महर्षी अत्री ऋषी यांना एकच मुलगी होती तिचे नाव अपाला.ती अत्यंत सुंदर, बुद्धिमान व एकपाठी होती. अत्रि ऋषी आपल्या शिष्यांना शिकवत त्यावेळी ती त्यांच्याजवळ बसे व त्यांनी एकदा सांगितलेले ज्ञान लगेच अवगत करत असे. तिला चारही वेद आणि त्यांचे अर्थ मुखोद्गत होते. वेदांतील ऋचांच्या अर्थाविषयी आपल्या पित्याशी संवाद साधत असे. चर्चा करत असे. त्यावेळी तिची असामान्य प्रतिभा पाहून अत्रीऋषी सुद्धा अचंबित होत असत. अर्थातच ती त्यांची अत्यंत लाडकी होती. पण अपालाला त्वचारोग होता. तिच्या अंगावर कोडाचे डाग होते. अत्रीऋषींनी तिच्यावर खूप उपचार केले पण काहीच उपयोग झाला नाही. त्यामुळे तिच्या लग्नाची त्यांना सतत चिंता वाटत होती.
एक दिवस त्यांच्या आश्रमात वृत्ताशव(यांना कृष्णस्व किंवा ब्रह्मवेत्ताऋषी असेही म्हणतात)ऋषी आले. अपालाने त्यांची खूप सेवा केली. तिच्या सौंदर्यावर भाळून त्यांनी तिला मागणी घातली. तिच्याशी विवाह करुन ते तिला घेऊन आपल्या आश्रमात गेले.
काही दिवसांनी वृत्ताशव ऋषींना तिच्या कोडाचा संशय आला व त्यांनी तिचा त्याग केला. अपमानित होऊन ती परत आपल्या पित्याकडे आली.
अत्री ऋषीना खूप वाईट वाटले. त्यांनी तिला आधार दिला व पूर्वीप्रमाणे अभ्यास, अध्यापन, योग, उपचार सुरू कर असे सांगितले व इंद्राची पूजा करण्यास
सांगितले. अपाला मनोभावे इंद्राची आराधना करू लागली. इंद्र देव प्रसन्न झाले. त्यांना सोमरस आवडतो म्हणून तिने शेजारचा सोमवेल तोडलापण त्याचा रस काढण्यासाठी तिच्याकडे काहीच साधन नव्हते मग तिने आपल्या दातांनी तो वेल चर्वण केला व एका भांड्यात रस काढून इंद्र देवांना प्यायला दिला. इंद्रदेव संतुष्ट झाले व त्यांनी तिला वर मागण्यास सांगितले. तिने आपला रोग बरा व्हावा , सतेज कांती मिळावी व पित्याची आणि पतीची भरपूर सेवा करता यावी असे वरदान मागितले. इंद्र म्हणाले तथास्तु. त्यांनी आपले सर्व ज्ञान पणाला लावले आणि तिची त्वचा तीन वेळा स्वच्छ केली. अपाला पूर्णपणे रोगमुक्त झाली.
इकडे वृत्ताशव ऋषींना पण आपल्या वागण्याचा पश्चात्ताप झाला. माफी मागण्यासाठी ते अत्री ऋषींकडे आले.त्यांनी अपाला ची आणि तिच्या वडिलांची मनापासून माफी मागितली व तिला बरोबर येण्यास सांगितले.
अत्रीऋषींना खूप आनंद झाला .खूप भेटवस्तू देऊन त्यांनी आपली मुलगी व जावई यांना आशीर्वाद देऊन त्यांच्या घरी परत धाडले. अपाला पतीसह आनंदात राहू लागली.
अशी ही विद्वान, धर्मपरायण व सामर्थ्यशाली अपाला. तिला कोटी कोटी कोटी नमन
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज नर्मदा जयंती के पुनीत अवसर पर प्रस्तुत है गीति-रचना “नर्मदा नर्मदा…..”।)
☆ तन्मय साहित्य #119 ☆
☆ नर्मदा जयंती विशेष – नर्मदा नर्मदा…..☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन। )
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर ग़ज़ल “भागता आदमी”।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा- यात्रा और यात्रा
जीवन में लोगों से आहत होते-होते थक गया था वह। लोग बाहर से कहते कुछ, भीतर से सोचते कुछ। वह विचार करता कि ऐसा क्यों घटता है? लोग दोहरा जीवन क्यों जीते हैं? फिर इस तरह तो जीवन में कोई अपना होगा ही नहीं! कैसे चलेगी जीवनयात्रा?
बार-बार सोचता कि क्या साधन किया जाय जिससे लोगों का मन पढ़ा जा सके? उसकी सोच रंग लाई। अंततः मिल गई उसे मन के उद्गार पढ़ने वाली मशीन।
विधाता भी अजब संजोग रचता है। वह मशीन लेकर प्रसन्न मन से लौट रहा था कि रास्ते में एक शवयात्रा मिली। कुछ हड़बड़ा-सा गया। पढ़ने चला था जीवन और पहला सामना मृत्यु से हो गया। हड़बड़ाहट में गलती से मशीन का बटन दब गया।
मशीन पर उभरने लगा शव के साथ चल रहे हरेक का मन। दिवंगत को कोई पुण्यात्मा मान रहा था तो कोई स्वार्थसाधु। कुछ के मन में उसकी प्रसिद्धि को लेकर द्वेष था तो कुछ को उसकी संपत्ति से मोह विशेष था। एक वर्ग के मन में उसके प्रति आदर अपार था तो एक वर्ग निर्विकार था। हरेक का अपना विचार था, हरेक का अपना उद्गार था। अलबत्ता दिवंगत पर इन सारे उद्गारों या टीका-टिप्पणी का कोई प्रभाव नहीं था।
आज लंबे समय आहत मन को राहत अनुभव हुई। लोग क्या कहते हैं, क्या सोचते हैं, किस तरह की टिप्पणी करते हैं, उनके भीतर किस तरह के उद्गार उठते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है अपनी यात्रा को उसी तरह बनाए रखना जिस तरह सारे टीका, सारी टिप्पणियों, सारी आलोचनाओं, सारी प्रशंसाओं के बीच चल रही होती है अंतिमयात्रा।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)
बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।
☆ कथा-कहानी #95 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 6- दोई दीन से गए … ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆
॥ पानी कौ धन पानी में, नाक कटी बेईमानी में ॥
शाब्दिक अर्थ : गलत तरीके से कमाया हुआ धन पानी में बह जाता है और बेईमानी करने के कारण समाज में बेईज्ज्ती होती है सो अलग।
गलत तरीके से धन कमाने की बुंदेलखंड में कभी भी प्रसंशा नहीं की जाती रही है। धंधे व्यापार में जो लोग बेईमानी करते हैं वे समाज में कभी भी श्रद्धा के पात्र नहीं रहे। बुंदेलखंड में ऐसा माना जाता रहा है कि हत्या-हराम से धन कमाने वाले की बड़ी दुर्गति होती है और बदले में उन्हे कष्ट भोगना पड़ता है। यह कहावत भी इसी नैतिक शिक्षा को लेकर है व इसकी पीछे की कहानी ऐसी है कि एक दूध बेचने वाली ग्वालिन थी उसे पैसा जल्दी से जल्दी कमाने की बड़ी ललक थी। इसलिए उसने दूध में पानी मिला मिला कर बेचना चालू कर दिया। कुछ ही महीनों में उसने बहुत धन कमा लिया और इस रकम से एक बढ़िया सोने की नथ बनवाई। नई नई नथ पहन कर और खुशी में मिठाई खाते हुये वह ग्वालिन अपने गाँव की ओर चल पड़ी। रास्ते भर वह नथ को अपनी मिठाई लगी उंगलियों से छूती जाती और कल्पना करती कि उसकी नाक में नथ कितनी सुन्दर लग रही होगी। वह अपना चेहरा देखने हेतु ललचा ही रही थी कि रास्ते में एक कुआं पडा। उसने कुएं में झाक कर अपना चेहरा देखा और नाक में पहनी हुयी नथ देख देख कर बहुत खुश हो रही थी और अपने प्रियतम से मिलने वाली प्रसंशा की कल्पना कर रही थी। इतने में एक पक्षी ने उसकी नाक में लगी मिठाई को देखकर झपट्टा मारा, जिससे नथ उसकी नाक को फाड़ती हुयी कुएं के पानी में जा गिरी और उसकी नाक मुफ्त में ही कट गई। तभी से यह कहावत चल पड़ी। इसी कहावत से मिलती हुयी एक और नीति आधारित कहावत है –
“जो धन जुरें अधर्म सें, बरस दसक ठहराय।
बरस ग्यारवीं लगत ही जरा मूंढ सें जाय॥“
शाब्दिक अर्थ : अधर्म से अर्जित किया हुआ धन, केवल दस वर्ष तक ही रुक पाता है। ग्यारवें वर्ष के लगते ही वह समूल नष्ट हो जाता है। अत: अधर्म की कमाई से बचने का प्रयत्न करना चाहिए।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ– परम संतोषी के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ कथा – कहानी # 18 – परम संतोषी भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
कुछ पर्वों को बैंक की शाखाओं में मिल जुल कर साथ मनाने की परंपरा प्राचीन है.अगर आप इसे दीपावली, होली, ईद या क्रिसमस समझ रहे हैं तो गलत हैं. ये पर्व होते हैं ऑडिट और इंस्पेक्शन तथा वार्षिक लेखाबंदी. दिवाली की तरह इनकी तैयारी भी पहले से शुरू हो जाती है, जिम्मेदारी से भरे अधिकारी विनम्र हो जाते हैं और पर्सनल रिलेशन को दुरुस्त करने में लग जाते है. सारी शिकवा शिकायतों को एड्रेस करने की प्रणाली काम करने लगती है. ये वो पर्व होते हैं जो रुटीन एकरसता को भंगकर, कर्मक्षेत्र में श्रेष्ठ प्रदर्शन की भावना से लोगों को चुस्त और दुरुस्त करने का कारण बन जाते हैं. ऐसे लोग भी जिसमें हमारे संतोषी साहब भी हैं,ब्रांच की बनती हुई टीम स्प्रिट में अपना और अपनी तरह का योगदान देने में ना नुकर नहीं करते. शाखाएं सिर्फ शाखा प्रबंधक नहीं चलाते हैं बल्कि कुशल प्रबंधन के चितेरे हमेशा अपने स्टॉफ रूपी टीम के “not playing but leading from the front” समान कप्तान होते हैं. बैंक शाखाएँ मानवीय संबंधों की उष्णता और मिठास से चलती हैं.शायद प्रशासन और प्रबंधन में यही बारीक अंतर है. जो समझ जाते हैं वो शाखा से विदा होने के बाद भी अपनी टीम के दिलों पर राज करते हैं और जो समझना छोड़कर मैं मैं की खोखली अकड़ में अकड़े रहते हैं, वो अपने उच्चाधिकारियों के लिये भी सरदर्द और इनकांपीटेंसी का उदाहरण बन जाते हैं और शाखा का स्टाफ भी समोसा छाप फेयरवेल पार्टियों के बाद या तो उनको भूल जाता है या याद आने पर मन ही मन या रंगीन पार्टियों में गालियां देता है.
अपने निर्धारित अंतराल पर किंतु बिना सूचना के वो पर्व आ ही गया जिसे इंस्पेक्शन कहा जाता है और जो हर शाखा प्रबंधक के कार्यकाल में घटता है. चूंकि यह शाखा मुख्य प्रबंधक शासित शाखा थी तो निरीक्षण पर सहायक महाप्रबंधक पधारे थे और उनके साथ थे मुख्य प्रबंधक. सहायक अभी तत्काल उपलब्ध नहीं था तो उसके बदले उनको आश्वासन मिला कि आप ब्रांच तो ओपन कीजिए, सही समय पर बंदा पहुंच जायेगा, खास जरूरत हो तो ब्रांच से ही मांग लेना, आपको कौन मना कर सकता है. वाकई बैंक और बारात में इनके आदेश की अवमानना असंभव और हानिकारक है पहले वर के पिता और दूसरा तो आप समझ ही गये होंगे, आखिर बैंक में तो आप भी थे सर जी.
इंस्पेक्शन के आगमन के साथ नियंत्रक महोदय का फोन आया, सारी व्यवस्थाओं की जानकारी ली, लक्ष्य दिया और हिदायत भी कि निरीक्षक महोदय को कोई भी शिकायत का अवसर नहीं देना.वार्तालाप खत्म होने के पहले ही नियंत्रक महोदय को अचानक याद आ गया और उन्होंने संतोषी जी की ईश्वरप्रदत्त प्रतिभा का संपूर्ण दोहन करने का निर्देश भी शाखा के मुख्य प्रबंधक महोदय को दिया. आज पहली बार शाखा के मुख्य प्रबंधक जी को संतोषी साहब के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ और उन्होंने अपने चैंबर में बुलाकर पहले तो उन्हें बैठ जाने का सम्मान दिया और फिर प्रेम की बूस्टर डोज़ के साथ कहा ” देखिये संतोषी साहब,आप वरिष्ठ हैं और अनुभवी भी.काम की चिंता आप छोड़ दीजिये,ये तो ये युवा ब्रिगेड संभाल ही लेगी.काम करने के दिन तो इन्हीं के हैं. आप तो इंस्पेक्शन टीम का ख्याल रखिये. इंस्पेक्शन की हालांकि कोई टीम नहीं होती, जो इसका हिस्सा होते हैं परिस्थितियों के कारण अंशकालिक समय का साथ होता है वरना पद, सर्किल, स्वभाव, शौक सब के व्यक्तिगत और अलग अलग ही होते हैं. पद से जुड़ा ईगो और निर्धारित समय में बदलते स्थानों पर काम पूरा करना, स्थानीय जलवायु और स्थान की विषमता अस्वस्थता और चिड़चिड़ापन व्यक्तित्व का हिस्सा बना देती हैं. संतोषी साहब बैंक के काम में भले ही 17/18/19 हों पर निरीक्षण के लिये पधारे अधिकारियों के प्रबंधन में 20 से भी ज्यादा कुशल थे. क्षेत्रीय प्रबंधक महोदय उनके गुणों से वाकिफ थे तो इन मामलों में उन पर विश्वास करते हुये ही उन्होंने संतोषी जी को वही रोल दिया जिसमें उनका प्रदर्शन पद्मश्री पुरस्कार की श्रेणी का रहता आया था.
दर असल अपने परिवार के साथ रहकर घर के सुस्वादु भोजन और अंतरंगता के साथ बैंक में काम करना सहज और मनोरंजक होता है. वहीँ निरीक्षण का असाइनमेंट ये सब सुविधायें छीन लेता है.तरह तरह की विषम जलवायु, छोटे बड़े सेंटर, अस्वच्छता से भरे हॉटल, सर्विस दे रहे होटल के कर्मचारियों का उबाऊ रूप, मसालेदार और सेहत के लिये हानिकारक भोजन व्यवस्था और अनवरत यात्राओं की मुश्किलें उनसे वो छीन लेती हैं जो ढलती उम्र में पैसों से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है याने सेहत. संतोषी जी मेहमानों की इस तकलीफ से वाकिफ थे तो वो समझते थे कि राहत कैसे दी जा सकती है और इंस्पेक्शन टीम का मूड किस तरह अनुकूल किया जा सकता है.
कथा जारी रहेगी और संतोषी जी अपने मेहमानों के संतोष के लिये क्या तरकीब प्रयोग में लाते हैं, जानने के लिए प्रतीक्षा करें …
☆ मी प्रवासिनी क्रमांक १८ भाग १ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆
झांबेझीवर झुलणारी झुंबरं
नैरोबीहून लुसाका इथे जाणाऱ्या विमानात बसलो होतो. लुसाका येण्यापूर्वी अर्धा तास वैमानिकाच्या केबिनमधून सर्वांना डावीकडे बघण्याची सूचना करण्यात आली. आफ्रिकेतल्या सर्वात उंच किलिमांजारो पर्वताचे विहंगम दर्शन विमानातून घडत होते. गडद निळसर- हिरव्या पर्वतमाथ्यावरचे शुभ्र पांढऱ्या बर्फाचे झुंबर सूर्यकिरणांमुळे चमचमत होते.
लुसाका ही झांबियाची राजधानी आहे. लुसाका येथून लिव्हिंग्स्टन इथे जगप्रसिद्ध ‘व्हिक्टोरिया फॉल्स’ बघायला जायचे होते. बसच्या खिडकीतून बाहेरचे रमणीय दृश्य दिसत होते. स्वच्छ सुंदर सरळसोट रस्त्यापलीकडे हिरव्या गवताची कुरणे होती. गहू, ऊस, मका, टोमॅटो, बटाटे यांची शेती दिसत होती. त्यात अधून-मधून अकेशिया ( एक प्रकारचा बाभूळ वृक्ष ) वृक्षांनी हिरवी छत्री धरली होती. हिरव्यागार, उंच, चिंचेसारखी पाने असलेल्या फ्लेमबॉयंट वृक्षांवर गडद केशरी रंगाच्या फुलांचे घोस लटकत होते. आम्रवृक्षांवर लालसर मोहोर फुलला होता.
थोड्याच वेळात अमावस्येचा गडद काळोख दाटला. काळ्याभोर आकाशाच्या घुमटावर तेजस्वी चांदण्यांची झुंबरं लखलखू लागली. आमच्या सोबतच्या बाबा गोडबोले यांनी दक्षिण गोलार्धातील त्या ताऱ्यांची ओळख करून दिली. नैऋत्य दिशेला शुक्रासारखा चमकत होता तो अगस्तीचा तेजस्वी तारा होता.सदर्न क्रॉस म्हणून पतंगाच्या आकाराचा तारकासमूह होता. आपल्याकडे उत्तर गोलार्धात हा तारका समूह फार कमी दिसतो.हूकसारख्या एस्् आकाराच्या मूळ नक्षत्रामधून आकाशगंगेचा पट्टा पसरला होता. मध्येच एक लालसर तारा चमचमत होता. साऱ्या जगावर असलेलं हे आभाळाचं छप्पर, त्या अज्ञात शक्तीच्या शाश्वत आशीर्वादासारखं वाटतं .
आम्ही जूनच्या मध्यावर प्रवासाला निघालो होतो. पण तिथल्या व आपल्या ऋतुमानात सहा महिन्यांचे अंतर आहे. तिथे खूप थंडी होती. लिव्हिंगस्टन इथल्या गोलिडे लॉजवर जेवताना टेबलाच्या दोन्ही बाजूंना उंच जाळीच्या शेगड्या ठेवल्या होत्या. दगडी कोळशातून लालसर अग्निफुले फुलंत होती त्यामुळे थंडी थोडी सुसह्य होत होती.
दुसऱ्या दिवशी आवरून रेल्वे म्युझियमपर्यंत पायी फिरून आलो. ब्रिटिशकालीन इंजिने त्यांच्या माहितीसह तिथे ठेवली आहेत. नंतर बसने व्हिक्टोरिया धबधब्याजवळच्या रेल्वे पुलावर गेलो.झांबेझी नदीवरील या पुलाला शंभराहून अधिक वर्षे झाली आहेत. हा रेल्वे पूल ब्रिटनमध्ये बनवून नंतर बोटीने इथे आणून जोडण्यात आला आहे. या रेल्वेपुलाला दोन्ही बाजूंनी जोडलेले रस्ते आहेत. पुलाच्या एका बाजूला झांबिया व दुसऱ्या बाजूला झिंबाब्वे हे देश आहेत. या देशांच्या सीमेवरून वाहणाऱ्या झांबेझी नदीवर हा विशालकाय धबधबा आहे. पुलाच्या मध्यावर उभे राहून पाहिलं तर उंचावरून कोसळणारा धबधबा आणि खोल दरीतून वर येणारे पांढरे धुक्याचे ढग यांनी समोरची दरी भरून गेली होती. त्या ढगांचा पांढरा पडदा थोडा विरळ झाला की अनंत धारांनी आवेगाने कोसळणारे पांढरेशुभ्र पाणी दिसे. इतक्या दूरही धबधब्याचे तुषार अंगावर येत होते.
दोन डोंगरकड्यांच्या मधून पुलाखालून वाहणारी झांबेझी नदी उसळत, फेसाळत मध्येच भोवऱ्यासारखी गरगरत होती.पुलाच्या दुसऱ्या बाजूला बंगी जम्पिंगचा चित्तथरारक खेळ सुरू होता. कमरेला दोरी बांधून तरूण-तरूणी तीनशे फूट खोल उड्या मारत होत्या.झांबेझीने आपल्या प्रवाहात इंद्रधनुष्याचा झोपाळा टांगला होता. इंद्रधनुच्या झोक्यावर साहसी तरुणाई मजेत झोके घेत होती. साखरेच्या कंटेनर्सनी भरलेली एक लांबलचक मालगाडी रेल्वे पुलावरून टांझानियाच्या दारेसलाम बंदराकडे चालली होती.झांबियाची ही साखर जपान,अरब देश वगैरे ठिकाणी निर्यात होते.
दुपारी म्युझियम पाहायला गेलो. जगातील सर्वात प्राचीन मनुष्यवस्तीच्या खुणा आफ्रिकेत सापडतात. एक लक्ष वर्षांपूर्वीपासून मनुष्य वस्ती असल्याचे पुरावे या म्युझिअममध्ये ठेवले आहेत. अश्मयुगातील दगडी गुहांची घरे, त्याकाळच्या मनुष्याच्या कवट्या,दात हाडे आहेत. आदिमानवाने दगडावर कोरलेली चित्रे, मण्यांचे दागिने, शिकारीची हत्यारे, लाकडी भांडी, गवताने शाकारलेल्या झोपड्या, गवती टोपल्या, अनेक प्रकारचे प्राणी, पक्षी, झाडांचे नमुने व माहिती दिलेली आहे.बाओबाओ नावाचा एक वैशिष्ट्यपूर्ण वृक्ष आहे. त्याला भाकरीचे झाड असेही म्हणतात. या झाडाची फळे खाऊन आदिमानवाचा उदरनिर्वाह होत असे. पिवळसर बुंधे असलेले हे बाओबाओ वृक्ष म्हणजे हत्ती व जिराफ यांचे आवडते खाणे आहे.
नंतर हेलिकॉप्टर राईडसाठी जायचे होते. एका वेळी तीन जणांना घेऊन हेलिकॉप्टर झेप घेते. झांबेझीच्या प्रवाहाभोवतीचा दलदलीचा प्रदेश, तसेच त्यातील पाणघोडे, हत्ती,गेंडे यांचे जवळून दर्शन झाले. आफ्रिकेतील गेंड्यांच्या नाकावर दोन शिंगे असतात. आपल्याकडे आसाममधील गेंडे एकशिंगी असतात. दरीतून वाहणाऱ्या झांबेझीच्या दोन्ही कडांवर इंद्रधनुष्याचे पंख पसरले होते. हेलिकॉप्टरबरोबर ते इंद्रधनुष्य पुढे पुढे धावत होते. हेलिकॉप्टरच्या पट्टीवर उतरलो तर समोर पन्नास फुटांवरून दहा-बारा थोराड हत्ती- हत्तीणी व त्यांच्या पिल्लांचा डौलदार कळप गजगतीने एका सरळ रेषेत निघून गेला.
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है बुंदेली गीत “हिलमिलकर ही जीवन जीना… ”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 19 – सजल – हिलमिलकर ही जीवन जीना… ☆
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )
आज प्रस्तुत है श्रद्धा सुमन – स्वर साम्राज्ञी लता ।