मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ १८ एप्रिल : जागतिक वारसा दिन… लेखक : श्री संजीव वेलणकर ☆ प्रस्तुती – डाॅ. शुभा गोखले ☆

डाॅ. शुभा गोखले

? इंद्रधनुष्य ?

१८ एप्रिल : जागतिक वारसा दिनलेखक : श्री संजीव वेलणकर ☆ प्रस्तुती – डाॅ. शुभा गोखले

आपल्या पूर्वजांनी आमच्यासाठी गुहा, मंदिरे, चर्च, स्मारके, किल्ले अशा अनेक गोष्टी ठेवल्या. त्यांच्या बद्दल आस्था निर्माण करण्यासाठी आणि पुरातनगोष्टी जतन व्हाव्यात यासाठी १८ एप्रिल हा ‘जागतिक वारसा दिन’ म्हणून साजरा केला जातो. संयुक्त राष्ट्रे शैक्षणिक, वैज्ञानिक आणि सांस्कृतिक संघटना (UNESCO) त्यांच्याकडून १९७२ मध्ये केलेल्या ठरावानुसार सांस्कृतिक अथवा निसर्ग वारसा यादी निश्चित केली जाते. सध्या जगातील १ हजार ३१ स्थळे या वारसा यादीत आहेत. 

जागतिक वारसास्थळांची सर्वाधिक संख्या इटली देशात आहे.ज्यात ५१ वारसा स्थळे आहेत. चीनमध्ये ४८, स्पेनमध्ये ४४ तर फ्रान्समध्ये ४१ आहेत. भारत ३२ वारसास्थळांसह सातव्या क्रमांकावर आहे. मेक्सिको ३३ व जर्मनी ४० स्थळांसह अनुक्रमे सहाव्या व पाचव्या स्थानांवर आहेत. आशियात चीन मध्ये सर्वात जास्त स्थळे आहेत. सिंगापूरकडे फक्त सात स्थळे असूनही ते आपल्यापेक्षा जास्त पर्यटक आकर्षित करतात. १९८३ मध्ये भारतातील दोनस्थळे सर्व प्रथम या यादीत समाविष्ट केली गेली. ती म्हणजे आग्र्याचा किल्ला व अजंठ्याच्या गुंफा. आता ३२ भारतीय स्थळे त्या यादीत आहेत. त्यापैकी २५ सांस्कृतिक वारसा स्थळे आहेत तर, ७ निसर्ग स्थळे आहेत. याशिवाय आणखी ५१ स्थळांचा प्रस्ताव भारताने युनेस्कोकडे पाठवला आहे. 

अमूल्य ठेवा वारसा स्थळे घोषित करण्यामागे त्या जागांचे संरक्षण व संवर्धन करणे व पुढच्या पिढ्यांपर्यंत हा अमूल्य वारसा सुपूर्द करणे हे उद्दिष्ट आहे. त्यातून पर्यटन वाढीला चालना मिळते. त्यातून रोजगार वाढतो. देशाला बहुमूल्य परकीय चलन प्राप्ती होते. या स्थळांना जागतिक पर्यटन नकाशावर जागा मिळवून देण्यासाठी प्रयत्न करणे आवश्यक आहे. जागतिक वारसा दिना निमित्ताने पुढील पिढी पर्यंत हा समृद्ध वारसा पोहोचवायचा असेल तर प्राचीन शिलालेख, मंदिरे, मूर्ती आणि शिल्पे यांना सरंक्षण मिळणे गरजेचे आहे.

लेखक : श्री संजीव वेलणकर

पुणे, मो. ९४२२३०१७३३, संदर्भ : इंटरनेट

संकलन : श्री मिलिंद पंडित

कल्याण

संग्राहिका :  डॉ. शुभा गोखले

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 38 ⇒ || जुगाली ||… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “जुगाली”।)  

? अभी अभी # 38 ⇒ || जुगाली ||? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

भोजन करने के बाद भी दिन भर चरते रहने को जुगाली करना कहते हैं। खाली पेट जुगाली नहीं होती। गाय, बैल और भैंस जैसे पालतू घास चरने वाले चौपाया जानवर पर्याप्त घास चरने के बाद दोपहर को सुस्ताते हुए जुगाली किया करते हैं। यह वह पाचन प्रक्रिया है, जिसमें पहले से चबाया हुआ चारा ही मुंह में रीसाइकल हुआ करता है, जिससे आनंद रस की निष्पत्ति होती है और जिसकी तुलना सिर्फ पंडित रविशंकर के सितार वादन और तबला वादक अल्ला रखा के तबला वादन की जुगलबंदी से ही की जा सकती है।

आदमी बंदर की औलाद तो है लेकिन वह नकल में अकल का इस्तेमाल नहीं करता। वह पहले तो पेट भर स्वादिष्ट भोजन कर लेता है, फिर उसके पश्चात् भी दिन भर कुछ न कुछ तो चरा ही करता है।

मानो उसका पेट, पेट नहीं, कोई चरागाह हो। वैसे समझदार लोग स्वादिष्ट और संतुष्ट भोजन के पश्चात् भी एक मीठे पत्ते पान का सेवन करना नहीं भूलते। यह वाकई उन्हें जुगलबंदी का अहसास करवाती है। भोजन के पश्चात् तांबूल सेवन जुगाली नहीं, जुगलबंदी ही तो है। ।

लेकिन ऐसे लोगों का क्या किया जाए जो खाली पेट ही सुबह से शाम तक पान, गुटखा और तंबाकू की जुगाली किया करते हैं। रस, रस तो सब आत्मसात कर लिया करते हैं और चारा चारा बाहर, यत्र यत्र सर्वत्र, थूक दिया करते हैं। बड़े भोले भंडारी होते हैं ये जुगाली पुरुष, अनजाने ही गरल को अमृत समझ पान किया करते हैं। कैसे नादान हैं, कैंसर को हवा दिया करते हैं।

जो इंसान लोहे के चने नहीं चबा सकता, वह एक चौपाए की नकल कर खाली पेट दिन रात च्यूइंग गम चबाया करता है। क्या करें ऐसे इंसानों का, जो दिन भर या तो जुगाली किया करते हैं, या बस किसी को बेमतलब गाली दिया करते हैं। जो व्यर्थ का कचरा, ना तो चबाया जा सकता है, और ना ही पचाया जा सकता है, वही विष तो इंसान के मुख से गाली बनकर बाहर आया करता है। जुगाली और गाली में शायद बस इतना ही अंतर है। ।

शायद इसीलिए मनुष्य, मनुष्य है, और पशु पशु। पशु केवल एक जानवर है, जब कि इंसान अक्लमंद, समझदार, बुद्धिमान! पशु संघर्षरत रहते हुए, प्रकृति के नियमों का पालन करता है जब कि इंसान अपने नियम खुद बनाता है, पशुओं को गुलाम बनाता है। वह तो इतना पशुवत है, कि इंसानों को भी गुलाम बनाने से नहीं चूकता।

एक चौपाये और हमारे पाचन तंत्र में जमीन आसमान का अंतर है। पशुओं के लिए कोई गाइडलाइन नहीं, कोई कोड ऑफ कंडक्ट नहीं, फिर भी वे अपने दायरे में रहते हैं। जो प्राणी शाकाहारी है, वह शाकाहारी है, और जो मासाहारी, वो मांसाहारी। जंगल में शेर है तो मंगल है। शहर में इंसान है तो दंगल है, हिंसा है डकैती है, अनाचार, व्यभिचार है।

आज संसार को हिंसक पशुओं से खतरा नहीं, इस इंसान से ही खतरा है। जंगल में सिर्फ लड़ाई होती है, जब कि इंसानों के बीच, विश्व युद्ध। ।

जितना पचाएं, उतना ही खाएं। एक पशु जो खाता है, उसी को जुगाली के जरिए पचाता है, जो इंसान भरपेट भोजन के बाद भी कुछ चरता रहता है, वह केवल अपने साथ अत्याचार करता है। यह कोई स्वस्थ जुगलबंदी नहीं, अक्लमंदी नहीं, फिर क्या है, जुगाली करें, खुद जान जाएं..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #182 ☆ ख़ुद से जीतने की ज़िद्द ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख ख़ुद से जीतने की ज़िद्द। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 182 ☆

☆ ख़ुद से जीतने की ज़िद्द 

‘खुद से जीतने की ज़िद्द है मुझे/ मुझे ख़ुद को ही हराना है। मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ वाट्सएप का यह संदेश मुझे अंतरात्मा की आवाज़ प्रतीत हुआ और ऐसा लगा कि यह मेरे जीवन का अनुभूत सत्य है, मनोभावों की मनोरम अभिव्यक्ति है। ख़ुद से जीतने की ज़िद अर्थात् निरंतर आगे बढ़ने का जज़्बा, इंसान को उस मुक़ाम पर ले जाता है, जो कल्पनातीत है। यह झरोखा है, मानव के आत्मविश्वास का; लेखा-जोखा है… एहसास व जज़्बात का; भाव और संवेदनाओं का– जो साहस, उत्साह व धैर्य का दामन थामे, हमें उस निश्चित मुक़ाम पर पहुंचाते हैं, जिससे आगे कोई राह नहीं…केवल शून्य है। परंतु संसार रूपी सागर के अथाह जल में गोते खाता मन, अथक परिश्रम व अदम्य साहस के साथ आंतरिक ऊर्जा को संचित कर, हमें साहिल तक पहुंचाता है…जो हमारी मंज़िल है।

‘अगर देखना चाहते हो/ मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो / आसमान को’ प्रकट करता है मानव के जज़्बे, आत्मविश्वास व ऊर्जा को..जहां पहुंचने के पश्चात् भी उसे संतोष का अनुभव नहीं होता। वह नये मुक़ाम हासिल कर, मील के पत्थर स्थापित करना चाहता है, जो आगामी पीढ़ियों में उत्साह, ऊर्जा व प्रेरणा का संचरण कर सके। इसके साथ ही मुझे याद आ रही हैं, 2007 में प्रकाशित ‘अस्मिता’ की वे पंक्तियां ‘मुझ मेंं साहस ‘औ’/ आत्मविश्वास है इतना/ छू सकती हूं/ मैं आकाश की बुलंदियां’ अर्थात् युवा पीढ़ी से अपेक्षा है कि वे अपनी मंज़िल पर पहुंचने से पूर्व बीच राह में थक कर न बैठें और उसे पाने के पश्चात् भी निरंतर कर्मशील रहें, क्योंकि इस जहान से आगे जहान और भी हैं। सो! संतुष्ट होकर बैठ जाना प्रगति के पथ का अवरोधक है…दूसरे शब्दों में यह पलायनवादिता है। मानव अपने अदम्य साहस व उत्साह के बल पर नये व अनछुए मुक़ाम हासिल कर सकता है।

‘कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती/ लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती’… अनुकरणीय संदेश है… एक गोताखोर, जिसके लिए हीरे, रत्न, मोती आदि पाने के निमित्त सागर के गहरे जल में उतरना अनिवार्य होता है। सो! कोशिश करने वालों को कभी पराजय का सामना नहीं करना पड़ता। दीपा मलिक भले ही दिव्यांग महिला हैं, परंतु उनके जज़्बे को सलाम है। ऐसे अनेक दिव्यांगों व लोगों के उदाहरण हमारे समक्ष हैं, जो हमें ऊर्जा प्रदान करते हैं। के•बी• सी• में हर सप्ताह एक न एक कर्मवीर से मिलने का अवसर प्राप्त होता है, जिसे देख कर अंतर्मन में अलौकिक ऊर्जा संचरित होती है, जो हमें शुभ कर्म करने को प्रेरित करती है।

‘मैं अकेला चला था जानिब!/ लोग मिलते गये/ और कारवां बनता गया।’ यदि आपके कर्म शुभ व अच्छे हैं, तो काफ़िला स्वयं ही आपके साथ हो लेता है। ऐसे सज्जन पुरुषों का साथ देकर आप अपने भाग्य को सराहते हैं और भविष्य में लोग आपका अनुकरण करने लग जाते हैं…आप सबके प्रेरणा-स्त्रोत बन जाते हैं। टैगोर का ‘एकला चलो रे’ में निहित भावना हमें प्रेरित ही नहीं, ऊर्जस्वित करती है और राह में आने वाली बाधाओं-आपदाओं का सामना करने का संदेश देती है। यदि मानव का निश्चय दृढ़ व अटल है, तो लाख प्रयास करने पर, कोई भी आपको पथ-विचलित नहीं कर सकता। इसी प्रकार सही व सत्य मार्ग पर चलते हुए, आपका त्याग कभी व्यर्थ नहीं जाता। लोग पगडंडियों पर चलकर अपने भाग्य को सराहते हैं तथा अधूरे कार्यों को संपन्न कर सपनों को साकार कर लेना चाहते हैं।

‘सपने देखो, ज़िद्द करो’ कथन भी मानव को प्रेरित करता है कि उसे अथवा विशेष रूप से युवा-पीढ़ी को उस राह पर अग्रसर होना चाहिए। सपने देखना व उन्हें साकार करने की ज़िद, उनके लिए मार्ग-दर्शक का कार्य करती है। ग़लत बात पर अड़े रहना व ज़बर्दस्ती अपनी बात मनवाना भी एक प्रकार की ज़िद्द है, जुनून है…जो उपयोगी नहीं, उन्नति के पथ में अवरोधक है। सो! हमें सपने देखते हुए, संभावना पर अवश्य दृष्टिपात करना चाहिए। दूसरी ओर मार्ग दिखाई पड़े या न पड़े… वहां से लौटने का निर्णय लेना अत्यंत हानिकारक है। एडिसन जब बिजली के बल्ब का आविष्कार कर रहे थे, तो उनके एक हज़ार प्रयास विफल हुए और तब उनके एक मित्र ने उनसे विफलता की बात कही, तो उन्होंने उन प्रयोगों की उपादेयता को स्वीकारते हुए कहा… अब मुझे यह प्रयोग दोबारा नहीं करने पड़ेंगे। यह मेरे पथ-प्रदर्शक हैं…इसलिए मैं निराश नहीं हूं, बल्कि अपने लक्ष्य के निकट पहुंच गया हूं। अंततः उन्होंने आत्म-विश्वास के बल पर सफलता अर्जित की।

आजकल अपने बनाए रिकॉर्ड तोड़ कर नए रिकॉर्ड स्थापित करने के कितने उदाहरण देखने को मिल जाते हैं। कितनी सुखद अनुभूति के होते होंगे वे क्षण …कल्पनातीत है। यह इस तथ्य पर प्रकाश डालता है कि ‘वे भीड़ का हिस्सा नहीं हैं तथा अपने अंतर्मन की इच्छाओं को पूर्ण कर सुक़ून पाना चाहते हैं।’ यह उन महान् व्यक्तियों के लक्षण हैं, जो अंतर्मन में निहित शक्तियों को पहचान कर अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर नये मील के पत्थर स्थापित करना चाहते हैं। बीता हुआ कल अतीत है, आने वाला कल भविष्य तथा वही आने वाला कल वर्तमान होगा। सो! गुज़रा हुआ कल और आने वाला कल दोनों व्यर्थ हैं, महत्वहीन हैं। इसलिए मानव को वर्तमान में जीना चाहिए, क्योंकि वर्तमान ही सार्थक है… अतीत के लिए आंसू बहाना और भविष्य के स्वर्णिम सपनों के प्रति शंका भाव रखना, हमारे वर्तमान को भी दु:खमय बना देता है। सो! मानव के लिए अपने सपनों को साकार करके, वर्तमान को सुखद बनाने का हर संभव प्रयास करना श्रेष्ठ है। इसलिए अपनी क्षमताओं को पहचानो तथा धीर, वीर, गंभीर बन कर समाज को रोशन करो… यही जीवन की उपादेयता है।

‘जहां खुद से लड़ना वरदान है, वहीं दूसरे से लड़ना अभिशाप।’ सो! हमें प्रतिपक्षी को कमज़ोर समझ कर कभी भी ललकारना नहीं चाहिए, क्योंकि आधुनिक युग में हर इंसान अहंवादी है और अहं का संघर्ष, जहां घर-परिवार व अन्य रिश्तों में सेंध लगा रहा है; दीमक की भांति चाट रहा है, वहीं समाज व देश में फूट डालकर युद्ध की स्थिति तक उत्पन्न कर रहा है। मुझे याद आ आ रहा है, एक प्रेरक प्रसंग… बोधिसत्व, बटेर का जन्म लेकर उनके साथ रहने लगे। शिकारी बटेर की आवाज़ निकाल कर, मछलियों को जाल में फंसा कर अपनी आजीविका चलाता था। बोधि ने बटेर के बच्चों को, अपनी जाति की रक्षा के लिए, जाल की गांठों को कस कर पकड़ कर, जाल को लेकर उड़ने का संदेश दिया…और उनकी एकता रंग लाई। वे जाल को लेकर उड़ गये और शिकारी हाथ मलता रह गया। खाली हाथ घर लौटने पर उसकी पत्नी ने, उनमें फूट डालने की डालने के निमित्त दाना डालने को कहा। परिणामत: उनमें संघर्ष उत्पन्न हुआ और दो गुट बनने के कारण वे शिकारी की गिरफ़्त में आ गए और वह अपने मिशन में कामयाब हो गया। ‘फूट डालो और राज्य करो’ के आधार पर अंग्रेज़ों का हमारे देश पर अनेक वर्षों तक आधिपत्य रहा। ‘एकता में बल है तथा बंद मुट्ठी लाख की, खुली तो खाक़ की’ एकजुटता का संदेश देती है। अनुशासन से एकता को बल मिलता है, जिसके आधार पर हम बाहरी शत्रुओं व शक्तियों से तो लोहा ले सकते हैं, परंतु मन के शत्रुओं को पराजित करन अत्यंत कठिन है। काम, क्रोध, लोभ, मोह पर तो इंसान किसी प्रकार विजय प्राप्त कर सकता है, परंतु अहं को पराजित करना आसान नहीं है।

मानव में ख़ुद को जीतने की ज़िद्द होनी चाहिए, जिस के आधार पर मानव उस मुक़ाम पर आसानी से पहुंच सकता है, क्योंकि उसका प्रति-पक्षी वह स्वयं होता है और उसका सामना भी ख़ुद से होता है। इस मन:स्थिति में ईर्ष्या-द्वेष का भाव नदारद रहता है… मानव का हृदय अलौकिक आनन्दोल्लास से आप्लावित हो जाता है और उसे ऐसी दिव्यानुभूति होती है, जैसी उसे अपने बच्चों से पराजित होने पर होती है। ‘चाइल्ड इज़ दी फॉदर ऑफ मैन’ के अंतर्गत माता-पिता, बच्चों को अपने से ऊंचे पदों पर आसीन देख कर फूले नहीं समाते और अपने भाग्य को सराहते नहीं थकते। सो! ख़ुद को हराने के लिए दरक़ार है…स्व-पर, राग-द्वेष से ऊपर उठ कर, जीव- जगत् में परमात्म-सत्ता अनुभव करने की; दूसरों के हितों का ख्याल रखते हुए उन्हें दु:ख, तकलीफ़ व कष्ट न पहुंचाने की; नि:स्वार्थ भाव से सेवा करने की … यही वे माध्यम हैं, जिनके द्वारा हम दूसरों को पराजित कर, उनके हृदय में प्रतिष्ठापित होने के पश्चात्, मील के नवीन पत्थर स्थापित कर सकते हैं। इस स्थिति में मानव इस तथ्य से अवगत होता है कि उस के अंतर्मन में अदृश्य व अलौकिक शक्तियों का खज़ाना छिपा है, जिन्हें जाग्रत कर हम विषम परिस्थितियों का बखूबी सामना कर, अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 37 ⇒ हनुमान और अनुमान… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हनुमान और अनुमान “।)  

? अभी अभी # 37 ⇒ हनुमान और अनुमान ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

हम जिसे मानते हैं, उसके बारे में अनुमान नहीं लगाते ! मर्यादा राम अयोध्या में पैदा हुए, यह हमारी मान्यता नहीं, केवल विश्वास नहीं, एक शाश्वत, सनातन सत्य है, जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। रामजी के हृदय में हनुमान जी का वास है, यह स्वयंसिद्ध है, इसलिए उनके जन्म-स्थान के प्रति हम बिल्कुल चिंतित नहीं है। जब कोई बाबर पैदा होगा, तब देखा जाएगा।

हनुमान चालीसा से यह सिद्ध हो गया है कि वे एक जनेऊधारी  थे, जिनने बचपन में सूर्य का, बिना किसी मुआवजे के, अधिग्रहण कर लिया था। हनुमान वानर नहीं, वानर-श्रेश्ठ थे, वे अंजनिसुत पवनपुत्र थे, और ज्ञान-गुण-सागर थे, कोई शक ?

किसी के हृदय में वास करना इतना आसान भी नहीं ! अपनी शक्ति के अहंकार की जब माइक्रो-चिप बनती है, इंसान लघु से लघुतम होता चला जाता है, तब जाकर कोई विशाल-हृदय उसे स्वीकार कर पाता है। प्रभु श्रीराम के हृदय में स्थान पाने के लिए, न केवल हीरे-मोती-रत्न-जड़ित माला को तोड़कर फेंकना पड़ता है, दंभयुक्त  56 इंच सीने को फुलाना नहीं, गलाना पड़ता है, चीरकर दिखाना भी पड़ता है। प्रभु श्रीराम का जन्म कहीं भी हुआ हो, उनके हृदय को ही अपनी जन्म-स्थली मानने वाला, कोई विरला भक्त हनुमान ही हो सकता है।

जाति ना पूछिए साधु की ! संकट मोचक बजरंग बली न केवल वानर-श्रेष्ठ हैं, वे सभी संतों के आदर्श सर्वश्रेष्ठ रामकथा के श्रोता भी हैं। जहाँ भी रामकथा होती है, वे सदा वहाँ मौजूद रहते हैं। क्या आपको किसी चुनावी सभा में कभी हनुमान जी के दर्शन हुए। ।

मनुष्य एक स्वार्थी प्राणी है ! अपने स्वार्थ की खातिर वह कभी एक साधारण इंसान को भगवान का दर्जा दे देता है, तो कभी भगवान को राजनीति में घसीट लाता है। भगवान के नाम पर भीख माँगने और वोट माँगने में कोई खास अंतर नहीं। जिनका आपको आशीर्वाद लेना है, जो जन जन के आराध्य हैं, उन्हें किसी विशेष जाति का मसीहा सिद्ध करना, दिमाग का दिवालियापन नहीं तो और क्या है।

‌प्रभु श्रीराम और रामभक्त हनुमान का आपस में वही संबंध है जो नंदी और त्रिपुरारी शंकर का है। राम, लक्ष्मण जानकी का जब नाम लिया जाता है, तो हनुमान जी की भी जय बोली जाती है। राम दरबार में जो भी सेंध मारने की कोशिश करेगा, उसका हनुमान क्या हश्र करेंगे, अनुमान लगाना मुश्किल  नहीं। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 36 ⇒ मेरी सूरत तेरी आँखें… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मेरी सूरत तेरी आँखें”।)  

? अभी अभी # 36 ⇒ मेरी सूरत तेरी आँखें? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

अज़ीब अंधेरगर्दी है ! हमें अपनी आँखों से ही अपनी सूरत दिखाई नहीं देती। हमें या तो दूसरों की आँखों का सहारा लेना पड़ता है, या फिर किसी आईने का !

‌आईने के सामने घण्टों सजने-संवरने के बाद जब सजनी अपने साजन से पूछती है, मैं कैसी लग रही हूँ? तो, किसी किताब में गड़ी आँखों को बिना उठाए, वह जवाब दे देते हैं, ठीक है ! और वह पाँव पटकती हुई किचन में चली जाती है। थोड़ी ही देर में चाय का प्याला लेकर वापस आती है। मिस्टर साजन चाय की पहली चुस्की लेते हुए जवाब देते हैं, हाँ, अब ठीक लग रही हो।।

‌जिन आँखों से आप पूरी दुनिया देख चुके हो, उन आँखों से अपनी ही सूरत नहीं देख पाना तो उस कस्तूरी मृग जैसा ही हुआ, जो उस कस्तूरी की गंध की तलाश में है, जो उसकी देह में ही व्याप्त है। अगर आईना नहीं होता, तो कौन यक़ीन करता कि, मैं सुंदर हूँ।

‌इंसान से कई गुना सुंदर पशु-पक्षी इस प्रकृति पर मौजूद है, जिनके बदन पर कोई अलंकारिक वस्त्र-आभूषण मौजूद नहीं, लेकिन इसका उन्हें कोई भान-गुमान नहीं। उनके पास प्रकृति द्वारा प्रदत्त सुंदरता को निहारने का कोई आईना ही नहीं ! जब किसी सुंदर पक्षी के सामने आईना रख दिया जाता है, तो वह उसे कोई अन्य पक्षी समझ आईने पर चोंच मारता है। उसे अपनी ‌सुंदरता का कोई बोध ही नहीं। जब कि उसने कई बार अपनी परछाई पानी में अवश्य देखी होगी।।

‌अगर आईना नहीं होता, तो क्या सुंदरता नहीं होती ! आईना सुंदर नहीं ! आईने का अपना कोई अक्स नहीं। क्या आपने ऐसा कोई आइना देखा है, जिसमें कुछ भी नज़र नहीं आता? जब भी आप ऐसा आईना देखने जाएँगे, अपने आप को उसमें पहले से ही मौजूद पाएँगे।

‌केवल शायर ही नहीं, ऐसे कई इंसान हैं जो किसी की आँखों में खो जाते हैं, उन आँखों पर मर-मिटने को तैयार हो जाते हैं। तेरी आँखों के सिवा, दुनिया में रखा क्या है। तीर आँखों के, जिगर से पार कर दो यार तुम। क्या करें ! तेरे नैना हैं जादू भरे।

‌यही हाल किसी मासूम सी सूरत का है ! हर सूरत कितनी मशहूर है। तेरी सूरत से नहीं मिलती, किसी की सूरत ! हम जहां में तेरी तस्वीर लिये फिरते हैं। सूरत तो सूरत, तस्वीर तक को सीने से लगाकर रखने वाले कई आशिक मौजूद हैं, इस दुनिया में।।

‌अगर इस खूबसूरत से चेहरे पर आँखें ही न होती तो क्या होता ! आँखें ही रौशनी हैं, आँखें ही नूर हैं। आँखों में परख है, इसीलिए तो हीरा कोहिनूर है। सूरत और आँखों को आप एक दूसरे से अलग नहीं कर सकते।

‌ऐसा नहीं ! चेहरे बदसूरत भी होते हैं, आँखें कातिल ही नहीं डरावनी भी होती हैं। क्यों कोई हमें फूटी आँखों नहीं सुहाता, क्यों हम किसी की सूरत भी नहीं देखना चाहते? अरे! कोई कारण होगा।

‌हमारी इन दो खूबसूरत आँखों के पीछे भी आँखें हैं, जो हमें इन आँखों से दिखाई नहीं देती, वे मन की आँखें हैं। ‌वे मन की आँखें सूरत को नहीं सीरत को पहचानती हैं। ‌मन की आँखों ही की तरह हर सूरत में एक सीरत छुपी रहती है। वही अच्छाई है, आप चाहें तो उसे ईश्वरीय गुण कहें या ख़ुदा का नूर।।

‌संसार ऐसी कई विभूतियों से भरा पड़ा है, जो जन्म से ही दृष्टि-विहीन थे। भक्त सूरदास से लगाकर रवींद्र जैन तक कई जाने-अनजाने नेत्रहीनों का सहारा रही हैं, ये मन की आँखें ! इस दिव्य-दृष्टि के स्वामी को कोई अक्ल का अंधा ही अंधा कहेगा।

‌यारों, सूरत हमारी पे मत जाओ ! मन की आँखों से हमें परखो। हम दिल के इतने बुरे भी नहीं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 148 ☆ बिनु पद चले, सुने बिनु काना… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “बिनु पद चले, सुने बिनु काना…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 148 ☆

बिनु पद चले, सुने बिनु काना… ☆

प्रकृति ने हर मौसम के लिए अलग- अलग रंग संयोजित किए हैं, किंतु उत्साह का तो एक ही रंग होता है जिसकी चमक सब बयां कर देती है। नेह की भावना जहाँ अपनों को जोड़ कर रखती है वहीं बिन बोले ही वो कह जाती है जो सामने वाला हमसे चाहता है।

आकर्षण, घर्षण, विकर्षण सारे ही व्यवहार में देखने को मिलते हैं, बस ये हमें चयन करना है कि हम किसके साथ चल सकते हैं।

शिखर की चाह में एक -एक कर सबको हटाते जाना फिर जोड़ने की कोशिश करना ; इन्हीं स्थितियों के लिए रहीम दास जी का ये दोहा प्रासंगिक है –

रहिमन माला प्रेम की, जिन तोड़ो चटकाय।

जोड़े से फिर न जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ जाय।।

पर कोई बात नहीं जैसे ही व्यक्ति सफल होता है, उसे अनेको लोग मिल जाते हैं, उसके प्रशंसक ; ऐसी दशा में क्या जरूरत है ; अड़ंगेबाजों को सिर पर चढ़ाने की ?

परन्तु दूसरी ओर ये बात भी ध्यान रखने योग्य है –

रूठे स्वजन मनाइये, जो रूठे सौ बार।

रहिमन फिर फिर पोइये, टूटे मुक्ता हार।।

इस दोहे में रहीम दास जी ने स्वयं कहा है रूठे स्वजन को मनाइए, हम सभी मनाते हैं ; लेकिन केवल ऐसे लोगों को जो हमारे लिए उपयोगी होते हैं। असली मोती का हार तो हम नये धागे में पिरो कर सजो लेते हैं; किंतु सामान्य मोती को धागा टूटते ही फेंक देते हैं।ये बात जीवन के सभी क्षेत्रों में लागू होती है। उपयोगी को सहेजो अनुपयोगी को बाहर करो। जोड़- तोड़ के इस चक्कर में जाने अनजाने गलतियाँ होने लगती है। गलतियों से सबक लेना जिसको आ गया या बिगड़ी बात को अपने पाले में पुनः कर लेने की कला जिसको आ गयी समझो वो बाजी जीत ही लेगा।

जीत- हार भले ही एक सिक्के के दो पहलू हों किन्तु विजेता का ताज धारण करने की इच्छा ही समस्त जगत का मूल मंत्र होता है। करते चलो, बढ़ते चलो बस रुकना नहीं चाहिए जब तक मंजिल आपके कदमों तक न आ जाए। इसी क्रम में ये ध्यान रखने की बात है कि-

कछु कहि नीच न छेड़िए, भलो न वाको संग।

पाथर डारे कीच में, उछलि बिगारत अंग।।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 211 ☆ आलेख – फिटनेस जरूरी क्यों… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – फिटनेस जरूरी क्यों

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 211 ☆  

? आलेख फिटनेस जरूरी क्यों?

कहा गया है कि धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ गया और चरित्र गया तो सब कुछ गया. यद्यपि यह उक्ति चरित्र के महत्व को प्रतिपादित करते हुये कही गई है किन्तु इसमें कही गई बात कि “स्वास्थ्य गया तो कुछ गया” रेखांकित करने योग्य है. हमारा शरीर ही वह माध्यम है जो जीवन के उद्देश्य निष्पादित करने का साधन है. स्वस्थ्य तन में ही स्वस्थ्य मन का निवास होता है. और निश्चिंत मन से ही हम जीवन में कुछ अच्छा कर सकते हैं.

कला और साहित्य मन की अभिव्यक्ति के परिणाम ही हैं. स्वास्थ्य और साहित्य का आपस में गहरा संबंध होता है. स्वस्थ साहित्य समाज को स्वस्थ रखने में अहम भूमिका अदा करता है. साहित्य में समाज का व्यापक हित सन्नहित होना वांछित है. और समाज में स्वास्थ्य चेतना जागृत बनी रहे इसके लिये निरंतर सद्साहित्य का सृजन, पठन पाठन, संगीत, नाटक, फिल्म, मूर्ति कला, पेंटिंग आदि कलाओ में हमें स्वास्थ्य विषयक कृतियां देखने सुनने को मिलती हैं. यही नहीं नवीनतम विज्ञान के अनुसार मनोरोगों के निदान में कला चिकित्सा का उपयोग बहुतायत से किया जा रहा है. व्यक्ति की कलात्मक अभिव्यक्ति के जरिये मनोचिकित्सक द्वारा विश्लेषण किये जाते हैं और उससे उसके मनोभाव समझे जाते हैं. बच्चों के विकास में कागज के विभिन्न आर्ट ओरोगामी, पेंटिग, मूर्ति कला, आदि का बहुत योगदान होता है.

स्वास्थ्य दर्पण, आरोग्य, आयुष, निरोगधाम, आदि अनेकानेक पत्रिकायें बुक स्टाल्स पर सहज ही मिल जाती हैं. फिल्में, टी वी और रेडियो ऐसे कला माध्यम है जिनकी बदौलत साहित्य और कला का व्यापक प्रचार-प्रसार हो रहा है.

जाने कितनी ही उल्लेखनीय हिन्दी फिल्में हैं जिनमें रोग विशेष को कथानक बनाया गया है. अपेक्षाकृत उपेक्षित अनेक बीमारियों के विषय में जनमानस की स्वास्थ्य चेतना जगाने में फिल्मों का योगदान अप्रतिम है.

फिटनेस उपकरणों, प्रोटीन, दवाओ, और नेचुरोपैथी, योग, जागिंग, जिम पर जनता करोड़ो रूपए प्रति वर्ष खर्च कर रही है, योग को वैश्विक मान्यता मिली है.

ये सब खान पान रहन सहन आखिर जन सामान्य में लोकप्रिय क्यों है? इसका कारण मात्र यही है की कहीं न कहीं हम सब फिटनेस का महत्व समझते हैं. भले ही आलस्य, समय की कमी या रुपए कमाने की व्यस्तता में हम फिटनेस प्रोग्राम को कल पर टालने की कोशिश करते हैं, क्योंकि शारीरिक मेहनत हमे सहज पसंद नही आती, उसकी जगह हम कोई रेडीमेड फार्मूला चाहते हैं जो हमे तन मन से फिट बनाए रखे. किंतु इस सत्य को स्वीकार कर लेने में ही भलाई है कि फिटनेस का कोई शॉर्ट कट नहीं होता, यह एक नियमित प्रक्रिया है जिसे दिनचर्या का हिस्सा बना लेने में ही भलाई है. स्वस्थ्य रहें, सबल बने, जीवन के हर मैदान में फिट रहें हिट रहें. निरोगी काया के प्रति जागरूख रहें, घर परिवार बच्चों अपने परिवेश में स्वच्छता, खान पान, लिविंग में फिटनेस का वातावरण सृजित बनाए रखें और चमत्कार देखें चिकत्सा में व्यय बचेगा, जीवन में सकारात्मक वैचारिक परिपक्वता के दृष्टिकोण से नौकरी, व्यवसाय, समाज में व्यवहारिक सफलता मिलेगी.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट… भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट – भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

शाखा में मंगलवार का प्रारंभ तो शुभता लेकर आया पर उनको लेकर नहीं आया जिनसे काउंटर शोभायमान होते हैं. मौसम गर्मियों का था और बैंकिंग हॉल किसी सुपरहिट फिल्म के फर्स्ट डे फर्स्ट शो की भीड़ से मुकाबला कर रहा था. ये स्थिति रोज नहीं बनती पर बस/ट्रेन के लेट होने की स्थिति में और बैंकिंग केलैंडर के विशेष दिनों में होती है. जब भी ब्रेक के बाद बैंक खुलते हैं तो आने वाले कस्टमर्स हमेशा यह एहसास दिलाते हैं कि बैंक उनके लिए भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने हमारे लिए. यह महत्वपूर्ण होना ही कस्टमर्स का, विशेषकर ग्रामीण और अर्धशहरीय क्षेत्रों के कस्टमर्स का, हमसे अपेक्षाओं का सृजन करता है. विपरीत परिस्थितियों को पारकर या उनपर विजय कर कस्टमर्स की भीड़ को देखते देखते विरल करने की कला से हमारे बैंक के कर्मवीर सिद्धहस्त हैं और जब शाखाप्रबंधक अपने चैंबर से बाहर निकलकर इस रणभूमि में पदार्पण करते हैं तो शाखा की आर्मी का उत्साह और गति दोनों कई गुना बढ़ जाती है.

शाखा प्रबंधक जी के बैंकीय संस्कारों में भी यही गुण था और उस पर उनकी धार्मिकता से जड़ित सज्जनता ने इस विषम स्थिति पर बहुत शालीन और वीरतापूर्ण ढंग से विजय पाई. बस/ट्रेन के लेट आने पर देर से आने वाले भी इस संग्राम में चुपचाप जुड़ गये और अपने दर्शकों याने कस्टमर्स के सामने बेहतरीन टीमवर्क का उदाहरण पेश किया. कुछ कस्टमर्स की प्रतिक्रिया बड़े काम की थी “कि माना कि शुरुआत में परेशान थे पर “बिना लटकाये, टरकाये, रिश्वतखोरी” के हमारा काम हो गया. बहुत बड़ी बात यह भी रही कि इन बैंक के कर्मवीरों में इस प्रक्रिया में पद, कैडर, मनमुटाव, व्यक्तिगत श्रेष्ठता कहीं नजर नहीं आ रही थी. बैंक में आये लोगों के काम को निपटाने की भावना नीचे से ऊपर तक एक सुर में ध्वनित हो रही थी और यह भेद करना मुश्किल था कि कौन मैनेजर है और कौन मेसेंजर. जिनका बैंक में पदार्पण के साथ ही कस्टमर्स की भीड़ से सामना होता है, वो ऐसी विषम स्थितियों से घबराते नहीं है बल्कि अपने साहस, कार्यक्षमता, हाजिरजवाबी और चुटीलेपन से तनाव को आनंद में बदल देते हैं. इसमें वही शाखा प्रबंधक सफल होते हैं जो अपने कक्ष में कैद न होकर बैंकिंग हॉल की रणभूमि में साथ खड़े होते हैं. जैसा कि परिपाटी थी, विषमता से भरे इस दिन की समाप्ति सामूहिक और विशिष्ट लंच से हुई जिसने “बैंक ही परिवार है” की सामूहिक चेतना को सुदृढ़ किया. हम सभी लोग जो हमारे बैंक में होने की पहचान लिये हुये हैं, सौभाग्यशाली हैं कि हमारे पास कभी दो परिवार हुआ करते थे एक घर पर और दूसरा बैंक में. हालांकि अंतर सिर्फ घरवाली का ही होता था पर बहुत सारी घटनाएं हैं जब बैंक के मधुर रिश्तों ने घर संसार भी बसाये हैं.

नोट: किस्साये चाकघाट जारी रहेगा क्योंकि यही हमारी मूलभूत पहचान है. राजनीति, धर्म और आंचलिकता हमें विभाजित नहीं कर सकती क्योंकि हमें बैंक ने अपने फेविकॉल से जोड़ा है.

यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 33 – देश-परदेश – हमारा गुरुद्वारा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 33 ☆ देश-परदेश – हमारा गुरुद्वारा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज विदेश में प्रातः भ्रमण के समय एक गुरुद्वारे के दर्शन हो गए। हमारी खुशी का ठिकाना ना रहा, मानो कोई साक्षात भगवान के दर्शन हो गए।

करीब बीस एकड़ भूमि में बने गुरुद्वारे में प्रवेश किया, तो वहां एकदम शांति थी। छोटे से कस्बे मिलिस जिला मैसाचुसेट्स जो कि अमेरिका के पूर्वी भाग में स्थित हैं। आस पास लोगों के घर हैं, कोई भारतीय निवासी भी नहीं दिख रहा था।

एक अंग्रेज़ सी दिखने वाली महिला ने अपना भारतीय मूल का नाम जिसमें कौर भी शामिल था, परिचय दिया। वो मूलतः फ्रांस देश से हैं।

गुरुग्रंथ साहब को सम्मान पूर्वक माथा टेकने के पश्चात, महिला से थोड़ी देर गुरुद्वारे की जानकारी ली।

गुरुद्वारे का संबंध “मेरिकन सिख” से हैं। इस देश में करीब सौ वर्ष पूर्व कुछ सिख परिवार इस देश में रच बस गए हैं। हमारी जानकारी में तो इंग्लैंड, कनाडा और अफगानिस्तान में ही सिख समुदाय के लोग बहुतायत से रहते है। अमेरिका में भी सात लाख के करीब सिख बंधु रहते हैं।

ये लोग योग और कुंडलिनी से संबंधित ऑनलाइन शिक्षा देते हैं। वो बात अलग है, कुछ फर्जी प्रकार के कुंडलिनी योग भी अमेरिका में पैसा कमाने का साधन बने हुए हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ नफ़रत का दरिया … ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नफ़रत का दरिया ।)  

? अभी अभी ⇒ नफ़रत का दरिया ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

किसी सयाने ने कहा, नेकी कर, दरिया में डाल, हमें कहां नेकी का अचार डालना था, पूरी की पूरी नेकी, दरिया में डाल दी।

लोग जैसे बहती गंगा में हाथ धोते हैं, लोगों ने लगे हाथ नेकी के दरिये में भी डुबकी मार ली। गंगा ने सारे पाप धो दिए, घर बैठे नेकी भी बिना कौड़ी खर्च किए चली आई। इसे कहते हैं, मुफ्त का सच्चा सौदा।

उधर हम नेक दिल, अपनी नेकी मुफ्त में ही दरिया में बहा आए, तो हमारे पास क्या बचा, बाबा जी का ठुल्लू ! बड़े दरियादिल बने फिरते थे, नेकी के जाते ही संगदिल बन बैठे। ।

जिस तरह खाली दिमाग शैतान का घर होता है, अगर दिल से नेकी निकल जाए तो क्या बचेगा

उसमें नफरत के सिवाय। नेकी के कारण जो दिल दरिया था, नेकी के जाते ही नफरत का समंदर हो गया। आपने सुना नहीं ;

मुखड़ा क्या देखे दर्पण में।

तेरे दया धरम नहीं मन में ..

ये दया धरम का ही तो नाम नेकी है, आखिर और क्या है नेकी। जब हम धरम की बात करते हैं, तो यह वह धर्म नहीं है, जिस धर्म की ध्वजा फहराई जाती है, और उसका गुणगान किया जाता है, यह साधारण सा, आम आदमी वाला, ईमान धरम है, जो किसी जात पांत और हिंदू मुस्लिम के धर्म को नहीं मानता, सिर्फ इंसानियत के धर्म को मानता है।

जहां ईमान है, वहीं तो धरम है। यारी है ईमान मेरा, यार मेरी बंदगी। जब हम गंगा को मैला होने से नहीं बचा पाए, तो यह नेकी का दरिया क्या चीज है। जिस तरह मन चंगा तो कठौती में गंगा, उसी प्रकार हमारे अंदर अगर नेकी है, तो कभी हमारे दिल में नफरत प्रवेश कर ही नहीं सकती। ।

चारों ओर नेकी ही तो बह रही है। नेक बनाने के भी कई मेक बाजार में उपलब्ध हैं आजकल। गुरुकुल, कॉन्वेंट, सभी नेक बालकों का ही सांदीपनी आश्रम है। सुदामा और कृष्ण दोनों यहीं के रिटर्न हैं। जरा नेकी के दरिये तो देखें, शिक्षक, चिकित्सक, व्यापारी, उधोगपति, वकील, नेता और समाज सुधारक। कितनी नेकी फैल रही है इस देश में, फिर यह नफरत की बू कहां से आ रही है।

नेकी को व्यर्थ दरिया में ना बहाएं, बस नेकदिल बने रहें, तो हर दिल एक मंदर होगा, हर इंसान नेकी का समंदर होगा, नफरत का कहीं नामोनिशान ना होगा ..!!

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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