श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बिना शीर्षक।)  

? अभी अभी # 64 ⇒ बिना शीर्षक? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

किशोर कुमार का फिल्म रंगोली(१९६२) में गाया एक खूबसूरत गीत है, जिसके बोल शैलेंद्र ने लिखे हैं ;

छोटी सी ये दुनिया

पहचाने रास्ते हैं ;

तुम कहीं तो मिलोगे,

कभी तो मिलोगे,

तो पूछेंगे हाल।।

हम कुएं के मेंढक, हमारे लिए तो दुनिया वैसे भी छोटी ही रहती है, लेकिन जब से हमारे हाथ में मोबाइल आया और हम फेसबुक से जुड़े, हमने जाना, यह दुनिया कितनी विशाल है और फेसबुक ने हमें दूर दराज के जाने अनजाने लोगों से जोड़कर, वाकई इसे छोटा कर दिया है।

शैलेंद्र कितने भविष्य-दृष्टा थे, उन्हें कितना भरोसा था, कि हम कहीं तो मिलेंगे, कभी तो मिलेंगे, तो एक दूसरे का हाल जरूर पूछेंगे। और देखिए, शैलेंद्र की ईमानदार कोशिश रंग लाई, आज हम सब एक दूसरे का हाल पूछ रहे हैं, कौन कहां कितनी दूर है, किस स्थिति में है, लेकिन प्रेम की डोर, शायद रिश्ते की डोर से भी मजबूत होती है।।

कहने दें, जो कहें इसे एक आभासी दुनिया, गुरुदत्त तो बहुत पहले ही इस कथित असली दुनिया को लात मारकर ठुकरा चुके थे, साहिर ने उन्हें शब्द दिए, और रफी ने उन्हें जबान ;

जला दो, जला दो

इसे फूंक डाले ये दुनिया,

मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया

तुम्हारी है, तुम ही संभालो ये दुनिया

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है !

ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो …क्या है ….!!

वे प्यासे ही रहे, कागज के फूलों में कहां महक रहती है। असली और नकली का फर्क शायद देवानंद जानते थे, इसीलिए शायद वे कह पाए ;

कल की दौलत आज की खुशियां ,

उनकी महफिल अपनी गलियां।

असली क्या है, नकली क्या है,

पूछो दिल से मेरे।।

आभासी ही सही, हमारे रिश्ते इतने बुरे भी नहीं। यहां हमें फेसबुक ने केवल मित्रता के सूत्र में बांधा है, हमारी अपनी पसंद की एक मित्र सूची है। एक खिड़की है, आप जब चाहे खोलें, बंद कर लें। कभी खुली हवा तो कभी घुटन, कभी प्रेम की ठंडी बयार, तो कभी अजीब उलझन।

कभी हमें भी मित्रता बढ़ाने का शौक था, दूर के मित्र, 🖋️ pen friends कहलाते थे, उन्हें चिट्ठियां लिखी जाती थी। चिट्ठी के जवाब की प्रतीक्षा रहती थी। जब आपस में मिलते, पुराने दिन याद आ जाते। आज पास के लोग दूर होते चले जा रहे हैं, और दूर के लोग, आभासी ही सही, अधिक करीब आते चले जा रहे हैं।।

समय और दूरियों ने असली और आभासी की दूरी को बहुत कुछ कम कर दिया है। जब फोन से ही काम हो जाता है, तो क्यों ट्रैफिक जाम में फंसा जाए, महीनों हो गए, बरसों हो गए, करीबी लोग, कितने दूर होते चले गए। जब तक दफ्तर की जिंदगी रही, रिश्तों की आमद रफ्त होती रही। आज भी कुछ यार दोस्त मिल लेते हैं, मॉर्निंग वॉक में, बगीचे में, कॉफी हाउस में, और कुछ शादी ब्याह और इतर प्रसंग में।

जुड़ना ही योग है। हम फेसबुक के जरिए मिले, यह भी एक योग ही है। एक परिवार की ही तरह एक दूसरे के हालचाल भी पूछ ही लेते हैं, मिलने की आस जरूर कायम रहती है, जहां अधिक करीबी महसूस होती है, फोन से संपर्क होता रहता है। सबको तो नहीं जाना, लेकिन पहचानने की कोशिश जरूर की। हम आप, कितने करीब हैं, अभी अभी का यह शीर्षक तय करेगा, क्योंकि यह इस बार बिना शीर्षक है। आपका दिया हुआ शीर्षक ही हमारे आभासी रिश्ते की असली पहचान सिद्ध होगी। हमारा जोड़ और मजबूत हो, कोई कमजोर कड़ी हमारे बीच मौजूद ना हो, ईश्वर से यही आस, अरदास।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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