(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचना सहित 145 बालकहानियाँ 8 भाषाओं में 1160 अंकों में प्रकाशित। प्रकाशित पुस्तकेँ-1- रोचक विज्ञान कथाएँ, 2-संयम की जीत, 3- कुएं को बुखार, 4- कसक, 5- हाइकु संयुक्ता, 6- चाबी वाला भूत, 7- बच्चों! सुनो कहानी, इन्द्रधनुष (बालकहानी माला-7) सहित 4 मराठी पुस्तकें प्रकाशित। मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी का श्री हरिकृष्ण देवसरे बाल साहित्य पुरस्कार-2018 ₹51000 सहित अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित व पुरस्कृत। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत साहित्य आप प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “नियति ”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 215 ☆
☆ लघुकथा – नियति ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
” सुन बेटा! आम मत लाना। मगर, मेरे घुटने दर्द कर रहे हैं, उसकी दवा तो लेते आना,” बुजुर्ग ने घुटने पकड़ते हुए कहा।
” हुँ! ” बेटे ने बेरुखी से जवाब दिया, ” दिन भर बिस्तर पर पड़े रहते हो। घुटने दर्द नहीं करेंगे तो क्या करेंगे? यूं नहीं कि थोड़ा घूम लिया करें। हाथ पैर सही हो जाए।”
बुजुर्ग चुप हो गए मगर पास बैठे हुए दीनदयाल ने कहा, ” सुनो बेटा। यह आपके पिताजी हैं। बचपन में… । “
“हां हां, जानता हूं अंकल,” कहते हुए बेटे ने अपने पुत्र का हाथ पकड़ा और बोला,” चल बेटा! तुझे बाजार घुमा लाता हूं।”
यह देखसुन कर दीनदयाल से रहा नहीं गया और अपने बुजुर्ग दोस्त से बोला, ” क्या यार! क्या जमाना आ गया? ऐसे नालायक बेटों से उनका पुत्र क्या सीखेगा?”
” वही जो मैंने अपने बाप के साथ किया था और आज मेरा बेटा मेरे साथ कर रहा है। कल उसका बेटा वही करेगा,” कह कर बिस्तर पर लेटे हुए बुजुर्ग दोस्त अपने हाथों से अपनी आंखों को पौंछ कर अपने घुटने की मालिश करने लगा।
(वरिष्ठ साहित्यकारडॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – “पाखंड के आयाम… “।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 22 ☆
लघुकथा – पाखंड के आयाम… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆
मैं समुद्र के पास रहता था इसलिए रोज समुद्र के किनारे घूमने जाता। सुबह छ: बजे से सात बजे तक। काफी लोग सैर करते हुए दिखाई देते। कुछ परिचित और की अपरिचितों से परिचय हो जाया करता। गप शप और सैर एक साथ। इधर उधर की जानकारी भी मिल जाती। सुबह किनारे सुबह की हवा बहुत आनंद देती है, प्राणवायु जो ठहरी।
रेती के किनारे बड़े बड़े काले पत्थर हैं वहां और उन पर बैठ कर सुस्ताने वाले भी दिखते। कुछ जोड़े में भी रहते। हंसते खिलखिलाते। बड़ा अच्छा लगता।
एक दिन एक काले पत्थर पर नजर टिक गई। लगा कि मेरे अच्छे परिचित हैं परंतु वे ऊपर से नीचे एकदम काले कपड़े धारण किए हुए थे और चेहरा नीचे किए हुए। मुझे संकोच हो रहा था कि नजदीक जाऊं या नहीं क्योंकि ऐसी वेषभूषा में कभी देखा नहीं था। कद काठी से वही परिचित से लग रहे थे। फिर भी संकोच वश मैं उनके नजदीक नहीं गया।
लेकिन सैर करते करते कब उनके नजदीक पहुंच गया इसका आभास ही नहीं हुआ। अपने पास किसी की उपस्थिति महसूस करके उन्होंने अपना चेहरा ऊपर उठाया और मैंने देखा वही थे पर उन्हें देखते ही आश्चर्यमिश्रित “आप” मेरे मुंह से निकला। मैंने उन्हें काले कपड़ों में देखने की कभी कल्पना भी नहीं की थी। हमेशा सामान्य वस्त्रों में ही देखा था। काले कपड़े और वे भी नीचे काली लुंगी और काला लंबा कुर्ता। मेरी आवाज़ सुनकर उनके चेहरे पर एक फीकी सी मुस्कान आई। कुछ बोले नहीं। मैं भी आगे कुछ नहीं बोला क्योंकि मुझे लगा कि किसी उद्देश्य से अघोर साधना तो नहीं कर रहे। उनके नेत्रों में लालामी और सपाटपन कुछ ऐसा ही संकेत दे रहे थे।
शहर के विद्वानों में उनकी गिनती होती थी। मुझे लगा कि अच्छी प्रतिभाएं भी पाखंड की शिकार हो जाते हैं, ?
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरणात्मक कथा “स्वर्ण पदक“ )
☆ कथा-कहानी # 124 – 🥇 स्वर्ण पदक – भाग – 5🥇 श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
रजतकांत और उनके भाई स्वर्णकांत एक शहर में होने बावजूद प्रतियोगिता के अंतिम दिन याने फाईनल के दिन मिल पाये और वह भी खेल के मैदान पर. रजतकांत ने रेल्वे के VIP guest house में टीम के साथ रुकना ही पसंद किया, mandatory भी रहता है, कोई भी स्पांसर डेवियेशन अफोर्ड नहीं करना चाहता. तो फाईनल मुकाबले के पहले ही ये मुलाकात हुई जिसमें गर्मजोशी कम औपचारिकता ज्यादा थी. नहीं मिलने के दोनों के अपने अपने कारण थे, रजत के लिये फाईनल जीतना उसके लिये टीम इंडिया में वांछित पोजीशन दिला सकता था और स्वर्णकांत अपने छद्मनाम स्वयंकांत से छुटकारा पाना चाहते थे क्योंकि उनका कैरियर भी दांव पर लगा हुआ था. रविवार को इस प्रतिष्ठित मैच को देखने के लिये बैंक का बहुत सारा स्टॉफ भी दर्शक दीर्घा में मौजूद था.
हॉकी की चैम्पियनशिप रेल्वे की टीम ने हरियाणा को हराकर 3-2 से जीती, रेल्वे की तरफ से तीनों गोल फील्ड गोल थे जो रजतकांत की उत्कृष्ट ड्रिबलिंग का कमाल थे जिसमें बेहतरीन प्लेसिंग का बहुत कुशलता से उपयोग किया गया. पिछली चैम्पियन हरियाणा की टीम का पॉवरप्ले, रेल्वे की टीम की चपलता के आगे मात खा गया हालांकि उनके पैनल्टी कार्नर विशेषज्ञ खिलाड़ी के दम पर पहले दो गोल हरियाणा ने ही पहले हॉफ टाईम में किये और हॉफ टाईम का स्कोर 2-0 था. पर सेकेंड हॉफ ने खेल का नक्शा बदल दिया. मैदान में रजतकांत का टीमवर्क और चपलता दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर गई. रजत हीरो बन चुके थे और जश्न के बाद दूसरे दिन विशाल सेंटर बैंक ब्रांच ने रेल्वे की टीम को शाम को बैंक में आमंत्रित किया. रजत व्यस्त होने के बावजूद मना नहीं कर पाये ,आखिर भाई के साथ वक्त गुजारने का मौका भी तो मिल रहा था. तो दूसरे दिन शाम को लगभग 6 बजे एक तरफ रेल्वे की हॉकी टीम के सदस्य अपने कैप्टन रजतकांत के साथ बैठे थे और दूसरी तरफ थी इंडस्ट्रियल रिलेशन की धीमी आंच को अपने अंदर समेटे बैंक की टीम जिसके कप्तान थे स्वर्णकांत. कुछ अवसर ऐसे होते हैं जब बैंक की छवि और बैंक का सम्मान सबके ऊपर वरीयता पाता है. वही आज भी हुआ पर इस कार्यक्रम के हीरो थे रजतकांत जिनके खेल का पूरा स्टॉफ दीवाना हो गया था और उपस्थित स्टाफ की नजर दोनों भाइयों के बीच उसी तरह दौड़ लगा रही थीं जैसे हॉकी के ग्राउंड में बॉल दौड़ती है कभी इस हॉफ में तो कभी उस हॉफ में.
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “अमराई ”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 230 ☆
🌻लघुकथा🌻 🌳 अमराई 🥭
सूरज की चढ़ती धूप, नौ तपा लगा, दिनों का लेखा-जोखा करते, आज ललन सिंह भरी दोपहरी अपने अमराई पर बैठे थे।
चारों तरफ आम के बगीचे। सोंधी खट्टी मीठी खुशबू से मन भर रहा था। पेड़ की छाँव में चुपचाप वह दिन याद कर रहे थे। जब कांता उससे मिलने आया करती थी। यही तो वह अमराई है, बाप दादा की मेहनत का रंग।
मन ग्लानि से भरा हुआ था कि वह कुछ नहीं कर पाए, न ही वृक्षारोपण किया और न ही देखभाल किए। सारी जिंदगी केवल बच्चों को पढ़ने लिखने में लगा दिए।
आँखों से बेबसी के आँसू गिरने लगे। आज समय है कि मेरे पास कोई नहीं है, न कोई पूछने वाला है कि आपका अमराई में क्या और कितने पेड़ों पर आम लगे हैं।
टप- टप टपाक दो चार आम अध पीले गिरे। ललन ने बड़े प्यार से उसे गले में लटके गमछे में संभाल कर रख लिया।
घर में पोता- पोती आए हैं यह आम पाकर खुश हो जाएं।
जल्दी-जल्दी डग भरते घर पहुंचे आवाज़ लगाई – – – बेटे ने देखा पिताजी अपने गमछे से बंधा हुआ आम निकाल कर टेबिल में रख रहे हैं।
बच्चों ने खुशी से दौड़ लगाई। कड़कती आवाज आई – – – खबरदार जो यह आम खाए।
जमीन पर गिरा है न जाने कितनी बीमारियों का घर होगा। आप ही खाए पिता जी – – मैं तो ऑर्डर देकर बच्चों के लिए आम बुला लिए हैं। आता ही होगा।
ललन सिंह चश्मे से देखते रहे। वाह री!!! दुनिया कैसा बाजार!!!
आम धोकर स्वयं खाते संतुष्ट नजर आए। चेहरे पर मुस्कान और एक हल्की सी कटाक्ष – – अच्छा हुआ मैंने पहले ही अमराई को किसी अच्छे इंसान को दे दिया।
आज उन्हें अफसोस नहीं हो रहा था कि– वह अमराई की देखभाल नहीं कर पाए, और न ही और वृक्षारोपण कर पाए।
क्योंकि अब बेटा और पोता पोती विदेशी जो हो गये हैं। अमराई तो अब गुगल पर सर्च करेंगे।
(वरिष्ठ साहित्यकारडॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय लघुकथा – “समझौता… “।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 21 ☆
लघुकथा – समझौता… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆
रास्ते चलने के लिए होते हैं यह सब जानते हैं और लोग चलते भी हैं। कोई काम से निकलता है तो कोई घूमने। यह रास्ता भी ऐसा ही है। इस पर खूब चौपहिए दुपहिए और पैदल चलते हैं। मदन लाल को इस रास्ते पर घूमना अच्छा लगता है। सुबह और शाम निकलते हैं, लोगों से राम राम करते, हालचाल पूछते जाते हैं। यह रास्ता अच्छी खासी सड़क है। एक ओर पानी निकलने के लिए बड़ी नाली बनी है। दोनों ओर बड़ी बड़ी बिल्डिंग और उनमें दुकानें हैं। मदन लाल जब भी रास्ते पर निकलते हैं और कुछ ऐसा वैसा देखते हैं तो उसे सुधारने के लिए लोगों से कहते रहते हैं।
आज मदन लाल अपनी सोसायटी से निकले तो रास्ते पर पानी भरा हुआ पाते हैं। पता नहीं पानी के नीचे कितना गहरा गड्ढा है, इसलिए दुपहिए पानी के किनारे दुकानों के आगे के फुटपाथ से निकल रहे हैं। चौपहिए पानी में से निकलते हैं तो उनके पहियों के डूबने से पता चलता है कि पानी कितना गहरा है। मदन लाल सोचते हैं कि रोज अखबार में आ रहा है कि नगरपालिका ने प्री मानसून कार्य में सब रास्तों की समस्या दूर करदी है ताकि नागरिकों को परेशानी न हो। पर यहां पहली बारिश में ही परेशानी हो गई। भरे हुए पानी में दुर्गंध होने के कारण मदनलाल कौतूहलवश देखते हैं कि पानी कहां से आकर भर रहा है। वे देखते हैं कि सड़क के दोनों ओर की बिल्डिंगों की ड्रेनेज का पानी आ रहा है और सड़क पर भर इसलिए रहा है कि उसके निकलने का कोई मार्ग नहीं है। दो तीन दिन बाद सड़क पर ड्रेनेज डालने का काम शुरू होता है और जो पानी भर रहा था वह ड्रेनेज लाइन से निकलने लगा। मदन लाल संतोष की सांस लेते हैं।
अगले दिन निकलते हैं तो फिर पानी भरा हुआ पाते हैं। वे सोचते हैं कि अब यह कहां से आ गया तो देखते हैं कि इस बड़ी सड़क पर खुलने वाले रास्तों से बारिश का पानी आ रहा है और उसी गड्ढे में भर रहा है। अब वहां से पानी का निकास नहीं है। लोग परेशान हो रहे हैं, झुंझला रहे हैं। मदनलाल स्थानीय नेताओं के पास समस्या बताते हैं। दूसरे दिन से सड़क के दूसरी ओर बारिश के पानी को निकालने के लिए पाइपलाइन डालना है इसलिए सड़क खोद दी जाती है। ड्रेनेज लाइन के लिए खोदी गई सड़क ज्यों की त्यों है और ऊपर से यह खुदाई। मदनलाल भी झु्झलाते हैं और अपने घर लौट आते हैं। सोचते हैं कि सभी लोग परेशान हो रहे हैं और सब सह रहे हैं तो मैं भी सह लूंगा। रास्ता थोड़े ही भाग जाएगा। मैं बिल्डिंग के चारों ओर घूम लूंगा। इस तरह वे मन ही मन खुद से समझौता कर लेते हैं।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरणात्मक कथा “स्वर्ण पदक“ )
☆ कथा-कहानी # 123 – 🥇 स्वर्ण पदक – भाग – 4🥇 श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
स्वर्ण कांत के सफलता के इन सोपानों के बीच जहां उनकी राजधानी एक्सप्रेस अपने नाम के अनुसार आगे बढ़ रही थी, वहीं रजतकांत की शताब्दी सुपरफॉस्ट ट्रेन अलग रूट पर दौड़ रही थी, यहाँ आगे आगे भागतीे हॉकी की बाल पर कब्जा कर अपनी कुशल ड्रिबलिंग से आगे बढ़ते हुये रजतकांत स्नातक की डिग्री के बल पर नहीं बल्कि हॉकी पर अपनी मजबूत पकड़ के चलते इंडियन रेल्वे में स्पोर्ट्स कोटे में सिलेक्ट हो गये थे और फिर बहुत जल्दी रेल्वे की हॉकी टीम के कैप्टन बन चुके थे.
जैसे जैसे उनके खेल और कप्तानी में तरक्की होती गई, रेल्वे से मिलने वाली सुविधा और प्रमोशन में भी वृद्धि होती गई.हॉकी की टीम इंडिया में भी वे स्थायी सदस्य बन गये और हॉकी ने क्रिकेट के मुकाबले लोकप्रियता कम होने के बावजूद उन्हें राष्ट्रीय स्तर का सितारा बना दिया.
हाकी इंडिया नेशनल चैम्पियनशिप का आयोजन इस बार संयोग से विशालनगर में ही आयोजित होना निश्चित हुआ जहां स्वर्णकांत पदस्थ थे. रजत जहां भाई से मिलने का अवसर पाकर खुश थे वहीं स्वर्ण कांत न केवल बैंक की समस्याओं में उलझे थे बल्कि शाखा स्टॉफ से तालमेल न होने से भी परेशान थे. स्टॉफ उन्हें “स्वयंकांत” के नाम से जानने लगा था क्योंकि हर उपलब्धि सिर्फ स्वयं के कारण हुई मानकर वे इसे अपने नाम करने की प्रवृति से पूर्णतः संक्रमित हो चुके थे और non achievements के कई कारण, उन्होंने अपनी समझ से अपने नियंत्रक को समझाना चाहा जिसमें lack of sincerity and devotion by staff भी एक कारण था. पर नियंत्रक समझदार, परिपक्व और शाखा की उपलब्धियों के इतिहास से वाकिफ थे. उन्होंने स्वर्णकांत को कुशल प्रबंधकीय शैली में अच्छी तरह से समझा दिया था कि जो और जैसा स्टॉफ ब्रांच में मौजूद है, वही पिछले टीमलीडर के साथ मिलकर, झंडे गाड़ रहा था.Previous incumbent has tuned this branch so smoothly to attain the goal that industrial relations of this branch have become an example to tell others. पर ये सारी टर्मिनालॉजी और प्रवचन, स्वयंकांत प्रशिक्षण के दौरान सुनने के बाद विस्मृत कर चुके थे और संयोगवश अभी तक इनकी जरूरत भी नहीं पड़ी थी.
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अनकही बात।)
अजय बहुत दिनों बाद गांव में आया था। वह अपने घर की ओर जल्दी-जल्दी जा रह था और पुरानी यादों में खोया था। दरवाजा खोल कर अंदर गया तो उसे कोई दिखाई नहीं दिया समझ गया की माँ रसोई में होगी?
माँ को लगा पिताजी आए हैं। माँ ने कहा कि जल्दी से हाथ-मुंह धोकर ब्रश कर लो मैं चाय बनाती हूं?
जब चाय लेकर आई तब उसने अजय को दिखा। उसकी खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। लेकिन उसके चेहरे पर उदासी बढ़ा गई।
मां ने मुस्कुराते हुए कहा – आज इतने दिनों बाद हमारी याद कैसे आई?
बेटे ने मां के पैर छुए और बोला – नेता जी गांव में आने वाले हैं इसलिए हम पहले से आ गए हैं मैं रिपोर्टर हूं। पिताजी की तरह अब तुम भी मुझसे नफरत करती हो क्या? जरूरी तो नहीं कि मैं उनकी तरह ही दुकानदार बनकर रहूँ।
माँ ने कहा – ठीक है तो ब्रश करके नहा ले मैं नाश्ता बनाती हूं।
बेटे ने बड़े कड़क स्वर में कहा- नहीं जरूरत नहीं है मैं तुम्हें देखने आ गया। अब मैं गेस्ट हाउस में रुकूँगा।
माँ जोर से हॅंसते हुए कहती है – हां पता है तू बहुत बड़ा आदमी बन गया। अब हम छोटे लोगों के यहां क्यों रहेगा?
और इतनी सिगरेट पर मत पिया कर।
बेटे ने माँ के गले लगा कर कहा – चलो कल तुम्हारी भी नेताजी के साथ फोटो खींच देता हूँ। मेरा रुतबा देखो।
माँ की आंखों में आंसू आ गए और उसने गंभीरता से कहा – मैं तो चाहती हूँ तू खूब तरक्की कर पर तेरा रुतबा मैं देख कर क्या करूंगी?
तू मुझे दिखाना छोड़कर अपनी खुशी के लिए काम कब करेगा?
तभी अचानक पिताजी घर में आ जाते हैं दोनों एक दूसरे को देखते हैं।
बेटे ने तुरंत ही अपना सामान उठाया और धीरे से बड़बड़ाया। मैं बेकार में ही इस घर को याद करके आया। यहाँ तो हमेशा इज्जत छोटे की ही होगी।
पिताजी ने माँ से कहा – जाने दो तुम्हारे बेटे को पैसे का घमंड है, थोड़ी उम्र बीतने दो फिर हमें समझेगा।
माँ दरवाजे की ओर जाकर आंखों में आंसू लेकर बोली तुम दोनों के बीच में मैं फँस के रह गई हूँ।
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम कहानी “बेटी के मोबाईल की घंटी”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 177 – कथा कहानी – बेटी के मोबाईल की घंटी ☆
रामप्रसाद मोबाईल से बात करने के बाद अपनी पेंट की जेब से रूमाल निकालते थे। उससे मोबाईल को अच्छी तरह से साफ करते थे फिर शर्ट की बाएँ जेब में बड़े करीने से उसे रख लेते थे। उन्हें लगता था कि अब समय बदल गया है। सभी अपने आप में व्यस्त हो गये हैं। किसी के पास अब समय नहीं है। यह मोबाईल ही है, जो आज हमारे परस्पर संबंधों में एक सेतु की तरह से काम कर रहा है। आज उनके जीवन में यही एक अमूल्य वस्तु है। जो उनके डायबिटिक जीवन में कभी कभी मिठास की चाहत की भरपाई कर जाता है। क्षण दो क्षण बात तो हो जाती है। बगैर किसी के घर जाये या उसको डिस्टर्ब किये बिना। दूरियाॅं कितनी भी हों, चाहे अपने हों या पराये जब बात करनी हो बेधड़क बात हो जाती। अब तो मोबाईल से लगता था, जैसे दोंनों पक्षों में आपसी सहमति एवं संतुष्टि हो गयी थी। आज के युग में अब मोबाईल धनवानों का फैशन नहीं रहा वरन् निर्धन लोगों की भी आवश्यकता बन गया है।
रामप्रसाद सरकारी नौकरी में थे। उन्हें अब पेंशन मिल रही थी, तो स्वाभाविक है, मोबाईल रिचार्ज कराने में कोई परेशानी नहीं थी। जब बात करते तो जी खोल कर बात करते। इस बढ़ती उम्र में पेट की भूख भी जवाब दे जाती है। धीरे धीरे सारे शौक बंद हो जाते हैं। ऐसी उम्र में पेटराम जरा भी अधिक खाना बर्दास्त नहीं कर सकते। जब कोई पेटू बनने की जुगत भिड़ाता, तो उसकी ऐसी धुलाई कर देता कि सभी कान पकड़ कर भविष्य में स्वयं ही तौबा कर लेते हैं वैसे भी उनके जवानी के दिनों में दिन में आठ दस बार पान खाना या फिर चाय पीना ही शामिल था। इसके सिवाय और कुछ नहीं था। वह भी वर्षों पहले पान सुपाड़ी से दो दांतों ने हिल कर उसे चेतावनी दे दी थी कि यदि सावधान नहीं हुए तो हम सभी आपका साथ छोड़ देंगे। तबसे उन्होंने बचे खुचे शौक भी छोड़ दिये थे। एक तरह से बचत ही बचत थी। समय के प्रति हमेशा सावधान रहा करते थे। जैसे राजा दशरथ को भी दर्पण निहारने पर एक दिन सिर के पके बाल दिखे। जो अनुभव और चिंतन उनने किया, वही रामप्रसाद को हुआ था। उन्होंने अपने सभी बेटों को काम से लगाकर और शादी विवाह करके स्वयं चिन्तामुक्त हो गये थे। अब उनके पास समय ही समय था। पर दूसरों के पास भी तो समय होना चाहिए।
रामप्रसाद के जीवन में बस दो मीठे बोल की ही चाहत रह गयी थी। वे नाते -रिश्तों के अपनेपन और उसकी मिठास के स्वाद से भली भाॅंति परिचित थे। जो आज इस भागती हुयी दुनियाॅं में पता नहीं कहाँ गुम होती जा रही थी। तब ऐसी विषम परिस्थितियों में उनके लिए एक मोबाईल ही तो सहारा बन कर रह गया था। जो उनके व्याकुल मन की लंका पर विजय पाने के लिए, एक आवश्यकता बन गई थी। सतयुग में शांति स्वरूपा सीता को खोजने के लिए लोगों में एक दूसरे के सहयोग की होड़ मची रहती थी। उनके संग में वानर भालू तक तत्पर हो गए थे। पर आज के युग में चिराग लेकर भी ढूँढ़ोगे तो भी शायद कोई मिल जाए सम्भव नहीं।
आज हर घर के बेटों में राम लखन के भातृत्व भाव कम ही देखने मिलते हैं। तो परायों के बारे में सोचना ही व्यर्थ हैै। बनवास के समय साथ चलने की जिद तो केवल रामायण काल की बात थी। इस कलयुग में कौन किसी के साथ, संग निभाता और चलता है। अगर किसी सतयुगी महाशय ने अपने मन में ऐसी अपेक्षायें पाल भी लीं, तो कभी न कभी एक दिन उसका मोह भंग अवश्य हो जाता है। तब ऐसी विषम परिस्थिति में मोबाईल ही एक मात्र सहारा है। कम से कम दूर से ही सही संबंधों की डोर में कुछ बंधे तो हैं। मन की लंका में उथल पुथल न हो और हृदयाघात से बचना है, तो मोबाईल का होना जरूरी है। वार्तालाप करके ही हर मानव सीता रूपी शांति को तो पा जाता है। खोज जब होगी, तब देखा जाएगा। कुशल क्षेम के जरिये दोनों के मन में तसल्ली तो बनी रहेगी।
अचानक रामप्रसाद को वर्षों पूर्व का एक वाकया याद आया। जब प्रमोशन के दौरान नए शहर में उसका जाना हुआ, तब परदेश में मोबाईल से बातचीत करके एक मित्र बनाया। जिसके परिणाम स्वरूप वह आफिस में उस मित्र का दोस्त नहीं वरन् उसका बड़ा भाई बन गया था। वह उस शहर में अपना बड़ा भाई कहकर सबसे मिलवाता था। उसे बहुत खुशी होती। चलो परदेश में ही सही, उसे एक अपना छोटा भाई तो मिला। वह मित्र अपने घर की शादी विवाह में, उसे अपना बड़ा भाई प्रस्तुत कर सम्मान दिलाता रहा। वह भी बड़े गर्व से उस शहर में बड़े भाई की भूमिका दस वर्षों तक निभाता रहा। और अपने आप को उस शहर का ही बड़ा भाई मानने लगा था।
एक दिन उसका ट्रान्सफर फिर दूसरे शहर में हो गया। दो वर्ष गुजर चुके थे। भातृत्व की चाह उसे बार बार अपने छोटे भाई से मिलने को प्रेरित करती। आफिस में लगातार चार दिन के अवकाश ने उसकी चाह की राह खोल दी। उसने इस बार अपने गृह नगर जाने का कार्यक्रम रद्द कर दिया। चूंकि अपने इस छोटे भाई से मिलने की उत्कंठा उसके अंदर प्रबल हो गयी थी। उसने तुरंत मोबाईल पर फोन करके अपनी इच्छा प्रगट की। दो तीन दिन तक फोन लगाता रहा पर रिंग टोन जाती रही पर बात नहीं हो पायी। किसी अज्ञात आशंका से वह परेशान हो उठा था। अतः चौथे दिन टेलीफोन लगाया तो मालूम पड़ा वह अपनी ससुराल में है। उससे मिलना असंभव है। पर बड़े भाई की व्यग्रता ने बगैर सोचे समझे तत्काल में रिजर्वेशन करवा लिया था। तब इस समस्या से मुक्ति के लिए सोचा, मन ने कहा- चलो छोटे भाई से न सही और भी यार दोस्तों से मुलाकात हो जायेगी। क्या बुरा है। बिछुड़े शहर से एक बार फिर मुलाकात हो जाएगी। और फिर पहुँच गया उस शहर, अपनी मधुर स्मृतियों को तरोताजा करने के लिए।
उस शहर में एक दिन होटल में चाय की चुस्कियों के साथ अतीत के दिनों की याद कर ही रहे थे कि वे छोटे भाई साहब एकाएक सामने से गुजरे। उनको देखते ही उनके मुख से आवाज निकल गयी। अचानक बड़े भाई को देख उनके चेहरे से हवाईयाॅं उड़ती नजर आईं। देखकर उनकी समझ में आ गया था कि उनके साथ केवल दस वर्षों तक ही बड़े भाई का अनुबंध था। मोबाईल का एक झूठ पकड़ा जा चुका था। उसे सकपकाया देख उन्होंने ही स्नेह से पूँछा -क्या ससुराल जाने का कार्यक्रम रद्द हो गया ? चलो कम से कम आपसे मुलाकात तो हो गयी, कह कर उस छोटे भाई को अपने गले लगाकर अपने बड़े भाई के बड़प्पन को बरकरार रखा। और उसकी शर्मिन्दगी को अपने गले लगाकर उसे मुक्त कर दिया।
बहत्तर वर्षीय रामप्रसाद को याद है कि वह मजबूरी में ही मोबाईल खरीदने ‘मोबाईल मार्केट’ में गया था। वह पूर्व में मोबाईल की आलोचना करने में कभी नहीं थकता था। सभी के सामने उसे बेकार की वस्तु कहते रहते थे। उसके दुष्परिणामों की जब कोई खबर अखबारों में छपती तो वह उनको कंठस्थ कर लेते और हर किसी को सुनाने की कोशिश करते। जैसे अखबार को तो बस यही पढ़ता था, बाकी तो सारे अनपढ़ों की फौज में शामिल थे। उसे जब भी मौका मिलता लोगों को रटे रटाए तोते के समान सुना देता- भाई साहब आपको मालूम है, मोबाईल से आपके हार्ट पर दुष्प्रभाव पड़ता है, उसकी ध्वनि तरंगों से ढेर सारी समस्यायें पैदा होती हैं …बीमारियाँ फैलती हैं …मस्तिष्क रूग्ण होता है …और गाड़ी चलाते बात करना तो समझो मौत …आदि। लम्बे अंतराल के बाद उसे सबके हाथों में मोबाईल देखकर कुछ ईर्ष्या सी भी होने लगी थी। स्वयं को पिछड़े पन की हीन भावना में पाने लगा था। उसे लगा कि मैं अपनो से व समाज से कटता जा रहा हॅूं तब वह अंतिम निश्चय कर पाया था।
यह भी कोई बात हुई, नम्बर लगाओ और बात कर लो। न आमना और न सामना। न प्रेम न व्यवहार, हलो हाय किया, काम की बात की और फोन कट। उसे हर समय ऐसा लगता था कि एक दूसरे से मिलने जुलने से जो अपनत्व का पुल बनता था, वह आजकल लगभग टूटता जा रहा था। ‘अतिथि देवो भव’ तो वेदों में ही सिमिट कर रह गया था। यह तो हमारे पंडितों के मुख से ही अच्छा लगता था। हमारे आपस में मिलने जुलने की संस्कृति तो बस किताबो में सिमिटती जा रही थी। किसी आगंतुक का आगमन घर वालों के माथे पर चिन्ता की लकीरें खींच देता है। स्नेह, प्रेम- प्यार, मिलन आदि आज निज स्वार्थ की भट्टी में तप कर बिल्कुल राख हो चुका था।
तभी तो आज एक ही शहर में अलग अलग कालोनी में रहने वाले उनके दोनों बेटों के पास समय नहीं था। छोटा बेटा विकास अपने बड़े भाई समीर के घर दो दो माह तक नहीं आता था। जो बात उसे अपने छोटे भाई से करनी होती, तो वह अपने घर से ही मोबाईल में कर लेता था। यहाँ तक कि अपने माता पिता की भी खैर खबर का जरिया, यह मोबाईल ही रह गया था। उसे तो विचित्र तब लगता जब होली दीवाली में भी उनके बेटे एसएमएस से ही तीज त्यौहार निपटा लेते थे। फिलहाल वह अपने बड़े बेटे के साथ ही रहा करता था। बड़े बेटे का यह प्यार था या कर्तव्य। वह इस पचड़े में बिल्कुल भी नहीं पड़ा क्योंकि वह केवल यह जानता था कि यह मकान उसने ही बनवाया था। उसके ही नाम पर था। इंसान की ज्यों ज्यों उम्र बढ़ती है, सब अपने अपने परिवारों में बँट जाते हैं, अपनी अपनी दुनियाँ में खो जाते हैं। दूसरे शब्दों में उसे यूँ भी कहा जा सकता है कि अपने अपने कमरों में ही सिमिट जाते हैं। दोनों बेटे बट गये थे। बस अभी तक बँटी नहीं थी तो उनकी बेटी। जिसे यह संसार सदियों से पराया धन कह कर हर माँ बाप को समझाता चला आ रहा है।
शादी होने के बाद बेटी दूर शहर में रहती थी। सही अर्थों में उसने मोबाईल अपनी बेटी के लिए ही लिया था। फोन करते ही उसकी खनकती हुयी आवाज उसके कानों में किसी मंदिर की घंटियों के समान बजने लगती थी। कैसे हो पापा … कैसी तबियत है…क्या कर रहे हो पापा …. जैसे न जाने कितने एक साथ प्रश्न दाग देती थी कि बात कहाँ से शुरू करूँ। रामप्रसाद क्षण भर सोच में पड़ जाते। अगर अस्वस्थता की जानकारी देता हूँ तो किसी चिकित्सक की भाँति सावधानियाँ एवं दवाइयों की लम्बी फेहरिस्त प्रस्तुत करने लगती। शादी होने के बाद से ही वह सयानी हो गई थी। अब वह अपने पापा को पापा नही समझती थी। यह बात और थी कि अभी उसकी उमर उससे आधी से भी कम थी। आखिर वह उसकी गोद में ही खेलकर बड़ी हुई थी। पर आजकल वह तो उसके माँ के समान व्यवहार करने लगती। लगता था कि मेरी हर समस्या का निदान उसके पास था। दूर रहते हुए भी जब मोबाईल में बातचीत कर रही होती है तो लगता है कि वह मेरे सामने खड़े होकर बात कर रही हो। बात खत्म हो जाने के बाद वह कितनी बार अपने घर आने का आग्रह करती।
पापा आप कबसे नहीं आए …पिछली बार जब आए थे, तो दो माह बाद आने का वादा कर गये थे। शादी होने के बाद क्या मैं परायी हो गई … क्या मैं आपकी बेटी नहीं हॅूं ….पापा आ जाओ …कब आ रहे हो …. और आप बस से नहीं ट्रेन से आना … हम रिजर्वेशन करवा कर भेज देंगे आदि आदि….कभी कभी उसे लगने लगता था कि पिता जी लड़की के घर आने से संकोच कर रहे हैं, तो वह अपनी सासू माँ को मोबाईल पकड़ा कर अपने घर की मुखिया का आमंत्रण दिलवाने का प्रयास करने लगती है।
जब कभी बेटी के घर में इस तरह बार बार न आने की बात को कहने का दुस्साहस करता, तो वह उलट कर -बेटी के घर को ‘पराया घर ’कहने वालों की खिंचाई पर उतारू हो जाती। उस संस्कृति के विरोध में आकर खड़ी हो जाती और उनको एक पिता जी की तरह डाँटने लगती है। शायद इसी अपनत्व बोध को पाने के लिए उसने मोबाईल लिया था। जिसे आज भी वह शर्ट के बाएँ जेब में जहाँ उसका दिल धड़कता है, वहाँ बड़े प्यार से सीने से लगा कर रखता है और इंतजार करता रहता है, दो मीठे बोल की… अपनत्व की…जिससे उसके मन मंदिर में पूजा की घंटियाँ अनवरत बजती रहें और वह निरंतर उसकी ध्वनि को सुनता रहे…
(ई-अभिव्यक्ति में मॉरीशस के सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामदेव धुरंधर जी का हार्दिक स्वागत। आपकी रचनाओं में गिरमिटया बन कर गए भारतीय श्रमिकों की बदलती पीढ़ी और उनकी पीड़ा का जीवंत चित्रण होता हैं। आपकी कुछ चर्चित रचनाएँ – उपन्यास – चेहरों का आदमी, छोटी मछली बड़ी मछली, पूछो इस माटी से, बनते बिगड़ते रिश्ते, पथरीला सोना। कहानी संग्रह – विष-मंथन, जन्म की एक भूल, व्यंग्य संग्रह – कलजुगी धरम, चेहरों के झमेले, पापी स्वर्ग, बंदे आगे भी देख, लघुकथा संग्रह – चेहरे मेरे तुम्हारे, यात्रा साथ-साथ, एक धरती एक आकाश, आते-जाते लोग। आपको हिंदी सेवा के लिए सातवें विश्व हिंदी सम्मेलन सूरीनाम (2003) में सम्मानित किया गया। इसके अलावा आपको विश्व भाषा हिंदी सम्मान (विश्व हिंदी सचिवालय, 2013), साहित्य शिरोमणि सम्मान (मॉरिशस भारत अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी 2015), हिंदी विदेश प्रसार सम्मान (उ.प. हिंदी संस्थान लखनऊ, 2015), श्रीलाल शुक्ल इफको साहित्य सम्मान (जनवरी 2017) सहित कई सम्मान व पुरस्कार मिले हैं। हम श्री रामदेव जी के चुनिन्दा साहित्य को ई अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों से समय समय पर साझा करने का प्रयास करेंगे।
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय गद्य क्षणिका “– जाग्रतावस्था…” ।)
~ मॉरिशस से ~
☆ कथा कहानी ☆ गद्य क्षणिका # 65 — जाग्रतावस्था —☆ श्री रामदेव धुरंधर ☆
मैंने सपने में देखा कहीं बहुत ठंड पड़ रही है और हालत यह कि वहाँ का एकमात्र सौ वर्षीय गरीब आदमी बिना कंबल के सोया हुआ है। ठंड असहनीय होने से वह कराह रहा है। यह लिखने पर तो पीड़ा की एक अद्भुत रचना बन जाती। पर अभी आधी रात बीती थी और वह गरीब शेष आधी रात इसी तरह ठिठुरे सोया होता। मैं अभी सपने में ही सही, उस पर कंबल डाल देता। सुबह जाग्रतावस्था में लेखन हो जाता।
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ कथा-कहानी – “सरेआम”☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
-भई यह घर आपने बहुत ही सही लोकेशन पर लिया है। इसकी बायीं ओर मार्केट, दायीं ओर मार्केट और बिल्कुल सीधे जाओ तो लोकल बस व ऑटो मिलने के लिए चौक ! बहुत खुशकिस्मत हो आप !
जब हमने मकान खरीदा तब आसपास के लोगों का यही कहना था। वैसे हम इसी मकान में पिछले पांच साल से किराये पर रह रहे थे। तब छत पराई लगती थी, अब अपनी लगने लगी !
शुरू शुरू में हमने भी यह बात महसूस की थी और अब तो लोगों ने इस पर मोहर लगा दी थी।
हम यानी आमतौर पर मैं और बेटी ही बायीं ओर की मार्केट शाम को सब्ज़ी, दूध और दूसरे जरूरी सामान लेने जाते हैं। पत्नी को बाज़ार जाने का कम ही शौक है। वह कहती है कि आप गांव में रहते थे तो आप ही जाइये सब्ज़ियां लेने ! अब पांच साल तो किसी अनजान जगह और शहर में अपनी और दूसरों की पहचान में लग ही जाते हैं और हमारी भी मार्केट वालों से जान पहचान हो गयी। इतना भरोसा तो जीत ही लिया कि यदि भूलवश कमीज़ बदलते समय पैसे डालने रह गये और दुकान पर सामान खरीदने के बाद पता चला तो दुकानदार कहने लगे कि कोई बात नहीं भाई साहब, आप सामान ले जाओ ! आप पर भरोसा है। हमारे पैसे कहीं नहीं जाते ! आ जायेंगे ! यह तो बरसों का भरोसा है और बनते बनते बनता है ! यही नहीं आस पड़ोस भी अब दिन त्योहार पर घर की घंटी बजा कर उसमें शामिल होने का न्यौता देने लगा ! हालांकि पहले पहल हमें पंजाब से होने के चलते रिफ्यूजी तक मानते रहे और यह दंश भी देश के किसी हिस्से में रहने पर झेलना ही पडता है सबको! अपने ही देश में रिफ्यूजी! फिर दिन बीतने के साथ साथ सब हंसने खेलने लगे हमसे!
अब मार्केट में सब्ज़ी की रेहड़ियां शाम के समय खूब लगती हैं, जैसे पूरी सब्ज़ी मंडी ही चलकर इस मार्केट में रेहड़ियों पर लद कर आ गयी हो ! शाम के समय खूब चहल पहल और कितने ही कुछ जाने और कुछ अनजाने चेहरे देखने को मिलते हैं ! पर एक बात मेरी समझ में न आ रही थी कि आखिर शाम के धुंधलके में या अंधेरा छा जाने पर ये रेहड़ी वाले बिजली कहां से लेते हैं? इनकी रेहड़ियां इतनी जगमगाती कैसे हैं?
इसका भी रहस्य खुला सिमसिम की तरह ! एक दिन हम थोड़ा जल्दी ही मार्केट चले गये। क्या देखता हूँ कि एक आदमी हर रेहड़ी वाले से बीस बीस रुपये वसूल कर रहा है, बिल्कुल फिल्मी स्टाइल में ! जैसे ही बीस रुपये हाथ में आते, रेहड़ी पर रोशनी जगमगाने लग जाती ! यह कैसा जादू है? रेहड़ी वाले गरीब आदमी, मुंह खोलते भी डरते ! क्या करिश्मा है और बिना कनैक्शन बिजली आती कहां से है? वैसे तो एक आम आदमी को इससे क्या लेना देना? अरे आखें बंद कर, कानों में रुई डाल और चुपचाप सामान खरीद और सुरक्षित घर को लौट! वो लिखा रहता है न कि घर कोई आपका इ़तज़ार कर रहा है तो ऐसे में न बायें देख, न दायें, सीधा घर को देख और घर चल ! पर मुझसे रहा नहीं जा रहा था। फिल्मी हीरो तो था नहीं कि उससे भिड़ जाता! बस, अंदर ही अंदर कसमसाता रहता कि आखिर यह हफ्ता वसूली क्यों? वे गरीब, परदेसी रेहड़ी वाले खामोश रुपये देते रहते ! देखते समझते तो और भी होंगे लेकिन वे मस्त लोग थे, सौदा सुल्फ लिया और ये गये और वो गये ! कौन क्या कर रहा है, इससे क्या मतलब?
पता चला कि यह सरेआम बिजली चोरी प्रशासन के ध्यान में आ ही गयी और आखिरकार यह हफ्ता वसूली कुछ दिन रुकी और फिर आठवां आश्चर्य हुआ जब सुनने में आया कि उसी अधिकारी की ट्रांसफर हो गयि, जिसने यह बिजली चोरी रोकी थी ! हैं घोर कलयुग? रेहड़ी वाले राहत की सांस भी न ले पाये कि हफ्ता वसूली फिर शुरू ! सुनने में आया कि जो बिजली कनैक्शन देने आता था, वह तो मोहरा भर था, असली बाॅस तो उस एरिया का बड़ा नेता था ! अब यह बात कितनी सच, कितनी झूठ, हम बीच बाज़ार कुछ नहीं कह सकते भाई ! हमें माफ करो !