श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – परम संतोषी   के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)     

☆ कथा – कहानी # 18 – परम संतोषी भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

कुछ पर्वों को बैंक की शाखाओं  में मिल जुल कर साथ मनाने की परंपरा प्राचीन है.अगर आप इसे दीपावली, होली, ईद या क्रिसमस समझ रहे हैं तो गलत हैं. ये पर्व होते हैं ऑडिट और इंस्पेक्शन तथा वार्षिक लेखाबंदी. दिवाली की तरह इनकी तैयारी भी पहले से शुरू हो जाती है, जिम्मेदारी से भरे अधिकारी विनम्र हो जाते हैं और पर्सनल रिलेशन को दुरुस्त करने में लग जाते है. सारी शिकवा शिकायतों को एड्रेस करने की प्रणाली काम करने लगती है. ये वो पर्व होते हैं जो रुटीन एकरसता को भंगकर, कर्मक्षेत्र में श्रेष्ठ प्रदर्शन की भावना से लोगों को चुस्त और दुरुस्त करने का कारण बन जाते हैं. ऐसे लोग भी जिसमें हमारे संतोषी साहब भी हैं,ब्रांच की बनती हुई टीम स्प्रिट में अपना और अपनी तरह का  योगदान देने में ना नुकर नहीं करते. शाखाएं सिर्फ शाखा प्रबंधक नहीं चलाते हैं बल्कि कुशल प्रबंधन के चितेरे हमेशा अपने स्टॉफ रूपी टीम के “not playing but leading from the front” समान कप्तान होते हैं. बैंक शाखाएँ मानवीय संबंधों की उष्णता और मिठास से चलती हैं.शायद प्रशासन और प्रबंधन में यही बारीक अंतर है. जो समझ जाते हैं वो शाखा से विदा होने के बाद भी अपनी टीम के दिलों पर राज करते हैं और जो समझना छोड़कर मैं मैं की खोखली अकड़ में अकड़े रहते हैं, वो अपने उच्चाधिकारियों के लिये भी सरदर्द और इनकांपीटेंसी का उदाहरण बन जाते हैं और शाखा का स्टाफ भी समोसा छाप फेयरवेल पार्टियों के बाद या तो उनको भूल जाता है या याद आने पर मन ही मन या रंगीन पार्टियों में गालियां देता है.

अपने निर्धारित अंतराल पर किंतु बिना सूचना के वो पर्व आ ही गया जिसे इंस्पेक्शन कहा जाता है और जो हर शाखा प्रबंधक के कार्यकाल में घटता है. चूंकि यह शाखा मुख्य प्रबंधक शासित शाखा थी तो निरीक्षण पर सहायक महाप्रबंधक पधारे थे और उनके साथ थे मुख्य प्रबंधक. सहायक अभी तत्काल उपलब्ध नहीं था तो उसके बदले उनको आश्वासन मिला कि आप ब्रांच तो ओपन कीजिए, सही समय पर बंदा पहुंच जायेगा, खास जरूरत हो तो ब्रांच से ही मांग लेना, आपको कौन मना कर सकता है. वाकई बैंक और बारात में इनके आदेश की अवमानना असंभव और हानिकारक है पहले वर के  पिता और दूसरा तो आप समझ ही गये होंगे, आखिर बैंक में तो आप भी थे सर जी.

इंस्पेक्शन के आगमन के साथ नियंत्रक महोदय का फोन आया, सारी व्यवस्थाओं की जानकारी ली, लक्ष्य दिया और हिदायत भी कि निरीक्षक महोदय को कोई भी शिकायत का अवसर नहीं देना.वार्तालाप खत्म होने के पहले ही नियंत्रक महोदय को अचानक याद आ गया और उन्होंने संतोषी जी की ईश्वरप्रदत्त प्रतिभा का संपूर्ण दोहन करने का निर्देश भी शाखा के मुख्य प्रबंधक महोदय को दिया. आज पहली बार शाखा के मुख्य प्रबंधक जी को संतोषी साहब के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ और उन्होंने अपने चैंबर में बुलाकर पहले तो उन्हें बैठ जाने का सम्मान दिया और फिर प्रेम की बूस्टर डोज़ के साथ कहा ” देखिये संतोषी साहब,आप वरिष्ठ हैं और अनुभवी भी.काम की चिंता आप छोड़ दीजिये,ये तो ये युवा ब्रिगेड संभाल ही लेगी.काम करने के दिन तो इन्हीं के हैं. आप तो इंस्पेक्शन टीम का ख्याल रखिये. इंस्पेक्शन की हालांकि कोई टीम नहीं होती, जो इसका हिस्सा होते हैं परिस्थितियों के कारण अंशकालिक समय का साथ होता है वरना पद, सर्किल, स्वभाव, शौक सब के व्यक्तिगत और अलग अलग ही होते हैं. पद से जुड़ा ईगो और निर्धारित समय में बदलते स्थानों पर काम पूरा करना, स्थानीय जलवायु और स्थान की विषमता अस्वस्थता और चिड़चिड़ापन व्यक्तित्व का हिस्सा बना देती हैं. संतोषी साहब बैंक के काम में भले ही 17/18/19 हों पर निरीक्षण के लिये पधारे अधिकारियों के प्रबंधन में 20 से भी ज्यादा कुशल थे. क्षेत्रीय प्रबंधक महोदय उनके गुणों से वाकिफ थे तो इन मामलों में उन पर विश्वास करते हुये ही उन्होंने संतोषी जी को वही रोल दिया जिसमें उनका प्रदर्शन पद्मश्री पुरस्कार की श्रेणी का रहता आया था.

दर असल अपने परिवार के साथ रहकर घर के सुस्वादु भोजन और अंतरंगता के साथ बैंक में काम करना सहज और मनोरंजक होता है. वहीँ निरीक्षण का असाइनमेंट ये सब सुविधायें छीन लेता है.तरह तरह की विषम जलवायु, छोटे बड़े सेंटर, अस्वच्छता से भरे हॉटल, सर्विस दे रहे होटल के कर्मचारियों का उबाऊ रूप, मसालेदार और सेहत के लिये हानिकारक भोजन व्यवस्था और अनवरत यात्राओं की मुश्किलें उनसे वो छीन लेती हैं जो ढलती उम्र में पैसों से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है याने सेहत. संतोषी जी मेहमानों की इस तकलीफ से वाकिफ थे तो वो समझते थे कि राहत कैसे दी जा सकती है और इंस्पेक्शन टीम का मूड किस तरह अनुकूल किया जा सकता है.

कथा जारी रहेगी और संतोषी जी अपने मेहमानों के संतोष के लिये क्या तरकीब प्रयोग में लाते हैं, जानने के लिए प्रतीक्षा करें …

 

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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