हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 146 ☆ जीवन यात्रा – श्री सुशील सिद्धार्थ, एक  व्यंग्यकार, समीक्षक, संपादक और सहज इंसान ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  आपका एक आलेख  श्री सुशील सिद्धार्थ, एक  व्यंग्यकार, समीक्षक, संपादक और सहज इंसान

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 146 ☆

? जीवन यात्रा – श्री सुशील सिद्धार्थ, एक  व्यंग्यकार, समीक्षक, संपादक और सहज इंसान ?

किसी भी कवि लेखक या व्यंग्यकार की रचनाओ में उसके अनुभवो की अभिव्यक्ति होती ही है.  रचनाकार का अनुभव संसार जितना विशद होता है, उसकी रचनाओ में

उतनी अधिक विविधता और परिपक्वता देकने को मिलती है. जितने ज्यादा संघर्ष रचनाकार ने जीवन में किये होते हैं उतनी व्यापक करुणा उसकी कविता में परिलक्षित होती है , कहानी और आलेखो में दृश्य वर्णन की वास्तविकता भी रचनाकार की स्वयं या अपने परिवेश के जीवन से तादात्म्य की क्षमता पर निर्भर होते हैं. रोजमर्रा  की दिल को  चोटिल कर देने वाली घटनायें व्यंग्यकार के तंज को जन्म देती हैं.

श्री सुशील अग्निहोत्री एक प्राध्यापक के पुत्र थे. अध्ययन में अव्वल. हिन्दी में उन्होने पी एच डी की उपाधि गोल्ड मेडल के साथ अर्जित की. स्वाभाविक था कि विश्वविद्यालय में ही वे शिक्षण कार्य से जुड़ जाते. पर  नियति को उन्हें  अनुभव के विविध संसार से गुजारना था. सुप्रतिष्ठित नामो के आवरण के अंदर के यथार्थ चेहरो से सुपरिचित करवाकर उनके व्यंग्यकार को मुखर करना था. आज तो अंतरजातीय विवाह बहुत आम हो चुके हैं किन्तु पिछली सदी के अतिम दशक में जब सिद्धार्थ जी युवा थे यह बहुत आसान नही होता था. सुशील जी को विविध अनुभवो से सराबोर लेखक संपादक समीक्षक बनाने में उनके  अंतरजातीय प्रेम विवाह का बहुत बड़ा हाथ रहा. इसके चलते उन्होने विवाह के एक ऐसे प्रस्ताव को मना कर दिया, जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें विश्वविद्यालयीन शिक्षण कार्य की नौकरी नही मिल सकी, और वे फ्रीलांसर लेखक बन गये. स्थायित्व के अभाव में वे लखनऊ, मुम्बई, वर्धा, दिल्ली में कई संस्थाओ और कई व्यक्तियो के लिये अखबार, पत्रिकाओ, शिक्षण संस्थाओ, प्रकाशन संस्थानो के लिये लेखन कर्म से जुड़े तरह तरह के कार्य करते रहे.

प्रारंभ में वे लखनऊ से अवधी में अधिक लिखते रहे. तभी उनके दो अवधी कविता संग्रह आये जिसके लिये उन्हें उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान से नामित पुरस्कार मिले.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ #89 ☆ चाहे जितना जोर लगा लो… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “चाहे जितना जोर लगा लो…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 89 ☆ चाहे जितना जोर लगा लो… 

वादों के जुमलों से घिरे हुए मतदाता आखिरकार वोटिंग बूथ तक पहुँच ही गए। अब किस चुनाव चिन्ह का बटन दबाएंगे ये तो उनके विवेक पर निर्भर करता है। यहाँ तक आने से पहले उन्होंने वाद, विवाद, संवाद, प्रतिवाद सभी का सहारा लिया है। अंत में निर्विवाद रूप से जातिगत समीकरणों को धता देते हुए कार्यों की गुणवत्ता को ही आबाद करने का सामूहिक निर्णय नजरों ही नजरों में ले लिया है।

मजे की बात ये है कि इस बार रिपोर्टर ये नहीं पूछ रहे हैं कि आपने किसे वोट दिया बल्कि एक कदम आगे बढ़ते हुए ये पता लगाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं कि किन मुद्दों पर मतदान हुआ है। अक्सर ही ओपिनियन पोल चुनावी परिणामों से नहीं मिलता है जिससे उनके चैनल की प्रतिष्ठा दाँव पर लग जाती है। जितनी मायूसी हारने वाले खेमे को होती है उससे कहीं ज्यादा चैनल के सी ई ओ को होती है। उसे बड़े दलों का जिम्मा आगे के चुनावों में नहीं दिया जाता है। यही तो समय है ये देखने का कि उन्होंने माहौल निर्मित करने में कितना जोर लगाया है। निष्पक्ष होने का दावा करने के बाद भी कौन किस दल के प्रचार में लगा हुआ ये साफ दिखता है।

जो दिखता है वही बिकता है। ये स्लोगन केवल वस्तुओं की बिक्री हेतु लागू नहीं होता है। इसका उपयोग सभी क्षेत्रों में बखूबी हो रहा है। एक- एक मतदाता को लुभाना उसे अपनी पार्टी की विचारधारा से जोड़ना; ये सब कुछ ही दिनों के भीतर करना कोई जादुई कार्य ही तो है।आँखों की नींद उनकी वाणी से साफ झलकती है। कोई मुखिया अपने प्रत्याशी को ही नहीं पहचानता क्योंकि उसने हाल में ही पार्टी की बागडोर संभाली है। उसके शुभचिंतक ही उसे बताते हैं कि आज आपको इनके लिए बोलना है। बोलने से याद आया, कुछ भी बोलो; बस अंत में चुनाव चिन्ह सही बोलना क्योंकि कोई कुछ भी ध्यान नहीं दे रहा है वो तो स्टार प्रचारक को नजदीक से देखना चाहता है सो यहाँ बैठा हुआ है।

कई लोग तो विवशता वश अपना ही प्रचार नहीं कर पा रहे हैं पर उन्हें व उनके समर्थकों को विश्वास है कि वे भारी बहुमत से जीतेंगे। कथनी और करनी का तालमेल तो चुनाव परिणाम वाले दिन ही पता चलेगा बस इंतजार है कि मतदाता किन बातों से प्रभावित हो रहा उसकी समीक्षा का क्योंकि अगले चुनावों की भी भूमिका इसी बात पर तो निर्भर करेगी।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 98 ☆ बाल कविता – चले शयन को अपने घर ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है आपकी एक बाल कविता  “चले शयन को अपने घर”.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 98 ☆

☆ बाल कविता – चले शयन को अपने घर ☆ 

पश्चिम दिग में सूरज दादा

चले शयन को अपने घर।

कई दिनों में धूप है निकली

जाड़े जी भागे डर कर।।

 

श्वान खेलते हैं बालू में

गंगा की लहरें अनुपम।

बनती, बिगड़ें बार – बार हैं

आँखें भी थकती हैं कब।

 

पुष्प गुच्छ ,मालाएँ बहकर

चले जा रहे नई डगर।

पश्चिम दिग में सूरज दादा

चले शयन को अपने घर।।

 

चली शुकों की टोली – टोली

गीतों का गायन करतीं।

बुलबुल बोलें नई धुनों में

जीवन के रस हैं भरतीं।

 

कटी पतंग गिरी है जल में

बही जा रही नई समर।

पश्चिम दिग में सूरज दादा

चले शयन को अपने घर।।

 

जलमुर्गी और सोनचिरैया

गंगा के जल में तैरें।

शीतल जल भी लगता कोमल

खूब मजे से करतीं सैरें।

 

पूर्व से पश्चिम को गंगा

बहती हैं जीवन पथ पर।

पश्चिम दिग में सूरज दादा

चले शयन को अपने घर।।

 

जलपक्षी भी कभी तैरते

कभी उड़ें जल के ऊपर।

घर भी उनका गंगा तट है

आसमान की छत सिर पर।

 

जाने क्या – क्या चलीं बहाकर

मानव के पापों को भर।

पश्चिम दिग में सूरज दादा

चले शयन को अपने घर।।

 

जो भी आए खुश हो जाए

गंगा के पावन तट पर।

स्वच्छ रखें गंगा को हम सब

नहीं डालते कचरा पर।

 

पुण्य करें , न पाप कमाएँ

हम सब रखें स्वच्छ मगर।

पश्चिम दिग में सूरज दादा

चले शयन को अपने घर।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆पवन कुमार वर्मा की श्रेष्ठ बाल कहानियां ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। आज प्रस्तुत है  आपके द्वारा श्री पवन कुमार वर्मा जी की पुस्तक “पवन कुमार वर्मा की श्रेष्ठ बाल कहानियांकी समीक्षा।

☆ पुस्तक समीक्षा ☆ पवन कुमार वर्मा की श्रेष्ठ बाल कहानियां ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆ 

पुस्तक- पवन कुमार वर्मा की श्रेष्ठ बाल कहानियां

प्रकाशक- निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर, 37-शिवराम कृपा, विष्णु कॉलोनी, शाहगंज, आगरा (उत्तर प्रदेश) 94588 009 531

पृष्ठ संख्या- 160 

मूल्य- ₹500

बच्चों की पुस्तक बच्चों के अनुरूप होना चाहिए। उनकी कहानी रोचक हो। आरंभ में जिज्ञासा का पुट हो। कहानी पढ़ते ही उसमें आगे क्या होगा? का भाव बना रहे। वाक्य छोटे हो। प्रवाह के साथ कथा आगे बढ़ती रहे। तब वे बच्चों को अच्छी लगती है।

इस हिसाब से पवन कुमार वर्मा की कहानियां उम्दा है। वे पेशे से अभियंता है। मगर मन से बाल साहित्यकार। आपने बालसाहित्य में अपनी कलम बखूबी चलाई है। इनकी समस्त कहानियां सोउद्देश्य होती है। बिना उद्देश्य इन्होंने कुछ नहीं लिखा है।

प्रस्तुत समीक्ष्य कहानी संग्रह आपकी कहानियों का चुनिंदा संग्रह है। इसमें संग्रहित कहानियां आप के विभिन्न संग्रह से ली गई है। इनका चयन कहानियों की श्रेष्ठता के आधार पर किया गया है। आपकी जो कहानियां ज्यादा चर्चित रही है उन्हीं कहानियों को इस संग्रह में लिया गया है।

इस मापदंड से देखें तो यह कहानी संग्रह अन्य कहानी संग्रह से उम्दा है। इसमें चयनित कहानियां बहुत चर्चित व पठनीय रही है। इस कारण से इन्हें पवन कुमार की श्रेष्ठ कहानियां के रूप में संकलित किया गया है।

भाषा शैली की दृष्टि से आपने मिश्रित भाषाशैली का उपयोग किया है। अधिकांश कहानियां वर्णन के साथ शुरू होती है। मगर वर्णन में रोचकता का समावेश हैं। संवाद चुटीले हैं। भाषा सरल और संयत है। कहानी में तीव्रता का समावेश है। इस कारण कथा में गति बनी रहती है।

मिट्ठू चाचा कहानी आपके मिट्ठू चाचा संग्रह से ली गई है। इस कहानी में शरारती बच्चों को मिट्ठू चाचा की सहृदयता का ज्ञान अचानक हो जाता है। वे अपनी शरारत छोड़ देते हैं। तीन-तीन राजा- कहानी पर्यावरण की स्वच्छता पर एक नई दृष्टि से बुनी गई है। इसका कथानक बहुत ही बढ़िया और रोचक है।

घमंड चूर हो गया- आपसी ईर्ष्या को दर्शाती एक अच्छी कहानी है। इसमें घमंड को दूर करने का अच्छा रास्ता अपनाया गया है। कहानी में अंत का पैरा अनावश्यक प्रतीत होता है। मोटा चूहा पकड़ा गया- घर के सामान की परेशानी और चूहे की समस्या का अच्छा समाधान प्रस्तुत करती है।

मोती की नाराजगी- में गौरैया और मोती के द्वारा कहानी का सुंदर ताना-बाना बुना गया है। कौन, किससे और कैसे नाराज हो सकता है? बच्चों को अच्छी तरह समझ में आ जाता है। वही पिंकू सुधर गया- कहानी में पिंकू की शरारत का अच्छा चित्रण किया गया है।

अनोखी दोस्ती- में दीपू के द्वारा तोते की आजादी को बेहतर ढंग से प्रदर्शित किया गया है। खुशी के आंसू- सृष्टि द्वारा गर्मी की छुट्टियों के सदुपयोग पर प्रकाश डालती है। दावत महंगी पड़ी- में कौए और कोयल द्वारा नारद विद्या पर अच्छा प्रकाश डाला गया है।

प्रणय ने राह दिखाई- बच्चों को स्कूल में श्रम सिखाने का प्रयास करती है। वही सुधर गया विनोद- में शरारत का अंत बेहतर ढंग से किया गया है। वहीं खेल-खेल में- बहुत बढ़िया सीख दे जाती है।

सच्चा दोस्त, समझदारी, असली जीत, दीपू की समझदारी, बात समझ में आई, अंधविश्वास, हम सबका साथ हैं, नई साइकिल, कहानी बच्चों को अपने शीर्षक अनुरूप बढ़िया कथा प्रस्तुत करती है। वही अच्छा सबक मिला, देश हमारा हमको प्यारा, दादाजी का मौनव्रत, गांव की सैर, आदत छूट गई, कल की बात पुरानी, नया साल, रामदेव काका, चोर के घर में चोर, मम्मी मान गई, कहानियां कथानक के हिसाब से रोचक व शीर्षक के हिसाब से उद्देशात्मक है। इनकी सकारात्मकता बच्चों को बहुत अच्छी लगेगी।

कुल मिलाकर पवन कुमार वर्मा की श्रेष्ठ कहानियां बच्चों के मन के अनुरूप व श्रेष्ठ है। इनमें रोचकता का समावेश है। वाक्य छोटे और प्रभावी हैं। कथा में प्रवाह हैं। अंत सकारात्मक है। यानी बालसाहित्य के रूप में कहानी संग्रह उम्दा बन पड़ा है।

त्रुटिरहित छपाई और आकर्षक मुख्य पृष्ठ ने पुस्तक का आकर्षण द्विगुणित हो गया है। हार्ड कवर में 160 पृष्ठों की पुस्तक का मूल्य ₹500 ज्यादा लग सकता है। मगर साहित्य की उपयोगिता के हिसाब से यह मूल्य वाजिब है। आशा की जा सकती है कि बाल साहित्य के क्षेत्र में इस संग्रह का नाम बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाएगा।

समीक्षक –  ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 100 – अष्टविनायक…! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य # 100 ?

☆ अष्टविनायक…! 

मोरगावी मोरेश्वर

होई यात्रेस आरंभ

अष्ट विनायक यात्रा

कृपा प्रसाद प्रारंभ….!

 

गजमुख सिद्धटेक

सोंड उजवी शोभते

हिरे जडीत स्वयंभू

मूर्ती अंतरी ठसते….!

 

बल्लाळेश्वराची मूर्ती

पाली गावचे भूषण

हिरे जडीत नेत्रांनी

करी भक्तांचे रक्षण….!

 

महाडचा विनायक

आहे दैवत कडक

सोंड उजवी तयाची

पाहू यात एकटक….!

 

थेऊरचा चिंतामणी

लाभे सौख्य समाधान

जणू चिरेबंदी वाडा

देई आशीर्वादी वाण…!

 

लेण्याद्रीचा गणपती

जणू निसर्ग कोंदण

रुप विलोभनीय ते

भक्ती भावाचे गोंदण….!

 

ओझरचा विघ्नेश्वर

नदिकाठी देवालय

नवसाला पावणारा

देई भक्तांना अभय….!

 

महागणपती ख्याती

त्याचा अपार लौकिक

रांजणगावात वसे

मुर्ती तेज अलौकिक….!

 

अष्टविनायक असे

करी संकटांना दूर

अंतरात निनादतो

मोरयाचा एक सूर….!

 

© सुजित कदम

संपर्क – 117,विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक–श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ विदुषी घोषा… ☆ सौ कुंदा कुलकर्णी ग्रामोपाध्ये ☆

सौ कुंदा कुलकर्णी

? मनमंजुषेतून ?

☆ विदुषी घोषा… ☆ सौ कुंदा कुलकर्णी ☆ 

ऋग्वेद काळात अनेक ऋषिका होऊन गेल्या. त्यातील घोषा या विदुषी ची कथा आपण ऐकूया.

घोषा ही दीर्घतामस ऋषींची नात व कक्षीवान ऋषींची कन्या. ऋषींच्या आश्रमात ती सगळ्यांची लाडकी होती पण दुर्दैवाने लहानपणीच तिच्या सर्व अंगावर कोड उठले. त्यामुळे तिने लग्नच केले नाही. अध्यात्मिक साधनेत तिने स्वतःला गुंतवून टाकले. तिला अनेक मंत्रांचा साक्षात्कार झाला. तिने स्वतः अनेक मंत्र आणि वैदिक सूक्ते रचली. ऋग्वेदाच्या दशम मंडलात तिने दोन पूर्ण अध्याय लिहिले आहेत. प्रत्येक अध्यायात 14/ 14 श्लोक आहेत. आणि सामवेदामध्ये सुद्धा तिचे मंत्र आहेत.

ती साठ वर्षांची झाली. त्यावेळेला तिच्या एकदम लक्षात आले की आपल्या पित्याने अश्विनीकुमारांच्या कृपेमुळे आयुष्य, शक्ती आणि आरोग्य प्राप्त केले होते. आपणही अश्विनीकुमार यांना साकडे घालू.

अश्विनी कुमार यांना प्रसन्न करून घेण्यासाठी घोषाने उग्र तप केले.”अभूतं गोपा मिथुना शुभस्पती प्रिया

अर्यम्णो  दुर्या अशीमहि ” अश्विनीकुमार प्रसन्न झाले आणि त्यांनी तिला वर मागण्यास सांगितले. तिच्या इच्छेनुसार त्यांनी तिचे कोड नाहीसे केले  व ती रूपसंपन्न यौवना बनली. त्यानंतर तिचा विवाह झाला. तिला दोन पुत्र झाले. त्यांची नावे तिने घोषेय आणि सुहस्त्य अशी ठेवली. दोघांना तिने विद्वान बनवले. युद्ध कौशल्यात देखील ते निपुण होते.

घोषाने जी सूक्ते रचली याचा अर्थ असा आहे की,”हे अश्विनी देवा आपण

अनेकांना रोगमुक्त करता.आपण अनेक रोगी लोकांना आणि दुर्बलांना नवीन जीवन देऊन त्यांचे रक्षण करता. मी तुमचे गुणगान करते .आपण माझ्यावर कृपा करून माझे रक्षण करा आणि मला समर्थ बनवा. पिता आपल्या मुलांना उत्तम शिक्षण देतो तसे उत्तम शिक्षण, आणि ज्ञान तुम्ही मला  द्या. मी एक ज्ञानी आणि बुद्धिमान स्त्री आहे. तुमचे आशीर्वाद मला दुर्दैवा पासून वाचवतील. तुमच्या आशीर्वादाने माझ्या मुलांनी आणि नातवांनी चांगले जीवन जगावे. तिच्या तपश्‍चर्येने प्रसन्न होऊन  अश्विनी कुमारांनी तिला मधुविद्या  दिली . वैदिक अध्यापन शिकवले. रुग्णांना रोगमुक्त  करण्यासाठी , अनुभव, ज्ञान मिळवण्यासाठी, त्वचेच्या आजारापासून बरे होण्यासाठी गुप्‍त शिक्षण विज्ञान शिकवले.

अशाप्रकारे कोडा सारख्या दुर्धर रोगाने  त्रासलेल्या या घोषाने वेदांचे रहस्य उलगडून दाखवण्याचे सर्वतोपरी प्रयत्न केले. तिने एकाग्रतेने अभ्यास केला आणि तिला वैदिक युगातील धर्मप्रचारिका ब्रह्मवादिनी घोषा हे स्थान प्राप्त झाले. अशा या बुद्धिमान, धडाडीच्या वैदिक स्त्रीला शतशत नमन.

© सौ. कुंदा कुलकर्णी ग्रामोपाध्ये

क्यू 17,  मौर्य विहार, सहजानंद सोसायटी जवळ कोथरूड पुणे

मो. 9527460290

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#120 ☆ जैसे-जैसे उथली होती गई नदी… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज  नर्मदा जयंती के पुनीत अवसर पर प्रस्तुत है भावप्रवण रचना “जैसे-जैसे उथली होती गई नदी…”)

☆  तन्मय साहित्य  #120 ☆

☆ जैसे-जैसे उथली होती गई नदी… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

जैसे-जैसे उथली होती गई नदी

वैसे-वैसे अधिक उछलती गई नदी।

 

अपने मौसम में, प्रभुता पा बौराई

तोड़ दिए तटबंध, मचलती गई नदी।

 

तीव्र वेग से आगे बढ़ने की चाहत

प्रतिपल तिलतिल कर के ढलती गई नदी। 

 

हवस भरे मन में कब सोच समझ रहती             

उद्वेलन में रूप बदलती गई नदी।

 

उतरा ज्वर यौवन का तन-मन शिथिल हुआ

मदहोशी में, खुद को छलती गई नदी।

 

बनी कोप भाजन अपनों से ही वह जब

है अंजाम किए के, जलती गई नदी।

 

तेवर सूरज के सहना भी तो  जायज

हो सचेत यूँ  स्वयं सुधरती गई नदी।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से#13 ☆ गीत – देह महक उठी— ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन। ) 

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर गीत  “देह महक उठी”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 13 ✒️

?  गीत – देह महक उठी —  डॉ. सलमा जमाल ?

(गीत बसंत)

देह महक उठी ,

स्वासों की सुगंध में ।

छाया ऋतुराज बसंत ,

गीत और छंद में ।।

 

व्याप्त है चहुं ओर ,

अनुपमता निसर्ग की ,

धरती पर छटा आज ,

बिखरी है स्वर्ग की ,

प्रसन्नता मानव ,

विहग – खग – वृंद में ।

छाया ————————— ।।

 

सुरभित हुईं दिशाएं ,

परिणति दृष्टि विनिमय ,

देख कर मौन प्रणय ,

गगन भी आज विस्मय ,

कूकती – कोयलिया ,

अमराई के झुंड में ।

छाया ————————– ।।

 

बसंती भोर में ,

दिग्दिगंत पूर्ण मधुमय ,

गा रहे नव पल्लव ,

रति का इतिहास तन्मय ,

गुंजित भ्रमावली ,

कानन – कुंज – निकुंज में ।

छाया ————————— ।।

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 96 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 7 – जो जैसी करनी करें … ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 96 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 7 – जो जैसी करनी करें … ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

जो जैसी करनी करें, सो तैसों फल पाय।

बेटी पौंची राजघर, बाबैं बँदरा खाय॥

शाब्दिक अर्थ :- बुरे काम करने का फल  भी बुरा ही मिलता है। बुरे सोच के साथ किसी अच्छी वस्तु की प्राप्ति नहीं हो सकती है। ऐसी ही एक सुकन्या से विवाह की इच्छा रखने वाले बुरे विचार के साधू (बाबैं) को बंदरों (बँदरा) ने काट खाया और सुकन्या का विवाह साधू की जगह राजकुमार से हो गया।

इस बुन्देली कहावत के पीछे जो कहानी है वह बड़ी मजेदार है, आन्नद लीजिए। सुनार नदी के किनारे बसे रमपुरवा गाँव में एक बड़ा पुराना शिवालय था। गाँव के लोगों की मंदिर में विराजे भगवान शिव पर अपार श्रद्धा थी। गामवासी प्रतिदिन सुबह सबेरे नदी में स्नान करते और फिर भोले शंकर को जल ढारकर अपने अपने काम से लग जाते। एक दिन एक साधू कहीं से घूमता घामता गाँव में आया और उसने मंदिर में डेरा डाल दिया। मंदिर की और शिव प्रतिमा की साफ सफाई के बाद वह भजन गाने लगा। गाँव वालों को अक्सर भजन गाता,मंजीरा बजाता  यह सीधा साधा साधू बहुत पुसाया और वे उसे प्रतिदिन कुछ कुछ न कुछ भोजनादी सामग्री भेंट में देने लगे। इस प्रकार साधू ने मंदिर के पास एक कुटिया बना ली और वहीं रम गया। गाँव के लोग अक्सर साधू से अपनी समस्या पूंछते, बैल गाय घुम जाने अथवा अन्य परेशानियों का उपाय पूंछते और साधू उसका समाधान बताता। गाँव की महिलाएँ और कन्याएँ भी कहाँ पीछे रहती वे भी अपने दांपत्य सुख को लेकर या विवाह के बारे में साधू से पूंछती  और साधू उन्हे उनके मनवांछित जबाब दे  देता। इस प्रकार साधू की कीर्ति आसपास के अनेक गाँवों में फैल गयी।  रमपुरवा गाँव से कोई पांचेक मील दूर सुनार नदी किनारे एक और गाँव था बरखेड़ा। इस गाँव में एक विधवा ब्राम्हणी, अपनी सुंदर युवा पुत्री के साथ, रहती थी । पुत्री विवाह योग्य हो गई थी पर गरीबी के कारण उसका विवाह नहीं हो पा रहा था। जब विधवा ब्राम्हणी और कन्या ने ने इस साधू की ख्याति सुनी तो वे भी, रमपुरवा गाँव  के शिवालय साधू से मिल, विवाह  के बारे में जानने पहुँची। साधू उस सुंदर कन्या पर रीझ गया और उससे विवाह करने का इच्छुक हो गया किन्तु साधू होने के कारण वह ऐसा कर नहीं सकता था। अत: उसने विधवा ब्राम्हणी से कहा कि कन्या का भाग्य बहुत खराब है और इस पर सारे बुरे ग्रहों की कुदृष्टि है। इसके निवारण का उपाय करने वह स्वयं अमावस्या के दिन बरखेड़ा गाँव आयेगा। नियत तिथी को साधू विधवा ब्राम्हणी के घर पहुँचा और उसने उसकी छोटी सी झोपड़ी कों देख कर कहा इस जगह रहने से इस कन्या का विवाह जीवन भर न होगा अत: यह झोपड़ी  छोडनी पडेगी। विधवा ब्राम्हणी बिचारी पहले से ही गरीब थी नई झोपड़ी बनाने पैसा कहाँ से लाती इसलिए उसने साधू से कोई दूसरा उपाय बताने को कहा। साधू तो मौके कि तलाश में ही था उसने सलाह दी कि कन्या को एक पेटी में बंद कर नदी में बहा दो एकाध दिन बाद कन्या किनारे लग कर बरखेड़ा गाँव वापस आ जाएगी और इससे बुरे ग्रहों की कुदृष्टि का दोष दूर हो जाएगा और इसका विवाह किसी धनवान से हो जाएगा तथा ससुराल में कन्या राज करेगी। विधवा ब्राम्हणी कन्या का उज्ज्वल भविष्य की सोचकर इस योजना के लिए तैयार हो गई। अमावस्या की काली अंधेरी रात को साधू ने विधवा ब्राम्हणी के साथ मिलकर कन्या को एक बक्से में बंद कर नदी में डाल दिया और स्वयं अपनी कुटिया की ओर तेज गति  चल पड़ा। कुटिया में पहुँच कर वह कल्पना में डूब गया कि कुछ समय में वह बक्सा बहता हुआ आवेगा और फिर वह उसे यहाँ से बहाकर कहीं  दूर ले जाएगा और फिर उस सुंदर कन्या से विवाह कर अनंत सुख भोगेगा। इधर बक्सा बहते बहते नदी के दूसरे किनारे की तरफ चला गया।  कुछ दूर घने जंगल में एक राजकुमार शिकार खेल रहा था उसने इस बहते बक्से को देखा और उसे अपने सिपाहियों की मदद से बाहर निकलवाकर उत्सुकतावश खोला। जैसे ही उसने बक्सा खोला तो उसमे से वह सुंदर कन्या निकली। कन्या ने राजकुमार को अपनी आप बीती और साधू के कुटिल चाल की बात सुनाई। राजकुमार ने उसकी दुखभरी कहानी सुनकर उससे विवाह करने की इच्छा दर्शायी और अपने साथ राजमहल चलने को कहा। कन्या राजकुमार की बातों से सहमत हो गई। तब राजकुमार ने जंगल से एक दो खूंखार बंदरों को पकड़ उन्हे बक्से में बंद कर पुनः नदी में छोड़ दिया। यह बक्सा बहता बहता साधू की कुटिया के पास जैसे ही पहुँचा साधू ने बक्से को रोका और बड़ी कामना के साथ खोला। बक्सा खुलते ही दोनों बंदर बाहर निकल कर साधू पर झपट पड़े और उसे काट काटकर बुरी तरह घायल कर दिया। तभी से यह कहावत चल पड़ी है। इसी से मिलती जुलती एक और कहावत है :-

करैं बुराई सुख चहै, कैसें पाबैं कोय। 

बोबैं बीज बबूर कौ, आम कहाँ से होय॥

यह तो सनातन परम्परा चली आ रही है। जो जैसा भी कार्य करता है उसे वैसा ही फल मिलता है। बुरे काम करने का नतीजा भी बुरा ही होता है। बुराई  के काम करने के बाद  यदि  कोई सुख चाहता है तो उसे सुखी जीवन जीने कैसे मिल सकता है। बबूल (बबूर) का बीज बोने से आम का पेड़ नहीं उग सकता।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी #19 – परम संतोषी भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – परम संतोषी   के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)     

☆ कथा – कहानी # 19 – परम संतोषी भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

शाखा के निरीक्षण के प्रारंभ होने के साथ साथ ये कहानी जब आगे बढ़ती है तो संतोषी जी की पद्मश्री प्रतिभा, इंस्पेक्शन प्रारंभ होने के अगले दिन से ही सामने आना प्रारंभ हो जाती है. यहां पर अवश्य ही कुछ पाठक, इंस्पेक्शन अधिकारियों की खातिरदारी के नाम पर मदिरापान, निरामिष महाभोज और दूसरी तरह तरह की कल्पनाओं के सागर में गोते लगाने लगे होंगे पर इन सब प्रचलित परंपरागत स्वागत से कहीं अलग संतोषी जी की प्रक्रिया थी. इसके लिये आपको, उनकी निज़ता का सम्मान करते हुये, उनके परिवार के बारे में सूचना देना आवश्यक है. संतोषी साहब को देशी उपचार का ज्ञान अपने दादाजी और दादीजी के माध्यम से मिला था. तबियत की सामान्य नासाजी, अनमनापन, सर्दी जुकाम, सामान्य ज्वर और अपच, पेट साफ नहीं होना याने इनडाइजेशन के लिये उनके पैतृक परिवार में और उनके साथ चल रहे न्यूक्लिक परिवार में भी, कभी भी डॉक्टर की सेवाएं नहीं ली जाती थीं. इसका अनुभव हमेशा संतोषी जी को परिवार के बाहर, बैंक की दुनियां में भी काम आता था. दूसरी बात यह कि वे तीन विदुषी और पाक कला में दक्ष पुत्रियों के लाडले पिता थे. पुत्रों कों पुत्ररत्न की उपाधि से सम्मानित करने की हमारी परंपरा, बेटियों के लिये किसी विशेषण का उपयोग नहीं करती पर ये वास्तविकता है कि बेटियाँ रत्न नहीं घरों की रौनक हुआ करती हैं और ये वही समझ पाते हैं जो बेटियों के पिता बनने का सौभाग्य पाते हैं. तो संतोषी जी की तीनों बेटियों की पाक कला में पूरे भारत के दर्शन हुआ करते थे. सुस्वादु और तड़केदार पंजाबी डिशों से लेकर सेहत और स्वाद दोनों की परवाह करती दक्षिण भारतीय डिशों से अक्सर उनका घर महका करता था. स्वादिष्ट भोजन की खुशबू , लोगों को हमेशा से ही चुंबक की तरह अपनी ओर खींचती आई है और यह भी एक तरह की धनात्मक ऊर्जा का स्त्रोत होती है. भोजन की पाकशाला में एक मेन्यू बहुत स्ट्रिक्टली प्रतिबंधित था और वह था नॉन वेजेटेरियन फुड. पूरे संतोषी परिवार का पूरे दृढता से ये मानना था कि जब शाकाहार में ही इतनी विविधता और स्वाद है तो किसी निर्बल का सहारा अपने स्वाद के लिये क्यों लिया जाय।

निरीक्षण में आये सहायक महाप्रबंधक दक्षिण भारतीय थे और एसी टू में यात्रा करने के बावजूद पर्याप्त नींद न लेने के कारण परेशान थे. उत्तर भारत की शीत ऋतु भी उन्हेँ रास नहीं आ रही थी. इन विषमताओं से उन्हें, सरदर्द, जुकाम और इनडाइजेशन तीनों की शिकायत हो गई थी. निरीक्षण में उनके साथ आये मुख्य प्रबंधक शुद्ध पंजाबी संस्कृति में पके पकवान थे. तो इडली सांभर और छोले भटूरे का तालमेल नहीं बैठ पाता था. पर निरीक्षण का काम नियमानुसार बंटा हुआ था और बैठने की जगह भी उस हिसाब से भूतल और प्रथम तल में अलग अलग थी तो आमना सामना सुबह की गुडमार्निंग के बाद यदाकदा ही होता था.

संतोषी साहब ने निरीक्षण करने आये सहायक महाप्रबंधक महोदय की अस्वस्थता, उड़ती चिडिया के पर  गिनने की दक्षता के साथ समझ लिया था और उनके अविश्वास और ना नुकर के बावजूद अपने देशी इलाज से उनकी सारी परेशानी उड़न छू कर दी. स्वस्थ्य होना हर प्रवासी की ज़रूरत होती है जिसे पाकर सहायक महाप्रबंधक, संतोषी जी के अनुरागी बन गये. उसके बाद अगला कदम उनके लिये नियमित रूप से घर के बने दक्षिण भारतीय, शाकाहारी भोजन की व्यवस्था थी जो सिर्फ उनके लिये की जाती गई. निरीक्षण अधिकारी, संतोषी साहब के इस व्यवहार से परम संतुष्ट हो गये और संतोषी जी को बजाए ब्रांच के अपनी निरीक्षण टीम का हिस्सा मानने का सम्मान दिया. जब उन्होंने शाखा के मुख्य प्रबंधक महोदय से संतोषी जी के आतिथ्य की मुक्त कंठ से सराहना की तो मुख्य प्रबंधक भी बोल उठे कि सर,संतोषी साहब को हमने आप लोगों के लिये ही रिजर्व कर दिया है और जब भी आपको उनकी सहायता या सानिध्य की आवश्यकता पड़े,आप निस्संकोच मुझे निर्देश दें या आप उन्हें भी डायरेक्ट बुला सकते हैं.

“ड्राइफ्रूट्स”  बैंक सहित अन्य कार्यालयों का वह अघोषित खर्च होता है जो विशिष्ट अधिकारियों के आगमन पर किया जाता है. ये ऐसा अवसर भी होता है,जब इस बहाने ड्राई फ्रुट्स के स्वाद से बाकी लोग भी परिचित होते हैं. शाम की चाय इनके बिना “हाई टी” का तमगा नहीं पा सकती. इसका एक अघोषित नियम यह भी है जब मेजबान और मेहमान साथ बैठकर हाई टी का आनंद ले रहे हों तो भुने हुये काजू प्लेट से उठाने का अनुपात 1:4 होना चाहिए याने मेजबान एक : मेहमान चार.

इंस्पेक्शन तो अभी चलेगा और परम संतोषी कथा भी. इंस्पेक्शन फेस करने का पहला मूलमंत्र यही है कि कंजूसी मत करो क्योंकि आपकी जेब से नहीं जा रहा है.

यही मूलमंत्र कथा का अच्छा पाठक होने का भी है कि ताली ज़रूर बजाइये वरना आपको मूर्ति याने बुत समझा जा सकता है.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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