(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं एक विचारणीय गीतिका “रोटियाँ….”।)
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ– असहमत आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ असहमत…! भाग – 12 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
असहमत मोबाइल में बात करने का दिखावा करते हुये सन्मति को नज़रअंदाज करते हुये क्रास कर गया पर दस कदम के बाद ही उसे Don’t use mobile here की आवाज़ सुनाई दी तो वो पीछे मुड़ा.
डॉक्टर सन्मति ने उसे देखकर कुछ याद करने की कोशिश की, फिर उसे यू ट्यूब में पोस्ट किसी कंपनी की वीडियो पोस्ट याद आई जिसने असहमत के जॉब इंटरव्यू को पब्लिक ओपीनियन के लिये पोस्ट कर दिया था और वीडियो को 1.2 मिलियन बार देखा जा चुका था. लाईक और डिस्लाईक में 20-20 का मैच चल रहा था. जो लिबरल, मस्तमौला और innovative थे, वो चाहते थे कि अपाइंटमेंट के बदले असहमत को कंपनी का ब्रांड एंबेसडर बना दिया जाय जबकि कंसरवेटिव सोच के धनी ऐसे लोगों को सबक सिखाने के लिये पहले असहमत को अस्थायी नियुक्ति देकर, महीने भर उसका अवैतनिक उपयोग कर बाद में not suitable to handle marketing का टैग लगाकर कंपनी से बाहर करने के कमेंट लिख रहे थे.
शायद सन्मति को यही वीडियो क्लिप याद रही और इस महान आत्मा को रूबरू पाकर ओंठो पर हल्की मुस्कान आ गई. न केवल असहमत बल्कि पाठकों के भ्रम को दूर करने के लिए कहना आवश्यक है कि यह मुस्कान असहमत की स्पष्टवादिता और अक्खड़पन से उपजी मुस्कान थी. ये तो बाद में पता चला कि once upon a time, असहमत और सन्मति same class की zoology lab. में dissection के लिये एक ही प्रजाति के मेंढक शेयर किया करते थे, हालांकि टेबल अलग अलग थीं पर अर्ध बेहोश मेंढक, डिसेक्शन के अस्त्रों से घायल होकर अक्सर उछलकर दूसरी पंक्ति की टेबल पर जाकर silent zone को चेलेंज कर देते थे और लैब पहले चीखना और फिर प्रतिक्रियात्मक हंसी के कहकहों से गुलज़ार हो जाया करती थी.
असहमत का मोबाइल इस बार फिर बजा, इस बार दूसरी ओर पिताजी थे जो उसके इस तरह अचानक गोल हो जाने पर उसे पुलसिया धमकी की डोज़ दे रहे थे. असहमत ने सन्मति के बिना मांगे ही फिर मिलने का वचन देकर विदा ली.
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है नव वर्ष के आगमन पर आपकी एक भावप्रवण रचना “नव वर्ष मुबारक हो –”
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
श्री अरुण डनायक जी ने महात्मा गाँधी जी की मध्यप्रदेश यात्रा पर आलेख की एक विस्तृत श्रृंखला तैयार की है। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ गांधी संस्मरण के अंतर्गत महात्मा गाँधी जी के महत्वपूर्ण संस्मरण आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ आलेख #90 – गांधी संस्मरण – 1 ☆
गांधीजी की धर्म यात्रा
नोआखली अब बांग्लादेश में है और गुलामी के दिनों में यह क्षेत्र पूर्वी बंगाल का एक जिला था, जहां 80% आबादी मुस्लिमों की थी। जिन्ना की मुस्लिम लीग की सीधी कारवाई या डायरेक्ट एक्शन के आह्वान पर यहां ग्रामीण इलाकों में दंगे हुए। दस अक्टूबर 1946 को शुरू हुए दंगे, जो लगभग एक सप्ताह चले, के दौरान मुस्लिम लीग के गुंडों का आतंक हिंदुओं पर कहर बन कर टूट पड़ा। यहां के निवासी हिन्दू जमींदार थे या व्यवसाई, उनके साथ कौन सा ऐसा जुल्म था जो नहीं हुआ। हत्या, बलात्कार , आगजनी, संपत्ति का लूट लेना सब कुछ हुआ , स्त्रियों और बच्चों को भी नहीं छोड़ा गया। स्त्रियों के ऊपर बलात्कार हुए उनके अंग भंग कर कुएं में फेक दिया गया। इस सांप्रदायिकता से बचने के लिए हिंदुओं ने वहां से पलायन कर दिया। बीस अक्टूबर तक जब नोआखली से दंगा पीड़ित कलकत्ता पहुंचे तब देश को इस विभीषिका का पता चला। गांधीजी को जब यह सब समाचार मिले तो वे नोआखली जाने के लिए व्यग्र हो उठे। उन्होंने कांग्रेस के नेता आचार्य कृपलानी और उनकी पत्नी सुचेता कृपलानी को तत्काल नोआखली के लिए रवाना किया और उनकी रिपोर्ट मिलते ही स्वयं के वहां जाने की सार्वजनिक घोषणा कर दी। और फिर गांधीजी 29 अक्टूबर 1946 को कलकत्ता पहुँच गए। उनका कलकत्ता आगमन मुस्लिम लीग के गुंडों को पसंद नहीं आया। उन्होंने गांधीजी को हतोत्साहित करने की खूब कोशिश की। बंगाल के मुख्यमंत्री शहीद सुहरावर्दी तो उनके नोआखली जाने के सख्त खिलाफ थे। पर गांधीजी तो किसी और मिट्टी के बने थे। मुस्लिम लीग के गुंडों के द्वारा पेश की गई अड़चनों, हमलों आदि ने भी उन्हे कर्मपथ से विचलित होने नहीं दिया। वे कलकत्ता में सबसे मिले स्थिति का जायजा लिया और फिर वहां से पूर्वी बंगाल निकल गए जहां विभिन्न ग्रामों में होते हुए अपने दल के साथ 20 नवंबर 1946 को श्रीरामपुर पहुंचे। यहां से उन्होंने अपने दल के साथियों को अलग गांवों में भेज दिया।
श्रीरामपुर में रहते हुए गांधीजी ने बांग्ला भाषा सीखने का प्रयास शुरू कर दिया और उनके गुरू बने प्रोफेसर निर्मल कुमार बोस। इस गाँव में रहते हुए गांधीजी ने रोज आस पास के गांवों में पैदल जाना शुरू किया, ताकि पीड़ितों को ढाढ़स बँधाया जा सके। पूर्वी बंगाल, नदियों के मुहाने में बसा हुआ क्षेत्र है। यहां एक गाँव से दूसरे गाँव जाने के लिए नालों को पार करना होता था और इस हेतु बांस की खपच्चियों के बनाए गए अस्थाई पुल एक मात्र सहारा थे। इन पुलों पर चलना आसान न था। फिर भी गांधीजी ने धीरे धीरे इन पुलों पर चलने का अभ्यास किया। गांधीजी का भोजन उन दिनों कितना था ? पाठकों को जानकर आश्चर्य होगा कि गांधीजी मौसम्बी का रस या नारियल के पानी के अलावा एक पाव बकरी का दूध, उबली हुई सब्जी व जौ, कभी कभी खाखरा और अंगूर तथा रात में कुछ खजूर लेते थे और इस भोजन की कुल मात्रा 150 ग्राम ( दूध के अलावा) से अधिक नहीं होती थी।
गांधीजी अढ़ाई महीने तक नोआखली में रुके और इस दौरान लगभग 200 किलोमीटर बिना चप्पल के नंगे पैर पैदल चलकर पचास गांवों में लोगों से मिले, उनके घावों में मलहम लगाया, उनके दुखदर्द सुने और उनके आत्मबल को मजबूत करने का प्रयास किया। गांधीजी की यह यात्रा धर्म की स्थापना की यात्रा थी और इस यात्रा का वर्णन पढ़ने से गांधीजी के तपोबल का अंदाज होता है।
जब गांधीजी नोआखली पहुँच गए तो मनुबहन गांधी, जो उन दिनों सूदूर गुजरात में थी, को इसकी खबर लगी। वे बापूजी के पास जाने को व्यग्र हो उठी। गांधीजी और मनु बहन व उनके पिता जयसुखलाल गांधी के बीच पत्राचार हुआ और अंतत: मनु बहन 19 12.1946 को श्रीरामपुर, गांधीजी के पास पहुँच गई। वे 02 मार्च 1947 तक गांधीजी के साथ इस यात्रा में शामिल रही और इस दौरान उन्होंने गांधीजी की दैनिक डायरी लिखी। इस डायरी को गांधीजी रोज पढ़ते थे और अपने हस्ताक्षर करते। मनु बहन की यह डायरी बाद में नवजीवन ट्रस्ट अहमदाबाद द्वारा 1957 में पहली बार प्रकाशित हुई नाम दिया गया एकला चलो रे – (गांधी जी की नोआखली की धर्म यात्रा की डायरी)
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है सजल “युग युगांतर से पले संस्कार को… ”। अब आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 13 – युग युगांतर से पले संस्कार को… ☆
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा लिखित एक विचारणीय आलेख ‘यात्राओं के झरोखे से’। इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 135 ☆
आलेख – यात्राओं के झरोखे से
पर्यटन व यात्राओ को साहित्य की जननी कहा जाता है. पर्यटन के दौरान साहित्यकार का मन प्रकृति का सानिध्य पाकर स्वाभाविक रूप से उर्वर हो जाता है. नये नये अनुभव व दृश्य वैचारिक विस्फोट करते हैं. कुछ रचनाकार इस अवस्था में उपजे मनोविचारो को तुरंत बिंदु रूप में लिख लेते हैं व अवकाश मिलते ही उस पर रचना लिख डालते हैं. कुछ के मन में उपजे यात्रा जन्य विचार उमड़ते घुमड़ते हुये बड़े लम्बे अंतराल के बाद कविता, कहानी या लेख के रूप में आकार ले पाते हैं, तो अनेक बार मन में ही रचना का गर्भपात भी हो जाता है. यह सब कुछ लेखकीय संवेदनाये हैं. राहुल सास्कृत्यायन जी को घुमक्ड़ी साहित्य का बड़ा श्रेय है.डॉ नगेन्द्र, महादेवी वर्मा के यात्रा साहित्य भी चर्चित हैं । इधर यात्रा साहित्य के क्षेत्र में कुछ नवाचारी प्रयोग भी किये गये हैं. लेखक समूह की किसी स्थान विशेष की यात्रायें आयोजित की गईं, फिर सभी से यात्रा वृत्तांत लिखवाया गया तथा उसे पुस्तकाकार प्रकाशित किया गया है,मुझे ऐसी किताबें पढ़ने व उन पर चर्चा करने का सौभाग्य मिला है. मैंने पाया कि एक ही यात्रा के सहभागी लेखको की रचनाओ में उनके अनुभवो, वैचारिक स्तर के अनुसार व्यापक वैभिन्य था. अस्तु, इस सब के बाद भी हिन्दी का पर्यटन साहित्य बहुत समृद्ध नही है. ट्रेवेलाग की तरह की किताबों की बड़ी जरूरत है, जिससे पाठक के मन में पर्यटन स्थल के प्रति रुचि जागृत हो, उसे स्थल विशेष की अनुभूत जानकारियां मिल सकें तथा पर्यटन को बढ़ावा मिले. ऐसी पुस्तकें न केवल साहित्य को समृद्ध करती हैं, वरन पर्यटन को बढ़ावा देती हैं.
आम आदमी जो यात्रायें करता है, उसके अनुभव उस तक या वाचिक परम्परा से उसके परिवार व मित्रो तक ही सीमित रह जाते हैं, पर जब अमृतलाल वेगड़ जैसे व्यक्ति नर्मदा के किनारे भी चलते हैं तो वे अपने अनुभवों को 4 पुस्तकों में ही अभिव्यक्त नही करते वरन ढेर से कोलाज और चित्र बनाते हैं. आशय मात्र यह है कि यात्राओ का कला साहित्य को समृद्ध करने में योगदान महत्वपूर्ण है जिससे निरतंर पाठको को प्रेरणा मिलती है.
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय लघुकथा “प्रायश्चित”। इस विचारणीय रचनाके लिए श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 108 ☆
लघुकथा – प्रायश्चित
चमचमाती कार से उतरकर जिस घर के सामने सेठ रूपचंद खड़ा था। मन में घबराहट, बेचैनी और बेटी के बाप होने की वजह से अब वह स्वयं दबा जा रहा था। डोर बेल बजने पर चमकीली साड़ी, गहने से लदी सौम्य सुंदर महिला को देखकर थोड़ी देर बाद ठिठक गया।
पसीने से तरबतर बड़े ही गौर से उसे देखने लगा। बिजली सी कौंध गई। आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा। वर्षों पहले फुलवा से दोस्ती की थी। बात शादी तक पहुंच गई थी। शादी के बहकावे में आकर विश्वास में फुलवा अपना सर्वस्व निछावर कर बैठी थी।
लेकिन रूपचंद ने अपनी अमीरी और उसकी गरीबी का मजाक उड़ाते उसे एक ऐसी जगह ला छोड़ा था, जहां से उसे निकलना भी मुश्किल था। समय पंख लगा कर उड़ा। फुलवा का बेटा बाहर नौकरी करता था और रूपचंद की बेटी से बहुत प्यार करता था।
बस आज अपनी बिटिया के लिए वह फुलवा के घर आया था। परंतु उसे नहीं मालूम था कि जिसको वह ठुकरा कर किसी और के हाथों बेच गया था, उसी के घर उसकी अपनी बिटिया शादी करेगी।
“नमस्कार” फुलवा ने कहा “आइए मुझे इसी दिन का इसी पल का इंतजार बरसों से था। बस ईश्वर से एक ही प्रार्थना करती थी कि तुम से एक मुलाकात जरूर हो। पर ऐसी मुलाकात होगी मैंने नहीं सोचा था। अब तुम ही बताओ इस रिश्ते को मैं क्या करूं?” रूपचंद फुलवा के पैरों गिर पड़ा गिड़गिड़ाने लगा।
“मेरी बेटी को बचा लीजिए। मैं कहीं का नहीं रह जाऊंगा। सारी इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी।” फुलवा ने देखा रूपचंद रो-रो कर परेशान हो रहा था। आज उसके हाथ जोड़ने और आंखों से गिरते आंसू बता रहे थे कि बेटी का दर्द क्या होता है। फुलवा का बेटा कमरे से बाहर आया। निकलते हुए बोला “माँ यही है मीनू के पिता जी। इनकी बेटी से मैं बहुत प्यार करता हूं और ये शादी की बात करने हमारे यहां आए हैं।”
फुलवा ने कहा – “बेटा मुझे तुम्हारी पसंद से कोई शिकायत नहीं है। परंतु कुछ घाव भरने के लिए सेठ रूपचंद जी को अपनी सारी संपत्ति मेरे नाम करनी होगी। और तभी मैं इनको अपना संबंधी बना पाऊंगी।” हमेशा दहेज के खिलाफ बोलने वाली माँ के मुंह से दहेज की बात सुनकर उसका बेटा थोड़ा परेशान हुआ। और सेठ जी ने देखा कि बात तो बिल्कुल सही कह रही है यदि इस प्रकार का सौदा है तो भी वह फायदे में ही रहेगा। क्योंकि शायद वह उसका प्रायश्चित करना चाह रहा था।
तुरंत हाँ कहकर उसने अपनी बेटी मीनू की शादी फुलवा के बेटे से तय करने का निश्चय किया और बदले में फुलवा से कहा – “जो बात बरसों पहले हो चुकी। उसे भूल कर मुझे माफ कर देना। शायद यही मेरी सजा है।” बेटे को कुछ समझ नहीं आया। माँ से इतना जरूर पूछा – “आप तो हमेशा दहेज के खिलाफ थी पर आज अचानक आपको क्या हो गया?” फुलवा ने हँसते हुए कहा – “पुराना हिसाब बराबर जो करना है।”
☆ मी प्रभा… स्वाध्यायचे दिवस – लेखांक#3☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆
रत्नागिरीला मावशीकडे चार महिने राहिल्यानंतर मी परत आजीआजोबांकडे आले. आजी म्हणाली, “ तू पुण्याला जा आणि काॅलेजचं शिक्षण पूर्ण कर. तुझा मोठा भाऊ शिकतो, धाकटी बहिण शिकते, लोकांना वाटेल ही काय ढ आहे की काय?” मी ढ नव्हते पण अभ्यासूही नव्हते !
मी पुण्यात गोखलेनगरला रहाणा-या काकींकडे राहून स्वाध्याय या बहिःस्थ विद्यार्थ्यांसाठी असलेल्या महाविद्यालयात प्रवेश घेतला. मी बसने जात, येत होते. स्वाध्यायमधले दिवस खूपच अविस्मरणीय ! तिथे माझ्या आयुष्याला नव्याने पालवी फुटली. आमचा वर्ग खूप मोठा होता. कुलकर्णी आणि पुरोहित या दोघी गृहिणी स्वाध्यायच्याच बिल्डींगमध्ये रहायच्या आणि माझ्याशी खूप प्रेमाने वागायच्या !
आमच्या वर्गात एक नन होती. आम्ही त्यांना सिस्टर म्हणत असू, मी एकदा सिस्टरला म्हटलं,
‘मला पण नन व्हायचंय,’ तर त्या म्हणाल्या “हा मार्ग खूप कठीण आहे, आणि तुझ्यासाठी नाही !”
वार्षिक स्नेहसंमेलनात मी अनेक कार्यक्रमात सहभागी झाले. गोखले हाॅलमधे हे संमेलन होत असे. या संमेलनात मी पहिल्यांदा माझ्या कविता व्यासपीठावर सादर केल्या. पुरोहित बाई आणि मी ज्या कविसंमेलनात होतो त्या कविसंमेलनात कवी कल्याण इनामदार पण होते. आम्हाला दोन कविता आणि कल्याण इनामदार यांना चार कविता सादर करायला सांगितल्या, ही गोष्ट पुरोहित बाईंना खटकली होती. त्यावेळी त्या म्हणाल्या होत्या, ” ते प्रसिद्ध कवी असले तरी स्वाध्यायचे विद्यार्थीच आहेत !”
मी एकांकिका स्पर्धेतही सहभागी होते, आणि मला उत्कृष्ट अभिनयाचं पारितोषिकही मिळालं होतं! त्यावेळी लिमये सरांनी विचारले होते, “व्यावसायिक रंगभूमीवर काम करणार का?” पण ते कदापीही शक्य नव्हतं!
एकदा आम्ही सहा सातजणी काॅलेज बुडवून निलायमला “फूल और पत्थर” हा सिनेमा पहायला गेलो होतो, दुस-या दिवशी सरांनी कडक शब्दात समज दिली होती,
मराठी कुलकर्णी सर, हिंदी धामुडेसर, अर्थशास्त्र लिमये सर आणि इंग्लिश महाजन सर शिकवत. धामुडेसरांनी मला मुलगी मानलं होतं!
आमच्या वर्गात माधुरी बेलसरे नावाची एक व्याधीग्रस्त मुलगी होती, तिला नीट चालता येत नव्हतं. तिला स्वाध्याय मध्ये तिची बहिण घेऊन यायची, तिचं नाव शुभदा ! शुभीशी माझी खूप छान मैत्री झाली. माधुरी गोखले ही सुद्धा चांगली मैत्रीण होती ! त्या काळात माझा मोठा भाऊ एस.पी.काॅलेजला आणि धाकटी बहिण गरवारे काॅलेज मध्ये शिकत होते. ते दोघं हाॅस्टेलवर रहात होते.
स्वाध्यायमध्ये माझ्या कलागुणांना वाव मिळाला. अवतीभवती कौतुक आणि प्रेम वाटणारी माणसं होती. वर्गातल्या सविता जोशी आणि माळवे बाईही खूप कौतुक करायच्या !