(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण ग़ज़ल “जिस तरफ भी नजरें घुमाई…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा 75 ☆ गजल – ’जिस तरफ भी नजरें घुमाई… ’’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
दर्द को दिल में अपने छुपायें आज महफिल में आये हुये हैं।
क्या बतायें कि अपनों के गम से किस तरह हम सताये हुयें हैं।
अपनों को खुशियाँ देने को हमने जिंदगी भर लड़ीं है लड़ाई
पर बतायें क्या हम दूसरों को, अपनों से भी भुलायें हुयें हैं।
जिस तरफ भी नजरें घुमाई, कहीं भी कोई मिला न सहारा
राह चलता रहा आँख खोले, फिर की कई चोट खाये हुये हैं।
गर्दिशों में भी लब पै तबसुम्म लिये हम आगे बढ़ते रहे हैं
अन कहें सैंकड़ो दर्द लेकिन अपने दिल में छुपाये हुये हैं।
काट दी उम्र सब झंझटों में, पर कभी उफ न मुह से निकाली
अपनी दम पै तूफानों से लड़के इस किनारे पै आये हुये हैं।
शायद दुनियां का ये ही चलन है कोई शिकवा गिला क्या किसी से
हमको लगता है हम शायद अपने दर्द के ही बनायें हुये है।
जो गुजारी न उसका गिला है, खुश हैं उससे ही जो कुछ मिला है
बन सका जितना सबकों किया है, चोट पर सबसे खाये हुये हैं।
है भरोसा ’विदग्ध’ हमें अपनी टांगों पर जिनसे चलते रहे हैं
आगे भी राह चल लेगें पूरी, इन्हीं से चलते आये हुये हैं।
आज मी तुम्हाला सुश्री अरुणा मुल्हेरकर यांच्या शाॅपीझेन या डीजीटल मीडीयावर नुकताच प्रकाशित झालेल्या अरुणोदय या काव्य संग्रहाचा परिचय करुन देणार आहे. या संग्रहात एकूण चाळीस कविता आहेत.
त्यांचे वैशिष्ट्य असे की, यातील एकही कविता मुक्तछंदातील नसून, प्रत्येक कविता नियमबद्ध आहे. त्यामुळे या चाळीस कवितातून चाळीस काव्यप्रकाराची अरुणाताई यांनी ओळख करून दिली आहे.
षटकोळी, कृष्णाक्षरी, शोभाक्षरी, शंकरपाळी, नीरजा, मधुसिंधु, रट्टा वगैरे एकाहून एक सुंदर काव्यप्रकार उलगडत जातात.
प्रत्येक काव्यप्रकाराचे नियम त्यांनी सांगितले आहेत. ओळी, यमक, वर्ण अक्षरं, शब्द यांची संख्या मांडणी याविषयीचे संपूर्ण तपशील यात दिले आहेत. त्यामुळे या सर्व काव्यरचना वाचताना आपोआपच एक लयबद्धता येते. आणि वाचकाला त्या रमवतात.
या सर्व कवितातून त्यांनी विवीध विषयही हाताळले आहेत. निसर्ग आहे.मनातली स्पंदने आहेत. सामाजिक दूषणे आहेत.
नव्या पीढीच्या समस्या आहेत. जीवनातली सुख दु:ख प्रेम यावरचे मोकळे भाष्य आहे. भावनांचे अविष्कार आहेत….
नाते प्रेमाचे या षटकोळी रचनेत त्या म्हणतात,
मधुप आणि कुसुम
धेनु वाढवी वासराला
पाखरे झेपावती नभात
घेत उंच भरारी
कोटरात परतती सांजवेळी
प्रेम आहे चराचरात..
या सहा ओळीच्या रचनेत अत्यंत सहज शब्दांत त्यांनी निसर्गातले प्रेम टिपले आहे.
द्विशब्दी रचनेतले आई विषयीचे दोनच शब्द मनाला भिडणारे आहेत.
आई देई
संस्काराचे आंदण
दारात तिच्या
बागडते अंगण…
मधुदीप काव्यांमधे शब्दांची मांडणी तेवत्या दीपासारखी असते. या कविता वाचताना अक्षरांच्या सुबक चित्राकृतीही खूप आकर्षक आहेत.
संगीताक्षरी.. तीनओळीची अक्षरबद्ध काव्यरचना.
चंदन झिजतसे
सुगंध भरीतसे
सदाकाळ…
लीनाक्षरी हे दोन ओळीचं, २४ अक्षरे असलेले काव्यही अतिशय लोभस आहे.
संकटाशी सामर्थ्याने लढायचे
शांतचित्त समाधान ठेवायचे…
शब्द साधे पण अत्यंत ओलावा असलेले. प्राणमय आणि सजीव. प्रत्येक रचना ही त्या त्या भावनेसकट,विचारांसहित मनाला भिडते. नियमबद्ध असूनही अवघड नाही. रुक्ष नाही. फाफटपसारा नाही. ओढूनताणून केलेली अक्षरांची कसरत नाही. एक सहजता, नाद लय गती.. या कविता वाचताना जाणवते. मन गुणगुणायला लागतं.. अरुणोदय या काव्यसंग्रहाचं हेच वैशिष्ट्य आणि यशही.
अरुणाताईंनी अतिशय अभ्यासपूर्ण असा हा काव्यसंग्रह प्रकाशित करून, नवोदित कवी कवयित्रींसाठी एक दालन उघडले आहे.
साहित्य कला व्यक्तिमत्व मंचाचे प्रमुख, आणि मान्यवर लेखक, कवी गझलकार या काव्य संग्रहाच्या प्रस्तावनेत म्हणतात की या काव्य सरितेत प्रथम मी सहज डोकावलो नंतर त्यात कसा ऊतरलो, पोहू लागलो नि संपूर्ण काव्यसंग्रह वाचल्यावर वर येउन पाहतो तर मी एकामहासागरात होतो. अरुणाताईंची प्रतिभा आणि प्रतिमा खूप काही शिकायला ठेवून गेली. तेव्हां रसिकहो आपणही हा अनुभव घ्यावा. त्यासाठी शॉपीझेन डॉट काॅम या साईटवर जाउन अरुणोदय हा काव्यसंग्रह जरुर वाचावा.
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख बहुत तकलीफ़ होती है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 126 ☆
☆ बहुत तकलीफ़ होती है ☆
‘लोग कहते हैं जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो तकलीफ़ होती है; परंतु जब कोई अपना पास होकर भी दूरियां बना लेता है, तब बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है।’ प्रश्न उठता है, आखिर संसार में अपना कौन…परिजन, आत्मज या दोस्त? वास्तव में सब संबंध स्वार्थ व अवसरानुकूल उपयोगिता के आधार पर स्थापित किए जाते हैं। कुछ संबंध जन्मजात होते हैं, जो परमात्मा बना कर भेजता है और मानव को उन्हें चाहे-अनचाहे निभाना ही पड़ता है। सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अकेला नहीं रह सकता और वह कुछ संबंध बनाता है; जो बनते-बिगड़ते रहते हैं। परंतु बचपन के साथी लंबे समय तक याद आते रहते हैं, जो अपवाद हैं। कुछ संबंध व्यक्ति स्वार्थवश स्थापित करता है और स्वार्थ साधने के पश्चात् छोड़ देता है। यह संबंध रिवाल्विंग चेयर की भांति अस्थायी होते हैं, जो दृष्टि से ओझल होते ही समाप्त हो जाते हैं और लोगों के तेवर भी अक्सर बदल जाते हैं। परंतु माता-पिता व सच्चे दोस्त नि:स्वार्थ भाव से संबंधों को निभाते हैं। उन्हें किसी से कोई संबंध-सरोकार नहीं होता तथा विषम परिस्थितियों में भी वे आप की ढाल बनकर खड़े रहते हैं। इतना ही नहीं, आपकी अनुपस्थिति में भी वे आपके पक्षधर बने रहते हैं। सो! आप उन पर नेत्र मूंदकर विश्वास कर सकते हैं। आपने अंग्रेजी की कहावत सुनी होगी ‘आउट आफ साइट, आउट ऑफ मांइड’ अर्थात् दृष्टि से ओझल होते ही उससे नाता टूट जाता है। आधुनिक युग में लोग आपके सम्मुख अपनत्व भाव दर्शाते हैं; परंतु दूर होते ही वे आपकी जड़ें काटने से तनिक भी ग़ुरेज़ नहीं करते। ऐसे लोग बरसाती मेंढक की तरह होते हैं, जो केवल मौसम बदलने पर ही नज़र आते हैं। वे गिरगिट की भांति रंग बदलने में माहिर होते हैं। इंसान को जीवन में उनसे सदैव सावधान रहना चाहिए, क्योंकि वे अपने बनकर, अपनों को घात लगाते हैं। सो! उनके जाने का इंसान को शोक नहीं मनाना चाहिए, बल्कि प्रसन्न होना चाहिए।
वास्तव में इंसान को सबसे अधिक दु:ख तब होता है, जब अपने पास रहते हुए भी दूरियां बना लेते हैं। दूसरे शब्दों में वे अपने बनकर अपनों से विश्वासघात करते हैं तथा पीठ में छुरा घोंपते हैं। आजकल के संबंध कांच की भांति नाज़ुक होते हैं, जो ज़रा-सी ठोकर लगते ही दरक़ जाते हैं, क्योंकि यह संबंध स्थायी नहीं होते। आधुनिक युग में खून के रिश्तों पर भी विश्वास करना मूर्खता है। अपने आत्मज ही आपको घात लगाते हैं। वे आपको तब तक मान-सम्मान देते हैं, जब तक आपके पास धन-संपत्ति होती है। अक्सर लोग अपना सब कुछ उनके हाथों सौंपने के पश्चात् अपाहिज-सा जीवन जीते हैं या उन्हें वृद्धाश्रम में आश्रय लेना पड़ता है। वे दिन-रात प्रभु से यही प्रश्न करते हैं, आखिर उनका कसूर क्या था? वैसे भी आजकल परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं, क्योंकि संबंध-सरोकारों की अहमियत रही नहीं। वे सब एकांत की त्रासदी झेलने को विवश होते हैं, जिसका सबसे अधिक ख़ामियाज़ा बच्चों को भुगतना पड़ता है। प्राय: वे ग़लत संगति में पड़ कर अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं।
अक्सर ज़िदंगी के रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोगों की बातों में आकर हम अपनों से उलझ जाते हैं। मुझे स्मरण हो रहे हैं कलाम जी के शब्द ‘आप जितना किसी के बारे में जानते हैं; उस पर विश्वास कीजिए और उससे अधिक किसी से सुनकर उसके प्रति धारणा मत बनाइए। कबीरदास भी आंखिन-देखी पर विश्वास करने का संदेश देते हैं; कानों-सुनी पर नहीं। ‘कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना।’ इसलिए उनकी बातों पर विश्वास करके किसी के प्रति ग़लतफ़हमी मत पालें। इससे रिश्तों की नमी समाप्त हो जाती है और वे सूखी रेत के कणों की भांति तत्क्षण मुट्ठी से फिसल जाते हैं। ऐसे लोगों को ज़िंदगी से निकाल फेंकना कारग़र है। ‘जीवन में यदि मतभेद हैं, तो सुलझ सकते हैं, परंतु मनभेद आपको एक-दूसरे के क़रीब नहीं आने देते। वास्तव में जो हम सुनते हैं, हमारा मत होता है; तथ्य नहीं। जो हम देखते हैं, सत्य होता है; कल्पना नहीं। ‘सो! जो जैसा है; उसी रूप में स्वीकार कीजिए। दूसरों को प्रसन्न करने के लिए मूल्यों से समझौता मत कीजिए; आत्म-सम्मान बनाए रखिए और चले आइए।’ महात्मा बुद्ध की यह सीख अनुकरणीय है।
‘ठहर! ग़िले-शिक़वे ठीक नहीं/ कभी तो छोड़ दीजिए/ कश्ती को लहरों के सहारे।’ समय बहुत बलवान है, निरंतर बदलता रहता है। जीवन में आत्म-सम्मान बनाए रखें; उसे गिरवी रखकर समझौता ना करें, क्योंकि समय जब निर्णय करता है, तो ग़वाहों की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए किसी विनम्र व सज्जन व्यक्ति को देखते ही यही कहा जाता है, ‘शायद! उसने ज़िंदगी में बहुत अधिक समझौते किए होंगे, क्योंकि संसार में मान-सम्मान उसी को ही प्राप्त होता है।’ किसी को पाने के लिए सारी खूबियां कम पड़ जाती हैं और खोने के लिए एक ग़लतफ़हमी ही काफी है।’ सो! जिसे आप भुला नहीं सकते, क्षमा कर दीजिए; जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते, भूल जाइए। हर क्षण, हर दिन शांत व प्रसन्न रहिए और जीवन से प्यार कीजिए; आप ख़ुद को मज़बूत पाएंगे, क्योंकि लोहा ठंडा होने पर मज़बूत होता है और उसे किसी भी आकार में ढाला नहीं जा सकता है।
यदि मन शांत होगा, तो हम आत्म-स्वरूप परमात्मा को जान सकेंगे। आत्मा-परमात्मा का संबंध शाश्वत् है। परंतु बावरा मन भूल गया है कि वह पृथ्वी पर निवासी नहीं, प्रवासी बनकर आया है। सो! ‘शब्द संभाल कर बोलिए/ शब्द के हाथ ना पांव/ एक शब्द करे औषधि/ एक शब्द करे घाव।’ कबीर जी सदैव मधुर वाणी बोलने का संदेश देते हैं। जब तक इंसान परमात्मा-सत्ता पर विश्वास व नाम-स्मरण करता है; आनंद-मग्न रहता है और एक दिन अपने जीवन के मूल लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर लेता है। सो! परमात्मा आपके अंतर्मन में निवास करता है, उसे खोजने का प्रयास करो। प्रतीक्षा मत करो, क्योंकि तुम्हारे जीवन को रोशन करने कोई नहीं आएगा। आग जलाने के लिए आपके पास दोस्त के रूप में माचिस की तीलियां हैं। दोस्त, जो हमारे दोषों को अस्त कर दे। दो हस्तियों का मिलन दोस्ती है। अब्दुल कलाम जी के शब्दों में ‘जो आपके पास चलकर आए सच्चा दोस्त होता है; जब सारी दुनिया आपको छोड़कर चली जाए।’ इसलिए दुनिया में सबको अपना समझें; पराया कोई नहीं। न किसी से अपेक्षा ना रखें, न किसी की उपेक्षा करें। परमात्मा सबसे बड़ा हितैषी है, उस पर भरोसा रखें और उसकी शरण में रहें, क्योंकि उसके सिवाय यह संसार मिथ्या है। यदि हम दूसरों पर भरोसा रखते हैं, तो हमें पछताना पड़ता है, क्योंकि जब अपने, अपने बन कर हमें छलते हैं, तो हम ग़मों के सागर में डूब जाते हैं और निराशा रूपी सागर में अवगाहन करते हैं। इस स्थिति में हमें बहुत ज़्यादा तकलीफ़ होती है। इसलिए भरोसा स्वयं पर रखें; किसी अन्य पर नहीं। आपदा के समय इधर-उधर मत झांकें। प्रभु का ध्यान करें और उसके प्रति समर्पित हो जाएं, क्योंकि वह पलक झपकते आपके सभी संशय दूर कर आपदाओं से मुक्त करने की सामर्थ्य रखता है।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं होली पर्व पर विशेष “भावना के दोहे ”। )
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण रचना “वो क्या गए …”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक संवेदनशील लघुकथा ‘निष्कासन’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 90 ☆
☆ लघुकथा – निष्कासन ☆
वह सिर झुकाए बैठी थी। चेहरा दुपट्टे से ढ़ंका हुआ था। एक महिला पुलिस तेज आवाज में पूछ रही थी – कैसे आ गई इस धंधे में ? यहाँ कौन लाया तुझे ? बोल जल्दी – उसने सख्ती से कहा। उसने सूनी आँखों से चारों तरफ देखा, उत्तर देने में जख्म हरे हो जाते हैं, पर क्या करे ? ना जाने कितनी बार बता चुकी है यह सब —
सौतेली माँ ने बहुत कम उम्र में मेरी शादी कर दी। मेरा आदमी मुंबई में मजदूरी करता था। सास खाने में रोटी और मिर्च की चटनी देती थी। आग लग जाती थी मुँह में। पानी पी- पीकर किसी तरह पेट भरती थी अपना। बोलते – बोलते उसकी जबान लड़खड़ाने लगी मानों मिर्च का तीखापन फिर लार में घुल गया हो।
नाटक मत कर, कहानी सुनने को नहीं बैठे हैं हम, आगे बोल –
पति आया तो उसको सारी बात बताई। वह मुझे अपने साथ मुंबई ले गया। इंसान को मालूम नहीं होता कि किस्मत में क्या लिखा है वरना मिर्च की चटनी खाकर चुपचाप जीवन काट लेती। अपने आदमी के साथ चली तो गई पर वहाँ जाकर समझ में आया कि यहाँ के लोग अच्छे नहीं हैं। मुझे देखकर गंदे इशारे करते थे। एक रात पति काम के लिए बाहर गया था। रात में कुछ लोग मुझे जबर्दस्ती उठाकर ले गए। बहुत रोई, गिड़गिड़ाई पर —। आधी रात को पत्थरों पर फेंककर चले गए। तन - मन से बुरी तरह टूट गई थी मैं। पति पहले तो बोला कि तेरी कोई गल्ती नहीं है इसमें लेकिन बाद में अपनी माँ की ही बात सुनने लगा। सास उससे बोली कि इसके साथ ऐसा काम हुआ है इसको क्यों रखा है अब घर में, निकाल बाहर कर। उसके बाद से वह मुझे बहुत मारने लगा। हाथ में जो आता, उससे मारता। एक दिन परेशान होकर मैं घर से निकल गई। मायके का रास्ता मेरे लिए पहले ही बंद था। छोटी – सी बच्ची थी मेरी, गोद में उसे लेकर इधर – उधर भटकती रही। कहने को माँ – बाप, भाई, पति सब थे, पर कोई सहारा नहीं। कुछ दिन भीख मांगकर किसी तरह अपना और बच्ची का पेट भरती रही। तब भी लोगों की गंदी बातें सुननी पड़ती थीं। कब तक झेलती यह सब? एक दिन ऑटो रिक्शे में बैठकर निकल पड़ी। रिक्शेवाले ने पूछा – कहाँ जाना है? मैंने कहा – पता नहीं, जहाँ ले जाना हो, ले चल। उसने इस गली में लाकर छोड़ दिया। बस तब से यहीं —
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )
आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख शब्द एक, भाव अनेक।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 151 ☆
आलेख – शब्द एक, भाव अनेक
जब अलग अलग रचनाकार एक ही शब्द पर कलम चलाते हैं तो अपने अपने परिवेश, अपने अनुभवों, अपनी भाषाई क्षमता के अनुरूप सर्वथा भिन्न रचनायें उपजती हैं.
व्यंग्य में तो जुगलबंदी का इतिहास लतीफ घोंघी और ईश्वर जी के नाम है, जिसमें एक ही विषय पर दोनो सुप्रसिद्ध लेखको ने व्यंग्य लिखे. फिर इस परम्परा को अनूप शुक्ल ने फेसबुक के जरिये पुनर्जीवित किया, हर हफ्ते एक ही विषय पर अनेक व्यंग्यकार लिखते थे जिन्हें समाहित कर फेसबुक पर लगाया जाता रहा. स्वाभाविक है एक ही टाइटिल होते हुये भी सभी व्यंग्य लेख बहुत भिन्न होते थे. कविता में भी अनेक ग्रुप्स व संस्थाओ में एक ही विषय पर समस्या पूर्ति की पुरानी परम्परा मिलती है. इसी तरह , एक ही भाव को अलग अलग विधा के जरिये अभिव्यक्त करने के प्रयोग भी मैने स्वयं किये हैं. उसी भाव पर अमिधा में निबंध, कविता, व्यंग्य, लघुकथा, नाटक तक लिखे. यह साहित्यिक अभिव्यक्ति का अलग आनंद है.
सैनिक शब्द पर भी खूब लिखा गया है, यह साहित्यकारो की हमारे सैनिको के साथ प्रतिबद्धता का परिचायक भी है. भारतीय सेना विश्व की श्रेष्ठतम सेनाओ में से एक है, क्योकि सेना की सर्वाधिक महत्वपूर्ण इकाई हमारे सैनिक वीरता के प्रतीक हैं. उनमें देश प्रेम के लिये आत्मोत्सर्ग का जज्बा है.उन्हें मालूम है कि उनके पीछे सारा देश खड़ा है. जब वे रात दिन अपने काम से थककर कुछ घण्टे सोते हैं तो वे अपनी मां की, पत्नी या प्रेमिका के स्मृति आंचल में विश्राम करते हैं, यही कारण है कि हमारे सैनिको के चेहरों पर वे स्वाभाविक भाव परिलक्षित होते हैं. इसके विपरीत चीनी सैनिको के कैम्प से रबर की आदम कद गुड़िया के पुतले बरामद हुये वे इन रबर की गुड़िया से लिपटकर सोते हैं. शायद इसीलिये चीनी सैनिको के चेहरे भाव हीन, संवेदना हीन दिखते हैं. हमने देखा है कि उनकी सरकार चीन के मृत सैनिको के नाम तक नही लेती. वहां सैनिको का वह राष्ट्रीय सम्मान नही है, जो भारतीय सैनिको को प्राप्त है. मैं एक बार किसी विदेशी एयरपोर्ट पर था, सैनिको का एक दल वहां से ट्राँजिट में था, मैने देखा कि सामान्य नागरिको ने खड़े होकर, तालियां बजाकर सैनिक दल का अभिवादन किया. वर्दी को यह सम्मान सैनिको का मनोबल बहुगुणित कर देता है.
सैनिक पर खूब रचनायें हुई है हरिवंश राय बच्चन की पंक्तियां हैं
जवान हिंद के अडिग रहो डटे,
न जब तलक निशान शत्रु का हटे,
हज़ार शीश एक ठौर पर कटे,
ज़मीन रक्त-रुंड-मुंड से पटे,
तजो न सूचिकाग्र भूमि-भाग भी।
प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध जी की कविता का अंश है…
तुम पर है ना आज देश को तुम पर हमें गुमान
मेरे वतन के फौजियों जांबाज नौजवान
सुनकर पुकार देश की तुम साथ चल पड़े
दुश्मन की राह रोकने तुम काल बन खड़े
तुम ने फिजा में एक नई जान डाल दी
तकदीर देश की नए सांचे में ढ़ाल दी
अनेक फिल्मो में सैनिको पर गीत सम्मलित किये गये हैं. प्रायः सभी बड़े कवियों ने कभी न कभी सैनिको पर कुछ न कुछ अवश्य लिखा है. जो हिन्दी की थाथी है. हर रचना व रचनाकार अपने आप में महत्वपूर्ण है. देश के सैनिको के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुये अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूं. हमारे सैनिक राष्ट्र की रक्षा में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं । सैनिक होना केवल आजीविका उपार्जन नही होता । सैनिक एक संकल्प, एक समर्पण, अनुशासन के अनुष्ठान का वर्दीधारी बिम्ब होता है ।हम सब भी अप्रत्यक्ष रूप से जीवन के किसी हिस्से में कही न कही किंचित भूमिका में छोटे बड़े सैनिक होते हैं । कोरोना में हमारे शरीर के रोग प्रतिरोधक अवयव वायरस के विरुद्ध शरीर के सैनिक की भूमिका में सक्रिय हैं ।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “ऑनलाइन से ऑफलाइन की ओर…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 93 ☆
☆ ऑनलाइन से ऑफलाइन की ओर… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆
लाइन में लगकर न जाने क्या- क्या कार्य किए जाते रहे हैं। राशन, बिल, रेल व पिक्चर के टिकिट, रोजगार हेतु फॉर्म जमा करना, फीस जमा करना, बैंक के कार्यों में आदि। वैसे सबसे पहले स्कूल में प्रार्थना करते समय लाइन का अभ्यास बच्चों को शुरू से कराया जाता है। ऊँचाई के आधार पर, कक्षा, वर्ग की लाइन लगती है। जरा सी तिरछी होने पर तुरंत कड़क आवाज द्वारा सीधा करा दिया जाता है।
कृपया लाइन से आइए तभी सारे कार्य सुचारू रूप से हो सकेंगे। ऐसा कहते और सुनते हुए हम लोग बड़े हुए हैं। तकनीकी के प्रभाव से भले ही, लाइन लगाने के अवसरों में कमीं आयी है किंतु हम लोग इस अधूरेपन को कहीं न कहीं महसूस अवश्य कर रहे हैं। लाइन में लगकर बातचीत करते हुए अपने अधिकारों की चर्चा करना भला किसको याद नहीं होगा। सारी रामकथा वहीं पर कहते – सुनते हुए लोग देखे जा सकते थे किंतु ऑफलाइन के बढ़ते प्रभाव ने इस भावनात्मक मेलजोल को कम कर दिया है।
इधर सारे कार्य भी वर्क फ्रॉम होम होने से उदास लोग मौका ढूंढते हुए दिखने लगे हैं कि ऑफलाइन में जो मजा था वो फिर से चाहिए। हालांकि अब कोई रोक- टोक नहीं है किंतु सब कुछ गति में आने पर वक्त तो लगता ही है। हर नियमों के लाभ और हानि को मापना संभव नहीं है। इस सबमें सबसे अधिक नुकसान स्कूली बच्चों का हुआ है। वे अब ऑफलाइन जाने में डर रहे हैं। दो वर्षों से ऑनलाइन परीक्षा देने पर जो लाभ उन्हें मिला है उससे उनकी पढ़ने व याद करने की आदत छूट गयी है। गूगल की सहायता से उत्तर लिखते हुए जो मजा उन्हें आ रहा था अब वो नहीं मिलेगा सो चिड़चिड़ाते हुए स्कूल जाते देखे जा सकते हैं। स्कूल प्रशासन को चाहिए कि उन्हें धैर्य के साथ समझाए। ज्यादा भय देने पर अरुचि होना स्वाभाविक है। बाल मन जब खेल- कूद की ओर लगेगा तो धीरे- धीरे पुनः गति आएगी।
माता- पिता को भी शिक्षकों के साथ तारतम्यता बैठाते हुए बच्चों को पुनः पहले जैसा बनाने की पहल करनी चाहिए। ऑफ लाइन की लाइन भले ही कष्टकारी हो किंतु सच्ची सीख, परस्पर प्रेम, देने का भाव, मेलजोल, सहनशीलता व संवाद को जन्म देती है इसलिए आइए मिलकर पुनः उसी धारा की ओर लौटें थोड़े से परिवर्तन के साथ क्योंकि परिवर्तन सदैव हितकारी होते हैं। इनसे ही सुखद भविष्य की नींव गढ़ी जा सकती हैं।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर बाल गीत – “पानी चला सैर को”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 111 ☆