हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 6 ☆ सीता ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  “सीता ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 6 ☆

 

☆ सीता ☆

 

सीता! तुम भूमिजा

धरती की पुत्री

जनक के प्रांगण में

राजकुमारी सम पली-बढ़ी

 

अनगिनत स्वप्न संजोए

विवाहोपरांत राम संग विदा हुई

परन्तु माता कैकेयी के कहने पर

तुमने पति का साथ निभाने हेतु

चौदह वर्ष के लिए वन गमन किया

नंगे पांव कंटकों पर चली

और नारी जगत् का आदर्श बनी

 

परन्तु रावण ने

छल से किया तुम्हारा अपहरण

अशोक वाटिका में रही बंदिनी सम

अपनी अस्मत की रक्षा हित

तुम हर दिन जूझती रही

तुम्हारे तेज और पतिव्रत निर्वहन

के सम्मुख रावण हुआ पस्त

नहीं छू पाया तुम्हें

क्योंकि तुम थी राम की धरोहर

सुरक्षित रही वहां निशि-बासर

 

अंत में खुशी का दिन आया

राम ने रावण का वध कर

तुम्हें उसके चंगुल से छुड़ाया

अयोध्या लौटने पर दीपोत्सव मनाया

 

परन्तु एक धोबी के कहने पर

राम ने तुम्हें राजमहल से

निष्कासित करने का फरमॉन सुनाया

लक्ष्मण तुम्हें धोखे से वन में छोड़ आया

 

तुम प्रसूता थी,निरपराधिनी थी

राम ने यह कैसा राजधर्म निभाया…

वाहवाही लूटने या आदर्शवादी

मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाने के निमित्त

भुला दिया पत्नी के प्रति

अपना दायित्व

 

सीता! जिसने राजसी सुख त्याग

पति के साथ किया वन-गमन

कैसे हो गया वह

हृदयहीन व संवेदनविहीन

नहीं ली उसने कभी तुम्हारी सुध

कहां हो,किस हाल में हो?

 

हाय!उसे तो अपनी संतान का

ख्याल भी कभी नहीं आया

क्या कहेंगे आप उसे

शक्की स्वभाव का प्राणी

या दायित्व-विमुख कमज़ोर इंसान

जिसने अग्नि-परीक्षा लेने के बाद भी

नहीं रखा प्रजा के समक्ष

तुम्हारा पक्ष

और अपने जीवन से तुम्हें

दूध से मक्खी की मानिंद

निकाल किया बाहर

 

क्या गुज़री होगा तुम पर?

उपेक्षित व तिरस्कृत नारी सम

तुमने पल-पल

खून के आंसू बहाये होंगे

नासूर सम रिसते ज़ख्मों की

असहनीय पीड़ा को

सीने में दफ़न कर

कैसे सहलाया होगा?

कैसे सुसंस्कारित किया होगा

तुमने अपने बच्चों को…

शालीन और वीर योद्धा बनाया होगा

 

अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा पकड़ने पर

झल्लायी होगी तुम लव कुश पर

और उनके ज़िद करने पर

पिता-पुत्र के मध्य

युद्ध की संभावना से आशंकित

तुमने बच्चों का

पिता से परिचय कराया होगा

‘यह पिता है तुम्हारे’

कैसे सामना किया होगा तुमने

राम का उस पल?

 

बच्चों का सबके सम्मुख

रामायण का गान करना

माता की वंदना करना

और अयोध्या जाने से मना करना

देता है अनगिनत प्रश्नों को जन्म

 

क्या वास्तव में राम

मर्यादा पुरुषोत्तम

सूर्यवंशी आदर्श राजा थे

या प्रजा के आदेश को

स्वीकारने वाले मात्र संवाहक

निर्णय लेने में असमर्थ

कठपुतली सम नाचने वाले

जिस में था

आत्मविश्वास का अभाव

वैसे अग्नि-परीक्षा के पश्चात्

सीता का निष्कासन

समझ से बाहर है

 

गर्भावस्था में पत्नी को

धोखे से वन भेजना…

और उसकी सुध न लेना

क्या क्षम्य अपराध है?

राम का राजमहल में रहते हुए

सुख-सुविधाओं का त्याग करना

क्या सीता पर होने वाले

ज़ुल्मों व अन्याय की

क्षतिपूर्ति करने में समर्थ है

 

अपनी भार्या के प्रति

अमानवीय कटु व्यवहार

क्या राम को कटघरे में

खड़ा नहीं करता

प्रश्न उठता है…

आखिर सीता ने क्यों किया

यह सब सहन?

क्या आदर्शवादी.पतिव्रता

अथवा समस्त महिलाओं की

प्रेरणा-स्रोत बनने के निमित्त

 

आज भी प्रत्येक व्यक्ति

चाहता है

सीता जैसी पत्नी

जो बिना प्रतिरोध व जिरह के

पति के वचनों को सत्य स्वीकार

गांधारी सम आंख मूंदकर

उसके आदेशों की अनुपालना करे

आजीवन प्रताड़ना

व तिरस्कार सहन कर

आशुतोष सम विषपान करे

पति व समाज की

खुशी के लिये

कर्तव्य-परायणता का

अहसास दिलाने हेतु

हंसते-हंसते अपने अरमानों का

गला घोंट प्राणोत्सर्ग करे

और पतिव्रता नारी के

प्रतीक रूप में प्रतिष्ठित हो पाए।

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #4 ☆ शब्द तुम मीत मेरे ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  शिक्षाप्रद लघुकथा  शब्द तुम मीत मेरे”।

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – #4  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ शब्द तुम मीत मेरे 

 

शब्द तुम मीत मेरे

शब्द में

छुपे अर्थ सारे

मैं कहती जाऊं

तुम सुनते जाना

शब्द मेरे तुम सो न जाना

नहीं कहूंगी कुछ भी व्यर्थ

तुम खोना न शब्द अपने अर्थ

शब्द बढ़ते ही जाएंगे

सागर नदिया पार लगाएंगे।

 

आएंगे शब्द

इतिहास ग्रंथों से

वे आएंगे तरह तरह के रूप में

बदलेंगे अपना वेश

जाना चाहेंगे देश-देश

पहनेंगे अपनत्व का जामा

बढ़ाएंगे दोस्ती का हाथ

जब उन्हें मिल जाएंगे

अपने शब्दों के अर्थ

तब वे तुम्हें पहचानेंगे नहीं

रख देंगे कुचलकर

तुम्हें बता दिया जाएगा

देश और समाज का दुश्मन

होशियार हो जाओ

शब्द तुम …..

 

चारों ओर घेरा है गिद्ध का

उपदेश सही है बुद्ध का

शब्दों को सही चुनों

बोलने से पहले गुनों

शब्द तुम…….

 

© डॉ भावना शुक्ल

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ पुष्प सहावे #6 ☆ पावसाचे मुक्त चिंतन. . .  समाज पारावरून . . . ! ☆ – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

 

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक,  सांस्कृतिक  एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं  ।  अब आप प्रत्येक शुक्रवार को उनके मानवीय संवेदना के सकारात्मक साहित्य को पढ़ सकेंगे।  आज इस लेखमाला की शृंखला में पढ़िये “पावसाचे मुक्त चिंतन. . .  समाज पारावरून . . . !” ।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – पुष्प सहावे  #-6 ☆

 

☆ पावसाचे मुक्त चिंतन. . .  समाज पारावरून . . . ! ☆

 

आला पाऊस पाऊस

तन मन भुलवीत

पानाफुलांचा पिसारा

आनंदाने फुलवीत . . . !

 

अनादी अनंत काळापासून या पावसाने वेड लावले आहे. संपूर्ण चराचर व्यापून टाकणारा हा पाऊस तन  आणि मनावर  अधिराज्य गाजवतो. प्रतिक्षा करायला लावणारा हा पाऊस  आल्यावर मात्र तनामनावर मोहिनी घालतो.

पावसाची नऊ नक्षत्रे वजा केली तर बाकी शून्य उरते. . . . बिरबलाची ही चातुर्य बुद्धी विचार करण्यासारखी आहे.  आपला भारत देश हा शेती प्रधान देश आहे.  यामुळे पावसावर आपले सारे भवितव्य अवलंबून आहे. हा पाऊस डोळ्यातले पाणी  आनंदाश्रू त परीवर्तित करतो.  स्नेह, प्रेम, आपुलकी, जिव्हाळा, माया, ममता सा-या भावनांचा  एक थेंब माणसाला माणुसकीचे नाते जोडायला पुरेसा ठरतो.

माणूस जेव्हा  एकटा  असतो ना तेव्हा  अनेक ताणतणाव, चिंता, काळजी, क्लेश, उलट सुलट विचार यांनी स्वतःच वादाच्या भोवऱ्यात  अडकतो. प्रश्नांचे  आवर्त चक्रीवादळाप्रमाणे मनात घोंघावत  असताना कुणीतरी येतो, केलेल्या कामाची पावती देतो,  अपयश आले  असल्यास धीरान परीस्थिती हाताळण्याचा सल्ला देतो तेव्हा ही व्यक्ती देवदूत वाटते. तिन दिलेला दिलासा मनाला  उभारी देतो. मन मोकळे होते. जाणिवा नेणिवांच्या मोकळ्या  अवकाशात सृजनशील विचारांची पेरणी  आपल्याला  आपल्या ध्येयाकडे घेऊन जाते.

समाजपारावर बारमाही बरसणार्‍या प्रापंचिक तक्रारी या मोसमात दूर होतात.  आषाढ महिन्यात पावसाचे आगमन चराचराला चैतन्य बहाल करून जाते. हिरवा शालू  धरतीला सुजलाम सुफलाम करून जातो. बळीराजान केलेल्या कष्टाच सार्थक होत. पाण्याने भरलेले ढग  असो,  किंवा भरून  आलेले मन  असो बरसून गेल्यावरच बरे वाटते.

गरमागरम चहा, कॉफी, किंवा गरमागरम भजी पावसाळ्यात त्याचा  आस्वाद घेण्याची लज्जत  अवर्णनीय आहे.  पाऊस हा शब्दच मनात चलबिचल सुरू करतो. पावसाळ्यात भिजण्याची मजा  आणि पावसाच्या पाण्यात भिजवून ठेवलेला ताणतणाव माणसाला माणूस करतो. स्नेहाचा  ओलावा भावभावना सांभाळून  एकमेकाच्या काळजात रूजतो आणि सुखसमृद्धीची सुगी आकारास येते.

हा पाऊस खर तर प्रत्येकाच्या जिव्हाळ्याचा विषय.  टाळताही येत नाही  अन सांगताही येत नाही  असा विषय. तरीही हा पाऊस प्रत्येक जण आपापल्या परीने  अनुभवीत रहातो.  आबाल वृद्धांना आकर्षित करणारा हा पाऊस कवी, कवयित्री चे हळवे व्यासपीठच. मनातल्या भाव भावना शब्दात व्यक्त करताना  आठवणींच्या सरी झरू लागतात आणि साहित्य जन्माला येते. सारे शब्दालंकार व नवरस घेऊन शब्द सरी कोसळत असताना माणूस व्यक्त होतो. कलाकार आणि रसिक एकमेकांना भेटण्याचा हा सोहळा  आकाश  आणि धरतीच्या मिलना इतकाच सुंदर, पवित्र  आणि शब्दातीत आहे.

कथा, कादंबरी, कविता, लेख, नाटक यातून बरसणार्‍या  पावसाने शारदीय  सारस्वतात  अनोखे दालन निर्माण केले आहे. बालकविता पावसाशिवाय अपूर्णच आहेत. पाऊसावर कविता न करणारा कवी, कवयित्री जसे दुर्मीळच तसाच पाऊस न आवडणारी, पावसात न भिजलेली व्यक्ती दुर्मीळच.

सृष्टी चक्रात महत्त्व पूर्ण  असलेला हा पाऊस  अतीवृष्टी आणि दुष्काळ  या दोन्ही रूपातून दर्शन देतो. त्याला हवा तेव्हा येतो. हवा तसा कोसळतो. चराचरात सामावतो. माणसाच्या मनात  आणि निसर्गाच्या कणाकणात सामावणारा पाऊस समाज पारावर असाच चघळत रहावा कधी चेष्टेतून, कधी नाष्ट्यातून  तर कधी सुजलाम सुफलाम  अशा शेतीप्रधान राष्टातून.

 

मेघ नभीचे मनी दाटले

झालो मी साकार.

नभवलयी या शब्दपाखरे

दिसती काव्याकार. . . !

 

ये कविते ये,  अलगद  ओठी

स्थान तुझे स्विकार. . . . !

 

नभवलयी या ,ऋतू पाखरे

करती स्वैराचार .

झाड  होऊनी थांब नभी तू

सृजन ते स्विकार. . . . !

 

ये कविते ये,  अलगद  ओठी

स्थान तुझे स्विकार. . . . !

 

नभवलयी या, रंग फुलांचे

प्रतिभेचा दरबार.

कुंचल्यातुनी रंगव सारे

मनातले सरकार. . . !

 

ये कविते ये,  अलगद  ओठी

स्थान तुझे स्विकार. . . . !

 

नभवलयी या पाऊस धारा

अपुली जीवनाधार

देण्या जीवन कृष्ण घनातून

घे नवा अवतार. . . . !

 

ये कविते ये,  अलगद  ओठी

स्थान तुझे स्विकार. . . . !

 

✒  © विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकारनगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #4 ☆ भूखे भजन न होय गोपाला ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “भूखे भजन न होय गोपाला”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – #4 ☆ 

 

☆ भूखे भजन न होय गोपाला ☆

 

शास्त्रीय संगीत, सुगम संगीत और लोक संगीत के रूपों में भारतीय संगीत की विवेचना की जाती है.  सुगम संगीत की एक शैली भजन है जिसका आधार शास्त्रीय संगीत या लोक संगीत होता है. उपासना की प्रायः भारतीय पद्धतियों में भजन को साधन के रूप में  प्रयोग किया जाता है. जलोटा जी ने भजन के माध्यम से धन, नाम एश्वर्य और जसलीन सहित दो चार और पत्नियो का प्रेम पाकर अंततोगत्वा  बिग बास के घर को अपना परम गंतव्य भले ही बनाया है पर इसमें दो राय नही हैं कि उनके स्वरो के जादू से कई मंदिरो में युगो युगो तक कई साधको को परमात्मा प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता रहेगा.

भजनं नाम रसनं, भजन का अर्थ होता है स्वाद लेना, ‘भजनं नाम आस्वादनम’ मतलब याद करके आनंद लेना भी भजन का ही एक प्रकार है. भजन का गूढ़ अर्थ होता है,  प्रीति पूर्वक सेवा.  प्रीति मन से होती है. यह और बात है कि कौन कहाँ मन लगाता है.

चाहे हाथ से पूजा करें, चाहे पाँव से प्रदक्षिणा करें, चाहे जीभ से स्तुति करें, चाहे साष्टांग दण्डवत करें और चाहे मन में ध्यान करें,  भजन दरअसल प्रीति है.  प्रीति का व्यापक अर्थ होता है तृप्ति. मंदिर मंदिर, तीरथ तीरथ भ्रमण, भगवान् के नाम, धाम, रूप, भगवान की लीला, भगवान की सेवा, भगवान के दर्शन से जो आत्मिक शांति और तृप्ति मिलती है वही भजन है. नेता जी तीर्थ करवा कर वोट लेने को  ही भजन मानते हैं . चमचे नेता जी को दण्डवत कर उन्हें ही अपना इष्ट मानते हैं. सबके अपने अपने देवता होते हैं.

“संभोग से समाधि तक” लिखकर दार्शनिक चिंतक रजनीश ने इसी तृप्ति से भगवान को अनुभव करने की विशद व्याख्या की है और वे सारी दुनियां में चर्चित रहे. रजनीश ने भी कोई नई विवेचना नही की थी, खजुराहो के मंदिरों की दार्शनिक विवेचना की जाये तो यही समझ आता है कि परमात्मा तो भीतर है, बाहर वासना है. काम, क्रोध, को बाहर छोड़कर मंदिर के छोटे दरवाजो से जब,  आत्म सम्मान को त्याग सर झुकाकर हम अंदर प्रवेश कर पाते हैं तभी हमें भीतर भगवान की प्राप्ति हो पाती है. जिसने ऐसा कर लिया वह ज्ञानी, वरना सब अहंकारी तो हैं ही.

गजल भी मूलतः खुदा की इबादत में कही जाती थी, शायर खुदा के प्रेम में ऐसा तल्लीन हो जाता है कि न भिन्नं, माशूका से  एकाकार होने जैसा एटर्नल  लव  गजल को जन्म देता.  कालान्तर में परमात्मा से यह एकात्म किंचित वैभिन्य का स्वरूप लेता गया और अब गजल बिल्कुल नये प्रयोगो से गुजर रही है. रब से शराब की गजल यात्रा शबाब के सैलाब से गुजर रही है.

कृष्ण और राधा के एटर्नल लव के कांसेप्ट से हम ही नहीं पाश्चात्य जगत भी असीम सीमा तक प्रभावित है, इस्कान के मंदिरो में भारतीय पोशाक में विदेशियो की भीड़ वही आत्मिक प्रेम ढ़ूंढ़ती नजर आती है. किसी को प्रेम मिलता है किसी को भगवान, किसी को जसलीन तो कोई राधा के चक्कर रुक्मणी में ही उलझ जाता है.

यू दीवाने हमेशा से उलटी ही राह चलते हैं. वे सनम के दीदार के लिये आंखो को बंद करते हैं. जरा नजरो को झुकाते हैं और हृदय में देख लेते हैं अपने आशिक को. जिसने राधा भाव से इस आशिकी में कृष्ण के दर्शन कर लिये वह संत हो जाता है, वरना मेरे आप की तरह लौकिक प्रेम के भौतिक प्रेमी हाड़ मांस में ही परम सुख ढ़ूढ़ते जीवन बिता देते हैं. और यही कहते रह जाते हैं कि मय्या मोरी मैं नहीं माखन खायो. वास्तव में “मेरे मन में राम मेरे तन में राम, रोम रोम में राम रे” होते तो हैं पर उन्हें ढूँढकर मन मंदिर में बसा सकना ही भजन का वजन है.

कोई सफेद चोंगे में चर्च में भगवान की जगह नन ढूँढ लेता है कोई भगवा में भक्तिनों को धोखा देता है, कोई बुर्के को तार तार कर रहा है जन्नत की जगह, भगवान करे सबको उनके लक्ष्य ही मिले.

जैसे बच्चा माँ के बिना, प्यासा पानी के बिना रह नहीं सकता, ऐसे ही जब हम भगवान के बिना रह न सकें तो इस प्रक्रिया का ही नाम भजन होता है. करोड़पति पिता से कुछ हजार रूपये ले अलग होकर बेटा  पिता की सारी सत्ता से जैसे वंचित रह जाता है ठीक उसी तरह परम पिता भगवान से कुछ माँगना उनसे अलग होना है, उनसे एकात्म बनाये रहने में ही हम भगवान की सारी सत्ता के हिस्से बने रह सकते हैं. परमात्मा में विलीन होना ही जीवन मरण के बंधन से मुक्ति पाना है. बच्चा  माँ पर अधिकार अपनेपन से करता है, तपस्या, सामर्थ्य या योग्यता से नहीं, तपस्या से सिद्धि और शक्ति भले ही प्राप्त हो जावे प्रेम नहीं मिल सकता. निष्काम होने से मनुष्य मुक्त, भक्त सब हो जाता है. भगवान के साथ सम्बन्ध रखें तो सांसारिक कामनायें स्वतः ही शांत हो जाती हैं. यह भजन का वजन है. संसार में आसक्ति का अर्थ है, भगवान में वास्तविक प्रेम की अनुभुति का अभाव.  पर यह सत्य जानकर भी   अधिक  समझ नही पाते।

जो भी हो पर हम आप जो रोटी कपड़ा और मकान के चक्कर में ही आजीवन उलझे रह जाते हैं,  वे बेचारे आम आदमी भगवान को पाने के चक्कर में कईयो को राम रहीम और आशाराम बना देते है, किसी को जसलीन ले जाते देखते है तो कोई  रामरहीम बेटी बोलकर बोटी चबाते मिलता है ।

जनता के लिए “भूखे भजन न होय गोपाला” का सिद्धांत और सवाल ही सबसे बड़ा बना रह जाता है. लेकिन, जिस दिन लगन लग जायेगी मीरा  मगन हो जायेगी यही भजन का वास्तविक वजन है.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #6 ☆ सिंदूर ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा “सिंदूर”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #6 ☆

 

☆ सिंदूर ☆

 

मोहन ने सभी तरह के प्रयास किए, मगर मोहनी उस के जाल में नहीं फंसी.

“आप से दस बार कह दिया कि मैं अपने पति रमण जी के अलावा किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकती हूँ.”

मोहन भी पूरा जिद्दी था.  “आप चाहे जो सोचे. मगर एक बार मेरे नाम की ही सही.  एक चीज आप को पहनना ही पड़ेगी. हम आप से प्रेम करते है .”

मगर मोहनी ने कभी कोई चीज नहीं ली.

वही मोहन आज उज्जैन से आया था.  ” लीजिए रमण जी ! आप ने उज्जैन की प्रसिद्ध चीज – यह सिंदूर मंगाया था.”

“अरे हाँ , मोहन जी लाइए.” कह कर रमण ने सिंदूर अपनी पत्नी मोहनी को पकड़ा दिया.

मोहनी के तन-मन में आग लग गई,” नहीं चाहिए मुझे सिंदूर,” कहते हुए मोहनी चीख उठी और सिंदूर की डिब्बी जोर से एक और फेंक दी.

सिंदूर की डिब्बी सीधे मोहन के शरीर पर गिरी और वे पूरे लाल हो गए. मानो वे मोहनी के क्रोध में नहा गए हों .

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 6 – सांजवारा ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं। अब आप श्री सुजित जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – सुजित साहित्य” के अंतर्गत  प्रत्येक गुरुवार को  पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  “सांजवारा”)

 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #6☆ 

 

☆ सांजवारा☆ 

 

अताशा अताशा जगू वाटते

तुझा हात हाती धरू वाटते.

 

नदीकाठ सारा खुणा बोलक्या

तुझ्या सोबतीने फिरू वाटते.

 

किती प्रेम आहे,  नको सांगणे

तुझी भावबोली,  झरू लागते.

 

कितीदा नव्याने तुला जाणले

तरी स्वप्न तुझे बघू वाटते.

 

छळे सांजवारा,  उगा बोचरा

नव्याने कविता,  लिहू वाटते. . !

 

© सुजित कदम, पुणे 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – #5 – छोटा मुंह बड़ी बात….. ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में प्रस्तुत है एक ऐसी  ही शिक्षाप्रद लघुकथा  “छोटा  मुँह बड़ी बात….. ”।)

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – #5 ☆

 

☆ छोटा मुँह बड़ी बात….. ☆

 

पांच वर्षीय मेरा चुलबुला पोता दिव्यांश स्कूल व अपने गृहकार्य के बाद अधिकांश समय मेरे कमरे में ही बिताता है। कक्ष में बिखरे कागज व पत्र-पत्रिकाएं ले कर पढ़ने का अभिनय करते हुए बीच-बीच में वह मुझसे कुछ-कुछ पूछता भी रहता है।

आज दोपहर फिर एक पत्रिका खोल कर पूछता है — “दादू ये क्या लिखा है? ये वाली कविता पढ़कर मुझे सिखाओ न दादू! ये कविता भी आपने ही लिखी है न ?”

“नहीं बेटू–ये मेरी कविता नहीं है।”

“फिर भी आप पढ़ कर सुनाएं मुझे।””

टालने के अंदाज में मैंने कहा- “बेटू जी आप ही पढ़ लो, आपको तो पढ़ना आता भी है।”

“नहीं दादू! मुझे अच्छे से नहीं आता पढ़ना। आप ही सुनाइए।”

“इसीलिए तो कहता हूँ बेटे कि, पहले खूब मन लगा कर अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी कर लो, फिर बड़े हो कर अच्छे से कविताएं पढ़ना और सब को सुनाना भी।”

बड़े हो कर नहीं दादू! मुझे तो अब्बी छोटे हो कर ही कविता पढ़ना और सुनाना भी है, आप तो पढ़ाइए ये कविता।”

“आपसे सीख कर अभी छोटा हो कर ही कविता सुनाते-सुनाते फिर जल्दी मैं बड़ा भी हो जाऊंगा”।

पोते को कविता पढ़ाते-सुनाते हुए मैं खुश था, आज उसने अपनी बाल सुलभ सहजता से  जीवन में बड़े होने का एक सार्थक  सूत्र  मुझे दे दिया था।

“छोटे हो कर कविता सुनाते-सुनाते बड़े होने का।”

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात #6 – रिमझिम के तराने ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात”  में  उनकी  वर्षा ऋतु से संबन्धित कवितायें और उनसे जुड़ी हुई यादें। निःसन्देह यादें विस्मरणीय होती हैं किन्तु,  मैं विस्मित हूँ!  सुश्री प्रभा जी के पास तो वर्षा ऋतु से संबन्धित कविताओं के संस्मरणों का एक इतिहास है १९७८ से लेकर सतत प्रकाशित रचनाएँ, मानधन, अग्रज साहित्यकारों का स्नेह और पाठकों का सम्मानधन । प्रत्येक रचना के साथ कुछ न कुछ तो जुड़ा ही है। उन्होने इस सुदीर्घ साहित्यिक अविस्मरणीय इतिहास को सँजो कर रखा और हमारे पाठकों के साथ साझा किया इसके लिये उनका आभार और लेखनी को नमन।

उनके अविस्मरणीय स्वर्णिम संस्मरणों के प्रति उनके विचारउनके ही शब्दों में –

“ पाऊस खुप आवडता ऋतू, आयुष्यातल्या अनेक पावसाळ्यांच्या अनेक आठवणी …..मागच्या पावसाच्या आठवणी जाग्या झाल्या  त्या आजच्या  # *कवितेच्या प्रदेशात*  मध्ये सादर करते….” – प्रभा सोनवणे

अब आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं । )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 6 ☆

 

 ☆ रिमझिम के तराने ☆

 

पावसाळ्यात  पावसाच्या कवितांना  उधाण येतं! अनेक संस्थां वर काम करत असताना, जुलै  ऑगस्ट मधे  पावसाच्या कवितांचे  आयोजन केले आहे.

परवा स्वतःच्या पावसाच्या  कविता  एकत्र वाचल्या आणि किती तरी पावसाळे आठवले.

माझ्या *अनिकेत* या संग्रहातील कवितांमधून पावसाच्या कविता निवडायला सुरुवात केली. हा माझा १९७८ पासून चा पाऊस आहे.

ही कविता १९८० साली  *स्वराज्य* साप्ताहिकात सचित्र प्रकाशित झाली होती आणि या कवितेचे दहा रूपये मानधन ही मिळाले होते. ती ही कविता–

 

*सखी मेघ बरसती रिमझिम रिमझिम*

*जणू छेडते कुणीतरी सुरेल सरगम*

          (*अनिकेत*-   बालमैत्रिणीस)

 

त्याच काळात लिहिलेली ही पुढची रचना-

 

*रिमझिम बरसली धारा*

*अंगाला झोंबे वारा*

(*अनिकेत* –गीत )

 

*पाऊस असा पाऊस तसा*

*पाऊस आहे कसा कसा* ?

 

ही आणि पुढच्या ब-याच रचना  अनिकेत मधल्या च आहेत. पाऊस शिर्षकाची ही कविता पहिल्यांदा टिळक स्मारक मंदिरात सादर केली तेव्हा कविसंमेलनाचे अध्यक्ष-न.म.जोशी  यांनी या कवितेचं कौतुक केलं होतं.

दुसरी  एक गोष्ट या कवितेच्या बाबतीतली अशी की,या कवितेची चोरी झाली होती.

माझी *सखी* ही कविता मला टीव्ही वर चा सिनेमा पहाताना झालेली… टीव्ही वर *तुमसा नहीं देखा* हा लागला होता..मी शाळेत असताना पाहिला होता….शाळेचे दिवस आठवले आणि ही कविता  जन्माला आली

 

*आयुष्यातचं पुस्तक  उघडलं की*

*पहिल्यांदा तू सामोरी येतेस*

*तुझा नितळ सावळा रंग*

*दाटलेल्या मेघाला सारखा*..

*बरसत रहातो पुस्तकभर*  !

 

यानंतर ची अष्टाक्षरी रचना ही याच मैत्रिणी वर केलेली..अकाली हे जग सोडून गेलेली ती….

 

*मेघ बरसला  आज*

*आल्या श्रावणाच्या सरी*

*तुझी आठवण येता*

*झाले कावरी बावरी*

 

ही कविता मी १९९२ साली लिहिली. आणि मैत्रिणी ला वाचून दाखवत असताना तिथे तिच्या बिल्डींग मधे रहाणारी अमराठी-पंजाबी शीख मुलगी आली होती. त्यानंतर ती पंजाबी मुलगी मला पंधरा सोळा वर्षांनी रस्त्यात भेटली..तेव्हा ती म्हणाली, “मुझे  आपकी कविता आज तक याद है जिसमे  आपने लिखा था, मेरी पाजेब कुछ बोल नही रही है”!

इतकी सुंदर दाद ऐकून मी अवाकच झाले….ते शब्द  असे आहेत….

 

*मेघ बरसला आज*

*सखे रिकामे अंगण*

*मुके झाले आहे आज*

*माझ्या पायीचे पैंजण*

आषाढात ब्रह्मकमळं उमलतात… माझी *ब्रह्मकमळ* ही एका आषाढातली ख-याखु-या घटनेची कविता. या कवितेला मला साहित्य प्रेमी भगिनी मंडळाचा कवी कालिदास पुरस्कार मिळाला होता आणि *आपले छंद* या अतिशय सुंदर दिवाळी अंकात ती प्रकाशित झाली होती आणि त्या काळात – वीस वर्षा पूर्वी या कवितेला मला दोनशे रुपये मानधन मला मिळाल॔ होतं  …

*रिमझिमत्या शीतल सांजेला*

*त्या राजस कळ्या*

*उघडू लागल्या चोची*

*जणू  आषाढ मेघांच्या*

*अमृत सरीच प्राशण्यासाठी* !

( *मृगचांदणी*- ब्रह्मकमळ )

 

एका पावसाळी संध्याकाळी बालगंधर्व च्या कट्ट्यावर मैत्रिणी बरोबर गप्पा मारत बसलो होतो. नंतर रविराज मध्ये जेवायला जायचं होतं! घरी जाताना रिक्षा डेक्कन काॅज वे वरून गेली. काही जुन्या आठवणी जाग्या झाल्या…. आणि रात्री कागदावर शब्द बरसले….

 

*सखे,निमित्त फक्त*

*आपल्या गाठी भेटीचे*

*पण आपल्या मनातला*

*पाऊस मात्र* ,

*किती वेगळा* ….

*तुझा तुझ्या पुरता*..

*माझा माझ्या पुरता*..

 

माझी “पाऊस प्रतिक्षा” ही कविता प्रेयसी चं हळवं दुःख सांगणारी..मला स्वतःला माझी ही कविता खुप आवडते…

 

*मी साधू पाहतेय संवाद* –

*पावसाशी*…  *तुझ्या शी*….

*आणि ऐकते  आहे*

*मोबाईल मधून येणारे*…

*नाॅट रिचेबल*….

*नाॅट रिचेबल*..

*हे उत्तर*….     *वारंवार*!

 

पावसाच्या काही गजल ही मी लिहिल्या आहेत. मृगाक्षी वृत्तातील या गजल च्या दोन  शेरांनी समारोप करते…

 

*किती दुष्काळ सोसावा धरेने*

*अता बरसायचे  आहे जरासे*

*मला या वेढती लाटा सुनामी*

*मरण टाळायचे  आहे जरासे*

( *मृगचांदणी*-जरासे )

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पुणे – ४११०११

मोबाईल-9270729503

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #6 गौरव ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं  उनकी  एक भावुक एवं मार्मिक  लघुकथा  “गौरव ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 6 ☆

 

☆ गौरव ☆

 

माता पिता ने अपने इकलौते बेटे का नाम रखा गौरव।

मां हमेशा कहती बेटा जैसा नाम रखा है, वैसा कुछ काम करना। बस छोटे से बाल मन में ये बात घर कर गई थीं।

धीरे-धीरे बड़ा हुआ गौरव।  गौरव ने बारहवीं कक्षा अच्छे नम्बरों से पास करने के बाद देश सेवा में जाने की इच्छा बताया। आर्मी बटालियन का पेपर, फिर ट्रेनिंग के बाद सिलेक्शन हो गया। और एक दिन बाहर बार्डर पर तैनात हो गया।

हमेशा मां की बात मानने वाला गौरव भारत माँ की निगरानी, रक्षा करते नहीं थकता था। माँ  शादी की बात करने लगी। वह हँस कर कहता मुझे अभी भारत माता की सेवा करनी है। माता-पिता भी कुछ न कहते।

एक दिन सुबह सब कुछ अनमना सा था। माँ को समझ नहीं आ रहा था। दरवाजे पर एक सिपाही आया देख पिता जी बाहर आकर पूछे क्या बात हैं? उसने बड़े ही दर्द के साथ बताया कि गौरव भारत मां की रक्षा करते शहीद हो गया।

माँ समझ गई। रो रो कर कह उठी “मेरा गौरव मेरी बात का इतना बड़ा मान रखेगा।  मैं जान न सकी। गौरव इतना महान बनेगा।” माँ का रूदन रूक ही नहीं रहा था।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #6 – अपहरणाचा बळी ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है ।  साप्ताहिक स्तम्भ  अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है एक भावप्रवण  कविता  “ अपहरणाचा बळी ”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 6 ☆

? अपहरणाचा बळी ?

 

डोळ्यांचा या ओला पडदा वाळत नाही

माझा जिवलग सूर्य मजवरी भाळत नाही

 

गळून पडली दोऱ्या मधली फुले सुगंधी

कुणीच दोरा गजरा म्हणुनी माळत नाही

 

वाऱ्याने या सुगंध सारा पसार केला

वाऱ्यावरती कुणी ठेवली पाळत नाही

 

प्रेमग्रंथ हा जीर्ण जाहला तरी चाळते

तुझ्या वेदना आता मजला जाळत नाही

 

स्नान कराया पाप पोचले गंगेकाठी

गंगा करते पवित्र त्याला टाळत नाही

 

अपहरणाचा बळी आजही होते सीता

तरी कुणीही लंका आता जाळत नाही

 

गोठुन गेल्या का लोकांच्या सर्व भावना ?

कुणी आसवे आता येथे ढाळत नाही

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

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