हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 68 – किस्साये तालघाट… भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 68 – किस्साये तालघाट – भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

तालघाट शाखा सोमवार से शुक्रवार तक अलग मूड अलग गति से चलती थी पर शनिवार का दिन मूड और गति बदलकर रख देता था. DUD हों या WUD सब “चली गोरी पी से मिलन को चली”के मूड में उसी तरह आ जाते थे जैसे होली के ढोल बजते ही “रंग बरसे भीगे चुनरवाली” वाला रंग गुलाल मय खुमार चढ़ जाता है. जाने की खुशी पर, रविवार को नहीं आने की खुशी हावी हो जाती थी. परिवार भी अपने निजी मुख्य प्रबंधक के शनिवार को आने और रविवार को नहीं जाने के खयालों में रविवारीय प्लान बनाने में व्यस्त हो जाता था. पत्नीजी हों या संतानें, सबकी छै दिनों से सोयी अपनी अपनी डिमांड्स जागृत हो जाती थीं. पत्नियों की शपथ होती कि बंदे को “संडे याने रेस्ट डे ” नहीं मनाने देना है और ये तो मारकाट याने मार्केटिंग के लिये उपयोग में लाया जाना है. शाखा में परफॉर्मेंस कैसी भी हो पर आउटिंग में शतप्रतिशत परफारमेंस का आदेश घर पहुंचते ही हाथों के जरिए मन मष्तिष्क में जबरन घुसा दिया जाता था और तथाकथित घर के मालिकों की हालत “आसमान से गिरे तो खजूर में अटके” वाली हो जाती थी. ऐसे मौके पर उन्हें अपनी शाखा और नरम दिलवाले याने सहृदय शाखा प्रबंधक याद आते थे.

और शाखा प्रबंधक के खामोश सुरों से यह गाना निकलता “तुम तो ठहरे परदेशी साथ क्या निभाओगे, जैसे ही मिलेगा मौका, घर को भाग जाओगे” यहाँ साथ का बैंकिंग भाषा में वीकली और पी फार्म बनाने से है. अंततः जो जाने वालों के तूफान के बाद शाखा में बच जाते, वो होते परिवार सहित रहने वाले शाखा प्रबंधक और अभय कुमार. अभय कुमार कौमार्य अवस्था में थे, सबसे जूनियर पर सबसे ज्यादा कर्तव्यनिष्ठ और प्रतिभा शाली स्टाफ थे. “कुमार ” न सिर्फ उनका अविवाहित होने का साइनबोर्ड था बल्कि उन्हें नितीश कुमार और आनंद कुमार और हमारे आंचलिक कार्यालय वाले “राजकुमार” वाले बिहार प्रांत का वासी होने की भी पहचान देता था. चूंकि एक बिहारी ही सबपर भारी माना जाता है तो पिता सदृश्य शाखाप्रबंधक के सानिध्य और मार्गदर्शन में अभय कुमार वीकली और पी फार्म बनाने में निपुण हो रहे थे और कम से कम इस क्षेत्र में नियंत्रक महोदय की अपेक्षाओं पर खरे उतर रहे थे. उनका याने अभय कुमार का दीर्घकालिक लक्ष्य तो द्रुतगति से कैरियर की पायदानों पर चढ़ना था पर अल्पकालिक लक्ष्य शाखाप्रबंधक का स्नेह प्राप्त करना और अपने गृहनगर के क्वार्टरली प्रवास पर कुछ दिनों की फ्रांसीसी याने फ्रेंच लीव का उपहार पाना भी होता था. चूंकि ऐसे लोग हर इस तरह की शाखा में नहीं होते थे तो शाखाप्रबंधक भी उन्हें अपने युवराज सदृश्य स्नेह और व्यवहारिक प्रशिक्षण दिया करते थे और प्यार से अभिभावक की तरह डांटने का भी अधिकार पा चुके थे. रविवार का लंच बिना स्टाफ की संगत के हो नहीं सकता तो रविवार के विशेष पक्के भोजन (पूड़ी, पुलाव और छोले) के साथ खीर की मृदुलता युवराज याने अभय कुमार की आंखों को तरल कर देती थीं और इस परिवार का साथ और संरक्षण और साप्ताहिक फीस्ट पाकर न केवल वे तृप्त थे बल्कि “होम सिकनेस” नामक सिंड्रोम से भी दूर हो जाते थे.

नोट : ये हमारी बैंक की दुनियां थी जहाँ रिश्तों के हिसाब किताब का कोई लेजर नहीं होता. हम बैंक में जिनके साथ होते हैं, वही हमारी दुनियां में रंग भरते हैं और रंग कैसे हों ये हम पर ही निर्भर करता. कुछ खोकर भी बहुत कुछ पा लेने वाले ही बैंकिंग के जादूगर कहलाते हैं और अगर आप चाहें तो बाजीगर भी कह सकते हैं. अगर आप चाहेंगे तो यह श्रंखला आगे भी जारी रह सकती है. खामोशी और निष्क्रियता में ज्यादा फासले नहीं होते.

यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 10 ☆ गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग ६ – स्वर्ण मंदिर ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का भाग छह – स्वर्ण मंदिर)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 10 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग छह – स्वर्ण मंदिर  ?

(वर्ष 1994 -2019)

मेरे हृदय में गुरु नानकदेव जी के प्रति अलख जगाने का काम मेरे बावजी ने किया था। बावजी अर्थात मेरे ससुर जी, जिन्हें हम सब इसी नाम से संबोधित करते थे।

बावजी गुरु नानक के परम भक्त थे। यह सच है कि घर के मंदिर में गुरु नानकदेव की  कोई तस्वीर नहीं थी। वहाँ तो हमारी माताजी (सासुमाँ ) के आराध्या शिव जी विराजमान थे। लेकिन बावजी लकड़ी की अलमारी के एक तरफ चिपकाए गए  नानक जी की एक पुरानी तस्वीर के सामने खड़े होकर अरदास किया करते थे।

मुझे बहुत आश्चर्य होता था कि एक सिख परिवार में यह दो अलग-अलग परंपराएँ कैसे चली हैं ? पर उम्र कम होने की वजह से मैंने उस ओर कभी विशेष ध्यान ही नहीं दिया और दोनों की आराधना करने लगी। मैं शिव मंदिर भी जाती रही और बावजी से समय-समय पर नानक जी से जुड़ी अलग-अलग कथाएँ भी सुनती रही।

 धीरे – धीरे मन में गुरुद्वारे जाने की इच्छा होने लगी इस इच्छा को पूर्ण होने में बहुत ज्यादा समय ना लगा क्योंकि पुणे शहर के रेंज्हिल विभाग में जहाँ एक ओर स्वयंभू शिव मंदिर स्थित है वहीं पर गुरुद्वारा भी है। जब भी माथा टेकने की इच्छा होती मैं चुपचाप वहाँ चली जाया करती थी। अब यही इच्छा थोड़ी और तीव्रता की ओर बढ़ती रही और मुझे अमृतसर जाने की इच्छा होने लगी। जीवन की आपाधापी में यह  इच्छा अन्य कई इच्छाओं की परतों के नीचे दब अवश्य गई लेकिन सुसुप्त रूप से वह कहीं बची ही रही।

अमृतसर की यात्रा का पहला अवसर मुझे 1994 मैं जाकर मिला। उन दिनों हम लोग चंडीगढ़ में रहते थे। संभवतः नानक जी मेरी भी श्रद्धा की परीक्षा ले रहे थे और उन्होंने मुझे इतने लंबे अंतराल के बाद दर्शन के लिए  अवसर दिया। फिर तो न जाने कहाँ – कहाँ नानक जी के दर्शन  का सौभाग्य  मुझे मिलता ही रहा,जिनका उल्लेख अपनी विविध यात्राओं में मैं कर चुकी हूँ। 1994 से  2019 के बीच न जाने कितनी ही बार अमृतसर दर्शन  करने का अवसर मिलता ही रहा है।ईश्वर की इसे मैं परम कृपा ही कहूँगी।मुझ जैसी बँगला संस्कारों में पली लड़की के हृदय में नानकजी घर कर गए। आस्था, भक्ति ने सिक्ख परंपराओं से जोड़ दिया।

1994 का अमृतसर अभी भी ’84 के घावों को भरने में लगा था। जगह – जगह पर पुरानी व टूटी फ़र्शियों को उखाड़ कर वहाँ नए संगमरमर की फ़र्शियाँ लगाई जा रही थीं। भीड़ वैसी ही बनी थी पर काम अपना चल रहा था। हम गए थे जनवरी महीने के संक्रांत वाले दिन यद्यपि यह त्यौहार घर पर ही लोग मनाते हैं फिर भी देव दर्शन के लिए मंदिरों में आना हिंदू धर्म,  सिख धर्म का एक परम आवश्यक हिस्सा है।

अमृतसर का विशाल परिसर देखकर आँखें खुली की खुली रह गई थीं। उसी परिसर के भीतर दुकानें लगी हुई थीं।पर आज सभी दुकानें बाहर गलियारों में कर दी गई  हैं और मंदिर के विशाल परिसर के चारों ओर ऊँची दीवार चढ़ा दी गई  है।

आज वहाँ भीतर नर्म घासवाला उद्यान आ गया है। 1919 जलियांवाला बाग कांड ,1947 देशविभाजन के समय के दर्दनाक दृश्य,  1984 के समय के विविध हत्याकांड तथा  अत्याचार आदि की तस्वीरों का एक संग्रहालय भी है। आज प्रवेश के लिए 12 प्रवेश द्वार हैं। वहीं चप्पल जूते रखने और नल के पानी से हाथ धोने की व्यवस्था भी है। स्त्री पुरुष सभी के लिए सिर ढाँकना अनिवार्य है।अगर किसी के पास सिर ढाँकने का कपड़ा न हो तो वहाँ के स्वयंसेवक नारंगी या सफेद कपड़ा देते हैं जिसे पटका कहते हैं। हर जाति, हर धर्म और हर वर्ण का व्यक्ति दर्शन के लिए आ सकता है। सर्व धर्म एक समान,एक ओंकार का नारा स्पष्ट दिखाई देता है।

मंदिर में प्रवेश से पूर्व  निरंतर पानी का बहता स्रोत है जो एक नाले के रूप में है,  हर यात्री पैर धोकर  और फिर बड़े से पापोश या पाँवड़ा पर पैर पोंछकर  मंदिर में प्रवेश करता है। ठंड के दिनों में यही पानी गर्म स्रोत के रूप में बहता है ताकि थके यात्री आराम महसूस करें।

पूरे परिसर में फ़र्श  के रूप में संगमरमर बिछा है। मौसम के बदलने पर फ़र्श गरम या ठंडी हो जाती है इसलिए  कालीन बिछाकर रखा जाता है ताकि यात्री आराम से चलकर दर्शन कर सकें। कई स्थानों में कड़ा प्रसाद निरंतर बाँटा  जाता है।यात्री प्रसाद खरीदकर भी घर ले जा सकते हैं। घी की प्रचुरता के कारण वह खराब नहीं होता।

स्वर्ण मंदिर को हरिमंदर साहब कहा जाता है। यहाँ एक छोटा सा तालाब है और उसके पास एक विशाल वृक्ष भी है। कहा जाता है कि कभी नानकदेव जी ने भी इसी स्थान के प्राकृतिक सौंन्दर्य से आकर्षित होकर यहाँ कुछ समय के लिए वृक्ष के नीचे विश्राम किया था तथा ध्यान भी  किया था।  सिक्ख धर्म के तीसरे गुरु श्री गुरु अमरदास जी ने श्री गुरु नानक देव जी का इस स्थान से संबंध होने के कारण यहीं पर एक मंदिर बनवाने का निर्णय लिया। यहाँ पर गुरुद्वारे की पहली नींव रखी गई थी। कहा जाता है कि श्रीराम के दोनों पुत्र शिकार करने के लिए भी कभी इस तालाब के पास आए थे पर इसका कोई प्रमाण  नहीं है।

इस तालाब के पानी में कई  मछलियाँ हैं पर न मच्छर हैं न कोई दुर्गंध।लोगों का विश्वास है कि इस जल से स्नान करने पर असाध्य रोग दूर हो जाते हैं।स्थान स्थान पर स्त्री -पुरुष के स्नान करने और वस्त्र बदलने की व्यवस्था भी है।

इतिहासकारों का मानना है कि 550 वर्ष पूर्व अमृतसर शहर अस्तित्व में आया।। सिक्ख धर्म के चौथे गुरु श्री गुरु रामदास जी ने इस गुरुद्वारे की स्थापना श्री हरिमंदर साहिब की नींव रखकर की थी।

1564 ई. में चौथे गुरु श्री गुरु रामदास जी ने वर्तमान अमृतसर नगर की नींव रखने के बाद  स्वयं भी यहीं रहने लगे थे। उस समय इस नगर को रामदासपुर या चक-रामदास कहा जाता था।

 यह गुरुद्वारा सरोवर के बीचोबीच  बना हुआ है। इस के सौंदर्य को कई बार नष्ट किया गया आखिर राजा रणजीत सिंह ने  स्वर्ण-पतरों से इसकी दीवारों, गुम्बदों को मढ़ दिया। इस कारण इस गुरुद्वारा साहिब का नाम  स्वर्ण मंदिर भी रखा गया।

आज यह पूरे विश्व में सिक्खों का प्रसिद्ध धर्मस्थल है। बिना किसी शोर-शराबा के,  बिना किसी घंटा -घड़ियाल के यहाँ पाठी शबद गाते रहते हैं।सारा परिसर पवित्रता और शांति का द्योतक बन उठता है।

यहाँ लंगर की बहुत अच्छी व्यवस्था है और दिन भर में एक लाख से अधिक लोग भोजन करते हैं।दर्शनार्थी कार सेवा भी करते रहते हैं।आज यहाँ आटा मलने, रोटी बनाने, सब्जियाँ काटने ,दाल ,कढ़ी राजमा, छोले, चावल पकाने  आदि के लिए  बिजली की मशीनें लगा दी गई  हैं। विदेश में रहनेवाले सिक्ख श्रद्धालु  प्रतिवर्ष भारी आर्थिक सहायता देते रहते हैं जिस कारण मंदिर की देखरेख भली प्रकार से होती रहती है।

अमृतसर पंजाब राज्य का अत्यंत महत्वपूर्ण शहर है। यह पाकिस्तानी सीमा पर है।जिसका नाम अटारी बॉर्डर है पर लोग आज भी इस स्थान को बाघा बॉर्डर कहते हैं। बाघा गाँव विभाजन के बाद पाकिस्तान में चला गया ।हमारे हिस्से की सीमा अटारी गाँव है। न जाने  हम भारतीयों में चलता है वृत्ति क्यों कूट-कूटकर भरी है कि हम आज भी अपनी सीमा का नाम न लेकर पाकिस्तान की सीमा का नाम लेते रहते हैं।

यह अटारी बॉर्डर स्वर्ण मंदिर से 35 कि.मी.की दूरी पर है। किसी ऑटो वाले से आप अटारी बॉर्डर  जाने के लिए कहेंगे तो वह पूछेगा ओ कित्थे साब? जबकि हमारे बॉर्डर के कमान पर अटारी लिखा हुआ है पर हमारी लापरवाही ही तो अब तक की तबाही का कारण रह चुकी है न!

अमृतसर के गुरुद्वारा श्री हरमंदिर साहिब या गोल्डन टैम्पल के पास  ही जलियांवाला बाग है। पर्यटक इस ऐतिहासिक स्थल का अवश्य ही दर्शन करते हैं। जलियांवाला बाग अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के पास का एक छोटा सा बगीचा है। 1919 में जनरल डायर के नेतृत्व में अंग्रेजी फौज ने गोलियाँ चला कर सभा में उपस्थित निहत्थे पुरुषों, महिलाओं और बच्चों सहित सैंकड़ों लोगों को मार डाला था। इस घटना ने भारत के इतिहास की धारा को बदल कर रख दिया। इस हत्याकांड का बदला लेने के लिए शहीद उधम सिंह बाईस वर्ष तक प्रतीक्षा करते रहे और आखिर इंगलैंड जाकर उस समय रह चुके भारतीय गवर्नर डायर को गोलियों  से भून दिया और स्वयं हँसते हुए शहीद ढींगरा की तरह फाँसी के फंदे में झूल गए।पर हमारे इतिहास में शायद ही कहीं उनका नाम आता है।

अमृतसर शहर घूमने आनेवाले गोबिंदगढ़ किले को देखने के लिए जरूर जाते हैं। यहाँ जाने के लिए शाम चार बजे का समय सबसे उत्तम होता है। किले का नज़ारा लेने के बाद यहाँ  होने वाले सांस्‍कृतिक कार्यक्रम का भी आनदं लिया जा सकता है। इस शो में भँगड़ा और मार्शल आर्ट्स का आयोजन होता है। इस किले में लाइट एंड साउंड शो भी एक मुख्य आकर्षण होता है।

ईश्वर की असीम कृपा है मुझ पर कि आज तक ऐसे अनेक विशेष स्थानों पर दर्शन के कई  अवसर प्रदान किए।

आज गुरुपूरब के अवसर पर ईश्वर से प्रार्थना भी यही है कि मेरी यायावर यात्राएँ मृत्यु तक जारी रहे, प्रभु के दर्शन मिलते रहे। नानकसाहब की कृपा बनी रहे।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 55 ⇒ डबल-बेड… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “डबल-बेड”।)  

? अभी अभी # 55 ⇒ डबल-बेड? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

आदमी शादीशुदा है या कुंवारा, यह उसके बेड से पता चल जाता है। अगर सिंगल है, तो सिंगल बेड, अगर डबल हो तो डबल- बेड! क्या डबल से अधिक का भी कोई प्रावधान है हमारे यहाँ!

हमारे कमरे-नुमा घर में बेड की कोई व्यवस्था नहीं होती थी। परिवार बड़ा था, घर छोटा! लाइन से बिस्तर लगते थे। बड़ों-बुजुर्गों के लिए एक खाट की व्यवस्था होती थी, जो गर्मी और ठण्ड में घर से बाहर पड़ी रहती थी। घर में प्रवेश केवल निवार के पलंग का होता था। परिवार में पहला लकड़ी का पलंग बहन की शादी के वक्त बना था, जो बहन के ही साथ दहेज में ससुराल चला गया। ।

कक्षा पाँच तक हमारे स्कूल में अंग्रेज़ी ज्ञान निषिद्ध था! Bad बेड और boy बॉय के अलावा अंग्रेज़ी के सब अक्षर काले ही नज़र आते थे। अक्षर ज्ञान में जब bed बेड पढ़ा तो उसका अर्थ भी बिस्तर ही बताया गया, पलंग नहीं।

घर में जब पहला जर्मन स्टील का बड़ा बेड आया, तब भी वह पलंग ही कहलाया, क्योंकि उस बेचारे के लिए कोई बेड-रूम उपलब्ध नहीं था। एक लकड़ी के फ्रेम-नुमा स्थान को टिन के पतरों से ढँककर बनाये स्थान में वह पलंग शोभायमान हुआ और वही हमारे परिवार का ड्राइंग रूम, लिविंग रूम और बेड-रूम कहलाया। पलंग पिताजी के लिए विशेष रूप से बड़े भाई साहब ने बनवाया था, जिस पर रात में मच्छरदानी तन जाती थी। एक पालतू बिल्ली के अलावा हमें भी बारी बारी से उस पलंग पर सोने का सुख प्राप्त होता था। आज न वह घर है, न पलंग, और न ही पूज्य पिताजी! लेकिन आज, 40 वर्ष बाद भी सपने में वही घर, वही पलंग, और पिताजी नज़र आ ही जाते हैं। ।

आज जिसे हम बेड-रूम कहते हैं, उसे पहले शयन-कक्ष की संज्ञा दी जाती थी। कितना सात्विक और शालीन शब्द है, शयन-कक्ष, मानो पूजा-घर हो! और बेड-रूम ? नाम से ही खयालों में खलबली मच जाती है। आप किसी के घर में ताक-झाँक कर लें, चलेगा। लेकिन किसी के बेडरूम में अनधिकृत प्रवेश वर्जित है। बेड रूम वह स्थान है, जहाँ व्यक्ति जो काम आज़ादी से कर सकता है, वही काम अगर वह खुले में करे, तो अशोभनीय हो जाता है।

आदमी जब नया मकान बनाता है, तब सबको शान से किचन के साथ अपना बेडरूम और अटैच बाथ बताना भी नहीं भूलता। ज़मीन से फ़्लैट में पहुँचते इंसान को आजकल सिंगल और डबल BHK यानी बेड-हॉल-किचन से ही संतोष करना पड़ता है। ।

आजकल के संपन्न परिवारों में व्यक्तिगत बेडरूम के अलावा एक मास्टर बैडरूम भी होता है जिस पर परिवार के सभी सदस्य बेड-टी के साथ ब्रेकफास्ट टीवी का भी आनंद लेते है, महिलाएँ दोपहर में सास, बहू और साजिश में व्यस्त हो जाती हैं, और रात का डिनर भी सनसनी के साथ ही होता है। बाद में यह मास्टर बैडरूम बच्चों के हवाले कर दिया जाता है और लोग अपने अपने बेडरूम में गुड नाईट के साथ समा जाते हैं।

नींद किसी सिंगल अथवा डबल-बेड की मोहताज़ नहीं! गद्दा कुर्ल-ऑन का हो, या स्लीप-वेल का, कमरे में भले ही ए सी लगा हो, लोग रात-भर करवटें बदलते रहते हैं, ढेरों स्लीपिंग पिल्स भी खा लेते हैं, लेकिन तनाव है कि रात को भी चैन की नींद सोने नहीं देता। वहीं कुछ लोग इतने निश्चिंत और बेफ़िक्र होते हैं कि जब गहरी नींद आती है तो उन्हें यह भी होश नहीं रहता, वे कुंआरे हैं या शादीशुदा। उनका बेड सिंगल है या डबल। ऐसे घोड़े बेचकर सोने वालों की धर्मपत्नियों को भी मज़बूरी में ही सही, धार्मिक होना ही पड़ता है। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 36 – देश-परदेश – बूट पॉलिश ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 36 ☆ देश-परदेश – बूट पॉलिश ☆ श्री राकेश कुमार ☆

उपरोक्त फोटो अमेरिका के बोस्टन शहर के हवाई अड्डे पर खींचा था। दो महराजा स्टाइल की कुर्सियां जैसे विवाह में नवविवाहितों के लिए ऊंचे मंच पर रखी होती हैं, उसी प्रकार से यहां हवाई अड्डे के अंदर रखी हुई थी, उसी के ऊपर ये बोर्ड लगा हुआ हैं। दो सज्जन अच्छी कद काठी वाले यात्रियों की तरफ लालियत निगाहों से जूते पोलिश करने का इंतजार करते रहते हैं। हमने रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड पर जूते साफ करने वाले ब्रश से थक थक करने की आवाज़ से ग्राहकों को रिझाते हुए तो अनेकों वर्षों से देखा और महसूस भी किया हैं। लेकिन विमानतल पर पहली बार ये सुविधा देखने को मिली।

हमारी जल्दी पहुंचने की अदातानुसार यहां भी हम निर्धारित समय से बहुत पूर्व ही अपना आसन जमा चुके थे। ये पॉलिश सुविधा की दुकान हमारे बोर्डिंग के अंत्यंत ही करीब थी।

भाव तालिका पर नजर डाली तो जूते के दस अमरीकी रूपे और बूट के पंद्रह राशि अंकित थी। जूते और बूट में अंतर समझने के लिए गूगल बाबा का सहरा लिया, तब कुछ अंतर समझ सके। बचपन से हम तो दिल्ली बूट हाउस या बॉम्बे बूट नामक  से ही  चप्पल,  जूता आदि खरीदते थे।

बूट पॉलिश करने वाले ने जब हमारे पैरों की तरफ नज़र डाली तो थोड़ा सा मुस्करा दिया, क्योंकि हम तो खिलाड़ी (स्पोर्ट्स) जूते पहने हुए थे। बातचीत का सिलसिला आरंभ हुआ तो उसने दुःखी मन से बताया की अब अधिकतर स्पोर्ट्स जूते ही उपयोग करने लगे हैं। उनकी रोज़ी रोटी मुश्किल हो गई हैं। उसी समय वर्दीधारी सज्जन ऊंची कुर्सी पर विराजमान हो गए और एक पॉलिश करने वाला नीचे बैठ कर जूते को चमकाने लगा। कुछ समय में वो बिना पैसे, धन्यवाद बोल कर विदा हो गया। हमने इसका कारण पूछा तो वो बोला ये पायलट है, इसलिए इनको मुफ्त सुविधा, प्रशासन द्वारा उपलब्ध हैं।

हमारे देश में भी स्टेशन/ बस स्टैंड का स्टाफ ऐसे कार्य फ्री में ही करवाता हैं। वैसे पुलिस वाले तो सभी सुविधाएं फ्री में लेने को अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानते हैं।

हम लोग तो अधिकतर घर पर ही जूते पोलिश करते हैं,  लेकिन जब किसी महत्वपूर्ण कार्य के लिए जाते है, तो अवश्य बूट पालिश वालों की सेवाएं लेते हैं। जैसे की विवाह के लिए लड़की देखने जाना या नौकरी में साक्षात्कार पर जाना हो आदि। इस प्रकार हाथ से कार्य करते बहुत कम लोग ही विदेशों में देखने को मिलते हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 54 ⇒ रिश्ता और प्यार… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “रिश्ता और प्यार।)  

? अभी अभी # 54 ⇒ रिश्ता और प्यार? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

क्या प्यार रिश्ता देखकर किया जाता है, क्या जहां रिश्ता नहीं होता, वहां प्यार नहीं होता! क्या प्यार को कोई नाम देना जरूरी है, क्या प्यार को केवल प्यार ही नहीं रहने दिया जा सकता। एक ही सिक्के के दो पहलू हैं रिश्ते और प्यार। लेकिन यार के सिक्के में दोनों तरफ बेशुमार प्यार ही प्यार भरा रहता है।

इंसान अकेला पैदा जरूर होता है, लेकिन कभी अकेला रह नहीं पाता। वह जन्म से ही रिश्तों की कमाई करता चला जाता है। रिश्ते बढ़ते चले जाते हैं, प्यार परवान चढ़ा करता है। कितना प्यारा बच्चा है, किसका है। ।

रिश्ते हमें जोड़ते हैं, प्यार भी हमें जोड़ता है। जब तक रिश्तों में स्वार्थ और खुदगर्जी नहीं आती, प्यार भी कायम रहता है। चोली दामन का साथ नजर आता है दोनों में। लेकिन जब रिश्ते टूटते हैं, प्यार को भी चोट लगती है।

लोग प्यार में भी धोखा खाते हैं और रिश्ते भी बनते बिगड़ते रहते हैं। अचानक ऐसा क्या हो जाता है जो मलंग को यह कहना पड़ता है ;

कसमें वादे प्यार वफा

सब बातें हैं, बातों का क्या।

कोई किसी का नहीं

ये झूठे, वादे हैं, वादों का क्या। ।

क्यों ऐसे वक्त हमें जगजीत यह कहते हुए नजर आ जाते हैं ;

रिश्ता क्या है तेरा मेरा

मैं हूं शब और तू है सवेरा

रिश्तों में दरार आई

बेटा ना रहा बेटा

भाई ना रहा भाई। ।

कुछ रिश्ते हमारे बीच ऐसे होते हैं, जिन्हें हम कोई नाम नही दे सकते, लेकिन उनका अहसास हमें निरंतर होता रहता है। हम एक फूल को खिलते देखते हैं, किसी पक्षी को दाना चुगते देखते हैं, किसी अबोध बालक को किलकारी मारते देखते हैं, आसमान में बादलों की छटा देखते हैं, झरनों की कलकल और पक्षियों के कलरव हमें एक ऐसे अनासक्त जगत में ले जाते हैं, जहां सभी सांसारिक नाते रिश्ते गौण हो जाते हैं और मन में केवल यही विचार आता है ;

तेरे मेरे बीच में

कैसा है ये बंधन अनजाना

मैने नहीं जाना, तूने नहीं जाना …

अब आप इसे प्रकृति प्रेम कहें अथवा ईश्वरीय प्रेम, रिश्ता कहें या बंधन, लेकिन सिर्फ हम ही नहीं पूरी कायनात हमारे साथ यह पंक्ति दोहराती नजर आती है ;

क्या धरती और क्या आकाश

सबको प्यार की प्यास

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 192 – पाणी केरा बुदबुदा ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 192 ☆ पाणी केरा बुदबुदा ?

क्षणभंगुरता मनुष्य के जीवन का अनन्य आयाम है। अनेकदा क्षणभंगुरता को जीवन की सबसे बड़ी आशंका समझा जाता है। तथापि,  विचार करोगे, विमर्श करोगे तो क्षणभंगुरता को जीवन की सबसे बड़ी संभावना पाओगे।

आशंका-संभावना को तौलने के लिए कभी कल्पना करना कि जैसे खाद्य पदार्थों पर या दवाई की पट्टी पर एक्सपायरी डेट लिखी होती है, उसी तरह मनुष्य के जन्म के साथ उसकी मृत्यु की तारीख़ भी यदि तय हो जाए तो मनुष्य आनंद से जी पाएगा या भय और चिंता से मर जाएगा? इसलिए क्षणभंगुरता को जीवन का सबसे बड़ा वरदान मानना चाहिए।

एक परिचित वन्य अधिकारी थे। उन्होंने एक बार एक किस्सा सुनाया। अपने वरिष्ठ के साथ वे दौरे पर थे। वन्य आरक्षित क्षेत्र के आसपास  स्वाभाविक है कि गाँव भी बसे होते हैं। किसी गाँव से गुज़रते हुए उन्होंने देखा कि  पीपल के एक विशाल पेड़ के नीचे औघड़ बाबा बैठे हैं। गाँव के कुछ निवासी अपनी समस्याओं के निवारण के लिए उनके पास बैठे थे। वरिष्ठ अधिकारी ने औघड़ को उपेक्षा से देखा। मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है कि पद के मद में वह अपने अस्तित्व की क्षणभंगुरता को भूल जाता है। जीप में बैठे-बैठे अपनी हथेली औघड़ की ओर करके कहा, ‘सचमुच कुछ जानता है तो मेरा भविष्य बता।’ औघड़ बाबा ने जो़रदार अट्टहास किया और कहा, ‘तेरा भविष्य क्या बताऊँ? तेरे पास तो केवल तीन दिन का ही समय बचा है।’ अधिकारी आग बबूला हो उठा। औघड़ को कुछ अपशब्द कहे, निर्देश दिया कि ऐसे धृष्ट को दोबारा उनके क्षेत्र में प्रवेश न करने दिया जाए।

पीछे वन्य अधिकारी को तीसरे दिन किसी काम से वरिष्ठ अधिकारी के कार्यालय में जाना पड़ा। वरिष्ठ अधिकारी ने चाय मंगवाई। दोनों ने चाय का कप उठाया। वरिष्ठ अधिकारी का चाय का कप हाथ से लुढ़क गया। हृदयाघात से जगह पर ही उनका देहांत हो गया। वन्य अधिकारी को औघड़ बाबा याद आए। लौटकर घर पर पत्नी से सारी बात कही। पत्नी ने औघड़ बाबा के दर्शन करने चाहे। वन अधिकारी ने कहा, “दर्शन तो दूर, मैं उस ओर जाना भी नहीं चाहूँगा। जीवन में जो घटना है, वह पहले से पता चल जाए तो जीवन जिया कैसे जाएगा?” वन अधिकारी ने उस क्षेत्र से अपना तबादला करवा लिया।

औघड़ बाबा द्वारा भविष्य देख लेने पर  मतभिन्नता हो सकती है। तीसरे दिन मृत्यु होना संयोग भी हो सकता है। तथापि मत-मतांतर से परे यहाँ अधिक महत्वपूर्ण है घटनाक्रम से उपजा निष्कर्ष।

भविष्य ज्ञात हो जाए तो मनुष्य का वर्तमान जड़ हो जाएगा। विसर्जन है, अतः सृजन है। चूँकि यह विसर्जन किसी भी क्षण हो सकता है, अत: हर क्षण सृजन होना चाहिए।

अखंड सृजन और अविराम विसर्जन का मूल है क्षणभंगुरता। क्षणभंगुरता का अपना दर्शन है, क्षणभंगुरता है तो जीवन है। श्वास की अनिश्चितता, विश्वास को निश्चय प्रदान करती है। बाबा कबीर ने लिखा है,

पाणी केरा बुदबुदा, इसी हमारी जाति

मानव जाति पानी के बुलबुले के समान है। क्षण में बनना और अकस्मात मिटना बुलबुले की नियति है।

बुलबुले की क्षणभंगुरता स्मरण रहे तो जीवन की निरंतरता का विश्वास भी बना रहेगा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री हनुमान साधना संपन्न हुई साथ ही आपदां अपहर्तारं के तीन वर्ष पूर्ण हुए 🕉️

💥 अगली साधना की जानकारी शीघ्र ही आपको दी जाएगी💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 53 ⇒ मुझे तुम याद आए… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मुझे तुम याद आए”।)  

? अभी अभी # 53 ⇒ मुझे तुम याद आए? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

याद स्मृति को भी कहते हैं और कुछ भूला हुआ याद आना भी स्मरण ही कहलाता है। मेरी याददाश्त कमज़ोर है, मेरे बचपन के स्मृति – पटल पर आठ वर्ष के पहले की सभी स्मृतियां विस्मृत हो चुकी हैं, या मैं यह कहूं कि वे कभी मुझे याद थी ही नहीं।

सत्तर वर्ष की उम्र भूलने की नहीं होती। अगर होती तो मैं यह भी भूल जाता कि मेरी उम्र सत्तर वर्ष है। लोग मुझे तसल्ली देते रहते हैं, भूलना एक आम समस्या है।

जो अतीत की अप्रिय घटनाएं हम भूलना चाहते हैं, वे बार बार कुरेदकर बाहर आ जाती हैं, और कुछ काम की बातें हम भूलने लग जाते हैं। ।

भूल का भूलने से कोई संबंध नहीं! इस रविवार एक विचित्र घटना हुई। 503 के एक सज्जन मुझसे मिलने आए। ( हमारी मल्टी में लोग फ्लैट नंबर से जाने जाते हैं, नाम से नहीं। अस्पताल में मैं कभी कमरा नंबर 303 का पेशंट था। कैदी को भी जेल में नंबर से ही जाना जाता है।) वे अभी अभी आए हैं। जब भी मिलते हैं, मैं उनका फोन नंबर लेना भूल जाता हूं। इस बार आते ही मैंने उनसे उनका फोन नंबर मांग लिया, कहीं फिर भूल ना जाऊं।

उन्होने मुझे अपना फोन नंबर बताने के लिए कहा ताकि वह मुझे रिंग दे सकें। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, जब मुझे अपना मोबाइल नंबर ही याद नहीं आया। मेरे पास घर में जितने फोन है, सबके नंबर मुझे कंठस्थ याद है और जो लोग अपना फोन नंबर याद नहीं रखते, मैं उन पर हंसता हूं। आज मैं खुद पर ही हंस रहा था। वे मेरा मुंह देख रहे थे और मैं अपनी दयनीय स्थिति। ।

परिस्थिति से समझौता करने के लिए मैंने उनका नंबर पूछा और डायल कर दिया। मेरा नंबर उनके पास पहुंच गया और उनका मेरे पास। वे चले गए लेकिन मुझे अपने फोन नंबर में उलझाकर चले गए।

कोई समझदार इंसान होता तो फोन में ही अपना नंबर देख सकता था लेकिन मैं था, जो बार बार अपनी स्मरण शक्ति पर जोर दे रहा था और अपने अंदर ही अपना टेलीफोन नंबर ढूंढ़ रहा था। और वह दस नंबरी टेलीफोन नंबर भी मानो मुझे चिढ़ा रहा था, मो को कहां ढूंढे रे बंदे। मैं तो तेरे पास रे। मैंने भी ठान लिया, भगवान को बाद में, पहले अपना फोन नंबर तो अपने में तलाश लूं।

हमारी कितनी मेमोरी है, और कौन सी बात कहां दबी छुपी है, कहना मुश्किल होता है। जो चीज हमेशा tip of the tongue यानी मुंहजबानी रहती थी, आज मन उसे उगल नहीं रहा था। अक्सर कुछ पुराने फिल्मी गानों के साथ भी यही होता है। जब हम चाहें, तब याद नहीं आते। और वो जब याद आए बहुत याद आए। ।

पूरे रविवार और सोमवार, मैं यादों का पहाड़ खोदता रहा, एक दस डिजिट के नंबर के लिए, लेकिन एक भी डिजिट का पता नहीं चला। बहन से, बेटी से मेरी व्यथा कही। मेरा दर्द न कोई जाना। बस एक ही जवाब। हमारे साथ भी होता है। आपका नंबर मेसेज कर देते हैं। मैंने सख्ती से मना कर दिया। यह मेरी समस्या है। मेरी मुझसे ही लड़ाई है। हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करें।

मैं पूरी तरह हार थक चुका था। सोचा, हथियार डाल ही दूं। सोचते सोचते कल रात नींद लग गई। रात को बारह बजे अचानक नींद खुली। अनायास पांच डिजिट मन की आंखों के सामने प्रकट हुए। मेरा आधा फोन नंबर साफ नजर आया। यूरेका! मन ने कहा। मैं शवासन की अवस्था में लेटा रहा। मैंने कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई। न ही उस नंबर को नोट किया। जो मेरे अंदर ही था, कहां जा सकता था, मुझे भरोसा था। कहीं दब गया होगा, सरकारी फाइलों की तरह। गूगल सर्च नहीं, मन के अंदर सर्च जारी थी। मैं निश्चिंत था। तीन चार अपुष्ट नंबर आए। मेरे मन ने ही उन्हें रिजेक्ट कर दिया और अंततः दो घंटे की मशक्कत के बाद जो नंबर आया वह मेरा दस डिजिट वाला मोबाइल नंबर था।।

मैं उठा। अपने मोबाइल पर उसे अंकित किया और बाद में कन्फर्म किया। वह वही नंबर निकला। यह एक अनावश्यक कसरत थी, कुछ लोगों की निगाह में, लेकिन मुझे यह कसरत, बहुत कुछ सिखा गई। हमने अंदर झांकना ही बंद कर दिया है। ईश्वर को हम बाहर खोज रहे हैं। आत्म गुरु को छोड़ जगत गुरु के पीछे पड़े हैं।

हमारे अंदर विचारों के जखीरे में अगर काई और जलकुंभी है तो माणिक मोती भी है। जिन्हें हम सीपी और शंख समझते हैं वे ही तो रत्नों की खान हैं। जिन खोजां तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ। कभी मन के पार चलें, कुछ खोने का, कुछ पाने का आनंद लें। अब आइंदा अगर कोई चीज भूलूंगा तो उसकी तलाश भी अंदर ही करूंगा। बाहर तो सिर्फ भटकाव है। नो गूगल सर्च!

INNER SEARCH

VISION & REVISION.

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 52 ⇒ गरीब, आदमी और मर्द… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गरीब, आदमी और मर्द”।)  

? अभी अभी # 52 ⇒ गरीब, आदमी और मर्द? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

क्या गरीब, आदमी भी होता है, क्या वह गरीब है, सिर्फ यही काफी नहीं!

आदमी तो गरीब भी होता है और अमीर भी, अच्छा भी और बुरा भी। हमने अच्छा अजीब आदमी तो देखा है, बुरा अजीब आदमी नहीं। अमीर तो इंसान होते हैं, वैसे बेचारा गरीब आदमी भी इंसान ही होता है।

गरीब आदमी कितनी भी कोशिश कर ले, अपनी गरीबी हटाने की, कोई भी सरकार नहीं चाहती कि गरीब हटे। जब तक गरीब है, तब तक ही तो गरीबी हटती रहेगी। अगर गरीब ही हट गया, तो फिर गरीबी किसकी हटाओगे। क्या दान पुण्य के लिए अमीरों का दरवाजा खटखटाना पड़ेगा। सब गरीबों की ही सुनते हैं, अमीर की कब किसने सुनी है, सुध ली है। ।

एक गरीब, आदमी भी हो सकता है, एक ईमानदार इंसान भी हो सकता है, लेकिन मर्द कभी नहीं हो सकता। क्यों, क्या इसलिए, कि मर्द को दर्द नहीं होता! गरीब को तो इतना दर्द होता है, कि उसके दर्द से सरकारें तक पिघल जाती हैं। कैसी कैसी योजनाएं सरकार लाती है, उनके दर्द को कम करने के लिए, लेकिन उनका दर्द है कि कम होने का नाम ही नहीं लेता। बताऊं तुम्हें क्या, कहां दर्द है, जहां हाथ रख दो, वहां दर्द है।

जिस तरह सरकार हर देशवासी को एक छत का आश्वासन देती है, हर गरीब को गरीब कहलाने के गरीबी रेखा के नीचे यानी below Poverty Line रहना जरूरी है। थोड़ी भी लाइन ऊपर नीचे हुई और आप अगरीब घोषित! और अगरीब घोषित होने का मतलब, गरीबों के मूलभूत अधिकारों से हाथ धो बैठना। मूलभूत शब्द, यूं ही नहीं बन जाता। मूल सुविधा के पीछे भूत की तरह भागना ही मूलभूत सेवा का उपभोग करना है। ।

बहुत पीट लिया गरीबी का ढिंढोरा, आइए अब मर्दों वाली बात भी हो जाए!

मर्द न तो अमीर होता है और न गरीब, मर्द सिर्फ मर्द होता है। सुना है, गरीबों के घरों में अक्सर मर्द नहीं, एक अदद मरद होता है, जो अपनी बीवी की कमाई पर फौजदारी हक रखता है। एक मरद की बीवी अक्सर वो कामकाजी गरीब महिला होती है जो पहले अपने मरद से  शराब के पैसे के लिए मार खाती है और बाद में, शराब के बाद वाली  पिटाई का दुख भी झेलती है।

ऐसी लुटने वाली और पिटने वाली गरीब, कामकाजी औरतों का एक ही मंतव्य और निष्कर्ष होता है कि सभी मरद एक जैसे होते हैं। अब सभी मर्द मिल जुलकर फैसला कर लें, कि वे वाकई मर्द हैं या फिर सिर्फ एक सर्टिफाइड मरद।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #184 ☆ मूर्खों के पांच लक्षण ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मूर्खों के पांच लक्षण। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 184 ☆

☆ मूर्खों के पांच लक्षण 

‘मूर्खों के पांच लक्षण हैं:–गर्व, अपशब्द, क्रोध, हठ  और दूसरों की बात का अनादर।’ वाट्सएप के इस संदेश ने मुझे इस विषय पर लिखने को विवश कर दिया, क्योंकि सत्य व यथार्थ सदैव मन के क़रीब होता है; भावनाओं को झकझोरता है और चिंतन-  मनन करने को विवश करता है। सामान्यत: यदि कोई अटपटी बात करता है; अपना पक्ष रखने के लिए व्यर्थ की दलीलें देता है; अपनी विद्वत्ता का बखान करता है; बात-बात पर अकारण क्रोधित  होता है तथा दूसरों की पगड़ी उछालने में पल-भर भी नहीं लगाता..उसे अक्सर मूर्ख की संज्ञा से अभिहित किया जाता है, क्योंकि वह दूसरों की बातों की ओर तनिक भी ध्यान अथवा तवज्जो नहीं देता…सदैव अपनी-अपनी हांकता है। वैसे नास्तिक व्यक्ति भी परमात्म-सत्ता में विश्वास नहीं रखता और वह स्वयं को सर्वज्ञ, सर्वज्ञानी व सर्वश्रेष्ठ समझता है। वास्तव में ऐसा प्राणी करुणा अथवा दया का पात्र होता है। आइए! विचार करें, मूर्खों के पांचों लक्षणों पर… परंतु जो इन दोषों से मुक्त हैं– ज्ञानी हैं, विद्वान हैं, श्रद्धेय हैं, उपास्य हैं।

गर्व, घमण्ड व अभिमान मानव के सर्वांगीण विकास में बाधक हैं और अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, जो भौतिक व आध्यात्मिक विकास में बाधक है। वास्तव में अहं गर्व-सूचक है … आत्म-प्रवंचना व आत्म-श्लाघा का, जो मानव की नस-नस में व्याप्त है, परंतु वह परमात्मा द्वारा प्रदत्त नहीं है। दूसरे शब्दों में आप उन सब गुणों-खूबियों का बखान करते हैं, जो आप में नहीं हैं और जिसके आप योग्य नहीं है। दूसरे शब्दों में इसे अतिशयोक्ति भी कहा जाता है। इसका दूसरा भयावह पक्ष यह है कि जो आपके पास है, उसके कारण आप अहंनिष्ठ होकर स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझ, दूसरों को नीचा दिखाते हैं; उनकी भावनाओं को रौंदते हुए, उन पर आधिपत्य स्थापित करना चाहते हैं– जो सर्वथा अनुचित है। अहंभाव मानव को सबसे अलग-थलग कर देता है, जिसके परिणाम-स्वरूप वह एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होता है। सब उसे शत्रु-सम भासते हैं और जो भी उसे सही राह दिखाने की चेष्टा करता है; जीवन के सत्य व कटु यथार्थ से परिचित कराना चाहता है; उसकी कारस्तानियों से अवगत कराना चाहता है–वह उस पर ज़ुल्म ढाने से गुरेज़ नहीं करता। जब इस पर भी उसे संतोष नहीं होता, तो वह उसके प्राण लेकर सूक़ून पाता है। इसलिए  वह अपने अहंभाव के कारण आजीवन सत्मार्ग का अनुसरण नहीं कर पाता।

अपशब्द अर्थात् बुरे शब्द अहंनिष्ठता का परिणाम हैं, क्योंकि क्रोध व आवेश में वह मर्यादा को ताक़ पर रख व सीमाओं को लांघकर अपनी धुन में ऊल- ज़लूल बोलता है…सबको अप-शब्द कहता है, गाली -गलौच पर उतर आता है। वह भरी सभा में किसी पर भी झूठे आक्षेप-आरोप लगाने व वह नीचा दिखाने के लिए हिंसा पर उतारू हो जाता है। जैसा कि सर्वविदित है– बाणों के घाव तो कुछ समय पश्चात् भर जाते हैं, परंतु वाणी के घाव नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं। द्रौपदी का ‘अंधे की औलाद अंधी’ वाक्य महाभारत के युद्ध का कारण बना। ऐसे अनगिनत उदाहरणों से भरा पड़ा है इतिहास… सो! ‘पहले तोलो, फिर बोलो’ को सिद्धांत रूप में अपने जीवन में उतार लेना ही श्रेयस्कर है। आप किसी को अपशब्द बोलने से पूर्व स्वयं को उसके स्थान पर तराज़ू में रखकर तोलिए और यदि वह उस कसौटी पर ख़रा उतरता है–तो उचित है; वरना उन शब्दों का प्रयोग कदाचित् मत कीजिए, क्योंकि वे शब्द-बाण कभी भी आपके गले की फांस बन सकते है।

प्रश्न उठता है कि अपशब्द का मूल क्या है? किन परिस्थितियों व कारणों से वे जन्म लेते हैं; अस्तित्व में आते हैं। सो! इनका जनक है क्रोध और क्रोध चांडाल होता है, जो बड़ी से बड़ी आपदा का सब कुछ जानते हुए भी आह्वान करता है। वह सबको एक नज़र से देखता है; एक ही लाठी से हांकता है; सभी सीमाओं का अतिक्रमण करता है। मर्यादा शब्द तो उसके शब्दकोश के दायरे से बाहर रहता है।

परशुराम का क्रोध में अपनी माता की हत्या कर देना, तो सर्वविदित है। क्रोध के परिणाम सदैव भीषण व भयंकर होते हैं। सो! मानव को इसके चंगुल से बाहर रहने का सदैव प्रयास करना चाहिए।

हठ…हठ अथवा ज़िद का प्रणेता है क्रोध। बाल-हठ से तो आप सब अवगत होंगे। बच्चे किसी पल, कुछ भी करने व किसी वस्तु को पाने का हठ कर लेते हैं; जिसे पूरा करना असंभव होता है। परंतु उन्हें बात बदल कर,व अन्य वस्तु देकर बहलाया जा सकता है। सो! इससे किसी की भी हानि नहीं होती, क्योंकि बाल-मन तो कोमल होता है …राग-द्वेष से परे होता है। परंतु यदि कोई मूर्ख व्यक्ति हठ करता है, तो वह पूरे समाज को  विनाश के कग़ार पर पहुंचा देता है। उसे समझाने की सामर्थ्य किसी में भी नहीं होती, क्योंकि हठी व्यक्ति जो ठान लेता है, लाख प्रयास करने पर भी वह टस-से-मस नहीं होता। अंत में वह उस मुक़ाम पर पहुंच जाता है, जहां वह अपनी सल्तनत तक को अपने हाथों जला अथवा नष्ट कर तमाशा देखता है और उस स्थिति में स्वयं को हरदम नितांत अकेला अनुभव करता है, क्योंकि उसके सुंदर स्वप्न जल कर राख हो चुके होते हैं।

मूर्ख व्यक्ति दूसरों का अनादर करने में पल-भर भी नहीं लगाता, क्योंकि वह अहं व क्रोध के शिकंजे में इस क़दर जकड़ा होता है कि उससे मुक्ति पाना उस के वश में नहीं होता। वह सृष्टि-नियंता के अस्तित्व को नकार, स्वयं को बुद्धिमान व सर्वशक्तिमान

स्वीकारता है और उसके मन में यह प्रबल भावना घर कर जाती है कि उससे अधिक ज्ञानवान् इस संसार में कोई दूसरा हो ही नहीं सकता। सो! वह अपनी अहं-तुष्टि ही नहीं, अहं-पुष्टि हेतु क्रोध के आवेश में हठपूर्वक अपनी बात मनवाना चाहता है, जिसके लिए वह अमानवीय-कृत्यों तक का सहारा भी लेता है। ‘बॉस इज़ ऑलवेज़ राइट’ अर्थात् बॉस अथवा मालिक सदैव ठीक होता है तथा कोई ग़लत काम कर ही नहीं सकता अर्थात् ग़लत शब्द उसके शब्दकोश की सीमा से बाहर रहता है। वह निष्ठुर प्राणी कभी भी अनहोनी कर गुज़रता है, क्योंकि उसे अंजाम की परवाह नहीं होती ही नहीं।

यह थे मूर्खों के पांच लक्षण…वैसे तो इंसान ग़लतियों का पुतला है। परंतु यह वे संचारी भाव हैं, जो स्थायी भावों के साथ-साथ, समय-समय पर प्रकट होते हैं, परंतु शीघ्र ही इनका शमन हो जाता है। यह कटु सत्य है कि जो भी जीवन में इन्हें धारण कर लेता है अथवा अपना लेता है… उसे मूर्ख की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। वह घर-परिवार के लोगों का जीना भी दूभर कर देता है तथा उन सबको अपना विरोधी स्वीकारते हुए, अपना पक्ष रखने का अवसर व अधिकार ही कहां प्रदान करता है? अपने पूर्वजों की धरोहर के रूप में रटे-रटाए चंद वाक्यों का प्रयोग; वह हिटलर की भांति किसी भी अवसर पर धड़ल्ले से करता है। हां! घर से बाहर वह प्रसन्न-चित्त रहता है; सदैव अपनी-अपनी हांकता है तथा किसी को बोलने अथवा अपना पक्ष रखने का अवसर ही प्रदान नहीं करता। परंतु चंद लम्हों में लोग उसकी फ़ितरत को समझ जाते हैं तथा उसके चारित्रिक गुणों से वाक़िफ़ हो जाते हैं। वे उससे निज़ात पा लेना चाहते हैं, ताकि कोई अप्रत्याशित हादसा घटित न हो जाए। वैसे परिवारजनों को सदैव यह आशंका बनी रहती है कि उस द्वारा बोला उच्चरित कोई वाक्य, कहीं उन सबके लिए बवाल व भविष्य में जी का जंजाल न बन जाए। वैसे ‘बुद्धिमान को इशारा काफी’ अर्थात् जो लोग उसके साथ रहने को विवश होते हैं, उनकी ज़िंदगी नरक-तुल्य बन जाती है। परंतु गले पड़ा ढोल बजाना उनकी विवशता होती है; जिसे सहर्ष स्वीकारना व अनुमोदन करना–उनकी नियति बन जाती है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 51 ⇒ माखी और गुड़… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “माखी और गुड़”।)  

? अभी अभी # 51 ⇒ माखी और गुड़? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

गुड़ और मक्खी का साथ बहुत पुराना है, बस यह मानिए, जब से हमने हमारे गुरुकुल में पोथी बांचना शुरू किया, तब से ही इस गूंगे के गुड़ और ढाई आखर की मक्खी का प्रेम, हम देखते चले आ रहे हैं। इन्हें आपस में लाने का यह पवित्र कार्य संत कबीरदास जी ने कुछ इस तरह से किया ;

माखी गुड़ में गड़ी रहै

पंख रह्यौ लिपटाय ;

हाथ मलै और सिर धुने

लालच बुरी बलाय।

हमारे कबीर साहब के दोहों में उलटबासी होती थी, और उनकी सीख, साखी कहलाती थी। सुनो भाई साधो, उनका तकिया कलाम था! भाई, सिर्फ सुनो ही नहीं, उसको साधो भी, जीवन में, अमल में भी लाओ। ।

गुड़ मीठा है, इसमें गुड़ का कोई दोष नहीं, मक्खी को भी मीठा पसंद है और हमें भी! मीठा किसे पसंद नहीं। तो क्या इसमें मक्खी के पंख का दोष है। अगर उसके पंख नहीं होते, तो शायद वह भी चींटियों की तरह, गुड़ का पहाड़ अपने मजदूरों की सहायता से अपने घर में ले जाती। ।

ईश्वर ने प्राणियों के पंख उड़ने के लिए बनाए हैं, लेकिन कबीर साहब कब गलत कहते हैं, लालच बुरी बलाय। मक्खी का क्या है, उसे गुड़ और गोबर में कहां भेद करना आता है। वह तो उल्टे, जहां बैठती है, वहीं अंडे दे देती है। नाली से उड़कर आएगी और हलवाई के थाल पर बैठ जाएगी। बर्फी का सब रस, गुड़ गोबर हुआ कि नहीं।

कबीर साहब की सीख हमें तब समझ में नहीं आई, तो अब क्या आएगी। हमारे भी पंख हैं, अरमानों के, हमारे भी सपने हैं, पैसे का भी लोभ है और जमीन जायदाद औलाद का भी।

मत कहिए लालच, उसे कुछ और नाम दे दीजिए। ।

लालच से मीठा कोई गुड़ नहीं। हमसे तो मीठा ही कंट्रोल नहीं होता, बिना पंख के, केवल हमारी रसना ही हमें यहां वहां उलझाती रहती है, ललचाती रहती है। यह तो इतनी चतुर है कि मीठा बोलकर भी जहर घोलने में माहिर है।

माखी ही हमारे लिए कबीर की साखी है। भगवान दत्तात्रेय ने इसीलिए कीट, पतंगों तक को अपना गुरु माना। कबीर साहब के शब्द ही इसीलिए गुरु ग्रंथ साहब के सबद बन प्रकट हुए हैं। संत का सत्संग ना सही, सबद ही काफी है। अपने जीवन से लालच को मक्खी की तरह निकाल फेंके। शब्दों का लालच तो देखिए, प्रकट होने से बाज नहीं आ रहे। हम नहीं सुधरेंगे। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print