहो धर्म नही तुम एक अच्छे गायक हो। कला का सम्मान करो।

पैरों पर गिर पड़ा। मेरा-नाम धर्म जो भी है मेडम, मुझे आपके वात्सल्य धर्मिता की पहचान हो गई है। मै जीवन पर्यन्त आपकी भावनाओं का सम्मान करुंगा।

आज फिर एक कला जीवंत हो उठी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ ≈ मॉरिशस से ≈ – गद्य क्षणिका – बेबाकी… – ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

श्री रामदेव धुरंधर

(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव  जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय गद्य क्षणिका “– बेबाकी…” ।

~ मॉरिशस से ~

गद्य क्षणिका— बेबाकी — ☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆

महात्मा गांधी संस्थान में साथ काम करने वाला हमारा एक मित्र कहता था, “सभी लेखक विद्वान नहीं होते।” संस्थान में हम दो तीन लिखने वाले थे और वह लिखने वाला नहीं था। गजब यह कि वह अपनी इस बात से हम पर हावी हो जाता था। तब मेरी पक्षधरता लेखकों के लिए ही होती थी। पर अब मुझे लगता है उतनी बेबाकी से कहने वाले उस मृत आदमी की समाधि पर श्रद्धा के दो फूल चढ़ा आऊँ।

 © श्री रामदेव धुरंधर

24 – 04 – 2025

संपर्क : रायल रोड, कारोलीन बेल एर, रिविएर सेचे, मोरिशस फोन : +230 5753 7057   ईमेल : [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “सहानुभूति” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ लघुकथा – “सहानुभूति” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

वे विकलांगों की सेवा में जुटे हुए थे। इस कारण नगर में उनका नाम था। मुझे उन्होंने आमंत्रण दिया कि आकर उनका काम व सेवा संस्थान देखूं। फिर अखबार में कुछ शब्द चित्र खीच सकूं।

वे मुझे अपनी चमचमाती गाड़ी में ले जा रहे थे। उस दिन विकलांगों के लिए कोई समारोह था संस्था की ओर से।

राह में बैसाखियों के सहारे धीमे-धीमे चल रहा था एक वृद्ध।

उनकी आंखों में चमक आई। मेरी आंखों में भी।

उन्होंने कहा कि यह वृद्ध हमारे समारोह में ही आ रहा है।

मैंने सोचा कि वे गाड़ी रोकेंगे और वृदध विकलांग को बिठा लेंगे पर वे गाड़ी भगा ले गये ताकि मुख्यातिथि  का स्वागत् कर सकें।

मेरी आंखों में उदासी तैर आई उनकी सहानुभूति देखकर।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रेयस साहित्य # ५ – लघुकथा – भोर का तारा ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆

श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रेयस साहित्य # ५ ☆

☆ लघुकथा ☆ ~ भोर का तारा ~ ☆ श्री राजेश कुमार सिंह ‘श्रेयस’ ☆ 

भोर का तारा अब भी एकटक निहार रहा था। नन्हा गोलू चुप होने का नाम नही ले रहा था। मानों वह चीख चीखकर कह रहा था कि क्या मौसी! तुम भी मुझको छोड़कर चली जाओगी।

कुछ ही महीनों पहले की बात थी, सब कुछ ठीक ठाक था। घर में दुबारा मंगल बधाई बजने को थी, लेकिन उपर वाले को न जाने क्या मंजूर था कि सुमन की खुशियाँ धरी की धरी रह गयी। नन्हें आगन्तुक के आने से पहले ही वह चल बसी। गोलू अब इस दुनियां में बिना माँ के होकर रह गया था। ईश्वर को गोलू पर थोड़ी दया आयी तो उसे मौसी की गोद मिली तो उसको थोड़ी राहत मिली।

लेकिन आज एक बार फिर तेज- तेज बज रहे बैंड बाजों की आवाज ने गोलू को डरा दिया। गोलू आज बिल्कुल ही नही सोया। बार बार चिल्ला देता। बड़ी मुश्किल से उसकी कोई दूसरी चचेरी मौसी ने उसे पकड़ी तो जाकर, कहीं शादी की रस्म पूरी करने के लिये बिंदु मंडप में बैठ पायी। सिंदूरदान होने के बाद जब वह वापस कुछ रस्म अदाएगी के लिये कमरे में आयी तो गोलू उसे देखकर चिल्ला पड़ा, और इसबार उसकी गोद में पहुँच कर ही चुप हुआ। उसे आज नींद नही आयी। पूरी रात जगा ही रहा। शायद उसे इस बात का आभास हो चुका था कि उसकी मौसी भी उसे छोड़कर जाने वाली है।

बिंदु ने भी दौड़ कर उसे गले लगा लिया। सूरज निकलने से पहले ही बिदाई का मुहूर्त था। भोर का तारा अभी भी अकेले एक टक सब कुछ देख रहा था। बिंदु की विदाई की रस्म शुरू हो गयी थी। सभी रो रहे थे और गले लगकर बिंदु से मिल रहे थे। कार दरवाजे पर खड़ी हो गयी थी। अब विन्दु को इसी कार में बैठना था। किसी अंजान गोद में फंसा, गोलू एकदम से चिल्ला उठा, मानों वह कह रहा हो, मौसी.. क्या तुम भी मुझे छोड़कर चली जाओगी। बिंदु अपना बड़ा घुंघट हटाते हुए, पीछे मुड़ी तो गोलू, विवेक के गोद में था।

गोलू को गोद में लिये हुए विवेक यह कहते हुए कार में बैठा कि विन्दु तुम परेशान मत होओ, मत रोओ। गोलू भी हमारे साथ ही चलेगा। अब गोलू चुप हो गया था। फूलों से सजी कार आगे की ओर बढ़ गयी और धीरे -धीरे आँखों से ओझल हो गयी। आसमान में लालिमा छाने लगी थी। भोर का तारा भी हँसता हुआ वापस नीलगगन में समाते हुए आँखों से ओझल हो गया। 

♥♥♥♥

© श्री राजेश कुमार सिंह “श्रेयस”

लखनऊ, उप्र, (भारत )

दिनांक 22-02-2025

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #209 – बाल कहानी – शिप्रा की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक ज्ञानवर्धक बाल कहानी –  “शिप्रा की आत्मकथा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 209 ☆

☆ बाल कहानी – शिप्रा की आत्मकथा ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

मैं मोक्षदायिनी शिप्रा हूं। मुझे मालवा की गंगा कहते हैं। मेरे जन्म के संबंध में दो किवदंतियां मशहूर है। पहली किवदंती के अनुसार मेरा जन्म अति ऋषि की तपस्या की वजह से हुआ था।

कहते हैं कि अति ऋषि ने 3000 साल तक कठोर तपस्या की थीं। वे अपने हाथ ऊपर करके इस तपस्या में लीन थें। जब तपस्या पूर्ण हुई तो उन्होंने आंखें खोलीं। तब उनके शरीर से दो प्रकार स्त्रोत प्रवाहित हो रहे थें। एक आकाश की ओर गया था। वह चंद्रमा बन गया। दूसरा जमीन की ओर प्रवाहित हुआ था। वह शिप्रा नदी बन गया।

इस तरह धरती पर शिप्रा का जन्म हुआ था।

दूसरी किवदंती के अनुसार महाकालेश्वर के क्रोध के परिणाम स्वरूप शिप्रा ने जन्म लिया था। किवदंती के अनुसार एक बार की बात है। महाकालेश्वर को जोर की भूख लगी। वे उसे शांत करने के लिए भिक्षा मांगने निकले। मगर बहुत दिनों तक उन्हें भिक्षा प्राप्त नहीं हुई। तब वे भगवान विष्णु के पास गए। उन से भिक्षा मांगी।

भगवान विष्णु ने उन्हें तर्जनी अंगुली दिखा दी। महाकालेश्वर अर्थात शंकर भगवान क्रोधित हो गए। उन्होंने त्रिशूल से अंगुली भेद दी। इससे अंगुली में रक्त की धारा बह निकली।

शिवजी ने झट अपना कपाल रक्त धारा के नीचे कर दिया। उसी कपाल से मेरा अर्थात शिप्रा का जन्म हुआ।

मैं वही शिप्रा हूं जो इंदौर से 11 किलोमीटर दूर विंध्याचल की पहाड़ी से निकलती हूं। यह वही स्थान हैं जो धार के उत्तर में स्थित काकरी-बादरी पहाड़ हैं। जो 747 मीटर ऊंचाई पर स्थित है। वहां से निकलकर में उत्तर की दिशा की ओर बहती हूं।

उत्तर दिशा में बहने वाली एकमात्र नदी हूं। जिस के किनारे पर अनेक प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। विश्व प्रसिद्ध महाकाल का मंदिर मेरे ही किनारे पर बना हुआ है। यह वही स्थान है जिसका उल्लेख अनेक प्राचीन ग्रंथ ग्रंथों में होता है । जिसे पुराने समय में अवंतिका नाम से पुकारा जाता था। यही के सांदीपनि आश्रम में कृष्ण और बलराम ने अपनी शिक्षा पूरी की थी।

विश्व प्रसिद्ध वेधशाला इसी नगरी में स्थापित है। ग्रीनविच रेखा इसी स्थान से होकर गुजरती है। मुझ मोक्षदायिनी नदी के तट पर सिंहस्थ का प्रसिद्ध मेला लगता है। जिसमें लाखों लोग डुबकी लगाकर पुण्य कमाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति की अपनी मनोकामना पूर्ण करते हैं।

मैं इंदौर, देवास, उज्जैन की जीवनदायिनी नदी कहलाती हूं। मेरी पवित्रता की चर्चा पूरे भारत भर में होती है। मगर, मुझे बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है गत कई सालों से मेरा प्रवाह धीरे-धीरे बाधित हो रहा है। मैं ढलान रहित स्थान से बहती हूं। इस कारण मुझ में पहली जैसी सरलता, सहजता, निर्मलता तथा प्रवाह अब नहीं रह गया है।

मेरी दो सहायक नदियाँ है। एक का नाम खान नदी है। यह इंदौर से बह कर मुझ में मिलती है। दूसरी नदी गंभीरी नदी है। जो मुझ में आकर समाती है। इनकी वजह से मैं दो समस्या से जूझ रही हूं।

एक आजकल मुझ में पानी कम होता जा रहा है और गंदगी की भरमार बढ़ रही है। इसका कारण मुझ में बरसात के बाद नाम मात्र का पानी बहता है। मेरा प्रवाह हर साल कम होता जा रहा है। मैं कुछ सालों पहले कल-कल करके बहती थी। मगर आजकल मैं उथली हो गई हूं। इस कारण अब मैं बरसाती नाला बन कर रह गई हूं। इसे तालाब भी कह सकते हैं।

दूसरी समस्या यह है कि मुझ में लगातार प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। मेरा पानी लगातार गन्दा होता जा रहा है। इसका कारण यह है कि मुझमें खान नदी आकर मिलती है। यह इंदौर के गंदे नाले की गंदगी लेकर लेकर आती है जो मुझ में लगातार प्रवाहित होती है। मुझे गंदा व उथला बना रहा है।

इस पानी में प्रचुर मात्रा में धातुएं, हानिकारक पदार्थ, रसायन, ऑर्गेनिक व अपशिष्ट खतरनाक पदार्थ मुझ में लगातार मिलते रहते हैं। इसी तरह देवास के औद्योगिक क्षेत्र का चार लाख लीटर प्रदूषित जल भी मुझ में मिलता है। साथ ही मेरे किनारे पर बसे कल-कारखानों का गंदा पानी भी मुझ में निरंतर मिलता रहता है।

इन सब के कारणों से मेरा पानी पीने लायक नहीं रह गया है। ओर तो ओर यह नहाने लायक भी नहीं है। यह बदबूदार प्रदूषित पानी बनकर रह गया है। कारण, मुझ में लगातार गंदगी प्रवाहित होना है।

यही वजह है कि पिछ्ले सिंहस्थ मेले में मुझ में नर्मदा नदी का पानी लिफ्ट करके छोड़ा गया था। जिसकी वजह से गत साल सिंहस्थ का मेला बमुश्किल और सकुशल संपन्न हो पाया था। यदि बढ़ते प्रदूषण का यही हाल रहा तो एक समय मेरा नामोनिशान तक मिल जाएगा। मैं गंदा नाला बन कर रह जाऊंगी।

खैर! यह मेरे मन की पीड़ा थी। मैंने आपको बता दी है। यदि आप सब मिलकर प्रयास करें तो मुझे वापस कल-कल बहती मोक्षदायिनी शिप्रा के रूप में वापस पुनर्जीवित कर सकते हैं।

और हां, एक बात ओर हैं- मुझ में जहां 3 नदियां यानी खान, सरस्वती (गुप्त) और मैं शिप्रा नदियां- जहां मिलती हूं उसे त्रिवेणी संगम कहते हैं। इस तरह में 195 किलोमीटर का लंबा सफर तय करके चंबल में मिल जाती हूं  यह वही चंबल है जो आगे चलकर यमुना नदी में मिलती है।  यह यमुना नदी, गंगा में मिलकर एकाकार हो जाती हूं इस तरह मैं मालवा की मोक्षदायिनी नदी- गंगा भारत की प्रसिद्ध गंगा नदी में विलीन हो जाती हूं।

यही मेरी आत्मकथा है।

आपसे करबद्ध गुजारिश है कि मुझे बनाए रखने के लिए प्रयास जरूर करना। ताकि मैं मालवा की गंगा मालवा में कल-कल कर के सदा बहती रहूं। जय गंगे! जय शिप्रा।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

24-06-2022

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 17 ☆ लघुकथा – अहसास… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – “अहसास“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 17 ☆

✍ लघुकथा – अहसास… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

श्रीमती जी की आदत थी कि आम खाकर उसकी गुठली घर के पास ही कच्ची जगह में मिट्टी के अंदर दबा देती । कभी कभी घर के पास कच्ची जगह में फेंक देती। समय आने पर गुठली में से अंकुर फूटता, पहले जड़ दिखती फिर छोटा सा तना और उस पर छोटी छोटी पत्तियां। श्रीमती जी देखकर खुशी के मारे फूल जाती। अंकुरित गुठली को वह जगह मिलती वहां गाड़ देती। जब आम का छोटा सा पेड़ हो जाता तो हमारा तबादला हो जाता। पेड़ का क्या हुआ हमें कुछ पता नहीं चलता। हां, जहां होते वहां श्रीमती जी उस पेड़ की कल्पना करती कि अब बड़ा हो गया होगा, अब तो आम भी आ गए होंगे। ऐसा ही चलता रहता।

रिटायर होने के बाद जब यह घर बना तो आसपास काफी खाली जगह थी। श्रीमती जी आदत के अनुसार गुठली डाल दिया करती। की पेड़ भी हुए परंतु उनमें से एक पेड़ ही जीवित रहा। उसे बढते हुए देखकर सब खुश होते। आशु कल्पना करता कि जब आम लगेंगे तो पहला आम मैं खाऊंगा। गुड्डी तपाक से बोल पड़ती कि तुम्हीं क्यों, क्या मैं नहीं खा सकती पहला आम। फिर दोनों समझौता करते, अच्छा आधा आधा हम दोनों। उनकी बात सुनकर सब हँस पडते। बच्चे बड़े होते गए और पेड़ भी बड़ा होता गया।

अब पांच साल से वह पेड़ फल दे रहा है। कहते हैं कि पेड़ अपना फल नहीं खाता, बांट देता है, यह हम उस समय महसूस करते जब पका आम धप्प से गिरता। कुछ ग सलाह देते कि कच्चे आम तोड़ कर अचार डाल लो तो कुछ कहते कि तोड़ कर अखबार में लपेट कर रख दो, पर जाएंगे। परंतु श्रीमती जी को आम तोड़ना मंजूर नहीं था। कोई तोड़ने की कोशिश करता तो वह नाराज होती हैं और बच्चों को तो डांट ही देती है। कहती हैं कि पेड़ खुद थोड़े ही आम खाता है। जब फल पर जाता है तो तुरंत नीचे गिरा देता है। जिसके नसीब में होता है वह खा भी लेता है।

आज सुबह श्रीमती जी दरवाजा खोलकर खुली हवा खाने के निकलीं तो देखा कि सामने राजू टहल रहा है। उसने अचानक उछल कर दो अधपके आम तोड़ लिए। श्रीमती जी ने ऊपर की ओर देखा तो जहां से आम तोड़े थे उस जगह से पेड़ की डाल से दो बूंद पानी टपक रहा है और इधर श्रीमती जी की आंख से दो आंसू निकल कर गालों पर लुढ़क गए।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 68 – एक क्षण विश्वास… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – एक क्षण विश्वास।)

☆ लघुकथा # 68 – एक क्षण विश्वास  श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

दरवाजे की घंटी जोर-जोर से बज रही थी। मैंने दरवाजा खोला, सामने एक दुर्बल बुढ़िया खड़ा थी।

“क्या है?” मैंने पूछा

“मैं आपके पड़ोसी शर्मा जी के घर पर काम करती हूं उन्होंने आपके लिए एक उपहार भेजा है।”

“क्या मज़ाक कर रही हो अम्मा, शर्मा जी और उनकी वाइफ कभी सीधे मुंह बात नहीं करती वह मेरे लिए उपहार क्या भेजेगी?

उसके चेहरे पर एक मीठी मुस्कान थी। मैंने कहा अम्मा मुझ पर व्यंग्य कर रही हो।

“आपका ही उपहार है मैडम, इसे आप ले लीजिए।”

“क्या बेटा मुझे ठंडा एक गिलास पानी मिलेगा?”

मैंने सोचा चलो, अच्छा है पड़ोसी ने कुछ उपहार तो दिया है पर क्या इस अजनबी औरत को पानी देना चाहिए? उसकी आंखों में मुझे सच्चाई दिखाई दी वह पसीने में डूबी थी और मुँह  सूख था।

चारों ओर दोपहरी का सन्नाटा था। कोई एक भी पशु पक्षी नहीं दिख रहे थे।

अचानक मेरे मन में ख्याल आया कि ज्यादा दया दिखाना उचित है या नहीं?

मैंने दरवाजा बंद करते हुए कहा आप रुको मैं पानी देती हूँ। एक बोतल में फ्रिज का पानी भरा। दो रोटी और कुछ सब्जी को एक पेपर प्लेट में रखा। बाहर आई और कहा अम्मा यहां बैठकर खा लो चाहे तो  दोपहर में आराम करके शाम को चली जाना और यह उपहार भी आप ही लेते जाना और मैंने दरवाजा बंद कर लिया। अंदर ए सी ऑन कर बैठ गई पर मन में यही ख्याल आता रहा कि वह बेचारी बुढ़िया किस मजबूरी में मेरे घर आई ।

उसके मन में क्या चल रहा है? आजकल बाहर इतना खतरा है कि किसी अजनबी पर एक क्षण विश्वास नहीं कर सकते भले ही वह सच बोल रहा हो। चलो शाम को दरवाजा खोल कर देखूंगी। अभी जाने दो।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 225 – खेल तमाशा ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित अत्यंत हृदयस्पर्शी लघुकथा “खेल तमाशा ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 225 ☆

🔥लघुकथा🔥🌹खेल तमाशा 🌹

शहर के मध्य बहुत बड़ा सर्व सुविधायुक्त आजकल के माॅल का फैशन। सामान खरीदने या फिर मौज मस्ती की जगह। थियेटर, गेम जोन से लेकर गाड़ी चलाना, गाना बजाना, खाना पीना सभी प्रकार के मनोरंजन के साधन।

एक मदारी रोज ही अपने छोटे से बंदर को लेकर, वहाँ पास में तमाशा दिखाता था।कभी-कभी दया या दान का काम करते उसे भी सभी आने- जाने वालों से अपनी रोजी- रोटी मिल जाती थी।

तेज भीषण गर्मी, लू की तपन,बंदर भी खूब रंगबिरंगी कपड़ों से सजा, लंबी पूँछ, सर पर टोपी, पूरे साजों श्रृंगार करके तमाशा दिखा रहा था।

आज शाम बहुत भीड़ लगी थी, तमाशा देखने वालों की। कतारों में खड़े लोग तालियाँ बजा रहे थे। अचानक इतनी भीड़ देख कर हैरानी हो रही थी। झाँक कर देखने पर पता चला–गर्मी की तपन से मदारी का बंदर मर चुका था। वह अपने छोटे से बच्चे को बंदर बना कर नचा रहा था।

बाकी सभी अपने-अपने बच्चों को दिखा रहे थे – – कितना सुंदर बंदर बना है बच्चा। चिप्स और केले दिये जा रहे थे।

मदारी हँसते – रोते खुल्ले सिक्के, नोट बटोर रहा था। आज उसे सभी दिनों से खेल तमाशे का मेहताना ज्यादा मिला। जीवन तमाशा बनते देखता रहा।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – फर्ज़ ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा।  आज प्रस्तुत है  एक लघुकथा “फर्ज़”। )  

☆ लघुकथा – फर्ज़ ☆

( इंडिया टुडे में प्रकाशित सत्य घटना पर आधारित)

शैलेंद्र भैया आज होते तो कितने खुश होते? भाई को याद कर ज्योति के नेत्र नम हो गए। बड़ी मुश्किल से वह अपने आँसू रोक पा रही थी। यही स्थिति घर के सभी लोगों की थी। कोई किसी से कुछ भी नहीं कह पा रहा था। सभी अपने आंसुओं के सैलाब को रोक कर विवाह के रस्मों को निभाने का प्रयास कर रहे थे।

अचानक एक गाड़ी आकर रुकती है। धड़धड़ाते हुए कुछ फौजी अपने शोल्डर बैग लेकर उतरते हैं। घर-परिवार के सब लोग विस्मित नेत्रों से देखते हैं। अरे! इनमें से कुछ तो शैलेंद्र के मित्र हैं, जो उसकी निर्जीव देह तिरंगे में लपेट कर लाये थे।

सब लोगों के साथ बाबूजी भी स्तब्ध थे। तभी उन फ़ौजियों में से एक ने आगे बढ़कर बाबूजी के चरण स्पर्श करते हुए कहा – “बाबूजी, हम शैलेंद्र के मित्र हैं, आपके बेटे और ज्योति बहन के भाई।”

बाबूजी के नेत्र भर आए और उसे गले लगाकर रो पड़े। शैलेंद्र के मित्रों की आँखें भी भर आईं थीं। तभी एक और मित्र आगे बढ़ा और बाबूजी के कंधे पर हाथ रखकर बोला – “बाबूजी, ऐसे दिल छोटा नहीं करते। चलिये हम सब मिलकर शादी की रस्में पूरी करते हैं।”  

और फिर देखते ही देखते शादी का माहौल ही बदल गया।

यह बात बिजली की तरह सारे गाँव में फैल गई।

सारे गाँव ने और यहाँ तक कि दूल्हे के परिवार ने भी देखा कि कैसे शैलेंद्र के मित्रों ने बढ़ चढ़ कर शादी की एक एक रस्म निभाने का भरसक प्रयत्न किया जो एक भाई को निभानी होती हैं।    

शैलेंद्र के पिताजी का सीना गर्व से चौड़ा हो गया। वे मन ही मन सोच रहे थे कि – “आज मेरा बेटा इस दुनिया में नहीं है किन्तु, ईश्वर ने मुझे इतने बेटे दिये हैं जो मेरे सुख और दुख में शामिल होने के लिए सदैव तैयार हैं।”

दूसरी ओर शैलेंद्र के मित्र नम नेत्रों से अपने मित्र को याद कर रहे थे और सोच रहे थे – “ईश्वर हमें शक्ति दें, ताकि हम देश की सुरक्षा के साथ ही अपने भाइयों के सुख दुख में शामिल हो सकें।”

© हेमन्त बावनकर

पुणे 

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा – “विश्वास…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ लघुकथा – “विश्वास…” ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

वे हमारे पडोसी थे। महानगर के जीवन में सुबह दफ्तर के लिए जाते समय व लौटते समय जैसी दुआ सलाम होती, वैसी हम लोगों के बीच थी। कभी कभी हम सिर्फ स्कूटरों के साथ हाॅर्न बजाकर, सिर झुका रस्म निभा लेते।

एक दिन दुआ सलाम और रस्म अदायगी से बढ कर मुस्कुराते हुए वे मेरे पास आए और महानगर की औपचारिकता वश मिलने का समय मांगा। मैं उन्हें ड्राइंगरूम तक ले आया। उन्होंने बिना किसी भूमिका के एक विज्ञापन मेरे सामने रख दिया। मजेदार बात कि हमारे इतने बडे कार्यालय में कोई पोस्ट निकली थी। और उनकी बेटी ने एप्लाई किया था। इसी कारण दुआ सलाम की लक्ष्मण रेखा पार कर मेरे सामने मुस्कुराते बैठे थे। वे मेरी प्रशंसा करते हुए कह रहे थे – हमें आप पर पूरा विश्वास है। आप हमारी बेटी के लिए कोशिश कीजिए। मैंने उन्हें विश्वास दिलाया कि मैं इसके लिए पूरी कोशिश करूंगा। नाम और योग्यताएं नोट कर लीं।

दूसरे दिन शाम को वे फिर हाजिर हुए। मैंने उन्हें प्रगति बता दी। संबंधित विभाग से मेरिट के आधार पर इंटरव्यू का न्यौता आ जाएगा। बेटी से कहिए कि तैयारी करे।

– तैयारी? किस बात की तैयारी?

– इंटरव्यू की और किसकी?

– देखिए मैं आपसे सीधी बात करने आया हूं कि संबंधित विभाग के अधिकारी को हम प्लीज करने को तैयार हैं। किसी भी कीमत पर। हमारी तैयारी पूरी है। आप मालूम कर लीजिएगा।

मैं हैरान था कि कल तक उनका विश्वास मुझमें था और आज उनका विश्वास…?

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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