मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 92 – नाहकता ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 92 – नाहकता ☆

शब्दांची गर्दी हवी कशास नाहकता।

शब्दाविना वाढते भावनांची सुंदरता ।।

 

एक आर्त नजर तुझी खुप काही सांगते ।

लपलेली व्यथा तुझ्या नजरेतून जाणवते

मूक कटाक्ष सुद्धा तुझा घायाळ करतो पुरता।।१।।

 

समाधानाची ढेकर अशी दाद देऊन जाते।

आर्धी उष्टी खीर तुझी माझी काळजी सांगते ।

कपभर चहा ने तुझ्या शीण जातो पुरता ।।२।।

 

रुसवे-फुगवे सारे तुला शब्दाविना कळतात।

पश्चातापाचे भाव तुझ्या नजरेतच उमटतात ।

सुगंधी गजराही पुरतो मग मध्यस्थी करता।।३।।

 

विश्वासची ढाल तुझी लढण्याचे बळ देते।

नित्य अशी साथ तुझी अखंड मला लाभते।

कौतुकाच्या थापेलाही भासे शब्दांची नाहकता।।४।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#122 ☆ भूख जहाँ है…..…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर आधारित विचारणीय कविता  “भूख जहाँ है………”)

☆  तन्मय साहित्य  #122 ☆

☆ भूख जहाँ है……… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

भूख जहाँ है, वहीं

खड़ा हो जाता है बाजार।

 

लगने लगी, बोलियां भी

तन की मन की

सरे राह बिकती है

पगड़ी निर्धन की,

नैतिकता का नहीं बचा

अब कोई भी आधार।

भूख जहाँ………….

 

आवश्यकताओं के

रूप अनेक हो गए

अनगिन सतरंगी

सपनों के बीज बो गए,

मूल द्रव्य को, कर विभक्त

अब टुकड़े किए हजार।

भूख जहाँ……………

 

किस्म-किस्म की लगी

दुकानें धर्मों की

अलग-अलग सिद्धान्त

गूढ़तम मर्मों की,

कुछ कहते है निराकार

कहते हैं कुछ, साकार।

भूख जहाँ………….

 

दाम लगे अब हवा

धूप औ पानी के

दिन बीते, आदर्शों

भरी कहानी के,

संबंधों के बीच खड़ी है

पैसों की दीवार।

भूख जहाँ………….

 

चलो, एक अपनी भी

कहीं दुकान लगाएं

बेचें, मंगल भावों की

कुछ विविध दवाएं,

सम्भव है, हमको भी

मिल जाये ग्राहक दो-चार।

भूख जहाँ है,,…………

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से#15 ☆ क्या क्या तुम बाँटोगे ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन। ) 

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय  रचना “क्या क्या तुम बाँटोगे–”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 15 ✒️

?  क्या क्या तुम बाँटोगे – —  डॉ. सलमा जमाल ?

अब क्या क्या तुम बाँटोगे,

है बहुत कुछ पास हमारे ।

आंचल है यह भारत मां का,

सूरज, चांद ,गगन वा तारे ।।

 

अहं में डूबके तुमने किया ,

भाषा, धर्म ,जाति मतभेद ,

खूब लड़ाऐ हिंदू- मुस्लिम,

अब भी तुम्हें नहीं है खेद,

सियासत की आड़ को लेकर,

किए इंसानो के बंटवारे ।

अब——————-।।

 

एक आदम की औलादें ,

है रक्त में नहीं कोई अंतर,

कोरोना को जेहाद बताया,

क्या इसमें है कोई मंतर ,

कु़रान व गीता एक समान,

फिर क्यों खिचतीं तलवारें।

अब———————।।

 

बाहर है बीमारी का डर ,

अन्दर भूख ने पैर पसारे,

आखिर किससे मजदूर मरें,

जवाब नहीं है पास हमारे ,

रोज़ कमाकर रोटी खाएं ,

अब जिऐंगे किसके सहारे।

अब———————।।

 

अंतर्मन दुखता है मेरा ,

नैनों से बहती अश्रु धार,

आपस की नफ़रत से”सलमा”

करो ना लाशों का व्यापार ,

प्यार का परचम फ़हरा दो ,

तुम भारत के राज दुलारे।

अब——————-।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी #21 – परम संतोषी भाग – 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव 

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे।  उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आपने ‘असहमत’ के किस्से तो पढ़े ही हैं। अब उनके एक और पात्र ‘परम संतोषी’ के किस्सों का भी आनंद लीजिये। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – परम संतोषी   के किस्से आत्मसात कर सकेंगे।)     

☆ कथा – कहानी # 21 – परम संतोषी भाग – 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

देखते देखते वह दिन भी आ गया जिसका इंतजार पूरी ब्रांच करती है,फाइनल डे जब ब्रांच की इंस्पेक्शन रिपोर्ट शाखा प्रबंधक को परंपरागत रूप से सौंपी जाती है और शाखा संचालन की स्थिति प्रगट होती है.सबके परिश्रम,बेहतर टीम वर्क, कुशल नेतृत्व और मिले आश्रित शाखाओं के समयकालीन सहयोग से शाखा ने दक्षतापूर्ण संचालन की रेटिंग प्राप्त की.पूरी ब्रांच में संतुष्टि और खुशी का माहौल बन गया.मौकायेदस्तूर मुंह मीठा करने का था तो बाकायदा शहर की प्रसिद्ध स्वीट शॉप से सबसे बेहतर मिठाई का रसास्वादन किया गया.चूंकि उस दिन संयोग से मंगलवार था,पवनपुत्र हनुमानजी जी का दिन,तो उस दिन परंपरागत चढ़ाया गया प्रसाद भी साथ में वितरित किया गया.संकटमोचक से पूरे निरीक्षण काल में लगभग डेढ़ साल किये गये अथक परिश्रम का मनोवांछित फल प्राप्त किये जाने की प्रार्थना अंततः फलीभूत हुई. शाखा की स्टाफ की टीम के वे सदस्य, जिनकी पदोन्नति की पात्रता थी,इस सुफल से आशान्वित हुये और उनकी उम्मीदों ने परवान पाया.संतोषी जी खुश थे और ये खुशी ,इंस्पेक्शन रेटिंग के अलावा, सहायक महाप्रबंधक की मेज़बानी और उनके स्निग्ध व्यवहार से भी उपजी थी. रीज़नल मैनेजर के विश्वास पर वे सही साबित हुये, इसका आत्मसंतोष भी था और शाखा के मुख्य प्रबंधक महोदय की उनके प्रति उत्पन्न अनुराग को भी वे महसूस कर चुके थे.अपनी इस पद्मश्री प्रतिभा के सफल प्रदर्शन पर वे संतुष्ट थे और इसके अलावा उन्हें कुछ और लाभ चाहिए भी नहीं था.

अंततः शाम को इंस्पेक्शन टीम के सम्मान में फेयरवेल आयोजित की गई. सहायक महाप्रबंधक ने सभी स्टाफ के किये गये परिश्रम को स्वीकारा और यही टीम स्प्रिट आगे भी काम करती रहे, ऐसी आशा प्रगट की. उन्होंने संतोषी साहब के सहयोग को भी मान दिया और कहा कि “वैसे तो हर खेल घोषित नियमों से खेले जाते हैं पर परफॉर्मेंस कभी कभी अघोषित पर हितकारी नियमों और प्रतिभा से भी परवान पाती है. एक कुशल टीम लीडर वही होता है जो अपनी टीम के हर सदस्य की मुखर और छुपी हुई प्रतिभा को पहचाने और शाखा की बेहतरी के लिये उनका उपयोग करे.शाखा प्रबंधक और शाखा से उम्मीद और अपेक्षा उनकी भी रहती है और ज्यादा रहती है जो बैंक काउंटर्स के उस पार खड़े होते हैं, याने शाखा के ग्राहक गण. यही लोग शहर में शाखा और बैंक की छवि के निर्धारक बन जाते हैं. इनकी संतुष्टि, स्टॉफ की आत्मसंतुष्टि से ज्यादा महत्वपूर्ण होती है.

विदाई के दूसरे दिन से ही,जैसाकि होता है,शाखा अपने नार्मल मोड में आ गई. जिन्हें अपने महत्वपूर्ण कार्यों से छुट्टियों पर जाना था और जो निरीक्षण के कारण स्थगित हो गईं थी,वे सब अपनी डिमांड मुख्य प्रबंधक को कह चुके थे.आसपास की आश्रित शाखाओं के प्रबंधक भी ,छुट्टी पर जाने की उम्मीद लेकर आते थे.वे सारे समझदार ग्राहक, जिनके काम उनकी समझदारी का हवाला देकर विलंबित किये गये थे,अब बैंक में काम हो जाने के प्रति तीव्रता के साथ आशान्वित होकर आ रहे थे. शाखा के मुख्य प्रबंधक, चुनौती पूर्ण समय निकल जाने के बाद आये इस शांतिकाल में ज्यादा तनावग्रस्त थे क्योंकि इंस्पेक्शन के दौरान बनी टीम स्प्रिट धीरे धीरे विलुप्त हो रही थी. पर शायद यही सच्चाई है कि सैनिक युद्ध काल के बाद सामान्य स्थिति में नागरिकों जैसा व्यवहार करने लगते थें।ये सिर्फ बैंक की नहीं शायद हर संस्था की कहानी है कि चुनौतियां हमें चुस्त बनाती हैं और बाद का शांतिकाल अस्त व्यस्त. पहले पर्व निरीक्षण याने इंस्पेक्शन की कहानी यहीं समाप्त होती है पर शाखा, संतोषी जी और अगला पर्व याने वार्षिक लेखाबंदी अभी आना बाकी है. ये कलम को विश्राम देने का अंतराल है जो लिया जाना आवश्यक लग रहा था. इस संपूर्ण परम संतोषी कथा पर आपकी प्रतिक्रिया अगर मिलेगी तो निश्चित रूप से मार्गदर्शन करेगी. हर लेखक और कवि इसकी अपेक्षा रखता है जो शायद गलत नहीं होती. धन्यवाद.

परम संतोषी की इंस्पेक्शन से संबंधित अंतिम किश्त.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 98 ☆ बुंदेलखंड की कहानियाँ # 9 – ठाकुर खौं का चाइए… ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण डनायक जी ने बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि पर कई कहानियों की रचना की हैं। इन कहानियों में आप बुंदेलखंड की कहावतें और लोकोक्तियों की झलक ही नहीं अपितु, वहां के रहन-सहन से भी रूबरू हो सकेंगे। आप प्रत्येक सप्ताह बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ बुंदेलखंड की कहानियाँ आत्मसात कर सकेंगे।)

बुंदेलखंड कृषि प्रधान क्षेत्र रहा है। यहां के निवासियों का प्रमुख व्यवसाय कृषि कार्य ही रहा है। यह कृषि वर्षा आधारित रही है। पथरीली जमीन, सिंचाई के न्यूनतम साधन, फसल की बुवाई से लेकर उसके पकनें तक प्रकृति की मेहरबानी का आश्रय ऊबड़ खाबड़ वन प्रांतर, जंगली जानवरों व पशु-पक्षियों से फसल को बचाना बहुत मेहनत के काम रहे हैं। और इन्ही कठिनाइयों से उपजी बुन्देली कहावतें और लोकोक्तियाँ। भले चाहे कृषि के मशीनीकरण और रासायनिक खाद के प्रचुर प्रयोग ने कृषि के सदियों पुराने स्वरूप में कुछ बदलाव किए हैं पर आज भी अनुभव-जन्य बुन्देली कृषि कहावतें उपयोगी हैं और कृषकों को खेती किसानी करते रहने की प्रेरणा देती रहती हैं। तो ऐसी ही कुछ कृषि आधारित कहावतों और लोकोक्तियों का एक सुंदर गुलदस्ता है यह कहानी, आप भी आनंद लीजिए।

☆ कथा-कहानी # 98 – बुंदेलखंड की कहानियाँ – 9 – ठाकुर खौं का चाइए … ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

“ठाकुर खौं का चाइए, पाखा पान और पौर।

भीतर घुसकैं देखिये, दये मुस्का कौ कौर॥“  

शाब्दिक अर्थ :- बाहर से बडप्पन और भीतर से खोखलापन। ठाकुर साहब को क्या चाहिये शानदार दाढ़ी और गलमुच्छे (पाखा), दिन भर चबाने को पान के बीड़ा और बैठने के लिए बड़ा सा बारामदा (पौर)। लेकिन उनके घर के अंदर झाँख कर देखे तो भोजन के कौर  भी बड़ी कठनाई (मुस्का) से मिलते हैं।

इस कहावत के सत्य को मैंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है। वर्ष 1987 से 1989 तक मैं स्टेट बैंक की सतना सिटी शाखा में वाणिज्यिक व संस्थागत विभाग  पदस्थ था, और  उच्च मूल्य के ऋण संबंधी कार्य  देखता था। अचानक मेरा स्थानांतरण पन्ना जिले के सूदूर गाँव बीरा , जिसकी सीमाएँ उत्तर प्रदेश के बांदा जिले से लगी थी, में नई नई खुली शाखा में शाखा प्रबंधक के पद पर हो गया । स्थानांतरण आदेश मिलते ही मुझे बड़ा दुख हुआ, लेकिन फिर सोचा कि चलो पुरखो की कर्मभूमि रहे पन्ना जिले के एक सुदूर  गाँव मे सेवा कार्य कर  पुराना पित्र ऋण चुकाउंगा । यह सोच मैंने जनवरी 1990 की शुरुआत में बीरा शाखा में अपनी उपस्थती शाखा प्रबंधक के रूप में  दर्ज करा दी। तब मैं कोई 31 वर्ष का रहा होउंगा। छात्र जीवन के दौरान चले जय प्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन  से मैं बड़ा प्रभावित था और उस समय से  ही मैंने ग्रामीण विकास के बारे में कुछ कल्पनायेँ कर रखी थी जिसे पूरा करने एक अवसर मुझे दैव योग से इस नई नई खुली शाखा में मिल रहा था। मैंने गाँव में ही अपना निवास बनाने का निश्चय किया।  बीरा ब्राह्मण बहुल गाँव था और पहले दिन ही मुझे जात पात संबंधी रुढीवादी परम्पराओं के कटु अनुभव हुये। अत: जब मैं उपस्थती दर्ज करा सतना वापस आया तो सर्वप्रथम मैंने संध्या वंदन कर यज्ञोपवीत धारण किया। विशुद्ध ग्रामीण माहौल में मेरे  यज्ञोपवीत को न केवल धारण करने वरन उन सभी रूढ़ीगत मान्यताओं, जो जनेऊ के छह धागों से संबंधित हैं, के पालन व दो चार संस्कृत के श्लोक वाचन ने मुझे ग्रामीणों के मध्य पक्का पंडित घोषित करा दिया। इस जनेऊ ने बैंक के व्यवसाय बढ़ाने में मेरे भरपूर मदद करे ऐसा में आज भी मानता हूँ।  स्टेट बैंक की विभिन्न जमा व ऋण योजनाओं की जानकारी देने मैं आसपास के सभी गाँवों का दौरा बैंक द्वारा प्रदत्त मोटर साइकिल से करने लगा। बीरा शाखा के आधीन  बरकोला, उदयपुरा, सिलोना, सानगुरैया, खमरिया,फरस्वाहा, सुनहरा, कडरहा, बीहर पुरवा, लौलास, हरसेनी   आदि  लगभग 10-12  गाँव थे जो यदपि एक दूसरे से कच्चे सड़क मार्ग से जुड़े थे पर ग्रामीणों का बीरा आना जाना न के बराबर था। गाँव सुदूर स्थित था अत: ग्रामीणों में बैंक को लेकर शंकाएँ थी और वे आसानी से बैंकिंग सुविधाओं का लाभ लेने उत्सुक भी नहीं थे। ऐसे में इस नई खुली शाखा में व्यवसाय बढ़ाना बड़ा कठिन काम था। खैर मेरे लगातार दौरों और बुन्देली भाषा में मेरे वार्तालाप (और कमर से नीचे तक लटके जनेउ?) ने ग्रामीणों का दिल जीतने में मदद की और धीरे धीरे लोग बैंक में आकर खाता खुलवाने लगे।

बीरा से लगभग 4-5 किलोमीटर दूर एक बुंदेला क्षत्री परिवार का गाँव  था। ठाकुर साहब एक पुराने मकान में रहते थे जिसे देखकर कहा जा सकता था कि इमारत कभी बुलंद रही होगी। मुख्य द्वार के बाहर ही एक बड़ा सा बारामदा (पौड़) थी जिसकी दीवारों पर शिकार किए हुये जानवरों के सींग सुशोभित थे। बारामदे में एक तखत पर ठाकुर साहब बैठते और दो चार कुर्सियों पर हम व अन्य शासकीय कर्मचारी बिना किसी जातिभेद के बैठते। गाँव के लोग नीचे जमीन पर ही बिराजते और बैठने के पूर्व तीन बार ठाकुर साहब को झुक कर मुझरा (नमस्कार) पेश करते।  ठाकुर साहब की पत्नी ग्राम पंचायत की सरपंच थी । मैं ग्राम पंचायत  का खाता तो बीरा शाखा में खुलवाने में सफल रहा पर कभी भी मुझे  सरपंच महोदया से वार्तालाप का अवसर नहीं मिला. हाँ मैंने बंक के दस्तावेजों में उनके हस्ताक्षर अवश्य ही देखे, जो किसने किये होंगे, इसको बताने की जरूरत नहीं आप सब स्वयं अंदाजा लगाने हेतु स्वतंत्र हैं।  इस गाँव में मैं अक्सर जाता और हर बार ठाकुर साहब से मिलता और उनके व अन्य परिजनों के व्यक्तिगत खाते बीरा शाखा में खुलवाने का अनुरोध करता। मेरे अनगिनत प्रयास जब सफल नहीं हुये तो मैंने अपनी शाखा के भवन मालिक से चर्चा करी और उनसे ठाकुर साहब को प्रसन्न करने का उपाय बताने को कहा। शाखा के भवन मालिक जो किस्सा सुनाया वह बड़ा मजेदार था। हुआ यूँ कि एक बार  पन्ना जिले में बड़ा अकाल पड़ा पानी बिल्कुल भी नहीं बरसा और गर्मी का  मौसम आते आते  कुएं तालाब आदि सब सूख गए। गाँव के आसपास के जंगलों में भी हरियाली का नामोनिशान न रह गया । मनुष्य तो किसी तरह जंगली फल बेर, महुआ, तेंदू और सरकारी राशन की दुकान से मिलने वाले अन्न से अपना गुज़ारा कर रहे थे पर जानवरों की बड़ी दुर्दशा थी । उनके लिए भूसे चारे की व्यवस्था करना बड़े बड़े किसानों के लिए मुश्किल था गरीब किसानों के लिए तो यह लगभग असंभव ही। गरीब की जायजाद तो बैल ही थे उनके लिए चारे भूसे के जुगाड़ में वे इधर उधर घूमते रहते। ऐसी ही विपत्ति के  मारे एक गरीब किसान की मुलाक़ात कहीं ठाकुर साहब से हो गई, और उसकी अर्जी सुनकर ठाकुर साहब ने उसे भूसा लेने के लिए अपने गाँव स्थित बखरी ( आज भी बुंदेलखंड में ठाकुरों का निवास बखरी या गढ़ी कहलाता है)  आने का निमंत्रण दे दिया। अब गरीब किसान हर दूसरे तीसरे दिन ठाकुर साहब के दरवाजे पर बैठ जाता। जब भी वह वहाँ पहुँचता तो घर से कोई न कोई आकर कह देता की अभी कुंवरजू बखरी पर नहीं हैं या ब्यारी (भोजन) कर रहे हैं। दो तीन घंटे बाद थक हारकर वह किसान अपने घर वापिस चला जाता। कई दिन इस प्रकार बीत गए एक दिन किसान घर से सोच कर ही निकला की आज तो वह ठाकुर साहब से मिलकर ही मानेगा। इस संकल्प के साथ जब वह ठाकुर साहब की  बखरी पहुँचा तो उसे बताया गया कि ठाकुर साहब ब्यारी  कर रहे हैं। गरीब किसान काफी देर तक बखरी के दरवाजे पर बैठा रहा । बहुत देर हो गई जब ठाकुर साहब बाहर नहीं निकले तो वह मुख्य द्वार से अंदर घुस गया और देखा कि ठाकुर साहब तो तेंदू के फलों को भूँज भूँज कर उससे अपना पेट भर रहे थे। मतलब गरीबी में ठाकुर साहब का खुद का ही आटा गीला था, वे गरीब किसान कि क्या मदद करते, लेकिन अपनी ठकुराइस और बाहर के बडप्पन को दिखाने के लिए उन्होने गरीब किसान को भूसा देने का झूठा वचन तो दे दिया पर अपनी हालात व भीतरी खोखलेपन के कारण उसे भूसा देने का वचन  निभाने में असमर्थ थे और कुछ ना कुछ बहाना बना कर गरीब किसान को टरकाना चाहते थे।  “ठाकुर खौं का चाइए, पाखा पान और पौर।भीतर घुसकैं देखिये, दये मुस्का कौ कौर” कहावत उन पर भरपूर लागू होती है।

मैं बीरा में जनवरी 1990 से मई 1993 तक पदस्थ रहा वहाँ के मीठे अनुभव, बुन्देली परम्पराओं का पालन करते किसान, तीज त्योहार,  होली में गायी जाने वाली फागें, सावन का आल्हा पाठ, छोटे मोटे मेले और ग्रामीणों का आग्रहपूर्वक मुझे भोजन पर बुलाना आदि  आज भी याद आता है। अपनी तीन वर्ष से भी अधिक की पदस्थी के दौरान मैंने लगभग अधिकांश लोगो के खाते खोले बस ठाकुर साहबों के खाते न खोल पाया और जब कभी उनसे मुलाक़ात होती वे मुझे भोजन का निमंत्रण अवश्य देते पर मैं भी उनकी हँडिया में कितना नौन है जान गया था, अत: आमंत्रण तो ठ्कुरसुहाती में स्वीकार कर लेता पर भोजन हेतु गया कभी नहीं और ठाकुर साहब ने भी कभी भी  मेरे ना पहुंचने पर उलाहना  भी  नहीं दिया।     

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 122 ☆ सोनेरी क्षण ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 122 ?

☆ सोनेरी क्षण ☆

तसे कुणालाच नको असते

आपल्या आयुष्यात कुणी विनाकारण डोकावणे!

आपण दाखवतोही एकमेकांना

आपली आयुष्ये थोडीफार उलगडून!

तरीही प्रयेकाचे असते,

स्वतःचे असे एक सुंदर विश्व!

 

प्रत्येकाच्या आयुष्यात,

असते अशी वेळ—-

आपण मध्यबिंदू असताना,

घड्याळाच्या काट्यासारखे

टिकटिकत असतात भोवती,

तास काटे, मिनिट काटे, सेकंद काटे!

 

प्रत्येकाने हे समजूनच घ्यायचे असते….

कालचे सोनेरी क्षण आपले होते,

आजचे याचे तर परवाचे त्याचे असणार आहेत !

म्हणूनच डोकावू नये उगाचच,

कुणाच्याही आयुष्यात,

आणि करू नये अट्टाहास,

दुस-यांचेही सोनेरी क्षण…सतत स्वतःच ओरबाडण्याचा!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मीप्रवासीनी ☆ मी प्रवासिनी क्रमांक क्रमांक १९ – भाग २ – विद्या आणि कला यांचं माहेरघर – ग्रीस ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆

सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

☆ मी प्रवासिनी क्रमांक १९ – भाग २ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆ 

✈️ विद्या आणि कला यांचं माहेरघर– ग्रीस ✈️

प्राईम मिनिस्टर रेसिडन्स म्हणजे पूर्वीच्या रॉयल पॅलेस इथे उतरलो. इथे दर तासाला ‘चेंजिंग द गार्डस्’  सेरीमनी होतो. दोन सैनिक पांढरी तंग तुमान व त्यावर पांढरा, तीस मीटर्स कापडाचा, ४०० सारख्या चुण्या असलेला घेरदार ड्रेस घालून,  डोळ्यांची पापणीसुद्धा न हलवता दोन बाजूंना उभे होते. त्यांच्या डोक्यावर लाल पगडीसारखी टोपी आणि हातात तलवारी होत्या. त्यांच्या पायातील लाकडी तळव्यांचे बूट प्रत्येकी साडेतीन किलो वजनाचे होते. थोड्यावेळाने सैनिकांची दुसरी जोडी आल्यावर या सैनिकांनी गुडघ्यापर्यंत पाय उचलून बुटांचा खाडखाड आवाज करीत शिस्तशीर लष्करी सलामी दिली. ते निघून  गेल्यावर त्यांची जागा दुसऱ्या जोडीने घेतली.

प्लाका या भागात शहराचं जुनं खानदानी सौंदर्य दिसतं. जुन्या पद्धतीची घरं, उघडमीट होणारी शटर्स असलेल्या काळ्या लाकडी पट्टयांच्या खिडक्या, घरापुढील कट्टयावर सुंदर फुलझाडं, षटकोणी लांबट लोलकासारखे  काळ्या रंगाचे डिझाईनचे दिव्याचे खांब, चर्चेस, जुन्या वास्तू, घरांच्या कलापूर्ण गॅलेऱ्या  ब्राँझचे रेलिंग असलेल्या होत्या.अशा या भागात जुन्या काळी श्रीमंत व्यापारी, राजकारणी,विद्वान यांची घरं असायची .आजही तिथे घर असणं अभिमानास्पद समजलं जातं.

ॲक्रोपोलीसवरील तोडमोड केलेली अनेक शिल्पं आणि शहरभर उत्खननात सापडलेले अनेक भग्न अवशेष आता ॲक्रोपोलिस म्युझियममध्ये अत्यंत काळजीपूर्वक जतन करण्यात आले आहेत. प्राचीन इतिहास, मानवी जीवन, स्थापत्यशास्त्र, शिल्पकला यांचा जागतिक महत्त्वाचा हा खजिना बघण्यासाठी तसंच ॲक्रोपोलिसचे उद्ध्वस्त अवशेष पाहण्यासाठी जगभरातून दरवर्षी लाखो प्रवासी ग्रीसला भेट देतात. उत्खननात सातव्या ते नवव्या शतकातील बेझेन्टाईन काळातील एका छोट्या वसाहतीचे अवशेष मिळाले . हे सापडलेले अवशेष साफसफाई करून त्यावर जाड काचेचे आवरण घालून ॲक्रोपॉलिस म्युझियमच्या प्रांगणात ठेवण्यात आले आहेत .इथून म्युझियममध्ये प्रवेश करताना या लोकवस्तीची वर्तुळाकार रचना, सार्वजनिक हॉल, मध्यवर्ती असलेली विहीर अशी रचना पाहता येते. ॲक्रोपोलीसमध्ये सापडलेल्या मार्बलच्या पट्टिका म्युझियमच्या तिसऱ्या मजल्यावर आहेत.  पॅसिडॉन, अथेना, अपोलो आणि इतर अनेकांचे अतिशय रेखीव  कोरलेले पुतळे तिथे आहेत. त्यांची बसण्याची आसने, अंगावरील वस्त्रे, बसण्याची ऐटदार पद्धत, कुरळे केस, दाढी, चेहऱ्यावरील भावभावना ,शरीराच्या स्नायूंचा डौलदारपणा, तेजस्वी डोळे असं पाहिलं की त्या प्राचीन शिल्पकारांच्या कलेला मनापासून दाद द्यावीशी वाटते.पर्शियाने ग्रीसवर आक्रमण केलं व तोडफोड सुरू केली त्यावेळी ॲक्रोपोलीसवरील सौंदर्य देवतेचा पुतळा शत्रूपासून वाचविण्यासाठी जमिनीत पुरला होता. तो १८८६ मध्ये उत्खननातून वर काढला. तिचा हसरा चेहरा, डोक्यावरील रुंद महिरप आणि दोन्ही खांद्यांवरून पुढे आलेल्या पीळ घातल्यासारख्या तीन-तीन वेण्या बघत रहाव्या अशा आहेत. त्रिकोणी आसनावर नृत्याच्या मुद्रा करणारी, डोक्यावरून पदरासारखं मार्बलच वस्त्र घेतलेली स्त्री वर्षभरातील वेगवेगळ्या ऋतूंचं अस्तित्व दाखवते. तिने उजव्या खांद्यावरून मार्बलचे चुणीदार वस्त्र घेतले आहे. त्याचे काठ  व वस्त्रावरील डिझाईन रंगीत काळसर मार्बलचं आहे. काही पाठमोरे स्त्री पुतळे कुरळ्या केसांच्या पाचपेडी वेण्या घालून खाली केसांचे झुपके सोडलेल्या अशा आहेत.

महान योद्धा अलेक्झांडर खुष्कीच्या मार्गाने भारतापर्यंत आला होता. त्याचा फक्त मानेपर्यंत चेहरा असलेला एक पुतळा इथे आहे. त्याच्या कुरळ्या केसांची महिरप, तरतरीत नाक आणि हिरवे घारे डोळे बघण्यासारखे आहेत. लहान मोठ्या अनेक उंच खांबांवर स्त्री-पुरुषांचे उभे पुतळे ठेवले आहेत. त्यातील कोणाचे हात तुटलेले आहेत तर कुणाचं नुसतं धडच आहे. तरीही त्यांचं शरीरसौष्ठव, उभे राहण्याची पद्धत, अंगावरील वस्त्रांच्या चुण्या यावरून त्यांच्या शरीराच्या प्रमाणबद्ध रचनेची कल्पना येऊ शकते.

भाजलेल्या मातीच्या, भोवर्‍याच्या आकाराच्या, सुंदर रंगकाम केलेल्या अनेक स्पिंडल्स १९५० साली उत्खननात सापडल्या. प्राचीन काळातील स्त्रिया हे *स्पिंडल देवीच्या पायाशी वाहत असत असे गाईडने सांगितले. काही पट्टीकांवर ग्रीक आणि पर्शियन योद्धे एकमेकांशी लढताना दाखविले आहेत. तीन सशक्त, हसऱ्या मुद्रेच्या पुरुष प्रतिमा एकाला एक चिकटून आहेत. पाणी, अग्नी आणि वायू यांचे ते प्रतीक आहे. एका घोडेस्वाराची तंग तुमान आणि चुडीदार अंगरखा रंगीत आहे तर घोड्याच्या आयाळीवरील लाल हिरवा मार्बलचा पट्टा रेशमी वस्त्रासारखा दिसतो. घोड्याच्या शेपटीलाही हिरवट रंगाचा मार्बल वापरला आहे. समाजातील उच्चभ्रू स्त्रियांची स्कर्टसारखी फॅशनेबल व रंगीत डिझाईनच्या मार्बलची वस्त्र लक्षवेधी आहेत. एक दाढीवाला तरूण मानेभोवती गाईच्या छोट्या वासराला घेऊन निघाला आहे तर हात तुटलेल्या एका नग्न उभ्या युवकाचं प्रमाणबद्ध शरीर, तेजस्वी डोळे, छाती- पोटाचे, पायाचे स्नायू अतिशय रेखीव आहेत.एका पेल्मेटवरील रंगीत उमलत्या फुलांचं शिल्प वाऱ्यावर डोलत असल्यासारखं वाटतं. गतकाळातील हा अमूल्य सांस्कृतिक वारसा पाहता-पाहता  खरोखरच हरवल्यासारखं झालं.

सॅ॑टोरिनी हे ग्रीसचं छोटसं बेट एजिअन समुद्रात आहे. अथेन्सहून विमानाने सॅ॑टोरिनीला पोचलो. एका चढणीवरच्या रस्त्यावरील सुंदर प्रशस्त बंगला हे आमचं हॉटेल होतं. हॉटेलच्या आवारात टोमॅटो, अंजीर, रंगीत बोगनवेल ,सुवासिक मॅग्नेलिया बहरली होती. लंबवर्तुळाकार निळ्या पोहण्याच्या तलावाभोवती आमच्या रूम्स होत्या. रूमला छोटी गॅलरी होती. वाटलं होतं त्यापेक्षा हॉटेल खूपच मोठं होतं. दुसऱ्या दिवशी सकाळी  दाराचा पडदा सरकवला तर काय आश्चर्य स्विमिंगपुलावरील आरामखुर्च्या बाजूला सरकवून त्या जागेवर योगवर्ग चालू होता. एक कमनीय योग शिक्षिका समोरच्या पंचवीस-तीस स्त्री पुरुषांकडून योगासनं, प्राणायाम करून घेत होती. खरं म्हणजे हा योगवर्ग हॉटेलमधील सर्व प्रवाशांसाठी होता. आदल्या दिवशी संध्याकाळी तिथे आल्यावर बाजारात फेरफटका मारताना अतिशय रसाळ, लालसर काळी, मोठाली चेरी मिळाली होती. मोठे पीच आणि तजेलदार सफरचंद आपल्यापेक्षा खूप स्वस्त व छान वाटली म्हणून घेतली होती. जेवून हॉटेलवर आल्यावर सर्वांनी तिथल्या हॉलमध्ये बसून गप्पा मारताना त्या फळांवर ताव मारला होता आणि त्या गडबडीत हॉलमध्ये लावलेली योगवर्गाची नोटीस वाचायची राहिली. नाही तर आम्हालाही योगवर्गाचा लाभ घेता आला असता. पण आमचा ‘योग’ नव्हता. भारतीय योगशास्त्राचे महत्त्व आता जगन्मान्य झालं आहे हे मात्र खरं!

माझी मैत्रीण शोभा भरतकाम आणि विणकाम करण्यात कुशल आहे. नाश्त्याच्या वेळी तिथल्या एका खिडकीचा विणकाम केलेला पांढरा स्वच्छ पडदा तिला आवडला म्हणून ती जवळ जाऊन बघायला लागली तर टेबलावरच्या आमच्या डिश उचलून, टेबल साफ करणारा इसम लगबगीने तिच्याजवळ गेला. आणि कौतुकाने सांगू लागला की हे सर्व भरतकाम, क्रोशाकाम माझ्या आईने केले आहे. तीन चार वर्षांपूर्वी आमची आई आणि नंतर वडीलही गेले. आम्ही सर्व बहिण भावंडं मिळून हा फॅमिली बिझनेस चालवतो. मग त्याने आम्हाला आपल्या आई-वडिलांचे फोटो, आईने केलेल्या अनेक वस्तू, विणलेले रुमाल दाखवले. खरोखरच सर्व हॉटेलमधील निरनिराळ्या पुष्परचना, सोफ्यावरील उशांचे अभ्रे, पडदे, दिवे, कलात्मक वस्तू उच्च अभिरुचीच्या, स्वच्छ, नीटनेटक्या होत्या. आई-वडिलांबद्दलंच प्रेम आणि अभिमान त्या देखणेपणात भर घालीत होतं.

आज दिवसभर छोट्या बोटीतून एजिअन समुद्रात फेरफटका होता. आम्हा दहाजणांसाठीच असलेली ती छोटीशी बोट सर्व सुविधायुक्त होती. चालक व त्याचा मदतनीस उत्साहाने सारी माहिती सांगत होते आणि अधून मधून वेगवेगळे खाद्यपदार्थ देऊन आमची जिव्हा तृप्त करीत होते. त्या छोट्याशा बोटीच्या नाकाडावर बसून समुद्राचा ताजा वारा प्यायला मजा वाटत होती. दोन्ही बाजूला उंच कड्यांच्या डोंगररांगा होत्या. काहींचा रंग दगडी कोळशासारखा होता. काही डोंगर गाद्यांच्या गुंडाळीसारखे वळकट्यांचे होते.  काही पांढरट पिवळट लालसर मार्बलचे होते. काही डोंगर ग्रॅनाइटचे होते. एका छोट्या डोंगराजवळ बोट थांबली. हा जागृत ज्वालामुखी आहे. त्याच्या माथ्यावरच्या छिद्रातून सल्फ्युरिक गॅसेस बाहेर पडताना दिसतात. दगडी कोळशासारखा दिसणार तो डोंगर अतिशय तप्त होता.

तिथून जवळच थर्मल वॉटरचे झरे समुद्रात आहेत. आमच्या आजूबाजूला असंख्य लहान- मोठ्या बोटी प्रवाशांनी भरलेल्या होत्या. सर्फिंग करणारे, छोट्या वेगवान यांत्रिक बोटीतून पळणारे अनेक जण होते.उष्ण  पाण्याच्या झऱ्यांजवळ आल्यावर आजूबाजूच्या बोटीतून अनेकांनी समुद्रात धाड् धाड् उड्या मारल्या. जल्लोष,मौज मस्ती यांना ऊत आला होता. समुद्रस्नान, परत डेकवर सूर्यस्नान असा मनसोक्त कार्यक्रम चालू होता. इथे बाकी कशाची नाही पण अंगावरच्या कपड्यांची टंचाई नजरेत भरत होती. आणि सिगारेटसचा महापूर लोटला होता. बोट थिरसिया बेटाजवळ आल्यावर चालकाने बोट थांबवून बोटीतच सुंदर जेवण दिलं. तिथून परतताना एका उंच डोंगरकड्यावर पांढरीशुभ्र असंख्य घरं एका ओळीत बसलेली दिसली. पांढरे शुभ्र पंख पसरून बसलेला राजहंसांचा थवाच जणू!’ इथे कुठे यांनी घरं बांधली? वर जायची- यायची काय सोय?’ असं मनात आलं तर चालकाने डोंगरातून वर जाणाऱ्या केबल कार्स आणि डोंगराच्या पोटातून जाणारी फनिक्युलर रेल्वे दाखविली. उच्चभ्रू श्रीमंत लोकांची ती उच्च वसाहत होती.

ग्रीस भाग २ समाप्त

© सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी

जोगेश्वरी पूर्व, मुंबई

9987151890

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 23 – सजल – सामंजस्य रहे जीवन में… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है बुंदेली गीत  “सामंजस्य रहे जीवन में… । आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 23 – सजल – सामंजस्य रहे जीवन में… 

समांत- अन

पदांत- अपदांत

मात्राभार- 16

 

नारी ही नारी की दुश्मन।

उनसे ही सजता नंदनवन।।

 

गंगा जब बहती है उल्टी,

जीवन में बढ़ जाती उलझन।

 

पांचाली, कैकयी, मंथरा,  

युग में मचा गई हैं क्रंदन।

 

खिचीं भीतियाँ घर-आँगन में,

परिवारों में होती अनबन ।

 

सीता, रुक्मिणी या सावित्री,

होता उनका ही अभिनंदन ।

 

समरसता समभाव बने तो,

जीवन भर महके है चंदन ।

 

सास-बहू, ननदी-भौजाई,

गूढ़ पहेली का है कानन।

 

सामंजस्य रहे जीवन में,

हँसी-खुशी में डूबे तन-मन।

 

पड़ें हिंडोले बाग-बगीचे,

जेठ गया तब आया सावन।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

10 जुलाई 2021

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)-  482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 109 – “परमानंदम्” – सुश्री सुषमा व्यास राजनिधि ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है  सुश्री सुषमा व्यास राजनिधि जी  की  पुस्तक  “परमानंदम्” की समीक्षा।

पुस्तक चर्चा

पुस्तक चर्चा

कृति… परमानंदम्

लेखिका… सुषमा व्यास राजनिधि

संस्मय प्रकाशन, इंदौर

ISBN 978-81-952641-3-1

 पृष्ठ 48

साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 109 ☆

☆ “परमानंदम्” – सुश्री सुषमा व्यास राजनिधि ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

आध्यात्म को बड़ा गूढ़ विषय समझे जाने की भ्रांति है. 

रिटायरमेंट के बाद ही धर्म आध्यात्म के लिये  समय दिये जाने की परम्परा है.

लम्बे लम्बे गंभीर प्रवचन आध्यात्मिक उन्नयन के लिये जरूरी माने जाते हैं. किंतु वास्तव में ऐसा है नहीं. सुषमा व्यास राजनिधि की कृति परमानंदम् पढ़िये, उनके छोटे छोटे आलेख, आपमें आध्यात्मिकता के प्रति लगाव पैदा कर देंगे. गुरु के प्रति आपमें समर्पण जगा देंगे. इन दिनों धर्म सार्वजनिक शक्ति प्रदर्शन का संसाधन बनाकर राजनैतिक रूप से प्रस्तुत किया जा रहा है. जबकि वास्तव में धर्म नितांत व्यक्तिगत साधना है. यह वह मार्ग है जो हमारे व्यक्तित्व को इस तरह निखारता है कि हमारा  मन, चित्त परम शांति का अनुभव कर पाता है. ईश्वरीय परम सत्ता किसी फ्रेम में बंधी फोटो या जयकारे से बहुत परे वह शिखर नाद है जिसकी ध्वनि मन ही कह सकता है और मन ही सुन सकता है. परमानंद  अभिव्यक्ति कम और अनुभूति अधिक है. सुषमा व्यास राजनिधि ने नितांत सरल शब्दों में गूढ़ कथ्य न्यूनतम विस्तार से लिख डाली है. जिनकी व्याख्या पाठक असीम की सीमा तक अनुभव कर सकता है. वे नर्मदा को अपनी सखी मानती हैं. रेवासखि में यही भाव अभिव्यक्त होते हैं. भगवान श्रीकृष्ण और श्रीमद्भगवतगीता, आधुनिक युग में राम और रामायण की महत्ता, श्रीमद् देवी भागवत पुराण, युवा वर्ग में धार्मिक ग्रंथो के प्रति अरुचि, उनका आलेख है, दरअसल हमारे सारे धार्मिक पौराणिक ग्रंथ संस्कृत में हैं, और आज अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वाले सारे युवा संस्कृत ही नही जानते. इसीलिये मेरे पिता प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव जी ने भगवतगीता, रघुवंश, भ्रमरगीत, दैनंदिनी पूजन श्लोक आदि का हिन्दी काव्यगत अनुवाद किया है, जिससे युवा पीढ़ी इन महान ग्रंथो को पढ़ समझ व उनका मनन कर सके. और इन वैश्विक ग्रंथो के प्रति युवाओ में रुचि जाग सके. धार्मिक ग्रंथो में नारी पात्र, प्रसिद्ध मंदिर रणजीत बाबा हनुमान की महिमा, सृष्टि के सबसे दयालु संत, गोस्वामी तुलसीदास के ग्रंथो में राम का स्वरूप, कृष्ण चिंतन तथा अंधकार में उगता सूरज जैसे विषयों पर सारगर्भित लेखों का संग्रह किताब में है.

पुस्तक पढ़ने समझने गुनने लायक है.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆☆”तीसरा विश्वयुद्ध!” ☆☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आलेख – तीसरा विश्वयुद्ध!.)

☆ आलेख ☆ “तीसरा विश्वयुद्ध!☆ श्री राकेश कुमार ☆

(समसामयिक)

तीसरा विश्वयुद्ध! विगत अनेक वर्षों से इस शब्द को सुनते आ रहे हैं। कब होगा ?

पहला और दूसरा तो इतिहास बन चुके हैं। आने वाले विद्यार्थियों को एक विषय और इसकी तारीखें भी याद रखनी पढ़ेगी। हमारे सोशल मीडिया तो हमेशा से मज़े लेने में अग्रणी रहता ही हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी चौबीसों घंटे रक्षा विशेषज्ञों के मुंह में अपने शब्द डालकर उनको भी अपनी विचार-वार्ता का भाग बनाने में गुरेज़ नही करते। नए नए विश्व के राजनैतिक समीकरण और ना जाने अपनी कल्पना की उड़ान से सामरिक महत्व की बातों से मीडिया प्रतिदिन नई सामग्री परोस का अपनी टीआरपी को बढ़ा कर विज्ञापन की दरों से अपनी आय में वृद्धि कर रहे हैं।

केन्द्रीय सरकार के कुछ मंत्री यूक्रेन के पड़ोसी देश रवाना हो गए हैं। इसी प्रकार अनेक राज्य सरकारों ने भी अपने आला अधिकारियों को दिल्ली और मुंबई में वापिस आए हुए छात्राओं के स्वागत के लिए तैनात कर दिया हैं। संभवतः ……! 

हॉलीवुड और बॉलीवुड के फिल्म निर्माताओं को भी एक विषय मिल गया है। उन्होंने भी अपने फिल्मी लेखकों को इस कार्य के लिए बयाना भी दे दिया होगा।सुनने में आया है,कुछ फिल्मों के टाइटल भी इस बाबत रजिस्टर्ड करवा लिए हैं।

हमारे भविष्य वक्ता अपनी पंचांग में छपी हुई भविष्य वाणी सच साबित बता कर अपने पंचांग की वृद्धि करने में लग गए हैं।हर कोई अपनी दुकान / व्यापार में यूक्रेन युद्ध को भंजा रहा हैं। दूसरों के घर में लगी हुई आग पर हर कोई रोटियां सेकने की कोशिश कर रहा हैं। टेंशन और खोफ का वातावरण बनाए जाने के प्रयास चारो दिशाओं में हो रहे हैं।

क्या यह आपदा में अवसर नहीं है?  

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव,निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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