हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 40 ☆ लघुकथा – मैडम ! चलता है ये सब ☆ डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री  विमर्श  पर आधारित लघुकथा  मैडम ! चलता है ये सब ।  स्त्री जीवन के  कटु सत्य को बेहद संजीदगी से डॉ ऋचा जी ने शब्दों में उतार दिया है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी  को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती  लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 40 ☆

☆  लघुकथा – मैडम ! चलता है ये सब   

मैडम ! मैं आज पुणे आ रही हूँ, आई (माँ) एडमिट है उसका शुगर बढ़ गया है। उसे देखने आ रही हूँ। आपसे मिले बिना नहीं जाऊँगी। आप व्यस्त होंगी तो भी आपका थोड़ा समय तो लूँगी ही।

मैंने हँसकर कहा- आओ भई ! तुम्हें कौन रोक सकता है। मेरी शोध छात्रा स्नेहा का फोन था। स्नेहा का स्वभाव कुछ ऐसा ही था। इतने अपनेपन और अधिकार से बात करती कि सामनेवाला ना बोल ही नहीं पाता। दूसरों के काम भी वह पूरे मन से करती थी। आप उसे अपना काम कह दीजिए, फिर देखिए जब तक काम पूरा न हो चैन नहीं लेती, ना दूसरे को लेने देगी। परेशान होकर आदमी उसका काम पूरा कर ही देता है। मैं कभी-कभी मज़ाक में उससे कहती कि स्नेहा ! तुम्हें तो किसी नेता की टीम में होना चाहिए लोगों का भला होगा।

‘क्या मैडम आप भी’ यह कहकर वह हँस देती।

नियत समय पर स्नेहा मेरे घर के सामने थी। रिक्शा रोके रखा, उसे तुरंत वापस जाना था। चिरपरिचित मुस्कान के साथ वह मेरे सामने बैठी थी, कुछ अस्त-व्यस्त-सी लगी। हमेशा की तरह दो-तीन बैग उसके कंधे पर झूल रहे थे। मैं समझ गयी कि घर से माँ के लिए खाना बनाकर लायी होगी। हल्के गुलाबी रंग का सूट पहने थी, उस पर भी तरह-तरह के दाग-धब्बे  दिख रहे थे , वह इस सब से बेपरवाह थी। आई (माँ) को देखना है और मैडम से मिलना है ये दो काम उसे करने थे। अर्जुन की तरह पक्षी की आँख जैसा उसका लक्ष्य हमेशा निर्धारित रहता था।

स्नेहा मेरी नजर भाँप गयी। मेरा ध्यान उधर से हटाने के लिए उसने अपने शोध-कार्य के कागज मेज पर फैला दिए। अधिक से अधिक बातों को तेजी से समेटती हुई बोली- मैम ! ये किताबें मुझे मिली हैं| इनमें से विषय से संबंधित सामग्री जेरोक्स करा ली है। एक अध्याय पूरा हो गया है। आप फुरसत से देख लीजिएगा।

ठीक है, मैं देख लूँगी। घर में सब कैसे है स्नेहा ? स्नेहा के पारिवारिक जीवन की उथल-पुथल से मैं परिचित थी। ससुरालवालों ने उसके जीवन को नरक बना रखा था। मैं यह भी जानती थी कि स्नेहा जैसी जीवट लड़की ही वहाँ टिक सकती है। मेरे प्रश्न के उत्तर में स्नेहा मुस्कुरा दी, बोली-

मैडम ! शादी को सात साल पूरे होनेवाले हैं पर वहाँ कुछ नहीं बदलता। सास का स्वभाव वैसा ही है। संजय कहता है कि ‘माँ जो करती है, सब ठीक है। मैं माँ को कुछ नहीं कहूँगा।’ उन लोगों को पैसा चाहिए, कहते हैं नौकरी करो,  अपने मायके से माँगो। मुझे पढ़ने भी नहीं देते। जिस दिन मेरी  परीक्षा होती है उससे एक दिन पहले मेरी सास को घर के सारे भूले-बिसरे काम याद आते हैं  और पति को लगता है कि बहुत दिन से उसने अपने दोस्तों को घर पर दावत नहीं दी। मना करो तो गाली-गलौज सुनो। मेरी बेटी सौम्या अब छ: साल की होनेवाली है। लड़ाई-झगड़े से वह डर जाती है  इसलिए मैं घर का माहौल ठीक रखना चाहती  हूँ।

मैडम ! इससे अच्छा ये लोग होने देना नहीं चाहते , इससे बुरा मैं होने नहीं दूँगी। गर्भ ठहर गया था। मैं दूसरा बच्चा नहीं चाहती। ये मुझे उसमें अटकाना चाहते थे। मेरी पढ़ाई-लिखाई सब चौपट। मैंने तय किया……….. मैं ऐसा नहीं होने दूँगी। मुझे किसी भी हालत में नेट परीक्षा पास करनी है, पीएच.डी. का काम पूरा करना है। मुझसे नजरें बचाती हुई धीरे से बोली-  मैंने कल एबॉर्शन करवा लिया है , मजबूरी थी , नहीं तो किसे अच्छा लगता है यह सब ? फिर बात बदलने के लिए बोली- छोड़ो ना मैडम ये सब चलता रहता है। डबडबाई आँखों को पोंछती स्नेहा फिर हँस पड़ी  थी।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन# 59 – हाइबन – मेनाल का झरना ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है एक हाइबन   “मेनाल का झरना। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी के हाइबन  # 59 ☆

☆ मेनाल का झरना ☆

बेगू जिला चित्तौड़गढ़ में स्थित मेनाल राजस्थान की सीमा पर बहता एक खतरनाक झरना है। जहां झरने के ऊपर बहती नदी में नहाने के दौरान बहुत ध्यान रखना पड़ता है । वहां पर कभी-कभी नदी में अचानक और बहुत सारा पानी एक साथ आ जाता है । इस दौरान नदी में अठखेलियां करते कई व्यक्ति अचानक बहकर गहरे झरने की खाई में गिर कर मर जाते हैं।।कई चेतावनी के बावजूद हर साल इस झरने में घटना घटती रहती है।

झरने के पास शिव मंदिर का बहुत सुन्दर और भव्य प्रांगण बहुत ही दर्शनीय है। यहां प्रांगण के पास ही झरने को देखने के लिए दर्शक दीर्धा बनी हुई है। मगर फिर भी लोग झरने के ऊपर से बहती उथली नदी में अठखेलियां करने चले जाते हैं।

इस मंदिर की एक अन्य विशेषता भी है । मंदिर के चारों ओर की दीवारों पर कामदेव की मूर्तियां उकेरी हुई है। कहते हैं कि प्राचीन समय में यहां के मंदिर पर कामकला की शिक्षा दी जाती थी । यह पुराने समय का प्रसिद्ध मानव जीवन मूल्यों की शिक्षा देने वाला प्रमुख स्थल था । इस मंदिर की भव्यता को इस प्रांगण की विशालता और स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूनों से समझा जा सकता है।

‘काम’ की मुर्ति~

झरने में गिरते

नवदम्पति।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 29 ☆ सम्मान की आहट ….. ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु‘

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सम्मान की आहट …..। यह रचना सम्मान के मनोविज्ञान का सार्थक विश्लेषण करती है । इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 29☆

☆ सम्मान की आहट …..

जब भी सम्मान पत्र बँटते हैं; उथल -पुथल, गुट बाजी व किसी भी संस्था का दो खेमों में बँट जाना स्वाभाविक होता है। कई घोषणाएँ तो,  सबको विचलित करने हेतु ही की जाती हैं,  जिससे जो जाना चाहे चला जाए क्योंकि ये दुनिया तो  कर्मशील व्यक्तियों से भरी है;  ऐसा कहते हुए संस्था के एक प्रतिनिधि  उदास होते हुए माथे पर हाथ रखकर बैठ गए ।

तभी सामान्य सदस्य ने कहा – इस संस्था में कुछ विशिष्ट जनों पर ही टिप्पणी दी जाती है, वही लोग आगे-आगे बढ़कर सहयोग करते दिखते हैं,  या नाटक करते हैं ; पता नहीं ।

क्या मेरा यह अवलोकन ग़लत है …?  मुस्कुराते हुए संस्था के सचिव महोदय से पूछा ।

वर्षो से संस्था के शुभचिन्तक रहे विशिष्ट सदस्य ने गंभीर मुद्रा अपनाते हुए, आँखों का चश्मा ठीक करते हुए कहा बहुत ही अच्छा प्रश्न है ।

सामान्य से विशिष्ट बनने हेतु सभी कार्यों में तन मन धन से सहभागी बनें, सबकी सराहना करें, उन्हें सकारात्मक वचनों से प्रोत्साहित  करें, ऐसा करते ही सभी प्रश्नों के उत्तर मिल  जायेंगे।

सामान्य सदस्य ने कहा मेरा कोई प्रश्न ही नहीं, आप जानते हैं, मैं तो ….

अपना काम और जिम्मेदारी पूरी तरह से निभाता हूँ । आगे जो समीक्षा कर रहा है ; कामों की वो जाने।

एक अन्य  विशिष्ट सदस्य ने कहा आप भी कहाँ की बात ले बैठे ये तो सब खेल है,  कभी भाग्य का, कभी कर्म का, बधाई हो; पुरस्कारित होने के लिये आपका भी तो नाम है।

आप हमेशा ही सार्थक कार्य करते हैं, आपके कार्यों का सदैव मैं प्रशंसक हूँ।

तभी एक अन्य सदस्य खास बनने की कोशिश करते हुए कहने लगा,  कुछ लोगों को गलतफहमी है मेरे बारे में, शायद पसंद नहीं करते ……मुँह बिचकाते हुए बोले,  मैं तो उनकी सोच बदलने में असमर्थ हूँ, और समय भी नहीं ये सब सोचने का….।

पर कभी कभी लगता है;  चलिए कोई बात नहीं।

जहाँ लोग नहीं चाहते मैं रहूँ; सक्रियता कम कर देता हूँ। जोश उमंग कम हुआ बस..।

सचिव महोदय जो बड़ी देर से सबकी बात सुन रहे थे  कहने लगे – इंसान की कर्तव्यनिष्ठा , उसके कर्म,  सबको आकर्षित करते हैं। समयानुसार सोच परिवर्तित हो जाती है।

मुझे ही देखिये  कितने लोग पसंद करते हैं.. …. हहहहहह ।

अब भला संस्था के दार्शनिक महोदय भी  कब तक चुप रहते  कह उठे जो व्यक्ति स्वयं को पसंद करता है उसे ही सब पसंद करते हैं।

सामान्य सदस्य जिसने शुरुआत की थी,  बात काटते हुए कहने लगा शायद यहाँ वैचारिक भिन्नता हो।

जब सब सराहते हैं, तो किये गए कार्य की समीक्षा और सही मूल्यांकन होता है, तब खुद के लिये भी अक्सर पॉजीटिव राय बनती है, और बेहतर करने की कोशिश भी।

दार्शनिक महोदय ने कहा दूसरे के अनुसार चलने से हमेशा दुःखी रहेंगे अतः जो उचित हो उसी अनुसार चलना चाहिए जिससे कोई खुश रहे न रहे कम से कम हम स्वयं तो खुश होंगे।

सत्य वचन ,आज से आप हम सबके गुरुदेव हैं , सामान्य सदस्य ने कहा।

सभी ने हाँ में हाँ मिलाते हुए फीकी  सी मुस्कान  बिखेर दी और अपने- अपने गंतव्य की ओर चल  दिए ।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा # 36 ☆ व्यंग्य संग्रह – बड्डे गढ़्डे और चौगड्डे – श्री रमाकांत ताम्रकार☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  श्री श्री रमाकांत ताम्रकार जी  के  व्यंग्य -संग्रह  “बड्डे गढ़्डे और चौगड्डे ” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा । )

पुस्तक चर्चा के सम्बन्ध में श्री विवेक रंजन जी की विशेष टिपण्णी :- पठनीयता के अभाव के इस समय मे किताबें बहुत कम संख्या में छप रही हैं, जो छपती भी हैं वो महज विज़िटिंग कार्ड सी बंटती हैं ।  गम्भीर चर्चा नही होती है  । मैं पिछले 2 बरसो से हर हफ्ते अपनी पढ़ी किताब का कंटेंट, परिचय  लिखता हूं, उद्देश यही की किताब की जानकारी अधिकाधिक पाठकों तक पहुंचे जिससे जिस पाठक को रुचि हो उसकी पूरी पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता जगे। यह चर्चा मेकलदूत अखबार, ई अभिव्यक्ति व अन्य जगह छपती भी है । जिन लेखकों को रुचि हो वे अपनी किताब मुझे भेज सकते हैं।   – विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘ विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा – # 36 ☆ 

☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य-संग्रह   – बड्डे गढ़्डे और चौगड्डे – व्यंग्यकार – श्री रमाकांत ताम्रकार

यह हम व्यंग्य यात्रियो का अपनापन ही है कि जहां सामान्यतः लोग स्वयं को छिपाकर रखना चाहते हैं, व एक आवरण में लपेट कर अपना रुपहला पक्ष ही सबके सम्मुख रखते हैं वही अपनी ही विवेचना करवाने के लिये व्यंग्य यात्री सहजता से ग्रुप में सबके सम्मुख उत्साह से  प्रस्तुत रहते हैं. रमाकांत ताम्रकार जी की सद्यः प्रकाशित कृति बड्डे गढ़्डे और चौगड्डे के शीर्षक में जबलपुर की स्थानीयता प्रतिबिंबित होती है .जबलपुर में जाने अनजाने हरेक को बड्डे संबोधन सहज है.  श्री रमाकांत ताम्रकार जी जबलपुर से हैं, आंचलिकता की महक उनके कई व्यंग्य लेखो में दृष्टिगत होती है. ३४ विभिन्न विषयो पर उन्होने व्यंग्य को माध्यम बनाकर चुटीली, रोचक प्रस्तुतियां इस पुस्तक में की हैं. इनमें से कई व्यंग्य उनके श्रीमुख से सुनने के सुअवसर भी मिले हैं. जैसे दो रुपये दे दो भैया, जरा खिसकना, राजनीति बनाम डकैती आदि. वे प्रवाहमय लिखते हैं. वे राजनीतिज्ञो को शेर की खाल में भेड़िया लिखते हैं, उन्हें हद्डी विहीन सर्प बताते हैं. हमने सीखा है कि व्यंग्य में केवल इशारो में बात होनी चाहिये पर वे सीधे मोदी जी का नाम लेकर लिखने का दुसाहस करने वाले व्यंग्यकार हैं. वे भ्रष्टाचार के रुपयों को बापू का सर्टिफिकेट लिखते हैं. आशय है कि व्यंग्य के माध्यम से समाज की विसंगतियो पर प्रहार की यात्रा में वे हम सभी के सहगामी हें. मेरी मंगल कामनायें उनके साथ हैं ।

चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 58 – वंदे मातरम….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  स्वतंत्रता दिवस पर रचित एक देशप्रेम से  ओतप्रोत गीत  वंदे मातरम…. । )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 58 ☆

☆ एक बाल कविता – वंदे मातरम…. ☆  

देश प्रेम के गाएं मंगल गान

वंदे मातरम

तन-मन से हम करें राष्ट्र सम्मान

वंदे मातरम।।

 

हम सब ही तो कर्णधार हैं

प्यारे हिंदुस्तान के

तीन रंग के गौरव ध्वज को

फहराए हम शान से,

इसकी आन बान की खातिर

चाहे जाएं प्राण

वंदे मातरम

देश प्रेम के गाएं मंगल गान, वंदे मातरम।

 

धर्म पंथ जाति मजहब

नहीं ऊंच-नीच का भेद करें

भाई चारा और प्रेम

सद्भावों के हम बीज धरें,

मातृभूमि दे रही हमें

धन-धान्य सुखद वरदान,

वंदे मातरम

देश प्रेम के गाए मंगल गान, वंदे मातरम

 

अमर रहे जनतंत्र

शक्ति संपन्न रहे भारत अपना

सोने की चिड़िया फिर

जगतगुरु हो ये सब का सपना

देश बने सिरमौर जगत में

यह दिल में अरमान,

वंदे मातरम

देश प्रेम के गाएं मंगल गान, वंदे मातरम।

 

युगों युगों तक लहराए

जय विजयी विश्व तिरंगा ये

अविरल बहती रहे, पुनीत

नर्मदा, जमुना, गंगा ये,

सजग जवान, सिपाही, सैनिक

खेत और खलिहान,

वंदे मातरम

देश प्रेम के गाएं मंगल गान, वंदे मातरम।।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 39 – बापू के संस्मरण-13- मरने के लिए अकेला आया हूँ …… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह गाँधी विचार  एवं दर्शन विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें। आज प्रस्तुत है “बापू के संस्मरण – मरने के लिए अकेला आया हूं ……”)

☆ गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  विशेष ☆

☆ गांधी चर्चा # 39 – बापू के संस्मरण – 13 – मरने के लिए अकेला आया हूँ  …… 

 

चम्पारन बिहार में है । वहां गांधीजी ने सत्याग्रह की एक शानदार लड़ाई लड़ी थी। गोरे वहां के लोगों को बड़ा सताते थे। नील की खेती करने के कारण वे निलहे कहलाते थे । उन्हीं की जांच करने को गांधीजी वहां गये थे । उनके इस काम से जनता जाग उठी । उसका साहस बढ़ गया, लेकिन गोरे बड़े परेशान हुए वे अब तक मनमानी करते आ रहे थे । कोई उनकी ओर उंगली उठाने वाला तक न था। अब इस एक आदमी ने तूफान खड़ा कर दिया. वे आग-बबूला हो उठे।

इसी समय एक व्यक्ति ने आकर गांधीजी से कहा,`यहां का गोरा बहुत दुष्ट है।वह आपको मार डालना चाहता है। इस काम के लिए उसने हत्यारे भी तैनात कर दिये हैं।’

गांधीजी ने बात सुन ली।

उसके बाद एक दिन, रात के समय अचानक वह उस गोरे की कोठी पर जा पहुंचे। गोरे ने उन्हें देखा तो घबरा गया। उसने पूछा,`तुम कौन हो? गांधीजी ने उत्तर दिया, मैंमोहन दास करम चंद  गांधी हूं ।’ वह गोरा और भी हैरान हो गया । बोला, `गांधी! `हां मैं गांधी ही हूं. गांधीजी ने उत्तर दिया, `सुना है तुम मुझे मार डालना चाहते हो । तुमने हत्यारे भी तैनात कर दिये हैं ।’

गोरा सन्न रह गया जैसे सपना देख रहा हो। अपने मरने की बात कोई इतने सहज भाव से कह सकता है!

वह कुछ सोच सके, इससे पहले ही गांधीजी फिर बोले, `मैंने किसी से कुछ नहीं कहा. अकेला ही आया हूं । बेचारा गोरा! उसने डर को जीतने वाले ऐसे व्यक्ति कहां देखे थे!

वह आगे कुछ भी नहीं बोल सका ।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 38 ☆ कविता – क्यों  तुम्हें आजमाऊँ ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर सजल  क्यों  तुम्हें आजमाऊँ। श्रीमती कृष्णा जी की लेखनी को  इस अतिसुन्दर रचना के लिए  नमन ।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 38 ☆

☆ सजल – क्यों  तुम्हें आजमाऊँ ☆

 

शान से उस पर जाऊँ

माँग सेंन्दुर से सजाऊँ

 

 

जी लिया भरपूर  जीवन

इस जहां से  जब जाऊँ

 

कांधे  तेरे हो सवार

मैं  खुशी से इतराऊँ

 

सातों जन्मों का बंधन

इस जन्म  पूरा कर जाऊँ

 

है सारी खुशीआज तक

कल को फिर क्यों  सजाऊँ

 

हे राघव  ! विनती मेरी

क्यों  तुम्हें आजमाऊँ

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 9 – जिंदगी अचानक अनजान हो गयी ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी  अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता जिंदगी अचानक अनजान हो गयी

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 9 – जिंदगी अचानक अनजान हो गयी 

 

जिंदगी आज अचानक अनजान सी हो गयी,

कल तक मेरी परछाई जो मेरे साथ थी,

ना जाने क्यों आज वह भी अब परायी लगने लगी ||

 

हर कोई आज यहां उदास दिख रहा है,

कल तक सब के चेहरो पर खुशियां झलक रही थी,

ना जाने क्यों आज रंगत सबके चेहरों की उड़ने लगी ||

 

कल जो मैंने आज के लिए सुनहरे सपने बुने थे,

आज आते ही वे सब ना जाने कहां गुम हो गए,

ना जाने क्यों जिसे चाहा वहीं चीज जिंदगी से दूर हो गयी ||

 

सुकून भरी जिंदगी जीने की एक ख्वाहिश थी,

ना जाने ख्वाहिश को किसकी  नजर लगी,

ना जाने क्यों चंद खुशियां जमा थी वे भी मुझसे दूर हो गयी ||

 

आज से अच्छा तो कल था जहां में बच्चा था,

चारों और हंसी-ख़ुशी और अपनेपन का आलम था,

ना जाने क्यों बचपन छिन जिंदगी खुद एक पहेली हो गयी||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 60 – गझल – वृत्त- लवंगलता ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक अतिसुन्दर गझल – वृत्त- लवंगलतामुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य को  साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 60 ☆

☆ गझल – वृत्त- लवंगलता ☆

 

मला चुलीची धुरकट औलण हवीहवीशी वाटे

जात्याचीही एक आठवण    हवीहवीशी वाटे

 

पिंपर्णी च्या  झाडाखाली खेळ खेळलो होतो

त्या उन्हातली प्रचंड रणरण हवीहवीशी वाटे

 

“बालपणाचा काळ सुखाचा” असे म्हणतसे कोणी

गणिताच्या तासाची भणभण हवीहवीशी वाटे

 

कोनाड्यातच सागरगोटे नऊखऊचा पाढा

मैतरणीची लाडिक तणतण हवीहवीशी वाटे

 

प्राजक्ताचे झाड आवडे, गर्द  सभोती  दाटी

अंगणातली नाजुक पखरण हवीहवीशी वाटे

 

पहाटवेळी सडासारवण  रांगोळीअन आई

गुलबक्षीची सुंदर गुंफण हवीहवीशी वाटे

 

कुरळ्या केसां मधला गुंता आई अलगद काढी

सागरवेणी, तीच विंचरण हवीहवीशी वाटे

 

डेक्कनवरचा काळ आठवे हिंदविजयचा “साथी”

अलका चौका मधली गवळण हवी हवीशी वाटे

 

मस्त पाऊस  पण  भिजण्याची हौसच फिटली आता

पाखरापरी  छोटी  वळचण हवीहवीशी वाटे

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 46 ☆ आंधी ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “आंधी”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 46 ☆

☆ आंधी ☆

 

जब पता होता है ना

कि हम सही पथ पर हैं

और सच्चाई हमारी साथी है,

तो ज़हन के भीतर

एक आंधी सी चलने लगती है

जो हर अंग को जोश और उत्साह से

रंगीन गुब्बारे की तरह भर देती है,

खोल देती है सारे दरवाज़े

जो वक़्त ने बंद कर दिए होते हैं,

लॉक डाउन कर देती है

सभी नकारात्मक विचारों का

और दिमाग के सारे तालों की

चाबी ढूँढ़ लाती है!

 

‘गर तुम्हें अपने पर

पूरा भरोसा है

तो चल जाने दो आंधी,

बिना किसी डर के और भय के!

पहले बड़ी उथल-पुथल होगी,

पर फिर धीरे-धीरे

जैसे-जैसे आंधी थमेगी

सब हो जाएगा साफ़!

 

हो सकता है

तब तुम झूलने लगो

धनक के सात रंगों के झूलों पर!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

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