श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 65 – किस्साये तालघाट – भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

शाखा में मंगलवार का प्रारंभ तो शुभता लेकर आया पर उनको लेकर नहीं आया जिनसे काउंटर शोभायमान होते हैं. मौसम गर्मियों का था और बैंकिंग हॉल किसी सुपरहिट फिल्म के फर्स्ट डे फर्स्ट शो की भीड़ से मुकाबला कर रहा था. ये स्थिति रोज नहीं बनती पर बस/ट्रेन के लेट होने की स्थिति में और बैंकिंग केलैंडर के विशेष दिनों में होती है. जब भी ब्रेक के बाद बैंक खुलते हैं तो आने वाले कस्टमर्स हमेशा यह एहसास दिलाते हैं कि बैंक उनके लिए भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने हमारे लिए. यह महत्वपूर्ण होना ही कस्टमर्स का, विशेषकर ग्रामीण और अर्धशहरीय क्षेत्रों के कस्टमर्स का, हमसे अपेक्षाओं का सृजन करता है. विपरीत परिस्थितियों को पारकर या उनपर विजय कर कस्टमर्स की भीड़ को देखते देखते विरल करने की कला से हमारे बैंक के कर्मवीर सिद्धहस्त हैं और जब शाखाप्रबंधक अपने चैंबर से बाहर निकलकर इस रणभूमि में पदार्पण करते हैं तो शाखा की आर्मी का उत्साह और गति दोनों कई गुना बढ़ जाती है.

शाखा प्रबंधक जी के बैंकीय संस्कारों में भी यही गुण था और उस पर उनकी धार्मिकता से जड़ित सज्जनता ने इस विषम स्थिति पर बहुत शालीन और वीरतापूर्ण ढंग से विजय पाई. बस/ट्रेन के लेट आने पर देर से आने वाले भी इस संग्राम में चुपचाप जुड़ गये और अपने दर्शकों याने कस्टमर्स के सामने बेहतरीन टीमवर्क का उदाहरण पेश किया. कुछ कस्टमर्स की प्रतिक्रिया बड़े काम की थी “कि माना कि शुरुआत में परेशान थे पर “बिना लटकाये, टरकाये, रिश्वतखोरी” के हमारा काम हो गया. बहुत बड़ी बात यह भी रही कि इन बैंक के कर्मवीरों में इस प्रक्रिया में पद, कैडर, मनमुटाव, व्यक्तिगत श्रेष्ठता कहीं नजर नहीं आ रही थी. बैंक में आये लोगों के काम को निपटाने की भावना नीचे से ऊपर तक एक सुर में ध्वनित हो रही थी और यह भेद करना मुश्किल था कि कौन मैनेजर है और कौन मेसेंजर. जिनका बैंक में पदार्पण के साथ ही कस्टमर्स की भीड़ से सामना होता है, वो ऐसी विषम स्थितियों से घबराते नहीं है बल्कि अपने साहस, कार्यक्षमता, हाजिरजवाबी और चुटीलेपन से तनाव को आनंद में बदल देते हैं. इसमें वही शाखा प्रबंधक सफल होते हैं जो अपने कक्ष में कैद न होकर बैंकिंग हॉल की रणभूमि में साथ खड़े होते हैं. जैसा कि परिपाटी थी, विषमता से भरे इस दिन की समाप्ति सामूहिक और विशिष्ट लंच से हुई जिसने “बैंक ही परिवार है” की सामूहिक चेतना को सुदृढ़ किया. हम सभी लोग जो हमारे बैंक में होने की पहचान लिये हुये हैं, सौभाग्यशाली हैं कि हमारे पास कभी दो परिवार हुआ करते थे एक घर पर और दूसरा बैंक में. हालांकि अंतर सिर्फ घरवाली का ही होता था पर बहुत सारी घटनाएं हैं जब बैंक के मधुर रिश्तों ने घर संसार भी बसाये हैं.

नोट: किस्साये चाकघाट जारी रहेगा क्योंकि यही हमारी मूलभूत पहचान है. राजनीति, धर्म और आंचलिकता हमें विभाजित नहीं कर सकती क्योंकि हमें बैंक ने अपने फेविकॉल से जोड़ा है.

यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments