श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “किस्साये तालघाट…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)   

☆ आलेख # 69 – किस्साये तालघाट – भाग – 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

अभय कुमार का व्यवहारिक प्रशिक्षण चल रहा था और वो जनरल बैंकिंग में निपुण होने की दिशा में शाखाप्रबंधक जी के मार्गदर्शन में कदम दर कदम आगे बढ़ते जा रहे थे. बॉस गुरु की भूमिका में रुचि लेकर बेहतर परफार्म कर रहे थे और अभय शिष्य की भूमिका में उनकी गुरुता का लाभ प्राप्त कर रहे थे. यद्यपि इस कारण शाखा की बहुत सारी अनियमिततायें भी दूर हो रही थीं पर स्नेह और सम्मान का बंधन दिन प्रतिदिन प्रगाढ़ हो रहा था. इस प्रक्रिया में घड़ी और कैलेण्डर की भूमिका गौड़ होते जा रही थी. स्नेह की पहली शर्त सानिध्य होती है जो कुछ अच्छा सीखने और करने की चाहत और जीवन  के प्रति पॉसिटिव नजरिये से घनिष्ठता की ओर बढ़ता जाता है. अपनों की जरूरत उम्र के हर पड़ाव में महसूस होती है और शाखाप्रबंधक जी भी अपने इस शिष्य को स्नेह के साथ साथ कैरियर में आगे बढ़ने के गुरुमंत्र दे रहे थे. ट्रेनी ऑफीसर बनने का लक्ष्य उन्होंने अभय के लिये गुरु दक्षिणा के रूप में मांग लिया था और इस पदोन्नति के लिये अनिवार्य परीक्षाओं का स्टडी मैटेरियल वो बराबर अपने संपर्क माध्यमों से अभय को उपलब्ध करा रहे थे. एक रविवार को शाखा के महत्वपूर्ण पेंडिंग निपटाने के बाद उन्होंने अभय से वचन लिया कि मेरा तो इस साल या बहुत हुआ तो अगले साल स्थानांतरण हो ही जाना है पर तुम्हें इस शाखा से टी. ओ. बनकर ही निकलना है. उनके बिना इस शाखा में रहने की कल्पना से ही सिहर उठे अभय ने, उन्हें आश्वस्त किया कि वह उनकी आकांक्षाओं पर खरा उतरने का प्रयास पूरी निष्ठा और मेहनत से करेगा पर प्लीज़ आप इस शाखा से जाने की बात मत करिए. आप मेरे लिए, शाखाप्रबंधक से भी ज्यादा मायने रखते हैं.

शाखाप्रबंधक जी ने कहा “ये शाखा और मैं खुद तुम्हारी इस यात्रा के पहले पड़ाव हैं, आगे बहुत से पड़ाव आयेंगे और तुम्हें कदम दर कदम पूरी निष्ठा, मेहनत और अपनी प्रतिभा से अपनी मंजिल पानी है, हर मंजिल को एक पड़ाव ही समझना और मैं कहीं भी रहूं, तुम्हारी हर सफलता की खबर पाकर मुझे बहुत खुशी होगी.

किसे पता था कि अगले दिन वो जहाँ जाने वालें हैं वहाँ इस लोक की खबरें नहीं पहुंचती. वो सोमवार की मनहूस सुबह थी जब शाखाप्रबंधक जी मार्निंग वॉक से वापस आकर शाखा परिसर में ही बैठ गये. थकान और दर्द के कारण ऊपर जाने की उनकी हिम्मत नहीं थी. ड्यूटी पर मौजूद सिक्युरिटी गार्ड ने तुरंत उन्हें पानी का गिलास पकड़ाया पर हाथ से उनके इधर गिलास छूटा और उधर आत्मा ने शरीर का साथ छोड़ा. ये कार्डियक अरेस्ट था, जब तक परिवार नीचे आकर कुछ समझ पाता, निदान कर पाता, वो सबको छोड़कर जा चुके थे. सारे उपस्थित परिजन और प्रियजन स्तब्ध थे और बैंक आने की तैयारी कर रहे अभय कुमार तक जब यह खबर पहुंची तो जैसे हालत थी उसी हालत में बाथरूम स्लीपर्स में ही दौड़कर वो शाखा परिसर में पहुंच गये. पंछी पिंजरा तोड़कर उड़ चुका था और शेष था उनके साथ गुजरा हुआ वक्त जो अब दर्द से कराहती यादों में बदलने की प्रक्रिया आरंभ कर चुका था.   नश्वरता ने फिर शाखा के सारे टॉरगेट्स, परफारमेंस और पेंडिग्स पर विजय पाई और जिम्मेदार सारे सवालों को अनुत्तरित कर अपनी अंतिम यात्रा की ओर अग्रसर हो रहा था. अभय कुमार के लिये ये आघात व्यक्तिगत था, असहनीय था और उसे मालुम था कि अपने परम श्रद्धेय गुरु का विछोह सह पाना उसके लिये असंभव था, कठिनतम था. परिवार भी अपने सूर्य के जाने से जीवन में आने वाले अंधकार की कल्पना से ही व्यथित था. जीवन की नश्वरता न जाने कितने रूप बदल बदलकर सामने आती है पर ये आकस्मिक आघात सहना साधारण बात नहीं होती. सारी आध्यात्मिकता और प्रवचन उस वक्त प्रभावहीन हो जाते हैं जब सुरक्षा, संबल और स्नेह देने वाला अपना कोई प्रियजन अचानक ही बिना बोले शून्य में चला जाता है.

नोट :इतना लिखने के बाद मेरे पास भी आंसुओं के अलावा कुछ शेष नहीं है पर अभय कुमार के समान ही मैं भी वचनबद्ध हूं इस कहानी को जारी रखने के लिये, तो फिर मिलेंगे, नमस्कार !!!

यात्रा जारी रहेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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