हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 66 ⇒ मेरी आवाज सुनो… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “मेरी आवाज सुनो।)  

? अभी अभी # 66 ⇒ मेरी आवाज सुनो? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

कुछ आवाज़ें हम कई वर्षों से सुनते चले आ रहे हैं, वे आवाज़ें रेकॉर्ड की हुई हैं, वे लोग आज मौजूद नहीं हैं, सिर्फ उनकी आवाज आज मौजूद हैं। कभी उन्हें His Master’s Voice नाम दिया गया था और आज भी उन आवाजों को हम, नियमित रेडियो पर और अन्य अवसरों पर, विभिन्न माध्यमों द्वारा सुना करते हैं।

मेरी आवाज ही पहचान है ! जी हां, आज आप किसी भी आवाज को रेकाॅर्ड कर सकते हो, बार बार, हजार बार सुन सकते हो। जब कोई हमें आग्रह करता है, कुछ गा ना ! और जब हम कुछ गाते हैं, तो वह गाना कहलाता है। जो गाना हमें भाता है, उसे हम बार बार सुनते हैं, बार बार गाते हैं।।

बोलती फिल्मों के साथ ही, फिल्मों में गीत और संगीत का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह आज तक थमने का नाम नहीं ले रहा। पहले अभिनय के साथ अभिनेता को गाना भी पड़ता था, इसलिए कुंदनलाल सहगल और मुकेश अभिनेता बनते बनते गायक भी बन बैठे। बाद में अभिनेता आवाज उधार लेने लगे। और नूरजहां, सुरैया, खुर्शीद, शमशाद बेगम, लता, आशा, तलत, रफी, मुकेश और किशोर कुमार जैसी कई आवाजों ने अपनी पहचान बनाई।

क्या कोई गायक किसी की पहचान बन सकता है। मुकेश, आवारा हूं, गाकर राजकपूर की पहचान बन गए तो किशोर कुमार रूप तेरा मस्ताना गाकर, राजेश खन्ना की पहचान बन गए।

बड़ा विचित्र है, यह आवाज का सफर। पहले गीत जन्म लेता है, फिर संगीतकार पहले उसकी धुन बनाता है और बाद में एक गायक उसको अपना स्वर देता है। जब वह गीत किसी फिल्म का हिस्सा बन जाता है, तो नायक सिर्फ होंठ हिलाने का अभिनय करता है, और वह गीत एक फिल्म का हिस्सा भी बन जाता है। फिल्म में अभिनय किसी और का, और आवाज किसी और की। एक श्रोता के पास सिर्फ गायक की आवाज पहुंचती है। जब कि, एक दर्शक गायक को नहीं देख पाता, उस तक , पर्दे पर होंठ हिलाते , हाथों में हाथ डाले, राजेश खन्ना और फरीदा जलाल, बागों में बहार है , कलियों पे निखार है, गीत गाते , नजर आते हैं।।

सहगल के बाद ही गायकों का सिलसिला शुरू हुआ।

पहले तलत और लता अधिकांश नायक नायिकाओं की आवाज बने, लेकिन बाद में मोहम्मद रफी और मुकेश के साथ साथ किशोर कुमार, मन्ना डे, महेंद्र कपूर, ही मुख्य गायक रहे। मुकेश सन् १९७६ में हम तो जाते अपने गाम कहकर चले गए तो १९८० में रफी साहब भी , अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों , कहकर गंधर्व लोक पहुंच गए। एकमात्र लता और आशा का साम्राज्य आदि से अंत तक आवाज की दुनिया में कायम रहा। जब तक सुर है साज है, गीत है आवाज है। सुमन कल्याणपुर, हेमलता, से होती हुई आज श्रेया घोषाल तक कई नारी कंठ की आवाजें और शैलेंद्र सिंह, येसुदास, सुरेश वाडकर तथा उदित नारायण तक कई पुरुष स्वर श्रोताओं पर अपना प्रभाव छोड़ चुके हैं, लेकिन किसी की आवाज बनना इतना आसान नहीं होता।

राजकपूर के अलावा देवानंद के लिए पहले तलत और बाद में किशोर और रफी दोनों ने अपनी आवाजें दीं। गाता रहे मेरा दिल किशोर गा रहे हैं लेकिन प्रशंसकों के बीच देव साहब छा रहे हैं। दिन ढल जाए में श्रोता एक ओर रफी साहब की आवाज में डूब रहा है और दूसरी ओर तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं, में दर्शक देव साहब की अदा पर फिदा हो रहे हैं। क्या आपको नहीं लगता कि जब रफी साहब शम्मी कपूर के लिए गाते थे, तो उनकी काया में प्रवेश कर जाते थे और जब दिलीप साहब के लिए गाते थे, तो दोनों की रुह एक हो जाती थी।

एक दिलचस्प उदाहरण देखिए जहां अभिनेता और पार्श्व गायक एक साथ पर्दे पर मौजूद हैं। जी हां, मेरे सामने वाली खिड़की में, सुनील दत्त बैठे हैं, और उनके पीछे किशोर कुमार छुपकर एक चतुर नार से मुकाबला कर रहे हैं। कौन अच्छा अभिनेता, सुनील दत्त अथवा गायक किशोर कुमार, हम चुप रहेंगे।

आप सिर्फ इनकी आवाज सुनो और फैसला दो।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #186 ☆ मौन : सबसे कारग़र दवा ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मौन : सबसे कारग़र दवा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 186 ☆

☆ मौन : सबसे कारग़र दवा 

‘चुप थे तो चल रही थी ज़िंदगी लाजवाब/ ख़ामोशियाँ बोलने लगीं तो मच गया बवाल’– यह है आज के जीवन का कटु यथार्थ। मौन सबसे बड़ी संजीवनी है, सौग़ात है। इसमें नव-निधियां संचित हैं, जिससे मानव को यह संदेश प्राप्त होता है कि उसे तभी बोलना चाहिए, जब उसके शब्द मौन से श्रेष्ठ, बेहतर व उत्तम हों। जब तक मानव मौन की स्थिति में रहता है; प्रत्युत्तर नहीं देता; न ही प्रतिक्रिया व्यक्त करता है– किसी प्रकार का भी विवाद नहीं होता। संवाद की स्थिति बनी रहती है और जीवन सामान्य ढंग से ही नहीं, सर्वश्रेष्ठ ढंग से चलता रहता है…जिसका प्रत्यक्ष परिणाम हैं वे परिवार, जहां औरत कठपुतली की भांति आदेशों की अनुपालना करने को विवश होती है। वह ‘जी हां!’ के अतिरिक्त वह कुछ नहीं कहती। इसके विपरीत जब उसकी चुप्पी अथवा ख़ामोशी टूटती है, तो जीवन में बवाल-सा मच जाता है अर्थात् उथल-पुथल हो जाती है।

आधुनिक युग में नारी अपने अधिकारों के प्रति सजग है और वह अपनी आधी ज़मीन वापिस लेना चाहती है, जिस पर पुरुष-वर्ग वर्षों से काबिज़ था। सो! संघर्ष होना स्वाभाविक है। वह उसे अपनी धरोहर समझता था, जिसे लौटाने में उसे बहुत तकलीफ हो रही है। दूसरे शब्दों में वह उसे अपने अधिकारों का हनन समझता है। परंतु अब वह बौखला गया है, जिसका प्रमाण बढ़ती तलाक़ व दुष्कर्म व हत्याओं के रूप में देखने को मिलता है। आजकल पति-पत्नी एक-दूसरे के पूरक नहीं होते; प्रतिद्वंदी के रूप में व्यवहार करते भासते हैं और एक छत के नीचे रहते हुए अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं। उनके मध्य व्याप्त रहता है–अजनबीपन का एहसास, जिसका खामियाज़ा बच्चों को ही नहीं; पूरे परिवार को भुगतना पड़ता है। सभी एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हैं। एकल परिवार की संख्या में इज़ाफा हो रहा है और बुज़ुर्ग वृद्धाश्रमों की ओर रुख करने को विवश हैं। यह है मौन को त्यागने का प्रतिफलन।

‘एक चुप, सौ सुख’ यह है जीवन का सार। यदि आप मौन रहते हैं और कोई प्रतिक्रिया नहीं देते, तो समस्त वातावरण शांत रहता है और सभी समस्याओं का समाधान स्वत: हो जाता है। सो! आप घर-परिवार को बचा सकते हैं। इसलिए लड़कियों को जन्म से यह शिक्षा दी जाती है कि उन्हें हर स्थिति में चुप रहना है। कहना नहीं, सहना है। उनके लिए श्रेयस्कर है चुप रहना–इस घर में भी और ससुराल में भी, क्योंकि पुरुष वर्ग को न सुनने की आदत कदापि नहीं होती। उनके अहम् पर प्रहार होता है और वे बौखला उठते हैं, जिसका परिणाम भयंकर होता है। तीन तलाक़ इसी का विकृत रूप है, जिसे अब ग़ैर-कानूनी घोषित किया गया है। ग़लत लोगों से विवाद करने से बेहतर है, अच्छे लोगों से समझौता करना, क्योंकि अर्थहीन शब्द बोलने से मौन रहना बेहतर होता है। मानव को ग़लत लोगों से वाद-विवाद नहीं करना चाहिए, क्योंकि उससे मानसिक प्रदूषण बढ़ता है। इसलिए सदैव अच्छे लोगों की संगति करनी बेहतर है। वैसे भी सार्थक व कम शब्दों में बात करना व उत्तर देना व्यवहार-कुशलता का प्रमाण होता है, अन्यथा दो क़रीबी दोस्त भी एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने में संकोच नहीं करते।

‘एक्शनस स्पीक लॉउडर दैन वर्ड्स’ अर्थात् मानव के कर्म शब्दों से ऊंची आवाज़ में बोलते हैं। इसलिए अपनी शेखी बखान करने से अच्छा है, शुभ कर्म करना, क्योंकि उनका महत्व होता है और वे बोलते हैं। सो! मानव के लिए जीवन में समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाना अत्यंत कारग़र है और मौन रहना सर्वश्रेष्ठ। मानव को यथासमय व  अवसरानुकूल सार्थक ध्वनि  व उचित अंदाज़ में ही बात करनी चाहिए, ताकि जीवन व घर- परिवार में समन्वय व सामंजस्यता की स्थिति बनी रहे। मौन वह संजीवनी है, जिससे सभी समस्याओं का समाधान हो जाता है और जीवन सुचारू रूप से चलता रहता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 65 ⇒ धुन और ध्यान… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “धुन और ध्यान।)  

? अभी अभी # 65 ⇒ धुन और ध्यान? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

जो अपनी धुन में रहते हैं, उन्हें किसी भी चीज का ध्यान नहीं रहता ! तो क्या धुन में रहना ध्यान नहीं ? जब किसी फिल्मी गीत की धुन तो ज़ेहन में आ जाती है, लेकिन अगर शब्द याद नहीं आते, तो बड़ी बैचेनी होने लगती है ! सीधा आसमान से संपर्क साधा जाता है, ऐसा लगता है, शब्द उतरे, अभी उतरे। कभी कभी तो शब्द आसपास मंडरा कर वापस चले जाते हैं। याददाश्त पर ज़बरदस्त ज़ोर दिया जाता है और गाने के बोल याद आ जाने पर ही राहत महसूस होती है। इस अवस्था को आप ध्यान की अवस्था भी कह सकते हैं, क्योंकि उस वक्त आपका ध्यान और कहीं नहीं रहता।

धुन और ध्यान की इसी अवस्था में ही कविता रची जाती है, ग़ज़ल तैयार होती है। संगीत की धुन कंपोज की जाती है। सारे आविष्कार और डिस्कवरी धुन और ध्यान का ही परिणाम है। जिन्हें काम प्यारा होता है, वे भी धुन के पक्के होते हैं। जब तक हाथ में लिया काम समाप्त नहीं हो जाता, मन को राहत नहीं मिलती।।

ध्यान साधना का भी अंग है।

किसी प्यारे से भजन की धुन, बांसुरी अथवा अन्य वाद्य संगीत की धुन, मन को एकाग्र करती है और ध्यान के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करती है। आजकल आधुनिक दफ्तर हो, या सार्वजनिक स्थल, होटल हो या रेस्त्रां, और तो और अस्पतालों में भी वातावरण में धीमी आवाज़ में संगीत बजता रहता है। मद्धम संगीत वातावरण को शांत और सौम्य बनाता है।

धुन बनती नहीं, आसमान से उतरती है ! आपने फिल्म नागिन की वह प्रसिद्ध धुन तो सुनी ही होगी ;

मन डोले , मेरा तन डोले

मेरे दिल का गया करार

रे, ये कौन बजाए बांसुरिया।

गीत के शब्द देखिए, और धुन देखिए। आप जब यह गीत सुनते हैं, तो आपका मन डोलने लगता है। लगता है, बीन की धुन सुन, अभी कोई नागिन अपने तन की सुध बुध खो बैठेगी। कैसे कैसे राग थे, जिनसे दीपक जल जाते थे, मेघ वर्षा कर देते थे।

संगीत की धुन में मन जब मगन होता है, तो गा उठता है ;

नाचे मन मोरा

मगन तिथ धा धी गी धी गी

बदरा घिर आए

रुत है भीगी भीगी

ऐसी प्यारी धुन हो, तो ध्यान तो क्या समाधि की अवस्था का अनुभव हो जाए, क्योंकि यह संगीत सीधा ऊपर से श्रोता के मन में उतरता है।

रवीन्द्र जैन धुन के पक्के थे।

वे जन्मांध थे, लेकिन प्रज्ञा चक्षु थे।

घुंघरू की तरह, बजता ही रहा हूं मैं। कभी इस पग में, कभी उस पग में, सजता ही रहा हूं मैं।।

इतना आसान नहीं होता, प्यार की धुन निकालना ! देखिए ;

सून साईबा सुन

प्यार की धुन !

मैंने तुझे चुन लिया

तू भी मुझे चुन।।

हम भी जीवन में अगर एक बार प्यार की धुन सुन लेंगे, हमारा ध्यान और कहीं नहीं भटकेगा। वही राम धुन है, वही कृष्ण धुन है। धुन से ही ध्यान है, धुन से ही समाधि है। कबीर भी कह गए हैं, कुछ लेना न देना, मगन रहना।

नारद भक्ति सूत्र में कीर्तन का महत्व बतलाया गया है। कुछ बोलों को धुन में संजोया जाता है और प्रभु की आराधना में गाया जाता है। चैतन्य महाप्रभु हों या एस्कॉन के स्वामी प्रभुपाद।

नृत्य और कीर्तन ही इस युग का हरे रामा, हरे कृष्णा है। जगजीत सिंह की धुन सुनिए, मस्त हो जाइए ;

हरे रामा, हरे रामा

रामा रामा हरे हरे।

हरे कृष्णा, हरे कृष्णा

कृष्णा कृष्णा हरे हरे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 64 ⇒ बिना शीर्षक… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बिना शीर्षक।)  

? अभी अभी # 64 ⇒ बिना शीर्षक? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

किशोर कुमार का फिल्म रंगोली(१९६२) में गाया एक खूबसूरत गीत है, जिसके बोल शैलेंद्र ने लिखे हैं ;

छोटी सी ये दुनिया

पहचाने रास्ते हैं ;

तुम कहीं तो मिलोगे,

कभी तो मिलोगे,

तो पूछेंगे हाल।।

हम कुएं के मेंढक, हमारे लिए तो दुनिया वैसे भी छोटी ही रहती है, लेकिन जब से हमारे हाथ में मोबाइल आया और हम फेसबुक से जुड़े, हमने जाना, यह दुनिया कितनी विशाल है और फेसबुक ने हमें दूर दराज के जाने अनजाने लोगों से जोड़कर, वाकई इसे छोटा कर दिया है।

शैलेंद्र कितने भविष्य-दृष्टा थे, उन्हें कितना भरोसा था, कि हम कहीं तो मिलेंगे, कभी तो मिलेंगे, तो एक दूसरे का हाल जरूर पूछेंगे। और देखिए, शैलेंद्र की ईमानदार कोशिश रंग लाई, आज हम सब एक दूसरे का हाल पूछ रहे हैं, कौन कहां कितनी दूर है, किस स्थिति में है, लेकिन प्रेम की डोर, शायद रिश्ते की डोर से भी मजबूत होती है।।

कहने दें, जो कहें इसे एक आभासी दुनिया, गुरुदत्त तो बहुत पहले ही इस कथित असली दुनिया को लात मारकर ठुकरा चुके थे, साहिर ने उन्हें शब्द दिए, और रफी ने उन्हें जबान ;

जला दो, जला दो

इसे फूंक डाले ये दुनिया,

मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया

तुम्हारी है, तुम ही संभालो ये दुनिया

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है !

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो …क्या है ….!!

वे प्यासे ही रहे, कागज के फूलों में कहां महक रहती है। असली और नकली का फर्क शायद देवानंद जानते थे, इसीलिए शायद वे कह पाए ;

कल की दौलत आज की खुशियां ,

उनकी महफिल अपनी गलियां।

असली क्या है, नकली क्या है,

पूछो दिल से मेरे।।

आभासी ही सही, हमारे रिश्ते इतने बुरे भी नहीं। यहां हमें फेसबुक ने केवल मित्रता के सूत्र में बांधा है, हमारी अपनी पसंद की एक मित्र सूची है। एक खिड़की है, आप जब चाहे खोलें, बंद कर लें। कभी खुली हवा तो कभी घुटन, कभी प्रेम की ठंडी बयार, तो कभी अजीब उलझन।

कभी हमें भी मित्रता बढ़ाने का शौक था, दूर के मित्र, 🖋️ pen friends कहलाते थे, उन्हें चिट्ठियां लिखी जाती थी। चिट्ठी के जवाब की प्रतीक्षा रहती थी। जब आपस में मिलते, पुराने दिन याद आ जाते। आज पास के लोग दूर होते चले जा रहे हैं, और दूर के लोग, आभासी ही सही, अधिक करीब आते चले जा रहे हैं।।

समय और दूरियों ने असली और आभासी की दूरी को बहुत कुछ कम कर दिया है। जब फोन से ही काम हो जाता है, तो क्यों ट्रैफिक जाम में फंसा जाए, महीनों हो गए, बरसों हो गए, करीबी लोग, कितने दूर होते चले गए। जब तक दफ्तर की जिंदगी रही, रिश्तों की आमद रफ्त होती रही। आज भी कुछ यार दोस्त मिल लेते हैं, मॉर्निंग वॉक में, बगीचे में, कॉफी हाउस में, और कुछ शादी ब्याह और इतर प्रसंग में।

जुड़ना ही योग है। हम फेसबुक के जरिए मिले, यह भी एक योग ही है। एक परिवार की ही तरह एक दूसरे के हालचाल भी पूछ ही लेते हैं, मिलने की आस जरूर कायम रहती है, जहां अधिक करीबी महसूस होती है, फोन से संपर्क होता रहता है। सबको तो नहीं जाना, लेकिन पहचानने की कोशिश जरूर की। हम आप, कितने करीब हैं, अभी अभी का यह शीर्षक तय करेगा, क्योंकि यह इस बार बिना शीर्षक है। आपका दिया हुआ शीर्षक ही हमारे आभासी रिश्ते की असली पहचान सिद्ध होगी। हमारा जोड़ और मजबूत हो, कोई कमजोर कड़ी हमारे बीच मौजूद ना हो, ईश्वर से यही आस, अरदास।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 217 ☆ आलेख – समकालीन व्यंग्य में प्रतिबद्धता… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेखसमकालीन व्यंग्य में प्रतिबद्धता

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 217 ☆  

? आलेख – समकालीन व्यंग्य में प्रतिबद्धता?

प्रतिबद्धता को साहित्यिक आलोचना के संदर्भ में  इस तरह समझा जाता है कि रचना के केंद्र में सर्वहारा वर्ग की उपस्थिति है या नहीं ?  अर्थात  व्यंग्यकार से यह अपेक्षा कि वह दलित, पीड़ित,  दबे, कुचले व्यक्ति या समाज के भले के लिये ही लिखे. जब ऐसा लेखन होगा तो वह सामान्यतः शासन के, सरकारों के, अफसरों और नेताओ के, पूंजीपतियों और सेठों के विरोध में ही होगा. पर मेरी नजरों में ऐसा नहीं है कि व्यंग्य का काम केवल यही है. प्रति प्रश्न है कि क्या जालसाजी करके झूठे कागजों से यदि कोई गरीब बार बार सरकारी योजनाओ का गलत लाभ उठाता है तो क्या उस पर व्यंग्यकार को कटाक्ष कर उसे चेतावनी नहीं देनी चाहिये ?

पीड़ित दिखने वाला सदैव पीड़ित ही नहीं होता यह प्रमाणित होता है जब राशन कार्ड के भौतिक सत्यापन से ढ़ेरों नाम गायब हो जाते हैं. दरअसल यह प्रवृति कम कमजोर द्वारा ज्यादा कमजोर के शोषण को इंगित करती है और मेरी नजर में यहां प्रतिबद्धता सत्य के पक्ष में होनी चाहिये. यदि शासन ऐसे गलत कार्य करने वालो की धर पकड़ करे तो व्यंग्यकार को सरकार के साथ होना चाहिये न कि प्रतिबद्धता का चोला ओढ़कर गलत कार्य कर रहे व्यक्ति के साथ.

प्रतिबद्धता की बाते करते हुए सदैव सर्वहारा साहित्य का आग्रह किया गया और कहा गया कि सामाजिक रूपांतरण में रचना की भूमिका ‘पक्षधर विपक्ष’ की होनी चाहिए. प्रगतिवादी, जनवादी आंदोलन से साहित्य आजादी के बाद से सतत प्रभावित रहा. किन्तु आज व्यंग्य आंखे खोलकर लिखा जा रहा है, महज किसी वाद के चलते नहीं. अतः हो सकता है कि प्रतिबद्धता की परिभाषा के चश्मे से व्यंग्य में प्रतिबद्धता का अभाव नजर आये, पर सत्य के और मानवीय नैसर्गिक मूल्यों की कसौटी पर व्यंग्यकार खरी खरी ही लिख रहा है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 63 ⇒ पंच और पंक्चर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पंच और पंक्चर”।)  

? अभी अभी # 63 ⇒ पंच और पंक्चर? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

इससे बड़ा पंच और क्या होगा कि, वर्ल्ड बाइसिकल डे, यानी साइकिल दिवस पर बीच सड़क में आपकी साइकिल पंक्चर हो जाए ! चलते चलते साइकिल की हवा निकल जाना, अथवा सड़क पर किसी ट्यूब के भ्रष्ट यानी बर्स्ट होने की आवाज होना, एक ही बात है।

ऐसे साइकिल दिवस हमने बहुत मनाए हैं। साइकिल को हाथ में लेकर चलते हुए, किसी पंक्चर पकाने वाले की दूकान तलाशी जाती है, राहगीरों से मदद ली जाती है, अचानक आशा की किरण जाग उठती है, जब कुछ पुराने टायरों के बीच एक साइनबोर्ड नजर आता है, यहां पंचर सुधारे जाते हैं। भला आदमी पहले तो पंक्चर शब्द को बिगाड़ कर, तू उसी तरह पंचर कर रहा है जैसे कुछ सज्जन व्यंग्य को बिगाड़ कर व्यंग लिख मारते हैं। क्या इसे ही पंक्चर सुधारना कहते हैं। ।

हम बाइसिकल को साइकिल इसलिए कहते हैं, कि इसे आजीवन दुपहिया ही रहना है, इसके नसीब में चार पहिए नहीं !

लोग पहले साइकिल से टू व्हीलर पर आते हैं, और तत्पश्चात् टू व्हीलर से फोर व्हीलर पर। जब कि साइकिल की यात्रा उल्टी चलती है। वह छोटी होकर कभी बच्चे की ट्राइसिकल

बन जाती है, तो कभी और बच्चा होकर चार पहिए की बच्चा गाड़ी बन जाती है। अच्छी विकासशील है साइकिल।

बच्चा गाड़ी में पूत के पांव आसानी से नजर आ जाते हैं। साहब और मैम साहब सुबह बगीचे में मॉर्निंग वॉक के लिए जाते हैं। साथ में एक आया होती है, जो बच्चा गाड़ी में साहबजादे का खयाल रखती हुई पीछे पीछे चलती है। मैम साहब के साथ, रोजाना की तरह, एक चार पांव का प्राणी होता है, जिसे आप कुत्ते के अलावा किसी भी नाम से संबोधित कर सकते हैं। ।

अब पूत के पांव तो आपने बच्चा गाड़ी में देख ही लिए, साहब का पुत्र है, साहब ही बनेगा, कोई संतरी नहीं और अगर यह पूत किसी मंत्री का हुआ तो इसे तो जीवन भर राज ही करना है, क्योंकि दुनिया में आज इसके बाप का ही तो राज है।

हमें इन सबसे क्या लेना देना। भैया तू तो पंचर सुधार दे और अपने पैसे ले ले, अच्छा भला साइकिल दिवस था, वह भी पंचर हो गया। लेकिन उसे भी तो ज्ञान बांटना है। कहां से कबाड़े से उठा लाए इस साइकिल को, आगे का टायर देखो, हवा भरो तो ट्यूब बच्चे जैसे टायर से बाहर निकल आता है, कितने गैटर लगे हैं देखो। मेरी मान लो, इस अटाले को यहीं छोड़ जाओ, बढ़िया ट्यूबलेस टायर वाली, ऑटोमैटिक गियर वाली नई साइकिल ले लो, साइकिल दिवस पर। आज तो साइकिल के पचास रुपए दे भी रहा हूं, वर्ना कल तीन सौ रुपए ले आना, ट्यूब टायर, दोनों बदलेंगे साइकिल के। समझे बाबू जी। ।

शायद इसे ही कहते हैं, एक और पंच ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 69 – किस्साये तालघाट… भाग – 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 69 – किस्साये तालघाट – भाग – 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

अभय कुमार का व्यवहारिक प्रशिक्षण चल रहा था और वो जनरल बैंकिंग में निपुण होने की दिशा में शाखाप्रबंधक जी के मार्गदर्शन में कदम दर कदम आगे बढ़ते जा रहे थे. बॉस गुरु की भूमिका में रुचि लेकर बेहतर परफार्म कर रहे थे और अभय शिष्य की भूमिका में उनकी गुरुता का लाभ प्राप्त कर रहे थे. यद्यपि इस कारण शाखा की बहुत सारी अनियमिततायें भी दूर हो रही थीं पर स्नेह और सम्मान का बंधन दिन प्रतिदिन प्रगाढ़ हो रहा था. इस प्रक्रिया में घड़ी और कैलेण्डर की भूमिका गौड़ होते जा रही थी. स्नेह की पहली शर्त सानिध्य होती है जो कुछ अच्छा सीखने और करने की चाहत और जीवन  के प्रति पॉसिटिव नजरिये से घनिष्ठता की ओर बढ़ता जाता है. अपनों की जरूरत उम्र के हर पड़ाव में महसूस होती है और शाखाप्रबंधक जी भी अपने इस शिष्य को स्नेह के साथ साथ कैरियर में आगे बढ़ने के गुरुमंत्र दे रहे थे. ट्रेनी ऑफीसर बनने का लक्ष्य उन्होंने अभय के लिये गुरु दक्षिणा के रूप में मांग लिया था और इस पदोन्नति के लिये अनिवार्य परीक्षाओं का स्टडी मैटेरियल वो बराबर अपने संपर्क माध्यमों से अभय को उपलब्ध करा रहे थे. एक रविवार को शाखा के महत्वपूर्ण पेंडिंग निपटाने के बाद उन्होंने अभय से वचन लिया कि मेरा तो इस साल या बहुत हुआ तो अगले साल स्थानांतरण हो ही जाना है पर तुम्हें इस शाखा से टी. ओ. बनकर ही निकलना है. उनके बिना इस शाखा में रहने की कल्पना से ही सिहर उठे अभय ने, उन्हें आश्वस्त किया कि वह उनकी आकांक्षाओं पर खरा उतरने का प्रयास पूरी निष्ठा और मेहनत से करेगा पर प्लीज़ आप इस शाखा से जाने की बात मत करिए. आप मेरे लिए, शाखाप्रबंधक से भी ज्यादा मायने रखते हैं.

शाखाप्रबंधक जी ने कहा “ये शाखा और मैं खुद तुम्हारी इस यात्रा के पहले पड़ाव हैं, आगे बहुत से पड़ाव आयेंगे और तुम्हें कदम दर कदम पूरी निष्ठा, मेहनत और अपनी प्रतिभा से अपनी मंजिल पानी है, हर मंजिल को एक पड़ाव ही समझना और मैं कहीं भी रहूं, तुम्हारी हर सफलता की खबर पाकर मुझे बहुत खुशी होगी.

किसे पता था कि अगले दिन वो जहाँ जाने वालें हैं वहाँ इस लोक की खबरें नहीं पहुंचती. वो सोमवार की मनहूस सुबह थी जब शाखाप्रबंधक जी मार्निंग वॉक से वापस आकर शाखा परिसर में ही बैठ गये. थकान और दर्द के कारण ऊपर जाने की उनकी हिम्मत नहीं थी. ड्यूटी पर मौजूद सिक्युरिटी गार्ड ने तुरंत उन्हें पानी का गिलास पकड़ाया पर हाथ से उनके इधर गिलास छूटा और उधर आत्मा ने शरीर का साथ छोड़ा. ये कार्डियक अरेस्ट था, जब तक परिवार नीचे आकर कुछ समझ पाता, निदान कर पाता, वो सबको छोड़कर जा चुके थे. सारे उपस्थित परिजन और प्रियजन स्तब्ध थे और बैंक आने की तैयारी कर रहे अभय कुमार तक जब यह खबर पहुंची तो जैसे हालत थी उसी हालत में बाथरूम स्लीपर्स में ही दौड़कर वो शाखा परिसर में पहुंच गये. पंछी पिंजरा तोड़कर उड़ चुका था और शेष था उनके साथ गुजरा हुआ वक्त जो अब दर्द से कराहती यादों में बदलने की प्रक्रिया आरंभ कर चुका था.   नश्वरता ने फिर शाखा के सारे टॉरगेट्स, परफारमेंस और पेंडिग्स पर विजय पाई और जिम्मेदार सारे सवालों को अनुत्तरित कर अपनी अंतिम यात्रा की ओर अग्रसर हो रहा था. अभय कुमार के लिये ये आघात व्यक्तिगत था, असहनीय था और उसे मालुम था कि अपने परम श्रद्धेय गुरु का विछोह सह पाना उसके लिये असंभव था, कठिनतम था. परिवार भी अपने सूर्य के जाने से जीवन में आने वाले अंधकार की कल्पना से ही व्यथित था. जीवन की नश्वरता न जाने कितने रूप बदल बदलकर सामने आती है पर ये आकस्मिक आघात सहना साधारण बात नहीं होती. सारी आध्यात्मिकता और प्रवचन उस वक्त प्रभावहीन हो जाते हैं जब सुरक्षा, संबल और स्नेह देने वाला अपना कोई प्रियजन अचानक ही बिना बोले शून्य में चला जाता है.

नोट :इतना लिखने के बाद मेरे पास भी आंसुओं के अलावा कुछ शेष नहीं है पर अभय कुमार के समान ही मैं भी वचनबद्ध हूं इस कहानी को जारी रखने के लिये, तो फिर मिलेंगे, नमस्कार !!!

यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 62 ⇒ माड़ साब… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “माड़ साब।)  

? अभी अभी # 62 ⇒ माड़ साब? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

जिस तरह सरकारी दफ्तरों में एक किस्म बड़े बाबू की होती है, ठीक उसी तरह सरकारी स्कूलों में शिक्षक की एक किस्म होती है, जिसे माड़ साब कहते हैं। बड़े बाबू, नौकरशाही का एक सौ टका शुद्ध, टंच रूप है, जिसमें रत्ती भर भी मिलावट नहीं, जब कि शिक्षा विभाग में माड़ साब जैसा कोई शब्द ही नहीं, कोई पद ही नहीं।

माड़ साब, एक शासकीय प्राथमिक अथवा माध्यमिक विद्यालय के अध्यापक यानी शिक्षक महोदय, जिन्हें कभी मास्टर साहब भी कहा जाता था, का अपभ्रंश यानी, बिगड़ा स्वरूप है।।

हमें आज भी याद है, हमारी प्राथमिक स्कूल की नर्सरी राइम, ए, बी, सी, डी, ई, एफ, जी, क्लास में बैठे पंडित जी ….( रिक्त स्थानों की पूर्ति आप ही कर लीजिए ) होती थी। यह तब की बात है, जब छम छम छड़ी की मार से, विद्या धम धम आती थी। बेचारे पंडित जी, कब मास्टर जी हो गए, और जब अधेड़ होते होते, माड़ साब हो गए, उन्हें ही पता नहीं चला।

इस प्राणी में यह खूबी है, कि यह केवल सरकारी स्कूलों में ही नजर आता है। हायर सेकंडरी के कुछ वरिष्ठ शिक्षक लेक्चरर अथवा व्याख्याता कहलाना अधिक पसंद करते हैं। आजकल प्राइवेट स्कूल, पब्लिक स्कूल कहलाए जाने लगे हैं, वहां सर अथवा टीचर किस्म के शिक्षक उपलब्ध होते हैं, जिनकी तनख्वाह माड़ साहब जितनी तो नहीं होती, लेकिन जिम्मेदारी धड़ी भर होती है।।

वैसे यहां सरकारी स्कूलों में शिक्षिका भी होती हैं, जिन्हें कभी सम्मान से बहन जी कहा जाता था। लेकिन जब बहन जी भी घिस घिस कर भैन जी कहलाने लगी, तो उन्हें सम्मान से मैडम अथवा टीचर जी कहकर संबोधित किया जाने लगा।

मैडम शब्द के बारे में भी हमारे कार्यालयों में बड़ी भ्रांति है। शिक्षा के क्षेत्र से प्रचलित यह शब्द किसी विवाहित महिला के लिए प्रयुक्त किया जाना चाहिए, लेकिन माड़ साब की तरह और मिस्टर की तरह मैडम शब्द हर कामकाजी महिला, और एक आम शिक्षिका के लिए प्रयुक्त होने लग गया।।

एक बार स्थिति बड़ी विचित्र पैदा हो गई, जब किसी बैंक में एक रिटायर्ड फौजी पेंशनर ने किसी महिला कर्मचारी से पूछ लिया, Are you married? उस बेचारी कुछ दिन पहले ही लगी लड़की ने कह दिया, No Sir, I am still a bachelor! इस पर उस पेंशनर ने आश्चर्य व्यक्त किया, why then, these people call you Madam, I don’t understand. आपके साथी आपको मैडम क्यों कहते हैं, मुझे समझ में नहीं आता।

वैसे मास्टर शब्द को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए ! जो किसी भी विधा में, अपने इल्म में दक्ष हो, उसे मास्टर कहा जाता है। मास्टर्स की डिग्री वैसे भी बैचलर्स की डिग्री से बड़ी होती है।।

संगीत और नृत्य में मास्टर जी, किसी उस्ताद अथवा गुरु से उन्नीस नहीं होते।

अध्यात्म के क्षेत्र में जो अदृश्य शक्तियां अमृत काल में, साधकों की सहायता करती हैं, उन्हें भी मास्टर ही कहते हैं। महावतार बाबा, युक्तेश्वर गिरी और लाहिड़ी महाशय की गिनती ऐसे ही मास्टर्स में होती है।

माड़ साब के साथ ऐसा कोई धर्मसंकट नहीं। उन्हें माड़ साब सुनने की वैसे ही आदत है, जैसे एक बड़े बाबू आजीवन घर और बाहर बड़े बाबू ही कहलाते चले आ रहे हैं। मेरे कई पारिवारिक और घनिष्ठ मित्रों को मुझे भी मजबूरन माड़ साब ही कहना पड़ता है। अगर कभी गलती से उनका नाम लेने में भी आ गया, तो सामने वाला सुधार कर देता है, अच्छा वही माड़ साब ना।।

रिश्तों पर आजकल घनघोर संकट चल रहा है। प्रेम के संबंध और रिश्ते गायब होते जा रहे हैं, रिटायर्ड अकाउंटेंट और शिक्षाकर्मी और शिक्षाविद् जैसे भारी भरकम शब्द अधिक प्रचलन में है। कल ही मैने अपने एक प्रिय माड़ साब को खोया है, ईश्वर इन रिश्तों की रक्षा करे ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 216 ☆ आलेख – व्यंग्य नकारात्मक लेखन नहीं… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेखव्यंग्य नकारात्मक लेखन नहीं

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 216 ☆  

? आलेख – व्यंग्य नकारात्मक लेखन नहीं?

व्यंग्य का प्रहार दोषी व्यक्ति को आत्म चिंतन के लिये मजबूर करता है. जिस पर व्यंग्य किया जाता है, उससे न रोते बनता है, न ही हंसते बनता है. मन ही मन व्यंग्य को समझकर स्वयं में सुधार करना ही एक मात्र सभ्य विकल्प होता है. पर यह भी सत्य है कि कबीर कटाक्ष करते ही रह गये, जिन्हें नहीं सुधरना वे वैसे ही बेशर्मी की चादर ओढ़े मुखौटे लगाये तब भी बने रहे आज भी बने हुये हैं. किन्तु इस व्यवहारिक जटिलता के कारण व्यंग्य विधा को नकारात्मक लेखन कतई नही कहा जा सकता.

व्यंग्य बिल्कुल भी नकारात्मक लेखन नहीं है. बल्कि इसे यूं कहें तो उपयुक्त होगा कि जिस तरह कांटे को कांटा ही निकालता है, व्यंग्य ठीक उसी तरह का कार्य करता है. आशय यह है कि व्यंग्य लेखन का उद्देश्य हमेशा सकारात्मक होता है. जब सीधे सीधे अमिधा में कहना कठिन होता है, तब इशारों इशारों में कमियां उजागर करने के लिये व्यंग्य का सहारा लिया जाता है. ये नितांत अलग बात है कि आज समाज इतना ढ़ीठ हो चला है कि राजनेता या अन्य विसंगतियो के धारक वे लोग जिन पर व्यंग्यकार व्यंग्य करता है वे व्यंग्य को समझकर प्रवृत्ति में सुधार करने की अपेक्षा उसे अनदेखा कर रहे हैं. व्यंग्य को परिहास में उड़ाकर वे सोचते हैं कि वे ही सही हैं. चोर की ढ़ाढ़ी के तिनके को देखकर व्यंग्यकार इस तरह कटाक्ष करता है कि यदि चाहे तो चोर समय रहते स्वयं में सुधार कर ले तो वह एक्सपोज होने से बच सकता है. किन्तु आज निर्लज्ज चोर, चोरी करके भी सीना जोरी करते दिखते हें. व्यंग्य के प्रहार उन्हें आहत नही करते. वे क्लीन शेव करके फिर फिर से नये रूप में आ जाते हैं. लकड़ी की काठी भी अब बारंबार चढ़ाई जा रही है. बिना पोलिस और कोर्ट के डंडे के आज लोगों में सुधार होते नहीं दिखता. इसलिये पानीदार लोगों को इशारों में शर्मसार करने की विधा व्यंग्य को ही नकारात्मक लेखन कहने की कुचेष्टा की जा रही है. यदि सभी के द्वारा सामाजिक मर्यादाओ के स्वअनुशासन का पालन किया जाये तो व्यंग्य से अधिक सकारात्मक लेखन कुछ हो ही नहीं सकता.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ “विश्व साइकिल दिवस’-३ जून २०२३ – उत्तरार्ध” ☆ डॉक्टर मीना श्रीवास्तव ☆

डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

☆ “विश्व साइकिल दिवस’-३ जून २०२३- उत्तरार्ध” 🚴🏾‍♂️☆ डॉक्टर मीना श्रीवास्तव ☆

नमस्कार मित्रों,

इस भाग में मैं ‘साइक्लोफन-२०२३’ के हमारे अनुभवों और ३० अप्रैल २०२३ को आयोजित समापन समारोह का वृत्तांत प्रस्तुत कर रही हूँ| श्रीमती आरती बॅनर्जी ने डॉ शीतल पाटील के साथ आयोजित किया हुआ ‘सायक्लोफन-२०२२’ बेहद सफल रहा था। इसलिए दोनों ने इस साल भी ऐसा ही आयोजन किया। पिछले साल की तरह ही इसे भी निवासियों से अच्छी प्रतिक्रिया मिली। इसमें ६५ सदस्यों ने भाग लिया। खुशी की बात यह थी कि, इस आयोजन को बच्चों से बहुत अच्छी प्रतिक्रिया मिली। जैसा कि पिछले भाग में उल्लेख किया है, ‘विश्व वसुंधरा दिवस’ (२२ अप्रैल २०२३) से प्रत्येक सदस्य अपनी उम्र और क्षमता के अनुसार पैदल चल रहा था या साइकिल चला रहा था।

साइकिल सवारों में से बारह लोग सामूहिक साइकिल की सवारी का आनंद उठाने हेतु २९ अप्रैल को सुबह-सुबह ठाणे के निकट एक खाड़ी पर पहुँच गए| ग्रुप राइड की समन्वयक आरती ने कहा, ‘यह अनुभव अविस्मरणीय था क्योंकि, वहाँ प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय मॅरेथॉन धावक गीतांजलि लेंका से मिलने का अवसर मिला| वे वहाँ एक मॅरेथॉन कार्यक्रम में भाग ले रही थीं। हमने उनके साथ बातचीत की और तस्वीरें भी लीं।’

देखते देखते ३० अप्रैल का आखिरी दिन आ पहुँचा| २२ से ३० अप्रैल, २०२३ तक रुणवाल गार्डन सिटी में साइकिलिंग और वॉकिंग के उपक्रम ‘सायक्लोफन-२०२३’ का ३० अप्रैल, २०२३ को हमारे बगीचे के हरे-भरे वातावरण में खूबसूरती से समापन हुआ। समापन एवं अभिनंदन समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में डॉ. केतना अतुल मतकर उपस्थित रहीं। पर्यावरणविद् और जलवायु परिवर्तन विशेषज्ञ डॉ. केतना, ठाणे स्थित पर्यावरणीय परामर्श कंपनी, ‘सायफर एन्व्हायर्नमेंटल सोल्युशन्स’ की  संस्थापक और प्रबंध निदेशक हैं। डॉ. केतना माइक्रोबायोलॉजी में पीएचडी हैं और उन्हें पर्यावरण के क्षेत्र में २७ साल का विविध और व्यापक अनुभव है। डॉ. केतना मटकर ने कहा, ‘बचपन में साइकिल चलाना और पैदल चलना ही हमारे परिवहन के पसंदीदा साधन थे। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया और हम बडे होते गए, हम इस अनायास होने वाले व्यायाम से दूर होते गए। किसी न किसी प्रकार हम बदलती परिस्थिति, समय की कमी, आरामदायक जीवन शैली तथा अपनी सुविधा का हवाला देकर आधुनिक मोटर वाहनों को प्रधानता देते हैं|’ डॉ. केतना ने जलवायु परिवर्तन के कारण, ग्लोबल वार्मिंग, बढ़ते प्रदूषण, इन सबके कारण और इन कठिन समस्याओं के समाधान करने के उपायों के बारे में बताया। उनके अनुसार, चलने और साइकिल चलाने जैसे शाश्वत गतिशीलता में सबसे महत्वपूर्ण विकल्पों को हम आसानी से अपना सकते हैं।

डॉ. केतना के सरल, सीधे और विनम्र व्यक्तित्व ने हम सबको बहुत प्रभावित किया| इतनी जानकार होने के बावजूद उन्होंने हमारे साथ बहुत ही सरल भाषा में बातचीत की| बच्चे और बडे, हर सदस्य से उन्होंने मौसम, प्रदूषण, साइकिल चलाने और पैदल चलने के लाभ जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर प्रश्न पूछे, उन्हें बोलने पर प्रवृत्त किया और फिर विशेषज्ञ के नाते इन सभी सवालों के जवाब विस्तार से दिए। वे इस विषय पर हमारे ज्ञान का परीक्षण करना नहीं भूलीं। हमने उनके द्वारा ऑनलाइन साझा किए गए गूगल फॉर्म के प्रश्नों के उत्तर देकर उन्हें भेज दिये|

इस अवसर पर प्रतिभागियों को मेडल और प्रमाणपत्र देकर सम्मानित किया गया। हमारे एक छोटे जोशीले सदस्य इशान मोहिते ने दिए गए ९ दिनों में १८९ किमी तक साइकिल चलाकर प्रथम पुरस्कार जीता! इस आयोजन में उत्साहपूर्वक भाग लेने वाले सभी सदस्यों को हार्दिक बधाई तथा हमारे प्रिय आयोजकों आरती और शीतल को इस कार्यक्रम को सफलतापूर्वक चलाने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद| साथ ही गर्मजोशी से उनकी सहायता करनेवाले उत्साही स्वयंसेवी बच्चों को भी बहुत-बहुत धन्यवाद।

प्रिय पाठकों, जो लोग अपनी और दूसरों की हैसियत को एक महंगी कार की कीमत से मापते हैं, वे वास्तव में अपने जीवन के साथ भारी कीमत चुका रहे हैं। अब इस मानसिकता को 360 डिग्री से उल्टा घुमाने का समय आ गया है। समय की मांग है कि इस दुष्चक्र से जल्द से जल्द बाहर निकला जाए।

चलते चलते-चलता है जी!

मित्रों, यह ऐसा सवेरे सवेरे इतनी जल्दी उठना है और फिर चलना है, भले ही यह अपनी भलाई के लिए ही क्यों न हो, यह मुझे जानलेवा सज़ा लगती है| परन्तु अब ओखली में सर डाल दिया, तो चलना ही पड़ेगा! ऐसा करते-करते मैंने इस चुनौती को पूरा करने के लिए एक बार चलना शुरू किया और अगले दिन मुझे खुद ब खुद चलने की प्रेरणा मिली। आखिरकार मैंने इसे निर्धारित समय सीमा में पूरा भी कर लिया| उसके लिए रोज मिलने वाले kudos और अन्तिम दिन मिला मैडल मेरे लिए बेशकीमती है!

ठाणे की सुंदरता को वृद्धिंगत करने वाले भित्ति चित्र

प्रभात बेला में की गई इस सैर का अनुभव असाधारण था। मैं पहले भी इन्हीं सड़कों पर चली हूँ, लेकिन शायद खयालोंमें खोई हुई या हो सकता है कि, इन भित्तिचित्रों को अनदेखा कर ऑटो या कार से गुजर रही थी। लेकिन इसी ‘सायक्लोफन-२०२३’ के खातिर चलते हुए इन तस्वीरों की खूबसूरती और मायने को आँखों से देखा, फोटो में कैद किया और दिलोदिमाग में बसा लिया। इन चित्रों को बनाने वाले कलाकारों की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम ही होनी चाहिए। लेकिन संबंधित राजनेता और अधिकारियों में भी ठाणे की सुंदरता को वास्तविक रूप में बढ़ावा देने की तमन्ना पनप उठी, यह देखकर बड़ा आनंद आया| यहाँ वहाँ पान की पिचकारियों से दीवारें रंगीन बनाने वाले जो भी तमाकू (१२० और बहुत कुछ!), बीड़े के पान और जर्दा के शौक रखने वाले  महान महानुभावों को इस उपक्रम के कारण बड़ी दिक्कतें झेलनी पडी होंगी यह बिलकुल तय है! परन्तु मैं इन लोगों के सौंदर्य बोध के लिए शुक्रगुजार हूं, क्योंकि, मैंने जो भी तस्वीरें देखीं, उनको किसीने भी विकृत करने की कोशिश करते हुए मैंने नहीं पाया| खास बात तो यह है कि, यहां ‘थूकिये मत’ जैसे बोर्ड भी नहीं लगे थे।

मित्रों, इन चित्रों के विभिन्न विषयों को देखकर मैंने यह अनुभव किया कि, इन कलाकारों की कला में एक विचारधारा भी है| मैं भी कैनवास पर पेंटिंग करती हूँ| लेकिन उसका आकार सीमित होता है, इसलिए मेरी पहुँच उसके दायरे में है। परन्तु भित्ति चित्र बनाने के लिए एक अलग ही आयाम की आवश्यकता होती है। इसके अलावा, यदि समाज को इससे आलोकित करना है, तो उस परिणाम को साध्य करने के लिए प्रभावी रंग, व्यक्तित्व और आकर्षक रचना बिलकुल आवश्यक है! इन चित्रों में आवागमन करते हुए राहगीरों का ध्यान आकर्षित करने की क्षमता होनी चाहिए। इसके अलावा, ये पेंटिंग तूफान, तेज हवा, बारिश आदि के आक्रमण को झेलकर दीर्घ समयसीमा तक टिकाऊ होनी चाहिए। साथ साथ आपको टिन शेड पर भी पेंटिंग की तैयारी रखनी होगी। दोस्तों, मैं इस लेख के साथ कुछ सीमित तस्वीरें साझा कर रही हूँ। ये सभी हमारे परिसर और आसपास के क्षेत्र की दीवारों पर चित्रित हैं। इन चित्रों के विषय बड़े ही प्यारे हैं| चित्र चित्रित करती किशोरी, साइकिल पर सवार युवक और युवति, झूले पर मुक्त भाव से झूलती बालिका, सुंदर फूल, पशु, पक्षी, जलीय जीव और हरित वसुन्धरा आदि।

ये तमाम कलाकृतियाँ मनमोहक तो हैं ही, इसके अलावा, मोबाइल फोन के घेरे से बाहर की दुनिया का रसीला लुफ्त उठाते हुए ये प्रकृति-प्रेमी व्यक्तिचित्र पर्यावरण को संरक्षित करने और पृथ्वी की हरियाली को वृद्धिंगत करने का सुन्दर सन्देश चौबीसों घंटे देते रहते हैं। एक खास दिन ‘विश्व वसुंधरा दिवस’ (Earth day) मनाने वालों का उत्साह महत्वपूर्ण है (यह साइक्लोफन उसका ही एक हिस्सा है)। वह अपने स्थान पर बना रहे, परन्तु इन भित्ति चित्रों का स्थायी संदेश कितना महत्वपूर्ण है उसे समझना और उसपर गहरा सोचविचार करना जरुरी है, क्योंकि अगर हम इस हरी-भरी धरती को बचाना चाहते हैं और इसकी हरियाली को वृद्धिंगत करना चाहते हैं तो कितना अच्छा होगा अगर ऐसे मानों शिलालेख जैसे चित्र हों। हमारे परिसर की सडक के दोनों ओर हरी झाड़ियाँ और वृक्ष हैं। सुबह-सुबह उनकी मेहराबों (कमान) से गुजरती हूँ तो कितनी प्रसन्नता होती है, लिखने के लिए विचारों की घनघोर घटा उमडती है, उत्साह आ जाता है और नवनवोन्मेषी कल्पनाएं मन में हिलोरें लेने लगती हैं। गहन छाया प्रदान करने वाली इस हरीतिमा का कृपाछत्र हम मनुष्यों के लिए अनंत वरदान ही है।

दोस्तों, कहा जाता है कि ‘शरीर भगवान का मंदिर है’! बेशक, एक स्वस्थ शरीर का होना स्वस्थ दिमाग की पहली सीढी है। उसके लिए साइकिल या दो पाँवों के दोपहिया वाहन की सवारी चलाते रहना अनिवार्य ही समझें| जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबह शाम!

धन्यवाद! 🌹

डॉक्टर मीना श्रीवास्तव

ठाणे                                         

दिनांक-४ जून २०२३

फोन नंबर: ९९२०१६७२११

टिप्पणी:

  • इस लेख के लिए इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी का उपयोग किया गया है|
  • इस लेख के साथ शामिल की गई दीवार पेंटिंग की तथा अन्य तस्वीरें और विडिओ निजी हैं। ये खूबसूरत भित्ति चित्र हमारे परिसर के आसपास के क्षेत्र के हैं।
  • यह लेख मेरे नाम और फोन नंबर के साथ ही अग्रेषित कीजिए।

समापन समारोह ३० अप्रैल २०२३ की लिंक 👉 समापन समारोह ३० अप्रैल २०२३

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print