हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 98 – लघुकथा – प्रेम का सुख ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  लघुकथा  “प्रेम का सुख।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 98 ☆

☆ लघुकथा — प्रेम का सुख ☆ 

” इतनी खूबसूरत नौकरानी छोड़कर तू उसके साथ।”

” हां यार, वह मन से भी साथ देती है।”

” मगर तू तो खूबसूरती का दीवाना था।”

” हां। हूं तो?”

” तब यह क्यों नहीं,”  मित्र की आंखों में चमक आ गई, ” इसे एक बार……”

” नहीं यार। यह पतिव्रता है।”

” नौकरानी और पतिव्रता !”

” हां यार, शरीर का तो कोई भी उपभोग कर सकता है मगर जब तक मन साथ ना दे…..”

” अरे यार, तू कब से मनोवैज्ञानिक बन गया है?”

” जब से इसका संसर्ग किया है तभी समझ पाया हूं कि इसका शरीर प्राप्त किया जा सकता है, मगर प्रेम नहीं। वह तो इसके पति के साथ है और रहेगा।”

यह सुनकर मित्र चुप होकर उसे देखने लगा और नौकरानी पूरे तनमन से चुपचाप रसोई में अपना काम करने लगी।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

18-08-2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 79 ☆ जोड़ तोड़ की जद्दोजहद ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “जोड़ तोड़ की जद्दोजहद”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 79 – जोड़ तोड़ की जद्दोजहद 

लक्ष्य प्राप्ति के लिए आगे बढ़ते समय दो प्रश्न हमेशा ही मन में कौंधते हैं कि ऐसी क्या वजह है कि हम जोड़ने से ज्यादा तोड़ने पर विश्वास करते हैं। क्यों नहीं सकारात्मक कार्यों में जुट कर कुछ अच्छा व सार्थक करें पर नहीं हमें तो सब पर अपना आधिपत्य जमाना है सो हमारे हाथ में उन लोगों की लगाम कैसे आए यही चिंतन दिन रात चलता रहता है। ये भी अटल सत्य है कि जिस चीज को जी जान से चाहो वो तुरंत मिल जाती है पर क्या उसे पाने के बाद मन प्रसन्न होगा?

सबको साथ लेकर चलें, श्रेय लेने की कोशिश करने पर ही सारे विवाद सामने आते हैं। जब अपनी सोच एकदम स्पष्ट होगी तो विवाद का कोई प्रश्न नहीं उठेगा। गति और प्रगति के बीच की रेखा यदि स्पष्ट हो तो सार्थक परिणाम दिखाई देने लगते हैं। धीरे – धीरे ही सही जो लगातार चलता है वो विजेता अवश्य बनता है और यही तो उसके प्रगति की निशानी है। सबको साथ लेकर चलने पर जो आंनद अपनी उपलब्धियों पर मिलता है वो तोड़फोड़ करने पर नहीं आता। जो मजबूत है उसका सिक्का तो चलना ही है। बस नियत सच्ची हो तो वक्त बदलने पर भी प्रभाव कम नहीं होता है।

समझाइश लाल जी सबको समझाते हुये सारे कार्य करते और करवाते हैं किंतु जब उनकी बारी आती है तो समझदारी न जाने कहाँ तफरी करने चली जाती है। खुद के ऊपर बीतने पर क्रोध से लाल पीले होते हुए अनर्गल बातचीत पर उतर आते हैं। तब सारे नियमों को ध्वस्त करते हुए नयी कार्यकारिणी गठित कर लेते हैं। पुरानों को सबक सिखाने का ये अच्छा तरीका है।वैसे भी बोलने वालों  के  मुख पर लगाम कसना ही शासक का धर्म होता है। अनचाही चीजों को हटाने का नियम तो वास्तु शास्त्र में भी है। जो भी चीज अनुपयोगी हो उसे या तो किसी को दे दो या नष्ट कर देना चाहिए। कबाड़ कबाड़ी के पास ही शोभता है।

सबसे जरूरी बात ये है कि जब हम लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हैं तो रास्ते में बहुत सारे भ्रमित करने वाले चौराहे मिलते हैं किन्तु हमें लक्ष्य पर केंद्रित होते हुए सही दिशा को ही चुनना पड़ता है। भले ही वहाँ काँटे बिछे हों। चारो तरफ अपनी शक्ति को न बिखेरते हुए केवल और केवल लक्ष्य पर केंद्रित होना चाहिए। हाँ इतना जरूर है कि साधन और साध्य के चयन में ईमानदारी बरतें अन्यथा वक्त के मूल्यांकन का सामना करते समय आप पिछड़ जाएंगे। ये सब तो प्रपंच की बातें लगतीं हैं वास्तविकता यही है कि जहाँ स्वार्थ सिद्ध हो वहीं झुक कर समझौता कर लेना चाहिए। होता भी यही है, सारे दूरगामी निर्णय लाभ और हानि को ध्यान में रखकर किए जाते हैं ये बात अलग है कि वक्त के साथ व्यवहार बदलने लगता है आखिर मन का क्या है वो ऊबता बहुत जल्दी है और इसी जद्दोजहद में ऊट कब किस करवट बैठ जाए इसे केवल परिस्थिति ही तय करेगी।

 

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 88 ☆ सतरंगी दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  “सतरंगी दोहे”. 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 88 ☆

☆ सतरंगी  दोहे ☆ 

परहित से बढ़कर नहीं, जग में कोई धर्म।

परपीड़ा में जो हँसें, है वह पाप अधर्म।।

 

मन को अच्छा जो लगे, वो ही करिए आप।

लेकिन ऐसा मत करो, जिसमें हो संताप।।

 

मानव जीवन सफल हो, ऐसा कर लें काम।

खुशबू फैले फूल – सी, सुखद मिले परिणाम।।

 

जंगल में मंगल करें, प्रेम प्रीत श्रीराम।

जो सुमिरें भगवान को, बिगड़े बनते काम।।

 

योग करें मित्रो सदा, देता शुभ परिणाम।

तन – मन आनन्दित रहे, नहीं लगें कुछ दाम।।

 

कोरोना ने डस लिए, लाखों – लाखों प्राण।

श्रद्धा अर्पित मैं करूँ, ईश्वर कर कल्याण।।

 

निज कर्मों से हैं दुखी, रोग बढ़ाएं, क्लेश।

मानव रूपी जीव के, सर्पों के से वेश।।

 

कर्तव्यों से हैं विमुख, गया शील, व्यवहार ।

खड़ा – खड़ा नित देखता , कलियुग का संसार।।

 

डर से जीवन न चले, करें नित्य संघर्ष।

भेद मिटाएँ आपसी, करिए सदा विमर्श।।

 

तू – तू मैं – मैं त्यागिए , होगी शक्ति विनष्ट।

चैन छिने, दुख भी बढ़ें, बढ़ें सभी के कष्ट।।

 

रोना – धोना छोड़िए, मन करिए अनुकूल।

ईश्वर ने तो लिख दिए, मूल, शूल औ फूल।।

 

मुझमें निरी बुराइयाँ ,खोज रहा नित यार।

कोशिश मैं करता रहा, बाँटू जग में प्यार।।

 

चलता ही चलता चले, सुख – दुख यह मेल।

कभी पास हम हो गए , और कभी हम फेल।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 90 – गोष्ट..! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

? साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #90 ?

☆ गोष्ट..! ☆

 

माझा बाप

माझ्या लेकरांना मांडीवर घेऊन 

गावकडच्या शेतातल्या खूप गोष्टी सांगतो..

तेव्हा माझी लेकरं

माझ्या बापाकड हट्ट करतात

राजा राणीची नाहीतर परीची 

गोष्ट सांगा म्हणून तेव्हा..

बाप माझ्याकडं आणि मी बापाकड 

एकटक पहात राहतो

मला…

कळत नाही लेकरांना

कसं सांगाव 

की राजा राणीची आणि परीची 

गोष्ट सांगायला 

माझ्या बापान कधी अशी स्वप्न

पाहिलीच नाहीत..,

त्यान..

स्वप्न पाहिली ती फक्त..

शेतातल्या मातीची

पेरणीनंतरच्या पावसाची..,

त्याच्या लेखी 

नांगर म्हणजेच राजा 

अन् माती म्हणजेच राणी 

मातीत डोलणारी पिक म्हणजेच

त्यान जिवापाड जपलेली परी…,

 

© सुजित कदम

पुणे, महाराष्ट्र

मो.७२७६२८२६२६

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #110 – कविता – सहमी गौरैया बैठी है….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं समसामयिक विषय पर एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय कविता  “सहमी गौरैया बैठी है…..”। )

☆  तन्मय साहित्य  #110 ☆

☆ कविता – सहमी गौरैया बैठी है…..

(एक प्रयोग – न्यूज पेपर पढ़ते हुए बनी एक अखबारी कविता)

कॉन्फ्रेंस कौवों की मची हुई है

काँव-काँव की धूम

सहमी गौरैया बैठी है

एक तरफ होकर गुमसूम।

 

एक ओर सब्सिडी वाला

चालू है गिद्धों का भोज

बोनी-टोनी, ऊसी-पूसी

ताके-झाँके डगियन फ़ौज,

शाख-शाख पर रंग बदलते

गिरगिटिया नजरें मासूम

सहमी गौरैया बैठी है

मन मसोस होकर गुमसूम।

 

तोतों की है बंद पेंशन

बाजों के अपने कानून

निरीह कपोतों की गर्दन पर

इनके हैं निर्मम नाखून,

इधर बिके बिन मोल पसीना

उधर निकम्मों को परफ्यूम

सहमी गौरैया बैठी है

मन मसोस होकर गुमसूम।

 

जन सेवक बनकर शृगाल

जंगल में डोंडी पीट रहे

अमन-चैन में है जंगल अब

हँसी-खुशी दिन बीत रहे,

चकित शेर है देख, भेड़ियों के

सिर पर चंदन कुंकूम

सहमी गौरैया बैठी है

मन मसोस होकर गुमसूम।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ असहमत…! – भाग-9 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत  आत्मसात कर सकेंगे। )     

☆ असहमत…! भाग – 9 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

बेरोजगारी की लंबी रात के बाद उम्मीद की रोशनी की किरण नजर आई जब असहमत को एक प्राइवेट कंपनी में sales executive के लिये इंटरव्यू कॉल आया. परिवार के लोग खुश थे और असहमत पर बिन मांगी सलाहों की बौछार कर दी. असहमत अपने स्वभाववश उन्हें नजरअंदाज करता गया.  ऐसे समय पर जो भारतीय मातायें होती हैं वे वही करती हैं जो उनसे अपेक्षित होता है याने भगवान से प्रार्थना उनकी संतान की सफलता के लिये और I promise to pay की तर्ज पर सफल परिणाम आने के बाद मंदिर में लड्डू रूपी प्रसाद चढ़ाना.  जहाँ तक इंटरव्यू के लिये ड्रेस का सवाल था तो कोट का मौसम नहीं था तो उसे प्लेन लाईट कलर शर्ट, टाई, डार्क कलर पैंटऔर ब्लेक लेदर शूज़ पहनने के निर्देश दिये गये पिताजी की तरफ से.  पर जब असहमत इंटरव्यू देने कंपनी के ऑफिस पहुंचा तो उसने गर्मी के हिसाब से हॉफ शर्ट, लाईट कलर पेंट और बहुत लाइट वेट स्पोर्टिंग शूज़ पहन रखे थे.  कंठलंगोट याने टाई गायब थी पर असहमत इस लुक में बहुत सहज महसूस कर रहा था.  ऑटो से आने के कारण धूल और गर्म हवा से बचाव होना उसके मूड को खुश कर गया और हॉल में बैठे अनेक कैंडीडेट्स के साथ वो भी वेटिंग हॉल में बैठ गया. कंपनी के बारे में, पैकेज़ के बारे में और अनुमानित काम के बारे में लोग अपने अपने प्वाइंट रख रहे थे और असहमत ये सब सुनकर सिर्फ अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा था.  

आखिरकार उसका नंबर आ ही गया और वो उस चैंबर के बाहर खड़ा हो गया. जैसे ही कॉलबेल बजी, बाहर बैठे स्टॉफ ने उसे अंदर जाने का इशारा किया और असहमत धड़ाक से अंदर घुस गया.  उसके इस बैकग्राउंड साउंड के साथ प्रवेश ने साक्षात्कार बोर्ड के सदस्यों का ध्यानाकर्षित किया जो इंटरव्यू देकर गये व्यक्ति के बारे में डिस्कस कर रहे थे.  “कॉफी बाद में लाना पहले नेक्सट कैंडिडेट को भेज दो” ये सब शायद असहमत के पहनावा या प्रवेश प्रक्रिया का असर था जिससे असहमत बेअसर रहा और उसने निर्विकार रूप और निडरता से जवाब दिया “I am the one to be interviewed and I don’t mind to be interviewed on a cup of coffee”. ऐसा बंदा पाकर पूरा बोर्ड निहाल हो गया.  

यहां पर जो बोर्ड के ऑफीसर सवाल पूछेंगे, उन्हें अधि.  के नाम से लिखा जायेगा और असहमत का शार्ट फार्म अस.  लिखा जायेगा.

अधि.  You came here for an interview, not for a coffee and you should ask for permission to come in.

अस. May I take my seat and we can discuss such petty issues later.

अधि.Yes you can sit but mind your selection of words, it is an interview not a discussion with a high profile guest.

अस. Thanks and sorry for a seat and my selection of words. Now my answers will be “to the point and logical “

अधि.  What you are wearing is not fit to the occasion, you should wear formals.

असहमत :  My dress is neither formal nor casual but it is seasonal, I mean comfortable. Now let us come to the point if you don’t mind it Sir.

असहमत का ये इंटरव्यू शायद इतिहास में अपना अलग स्थान बनाने जा रहा था हालांकि जॉब मिलने की उम्मीद का ग्राफ हर जवाब के साथ नीचे जा रहा था.

बोर्ड के अधिकारियों की सोच बहुत पॉजीटिव थी और असहमत का व्यक्तित्व उन्हें चुनौती दे रहा था तो उन्होंने इस इंटरव्यू को अपने लिये एक चैलेंज माना कि ये अदना सा लड़का बोर्ड के सामने इस तरह की हिमाकत कैसे कर सकता है.

अधि. आपका नाम

अस.असहमत

अधि.पूरा नाम

अस.  यही है, घर, स्कूल, कॉलेज और अगर सफल हुआ तो ऑफिस में भी

अधि.  And do you think that your attitude of this size will get you a seat in our company.

अस.  Why not sir, my designation will be sales executive and attitude plays an important role in the field of marketing.

अधि.  How???

असहमत  People ie. my targeted hub will not be impressed by a meek and submissive personality. I will impress them to think out of box and take a innovative decision to invest in my product.

शायद बोर्ड के लिये ये बंदा असहमत नहीं बल्कि अनपेक्षित लगा तो दूसरे अधिकारी ने बॉलिंग का जिम्मा संभाला और बाउंसर डाली

अधि.  “Why you choose this company for employment “

अस. Because I got this interview call from your company only and I don’t have any other options.

अधि.  And why you think that we should select you when we have so many options.

असहमत: I know you have many but I am talented, fearless person with so many new ideas and believes in experimenting with my approach. This attitude may cost me some times but I am confident that gathering of you great people here is to select right and best person for the task.

पानी बोर्ड के सर से ऊपर जा रहा था पर ये पारंपरिक इंटरव्यू बोर्ड नहीं था बल्कि सदस्य भी नयेपन को खोज़ रहे थे तो बॉलिंग का जिम्मा तीसरे सदस्य को दिया गया.  

अधि.  : अच्छा मि. असहमत ये बतलाइये कि अगर आपके सेल्स प्रमोशन में आपकी स्पर्द्धा अमिताभ बच्चन, रनबीर, दीपिका और रणधीर से हो हालांकि ऐसा होगा तो बिल्कुल नहीं पर फिर भी अगर ऐसा हो  ही गया तो आप अपना प्रोडक्ट कैसे प्रमोट करेंगे.  

असहमत : ये तो कोई चैलेंज ही नहीं है  सर, पहले सज्जन एक वॉशिंग पाउडर का, दूसरा couple टॉयलेट सीट पर खड़ा होकर एक मोबाइल नेटवर्क और सिम का और तीसरा बंदा एक अल्टिमा पेंट से सजे घर के दम पर लड़कियों को शादी के लिये रिझाता है जो कि पूरी तरह अविश्वसनीय और illogical है.  इनके अलावा एक महाशय के डॉलर अंडरवियर पर कस्टम ऑफीसर अपना रोल या ड्यूटी भूल जाती है.  लोग इसे क्रिकेट मैच के दौरान या वैसे भी बार बार देखकर देखकर पक चुके हैं.  तो वो तो खीज़कर इनके प्रोडक्ट के अलावा दुनियां का हर प्रोडक्ट इस्तेमाल करने को तैयार हैं.  इनकी टैग लाइनें भी क्रिकेट की बॉल से ज्यादा घिस गई हैं जो न तो स्विंग हो रही हैं न ही स्पिन.  तो जनता न तो इनकी बातों पर विश्वास करती है और न ही इस्तेमाल करती है.  

इस जवाब से लाजवाब होकर और जब किसी प्रश्न पूछने का औचित्य बोर्ड को नजर नहीं आया तो असहमत को इंटरव्यू खत्म होने और जाने का आदेश मिला. लेकिन ये तो असहमत था आखिर बाहर जाते हुये पूछ ही लिया कि “Shall I presume my self selected for the company Sir.  

जवाब बोर्ड के चेयरमैन ने दिया ” आपने इस इंटरव्यू को एक रियल्टी शो जैसा लिया है इस बात की हम सबको बहुत खुशी है, मज़ा भी बहुत आया पर फैसला भी रियल्टी शो की तरह से ही होगा याने हम जज लोग तो डिसाइड कर चुके हैं पर पब्लिक आपको वोट कितना करती है, ये भी मैटर करेगा.  

तो पब्लिक ये डिसाइड करे कि असहमत इस जॉब के लिये select होना चाहिए या reject. Like का मतलब भी सिलेक्टे ही माना जायेगा. Pl. disclose your opinion and vote for Asahmat.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ #87 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में (भोपाल एवं जबलपुर) – 3 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने महात्मा गाँधी जी की मध्यप्रदेश यात्रा पर आलेख की एक विस्तृत श्रृंखला तैयार की है। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में  के अंतर्गत महात्मा गाँधी जी  की यात्रा की जानकारियां आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ आलेख #87 – महात्मा गांधी के चरण देश के हृदय मध्य प्रदेश में (भोपाल एवं जबलपुर) – 3 ☆ 

भोपाल :- वर्तमान मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में गांधीजी अपने तीन दिवसीय प्रवास पर  सितंबर 1929 में रियासत के नवाब हमीदुल्ला खान के आमंत्रण पर पधारे। भोपाल में एक आमसभा बेनज़ीर मैदान में आयोजित की गई और यहां  गांधीजी का सावर्जनिक अभिनंदन किया गया। गांधीजी नवाब की सादगी भारी जीवन शैली से प्रभावित हुए और इसकी प्रसंशा उन्होंने आम सभा में भी की।  गांधीजी ने अपने भाषण में कहा कि “ देशी लोग भी यदि पूरी तरह प्रयत्नशील हों तो देश में रामराज्य की स्थापना की जा सकती है।  रामराज्य का अर्थ हिन्दू राज्य नहीं वरन यह ईश्वर का राज्य है। मेरे लिए राम और रहीम में कोई अंतर नहीं है। मैं सत्य और अहिंसा से परे किसी ईश्वर को नहीं जानता। मेरे आदर्श राम की हस्ती इतिहास में हो या न हो, मुझे इसकी परवाह नहीं। मेरे लिए यही काफी है कि हमारे  रामराज्य का प्राचीन आदर्श शुद्धतम  प्रजातन्त्र का आदर्श है। उस प्रजातन्त्र में गरीब से गरीब रैयत को भी शीघ्र और बिना किसी व्यय के न्याय मिल सकता था। “

गांधीजी ने यहां  भी अस्पृश्यता निवारण की अपील की और हिन्दू मुस्लिम एकता पर जोर दिया और अजमल जामिया कोष  के लिए लोगों से चन्दा देने की अपील की। गांधीजी को भोपाल की जनता ने खादी के कार्य के लिए रुपये 1035/- की थैली भेंट की। उन्होंने मारवाड़ी रोड स्थित खादी भंडार का अवलोकन किया।

उसी दिन 11 सितंबर 1929  की शाम को राहत मंजिल प्रांगण में सर्वधर्म प्रार्थना सभा का आयोजन हुआ और इसमें भोपाल के नवाब अपने अधिकारियों के साथ न केवल सम्मिलित हुए वरन फर्श पर  घुटने टेक कर प्रार्थना सुनते रहे। गांधीजी ने लौटते समय सांची के बौद्ध स्तूप देखने गए और वहां से आगरा चले गए.

जबलपुर :- महाकौशल के सबसे बड़े नगर, मध्यप्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर, देश के उन  चंद शहरों में शामिल है, जिसे गांधीजी का स्वागत करने का अवसर चार बार मिला। गांधीजी पहली बार जबलपुर 21 मार्च 1921 को पधारे। जबलपुर से उन्हे कलकत्ता जाना था और उस दिन सोमवार था , गांधीजी का पवित्र दिन यानि  मौन व्रत, इसीलिए कोई आमसभा तो नहीं हुई पर उन्होंने सी एफ एंड्रयूज़ को जो पत्र लिखा उसमें मद्यपान और सादगी से रहने की उनकी सलाह पर लोगों के द्वारा अमल किए जाने की बात कही। गांधीजी का प्रभाव था कि  लोग मद्य व अफीम के व्यापार को समाप्त कर देना चाहते थे पर सरकार उनके इन प्रयासों को विफल करने में लगी थी ऐसा उल्लेख इस पत्र में उन्होंने किया। इस दौरान गांधीजी के साथ उनकी नई शिष्या मीरा बहन भी आई थी और वे खजांची चौक स्थित श्याम सुंदर दास भार्गव की कोठी में ठहरे थे.

दूसरी बार गांधीजी देश व्यापी हरिजन दौरे के समय,  सागर से रेल मार्ग से कटनी और फिर सड़क मार्ग से स्लीमनाबाद, सिहोरा, गोसलपुर, पनागर होते हुए, जहां आम जनता ने जगह जगह उनका भव्य स्वागत किया, जबलपुर दिनांक 03 दिसंबर 1933 को पधारे और साठियां कुआं स्थित व्योहार राजेन्द्र सिंह के घर ठहरे। जब गांधीजी का मोटर काफिला जबलपुर पहुंचा तो रास्ते में भारी भीड़ उनके दर्शन के लिए जमा थी और इस कारण गांधीजी को निवास स्थल तक पहुंचने  के लिए मोटरकार से उतरकर कुछ दूर पैदल चलना पड़ा था। यहां उनके अनेक कार्यक्रम हुए। शाम को  गोलबाज़ार के मैदान में आयोजित एक आमसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि ‘यदि ऊंच नीच के  भेद को समूल नष्ट कर देने का यह प्रयत्न सफल हो जाता है तो जीवन के सभी क्षेत्रों में इसकी स्वस्थ प्रतिक्रिया होगी और पूंजी व श्रम के बीच की लड़ाई खत्म हो जाएगी और इसके स्थान पर दोनों में सहयोग और एकता स्थापित हो जाएगी। उन्होंने कहा कि यदि हम  हिन्दू धर्म से अस्पृश्यता समाप्त करने में सफल हो जाते हैं तो आज भारत में हम जो वर्गों और संप्रदायों के बीच लड़ाई देख रहे हैं वह खत्म हो जाएगी। हिन्दू और मुसलमान के बीच तथा पूंजी और श्रम के बीच का मतभेद समाप्त हो जाएगा।‘ धार्मिक आंदोलनों की विवेचना करते हुए गांधीजी ने कहा कि ‘धार्मिक आंदोलनों की विशेषता यही है कि आने वाली सारी बाधाएं  ईश्वर की कृपा  से दूर हो जाती हैं।‘  गांधीजी को नगर की अनेक सार्वजनिक संस्थाओं और नेशनल ब्वायज स्काउट ने अभिनंदन पत्र भेंट किया और गांधीजी ने सभी सच्चे स्काऊटों को आशीर्वाद दिया। 4 दिसंबर को गांधीजी का पवित्र दिन मौन दिवस था इस दिन उन्होंने अपने अनेक साथियों को पत्र लिखे। लगातार दौरे के कारण गांधीजी को कमजोरी महसूस हो रही थी अत:  उनके चिकित्सक डाक्टर अंसारी द्वारा विश्राम की सलाह दी गई और हरिजन दौरे के आयोजकों को परामर्श दिया गया कि आगे के दौरों में एक दिन में अधिकतम चार घंटे का ही कार्यक्रम रखा जाए, बाकी समय आराम के लिए छोड़ दिया जाए। जबलपुर के गुजराती समाज ने गांधीजी के हरिजन कोष  हेतु रुपये छह हजार का दान दिया।

06 दिसंबर 1933 को गांधीजी ने मंडला में एक सभा को संबोधित  करते हुए कहा कि मैं चाहता हूं कि आप अपने  विश्वास पर तो सच्चे रहें और यदि इस मामले में (अस्पृश्यता के लिए) आप मुझसे सहमत नहीं हैं तो मुझे ठुकरा दें। ‘ लौटते समय वे नारायांगंज में रुके भाषण दिया, एक हरिजन के निवास पर भी गए। (ऐसा उल्लेख मेरे मित्र जय प्रकाश पांडे ने अपनी एक कहानी में किया है।)

07 दिसंबर 1933 को अपने जबलपुर प्रवास के अंतिम दिन गांधीजी ने हितकारिणी हाई स्कूल में आयोजित महिलाओं की सभा को संबोधित किया। इसके बाद गांधीजी खादी भंडार, और वहां से जवाहरगंज और गोरखपुर गए, गलगला में हरिजनों की सभा को संबोधित किया  और सदर बाजार स्थित दो मंदिरों के द्वार  हरिजन प्रवेश हेतु खुलवाए।  गांधीजी ने लिओनार्ड थिओलाजिकल कालेज में एक सभा को संबोधित किया और कहा कि ‘मैं संसार के महान धर्मों की समानता में विश्वास करता हूं और मैंने शुरू से ही दूसरे धर्मों को अपना धर्म समझना सीखा है, इसीलिए इस आंदोलन में (अस्पृश्यता के लिए)  शामिल होने के लिए दूसरे धर्मों के अनुयाईओं को आमंत्रित करने और उनका सहयोग लेने में कोई कठिनाई नहीं है। ‘ गांधीजी ने उपस्थित लोगों से अपील की कि वे हरिजन सेवक संघ के माध्यम से हरिजनों की सेवा करें और यदि वे उनका धर्म परिवर्तन कर उन्हे ईसाई बनाएंगे तो अस्पृश्यता निवारण के लक्ष्य में हम लोग  असफल हो जाएंगे।  उन्होंने ईसाइयों से कहा कि यदि आपके मन में यह विश्वास है कि हिन्दू धर्म ईश्वर की देन  न होकर शैतान की देन  है तो आप हमारी मदद नहीं कर सकते  और मैं ईमानदारी से आपकी मदद की आकांक्षा भी नहीं कर सकता।‘        

इस दौरे के बाद आठ वर्षों तक उनका जबलपुर प्रवास नहीं हुआ और 27 फरवरी 1941 को इलाहाबाद में कमला नेहरू स्मृति चिकित्सालय का उद्घाटन करने जाते समय वे अल्प काल के लिए जबलपुर में रुके और भेड़ाघाट के भ्रमण पर गए।

अगले वर्ष 1942 पुन: उनका जबलपुर में अल्प प्रवास हुआ और मदनमहल स्थित द्वारका प्रसाद मिश्रा के घर पर रुककर उन्होंने स्थानीय काँग्रेसियों से व्यापक विचार विमर्श किया। उनके आगमन की तिथि पर कुछ मतभेद हैं। कुछ स्थानों पर इस तिथि को 27 अप्रैल 1942 बताया गया है। इस दौरान अखिल भारतीय कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक इलाहाबाद में हुई थी पर गांधीजी उस बैठक में स्वयं शामिल नहीं हुए थे।  उन्होंने इस बैठक में अपने विचार एक पत्र के माध्यम से मीरा बहन के माध्यम से भिजवाए थे। बाद में वे 9 अगस्त 1942 से 06 मई 1944 तक आगा खान पैलेस में नजरबंद रहे। गांधीजी 20 जनवरी 1942 को वर्धा से बनारस गए थे संभवतया इसी दौरान वे जबलपुर अल्प समय के लिए रुके होंगे.

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से # 3 – जो मैं बाग़वां होती — ☆ डॉ. सलमा जमाल

डॉ.  सलमा जमाल 

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।  

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण गीत “जो मैं बाग़वां होती –” 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 3 ✒️

? गीत – जो मैं बाग़वां होती —  डॉ. सलमा जमाल ?

जो मैं बाग़वां होती ,

तो गु्ल्शन को महका देती ।

मनाते जश्न धरती पुत्र ,

खेतों को लहका देती ।।

 

कभी महफ़िल , तो अकेले ,

हर दिन सुख-दुख के झमेले ,

कभी बसंत , कभी पतझड़ ,

हंसने – रोने के मेले ,

सभी जंगल हरे रखती ,

पलाश हर सू दहका देती ।

मनाते ——————- ।।

 

झील – झरने और नदियां ,

उन्हें बहते गुज़रीं सदियां ,

बातें पेड़ों – पहाड़ों की ,

साग़र – लहरों की बतियां ,

बिना किसी जाम मीना के ,

क़ायनात बहका देती ।

मनाते ——————- ।।

 

पीते शेर , भेड़ , बकरी ,

मिलकर इक घाट पे पानी ,

पुरुष पाते देवत्व को ,

नारीं होतीं महारानी ,

फ़रिश्ता बनके ज़मीं पर ,

जन्नत को दमका देती ।

मनाते ——————- ।।

 

अंधेरी रात अमावस्या ,

ऋषि-मुनियों की तपस्या ,

बैठे वीरान मरघट पे ,

लेकर अघोरी समस्या ,

गर मैं चांद – तारे होती ,

रातों को चमका देती ।

मनाते ——————- ।।

 

होती बग़िया की माली ,

लगाती फूलों की डाली ,

सहेजती गुल को हाथों से ,

और कांटों की रखवाली ,

तराना छेड़ती ‘ सलमा ‘

परिंदों को चहका देती ।

मनाते ——————- ।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ सरदार पेठ – शिरूर घोडनदी ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

? मनमंजुषेतून ?

☆ सरदार पेठ – शिरूर घोडनदी ☆

आम्ही पुणं सोडून शिरूर घोडनदी या तालुक्याच्या ठिकाणी नवीन बि-हाड केलं ! शिरूर मधे आमचे नातेवाईक- बाबासाहेब पवार रहात होते, खरं तर ते देवासचे सरदार पवार,आजोबांची बहिण (माँसाहेब) बाबासाहेब पवारांच्या वडिलांची सावत्र आई ! त्यांच्याच गावात पिंपरी दुमाला येथे आम्ही स्थायिक झालो होतो. त्यांनीच आम्हाला शिरूरला भाड्याचं घर बघून दिलं, ते जिथे रहात होते ते घर सोडून दुसरं घर !

पवारांचं घर मोठं आणि प्रशस्त होतं. दोन मजली स्वतंत्र वाडा, पवार काकींचं व्यक्तिमत्व सरंजामदारणीसारखंच रूबाबदार होतं !त्यांच्या घरातलं वातावरण आणि राहणीमान उच्चभ्रू होतं !

त्यांनी आम्हाला दाखवलेलं घर पलिकडच्या वाड्यात वरच्या मजल्यावर होतं. घर छान होतं.   आमचं ते घर सरदार पेठेत होतं, पण येण्याजाण्याचा रस्ता पाठीमागच्या बाजूने होता ते गैरसोयीचं वाटे. तिथे आम्ही चार पाच महिनेच राहिलो. त्या घराच्या समोरच एक दोन मजली घर होतं. त्या घराची मालकीण मुस्लिम होती, ती मुंबईला रहात होती….त्या घरात कोणीच रहात नसल्यामुळे त्या घराला “भूतबंगला” म्हणत. पण आईला ते घर आवडलं आणि आम्ही त्या चार खोल्यांच्या  प्रशस्त घरात रहायला गेलो. कुणीही शेजार पाजार नसलेला तो एक स्वतंत्र बंगलाच होता. पाठीमागे छोटंसं अंगणही होतं. आम्ही विद्याधाम प्रशाला या शाळेत जात होतो. मी सातवी अ मधे प्रवेश घेतला तेव्हा पहिल्याच दिवशी माझी राणी गायकवाड नावाच्या मुलीशी ओळख झाली. लता रजपूत, संजीवनी कळसकर, चित्रा कुलकर्णी,मंगल पंढरपूरे, सुनंदा बेलावडे, माधुरी तिळवणकर, पुढे आठवीत फैमिदा शेख, सरस बोरा, उज्वल, निर्मल या वर्गातल्या  मुली होत्या. ती शाळा मला खुप आवडली. मी पहिली कविता आठवीत असताना लिहिली- हस्तलिखित नियतकालिकासाठी !

माझी धाकटी बहीण खूप हुषार होती, तिने पहिला नंबर कधीच सोडला नाही. 

आम्ही तीन सख्खी, तीन चुलत भावंडे अशी सहा मुलं, आई आणि आमच्या गावाकडच्या एक काकी आईला सोबत म्हणून आलेल्या. त्या एकट्याच होत्या, पती लवकरच वारले, एकुलत्या एक मुलीचं लग्न झालं होतं, त्यामुळे बरीच वर्षे काकी आमच्याकडेच राहिल्या ! त्या पहाटे उठून बंब पेटवत आणि सगळ्यांच्या आंघोळी होईपर्यंत बंबावर लक्ष देत. त्यांनी आईला स्वयंपाकघरात कधीच मदत केली नाही. त्यांना स्वयंपाक येत नव्हता की करायला आवडत नव्हता माहीत नाही पण तशी ती खूप तडफदार बाई होती. पूर्वी त्या वडनेरहून पिंपरीला घोड्यावर बसून येत. आम्ही त्यांना वडनेरच्या काकी म्हणत असू. माझे आजोबाही जवळपासच्या गावात, शेतावर घोड्यावर बसूनच जात ! ह्या काकी म्हणजे आजोबांच्या चुलतभावाची सून !

आमच्या त्या “भूतबंगला” घरात आम्ही एक वर्ष राहिलो. मला ते घर खूपच आवडायचं. पण आमच्याकडे पहिलवान असलेला वडिलांचा मामेभाऊ आला होता. रात्री झोपेत तो खूप जोरात ओरडला.  आम्ही सगळे जागे झालो, “या घरात भुताटकी आहे, कुणीतरी अज्ञात शक्तिने माझा हात ओढला ” असं तो म्हणाला !

नंतर काही दिवसांनी आम्ही ते घर सोडलं आणि थोडं पुढे भूविकास बँकेशेजारी बरमेचा निवास मधे रहायला गेलो. हे ही घर बरंच मोठं होतं ! सरदार पेठेत तीन घरं बदलल्यानंतर वडिलांनी छत्रपती सोसायटीत बंगला बांधण्यासाठी प्लाॅट विकत घेतला !

शिरूरमध्ये वडिलांची पत प्रतिष्ठा होती. सगळे त्यांना बाजीरावशेठ म्हणत !तीन दुकानात आमची खाती होती आणि तिथून कुठलीही वस्तू आणायची आम्हाला मुभा होती.

शिरूर या शहराला माझ्या आयुष्यात खूप महत्वाचे स्थान आहे. माझी जडणघडण शिरूरमध्येच झाली, शिरूरमध्ये रेडिओ ऐकायचं वेड लागलं, वाचनाची आवड निर्माण झाली. खूप सिनेमा पाहिले. राणी गायकवाड ही खूप जिवाभावाची मैत्रीण मिळाली…. वडनेरच्या काकी, गावाकडून आणलेली कली ही कामवाली पोरगी, जना मोलकरीण या सा-यांना माझ्या आईनं मोठ्या हिकमतीनं सांभाळलं. आई नेहमी आजारी असायची पण रोजचा स्वयंपाक कधीच टाळला नाही, सुगरणच होती ! तिनं आम्हाला खूप आरामशीर सुखवस्तू आयुष्य जगू दिलं !

खंत एकच– शिरूरमधे मला काॅलेज अर्धवट सोडावं लागलं, तो जो “हादरा” मला बसला,, त्यामुळे मी खूप निराशावादी कविता केल्या. 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 10 – सकारात्मकता को खोजें … ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है सजल “सकारात्मकता को खोजें… । अब आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 10 – सकारात्मकता को खोजें…  ☆ 

सजल

समांत- आरों

पदांत- – की

मात्राभार- 16

 

खोई रौनक बाजारों की।

प्लेटें रूठीं ज्योनारों की।।

 

घोड़े पर दूल्हा है बैठा,

किस्मत फूटी इन क्वारों की।

 

सब पर कानूनी पाबंदी,

भूल गए हैं मनुहारों की।

 

मिलना जुलना नहीं रहा अब,

लगी लगामें सरकारों की।

 

करोना के जाल में उलझी,

नहीं गूँज अब जयकारों की।

 

संकट में भी बढ़ी दूरियाँ,

हालत बुरी है दीवारों की।

 

जन्म-मरण संस्कार गुम गए,

घटी रौनकें त्योहारों की ।

 

साँसों की अब बढ़ी किल्लतें,

नहीं व्यवस्था अंगारों की।

 

सकारात्मकता को खोजें,

खबरें झूठी अखबारों की।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares