हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #131 ☆ मनन व आनंद ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मनन व आनंद। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 131 ☆

☆ मनन व आनंद

‘मन का धर्म है मनन करना; मनन से ही उसे आनंद प्राप्त होता है और मनन में बाधा होने से उसे पीड़ा होती है’ रवीन्द्रनाथ ठाकुर की यह उक्ति विचारणीय है, चिंतनीय है, मननीय है। मन का स्वभाव है– सोच-समझ कर, शांत भाव से कार्य करना व ऊहापोह की स्थिति से ऊपर उठना। दूसरे शब्दों में हम इसे एकाग्रता की संज्ञा दे सकते हैं। चित की एकाग्रता आनंद-प्रदायिका है। उस स्थिति में मन अलौकिक आनंद की दशा में पहुंच जाता है तथा स्व-पर व राग-द्वेष से ऊपर उठ जाता है। यदि इस स्थिति में कोई विक्षेप होता है, तो उसे अत्यंत पीड़ा होती है और वह उस लौकिक जगत् में लौट आता है।

ग्लैडस्टन के मतानुसार ‘बहुत ही तथा बड़ी ग़लतियाँ किए बिना मनुष्य बड़ा व महान् नहीं बन सकता’– उक्त तथ्य को उद्घाटित करता है कि इंसान जीवन भर सीखता है तथा जो जितनी अधिक ग़लतियाँ करता है; उतना ही महान् बन जाता है। वास्तव में वही व्यक्ति सीख सकता है, जिसमें अहं भाव न हो; जो ज़मीन से जुड़ा हो; जिसके अंतर्मन में विद्या, विनय, विवेक व विनम्रता भाव संचित हों। वह सकारात्मक सोच का धनी हो और उसके हृदय में दया, माया, ममता, करुणा, सहानुभूति, सहनशीलता आदि दैवीय भावों का आग़ार हो। ऐसा व्यक्ति अपनी ग़लती को स्वीकारने में तनिक भी संकोच व लज्जा का अनुभव नहीं करता, बल्कि भविष्य में उसे न दोहराने का संकल्प भी लेता है। सो! ऐसा व्यक्ति महान् बन सकता है।

‘दातापन, मीठी बोली, धैर्य व उचित का ज्ञान– यह चारों स्वाभाविक गुण हैं, जो अभ्यास से नहीं मिलते।’ चाणक्य की यह उक्ति मानव को आभास दिलाती है कि कुछ गुण प्रभु-प्रदत्त होते हैं तथा वे प्रतिभा के अंतर्गत आते हैं। लाख प्रयास करने पर भी व्यक्ति उन्हें अर्जित नहीं कर सकता। वे उसे पूर्वजन्म के कृत-कर्मों के एवज़ में प्राप्त होते हैं। कुछ गुण उसे पूर्वजों द्वारा प्रदत्त होते हैं, जिसके लिए उसे परिश्रम नहीं करना पड़ता तथा वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होते हैं। ‘करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’ के संदर्भ में कबीरदास जी का यह संदेश अत्यंत सार्थक है कि निरंतर अभ्यास द्वारा मूर्ख भी विद्वान बन सकता है। इसके द्वारा हम ज्ञान तो प्राप्त कर सकते हैं, परंतु उससे स्वभाव में परिवर्तन आना संभव नहीं है।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण मानव को मन-तुरंग को वश में करने की सीख देते हैं, क्योंकि मन बहुत चंचल है। वह पल भर में तीनों लोकों की यात्रा कर लौट आता है। सो! एकाग्रता व ध्यान के लिए मन को नियंत्रण में रखना आवश्यक है। जैसे-जैसे हमारा चित एकाग्र होता जाता है, हमारी भौतिक इच्छाओं, आकांक्षाओं, तमन्नाओं व वासनाओं पर अंकुश लग जाता है और हम अनहद नाद की स्थिति को प्राप्त हो जाते हैं। हमें शून्य में केवल घंटों की अलौकिक ध्वनि सुनाई पड़ती है। हमारे आसपास क्या घटित हो रहा है; हम उससे बेखबर रहते हैं। वास्तव में यही मानव का अंतिम लक्ष्य है। मानव लख चौरासी के बंधनोंसे मुक्ति पाना चाहता है और कैवल्य- प्राप्ति ही मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है। यह प्रवृत्ति मानव में चिन्तन-मनन से जाग्रत होती है। इस स्थिति में हमारा अंतर्मन अपरिग्रह की प्रवृत्ति में विश्वास करने लगता है और गुरू नानक की भांति तेरा-तेरा में विश्वास करने लगता है। परिणामत: हृदय में करुणा व विनम्रता जैसे दैवीय भाव संचित हो जाते हैं और वाणी-माधुर्य स्वयंमेव प्रकट होने लगता है; औचित्य- अनौचित्य का ज्ञान हो जाता है, जो हमें दूसरों से वैशिष्टय प्रदान करता है। उस स्थिति में हम मित्रता व शत्रुता के भाव से ऊपर उठ जाते हैं और केवल सत्कर्म करने लगते हैं।

भरोसा उस पर करो, जो तुम्हारी तीन बातें समझ सके–मुस्कुराहट के पीछे का दर्द, गुस्से के पीछे का प्यार व चुप रहने के पीछे की वजह। इनके माध्यम से मानव को हर इंसान पर भरोसा न करने की सीख दी जाती है, क्योंकि सच्चा साथी आपके हृदय की पीड़ा, करुणा व वेदना को अनुभव करता है तथा आपकी मुस्कुराहट के पीछे के दर्द को समझ जाता है। यदि आप उस पर क्रोधित भी होते हैं, तो वह उसमें निहित प्रेम की भावना को समझ जाता है, क्योंकि वह उस तथ्य से बखूबी अवगत होता है कि आप जो भी करेंगे; उसके हित में ही करेंगे तथा कभी भी उसका बुरा नहीं चाहेंगे। इतना ही नहीं, यदि आप किसी कारणवश मौन हो जाते हैं, तो वह उसकी वजह जानना चाहता है। ऐसी विषम परिस्थिति में भी वह आपसे कभी दूरी नहीं बनाता, बल्कि चिंतन-मनन करता है तथा सच्चाई को जानने का प्रयास करता है। वास्तव में यही जीवन का सार व जीने का अंदाज़ है। मानव को कभी भी तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए तथा अकारण क्रोधित होना भी कारग़र नहीं है। उसे सदैव शांत भाव से कारण जानने का प्रयास  करना चाहिए, ताकि समस्या का निदान संभव हो सके। सो! मानव को निर्णय लेने से पूर्व समस्या के दोनों पक्षों पर विचार करना आवश्यक है, क्योंकि चिंतन-मनन करने से जीवन में ठहराव आता है और वह उपहास का पात्र नहीं बनता। उसके कदम कभी भी ग़लत दिशा की ओर अग्रसर नहीं होते। दूसरे शब्दों में यह अलौकिक आनंद की स्थिति है, जिसमें मैं और तुम व अपने-पराये का भाव समाप्त हो जाता है तथा ‘सर्वे भवंतु सुखीन:’ की भावना प्रबल हो जाती है और सारा संसार उसे अपना कुटुंब नज़र आने लगता है। इसलिए हृदय में चिंतन-मनन की प्रवृत्ति को संपोषित व संग्रहीत करें, ताकि चहुंओर आनंद की वर्षा हो सके।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #130 ☆ लघुकथा – समय की धार ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं एक विचारणीय लघुकथा  “समय की धार।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 130 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा – समय की धार ☆

इंदु की बाहर पोस्टिंग हो जाने बाद आज उसका फोन आया. वहां के सारे हालचाल सुनाए और निश्चितता से कहा बहुत मजे से जिंदगी चल रही है.

हमने ना चाहते भी पूछ लिया अब शादी के बारे में क्या ख्याल है यह सुनते ही उसका गला भर आया.

उसने कहा..”माँ  बाबूजी भी इस बारे में बहुत फोर्स कर रहे हैं लेकिन मन गवाही नहीं दे रहा कि अब फिर से वही जिंदगी शुरू की जाए. पुराने दिन भुलाए नहीं भूलते।”

हमने समझाया ” सभी एक जैसे नही होते, हो सकता है कोई इतना बढ़िया इंसान मिले कि तुम पुराना सब कुछ भूल जाओ।”

“दी कैसे भूल जाऊं वह यादें… ,कितना गलत था मेरा वह निर्णय, पहले उसने इतनी खुशी दी और उसके बाद चौगुना दर्द, मारना -पीटना, भूखे रखना. उसकी माँ जल्लादों जैसा व्यवहार करती थी।”

“माँ बाप की बात को अनसुना करके बिना उनकी इजाजत के कोर्ट मैरिज कर ली और हमारे जन्म के संबंध एक पल में टूट गये।”

“देखो इंदु , अब तुम बीती बातों को भुला दो और अब यह आंसू बहाना बंद कर दो।”

“दी यह मैं जान ही नहीं पाई कि जो व्यक्ति इतना चाहने वाला था वह शादी के बाद ही गिरगिट की तरह रंग कैसे बदलने लगा।”

“इंदु अब तुम सारी बातों को समय की धार में छोड़ दो।”

“नहीं दी यह मैं नहीं भूल सकती, मैंने अपने माता पिता को बहुत कष्ट दिया, इसका उत्तर भगवान ने हमें दे दिया.”

“इंदु एक बात ध्यान रखना माता-पिता भगवान से बढकर है, वे अपनी संतान को हमेशा मांफ कर देते है।”

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #120 ☆ नीको लगे यह ब्रज हमारो ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  भावप्रवण रचना “नीको लगे यह ब्रज हमारो। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 120 ☆

☆ नीको लगे यह ब्रज हमारो 

कन कन में बसते मन मोहन, मोहक राज दुलारो

ब्रज की रज चंदन सी महके, वृंदावन है प्यारो

जित बसते हों राधेरमना, सुख मिलतो है सारो

रहे  कबहुँ न दुख को अंधेरों, पास रहे उजियारो

ब्रज की बोली बड़ी रसीली, प्रेम पाग उचारो

ब्रज की रज “संतोष” लपेटें, कहते प्रभु अब तारो

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ #123 – विजय साहित्य – साथ…! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 123 – विजय साहित्य ?

☆ साथ…!  कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

बहरली प्रीतवेल

दुःख रंगले सुखात

तुझा लागताच वारा

पडे पक्वान्न मुखात….!..१

 

बहरली प्रीतवेल

नाही ओंजळ रिकामी

तळहाती भाग्यरेषा

तुझ्या विना कुचकामी…!..२

 

अंतरीच्या अंतरात

चाले तुझी वहिवाट

काट्यातल्या गुलाबात

विश्वासाची पायवाट…..!..३

 

बहरली प्रीतवेल

तिथे फिरे तुझा हात

आठवांची मुळाक्षरे

गिरवितो अंतरात….!..४

 

ऊन पावसाळे किती

तुझ्या धामी विसावले

ऋतू जीवनाचे माझ्या

तुझ्या नामी सामावले…!..५

 

बहरली प्रीतवेल

सुखी संसाराची छाया

साथ तुझी पदोपदी

लाभे सौख्य शांती माया….!..६

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 98 ☆ लाइम लाइट की हाइट ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “लाइम लाइट की हाइट …”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 98 ☆

लाइम लाइट की हाइट … ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

लाइम और लाइट दोनों की ही शॉर्टेज चल रही है। इसके फेर में पड़ा हुआ व्यक्ति हमेशा कुछ न कुछ अलग करने के चक्कर में घनचक्कर बना हुआ दिखाई देता है। अपनी अलग पहचान बनाना कौन नहीं चाहता, बस यहीं से असली खेल शुरू हो जाता है। समाज के बने हुए नियमों को ताक पर रखकर,एक दूसरे पर दोषारोपण करते हुए व्यक्ति आगे के रास्ते पर चल देता है।

दो सफल सहेलियाँ एक अवसर पर एक दूसरे से मिलने के लिए आतुर दिखीं लेकिन दोनों के भावों में अंतर था। पहली सहेली नेह भाव को लेकर मिल रही थी तो दूसरी अपने सफल होने की चादर को लपेटे हुए मंद- मंद मुस्कुराते हुए केवल औपचारिक भेंट हेतु आयी थी। दरसल दोनों ही इस प्रतिक्रिया से निराश हुईं। पहली को लगा कि उसने व्यर्थ ही यहाँ आकर समय नष्ट किया क्योंकि यहाँ तो एक संस्था की पदाधिकारी आयी है तो वहीं दूसरी ने सोचा ये तो अभी तक उन्हीं यादों को सीने से लगाकर आयी है। मैं तो इसके पद से जुड़कर अपना गौरव और बढ़ाना चाह रही थी किन्तु ये बेचारी बहनजी टाइप ही रह गयी। ऐसी सफलता की क्या कदर करूँ जो लाइमलाइट से दूर भाग रही हो।

जो हम सोचते हैं; वही बनते जाते हैं क्योंकि कल्पना से ही विचार बनते हैं और वही अनायास  हमारे कार्यों द्वारा प्रदर्शित होते हैं। इसीलिए अच्छे लोगों का सानिध्य, अच्छे संस्कार, अच्छी पुस्तकें सदैव पढ़ें।

एक बहुत पुरानी कहानी जो लगभग सभी ने पढ़ी या सुनी होगी। दो तोते एक साथ जन्म लेते हैं किंतु उनकी परवरिश अलग- अलग माहौल में  होती है। एक महात्मा जी के आश्रम में लगे पेड़ पर पलता है तो दूसरा एक ऐसे पेड़ पर रहता है जिसके आश्रय तले चोर बैठ कर आपस में योजना बनाते व चोरी के सामान का हिस्सा बाँट करते हैं।

जाहिर है वातावरण के अनरूप उनके स्वभाव भी निर्मित  हुए जहाँ आश्रम का तोता मन्त्र जाप करता व राहगीरों को राह बताता वहीं  दूसरा तोता राहगीरों को अपशब्द कहता व उनको गलत मार्ग बताता जिससे वे रास्ता भटक जाते।

ये सब घटनाक्रम दर्शाते हैं कि यदि अंतरात्मा को शुद्ध रखना है तो सत्संगत के महत्व को पहचाने। अब पुनः लाइम लाइट की ओर  आते हैं, और एक प्रश्न सभी के लिए है कि क्या रिश्तों और संबंधों में इसकी उपस्थित इतनी जरूरी हो जाती है कि हम सब कुछ खोकर भी बस सफलता की नयी परिभाषा गढ़ने में ही पूरा जीवन जाया करते जा रहे हैं?

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 155 ☆ आलेख – एकता एवं अखंडता भारत की शक्ति ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है  एक विचारणीय  आलेख  एकता एवं अखंडता भारत की शक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 155 ☆

? आलेख – एकता एवं अखंडता भारत की शक्ति ?

“एकता में अटूट शक्ति है” ग्रीक कथाकार एशॉप द्वारा प्राचीन युग के दौरान इस वाक्यांश को सर्वप्रथम उपयोग किया गया था। कथाकार ने इसका अपनी कथा “द ऑक्सन एंड द लायन” में प्रत्यक्ष रूप से और “द बंडल ऑफ स्टिक्स” में अप्रत्यक्ष रूप से इसका उल्लेख किया था।

ईसाई धार्मिक पुस्तक में भी ऐसे ही शब्द शामिल हैं जिनमें प्रमुख हैं “अगर एक घर को विभाजित कर दिया जाता है तो वह घर दोबारा खड़ा नहीं हो सकता” इसी पुस्तक के दूसरे वाक्यांश हैं ” यीशु अपने विचारों को जानते थे और कहते थे ” हर राज्य जिसमें फूट पड़ी है वह उजड़ गया है और हर एक नगर या घर जो विभाजित है वह खुद पर निर्भर नहीं रहता।

अमेरिकन  इतिहास में यह वाक्यांश पहले क्रांतिकारी युद्ध के अपने पूर्व गीत “द लिबर्टी सॉन्ग” में जॉन डिकिन्सन द्वारा इस्तेमाल किया गया था। यह जुलाई 1768 में बोस्टन गैजेट में प्रकाशित हुआ था।

दिसंबर 1792 में  केंटकी की जनरल असेंबली ने राष्ट्रमंडल की आधिकारिक मुहर को राज्य के आदर्श वाक्य के साथ अपनाया “एकता में अटूट शक्ति है”।

1942 से वाक्यांश केंटकी की आधिकारिक गैर-लैटिन राज्य का आदर्श वाक्य बन गया ।

यह वाक्यांश मिसौरी ध्वज पर सर्कल में केंद्र के चारों ओर लिखा गया है।

यह वाक्यांश ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता के संघर्ष के दौरान भारत में लोकप्रिय हुआ। इसका उपयोग लोगों को एक साथ लाने और स्वतंत्रता के लिए लड़ने के लिए प्रेरित करने के लिए किया गया था।

अल्टर वफादारों ने भी इस वाक्यांश का इस्तेमाल किया है। इसे कुछ वफादार उत्तरी आयरिश भित्ति चित्रों में देखा जा सकता है।

वाक्यांश “एकता में अटूट शक्ति है” का उपयोग विभिन्न कलाकारों द्वारा कई गानों में भी किया गया है।

एकता का मतलब संघ या एकजुटता से है।  एकजुट रहने वाले लोगों का समूह हमेशा एक व्यक्ति की तुलना में अधिक सफलता प्राप्त करता है। यही कारण है कि लगभग हर क्षेत्र जैसे कार्यालय, सैन्य बलों, खेल आदि में समूह बनाए जाते हैं। व्यक्तिगत जीवन में भी हम परिवार में एक साथ रहते हैं जिससे हमें अपने दुखों को सहन करने और हमारी खुशी मनाने के अवसर मिलते हैं। कार्यालय में  वांछित परिणाम प्राप्त करने के लिए टीम बनाई जाती हैं। इसी तरह खेल और सैन्य बलों में भी समूह बनाए जाते हैं और कुछ हासिल करने के लिए सामूहिक रणनीतियों का निर्माण होता है।

पुराने दिनों में मनुष्य अकेला रहता था। वह खुद लम्बा सफ़र तय करके शिकार करता था  फिर मनुष्य ने यह महसूस किया कि अगर वह अन्य शिकारियों के साथ हाथ मिला लेता है तो वह कई आम खतरों और चुनौतियों का सामना करने में सक्षम होगा। इस तरीके से गांवों का निर्माण हुआ जो बाद में कस्बों, शहरों और देशों में विकसित हुए। एकता हर जगह आवश्यक है क्योंकि यह एक अस्वीकार्य प्रणाली को बदलने के लिए इच्छा और शक्ति को मजबूत करती है।

एकता मानवता का सबसे बडा गुण है। जो एक टीम या लोगों के समूह द्वारा हासिल किया जा सकता है वह कोई भी व्यक्ति अकेला नहीं प्राप्त कर सकता है। असली ताकत एकजुट होने में निहित है। जिस देश का नागरिक एकजुट है तो वह देश मजबूत है। जिस परिवार के सदस्य एक साथ रहते हैं तो वह परिवार भी मजबूत है। कई उदाहरण हैं जो यह साबित करते हैं कि एकता में अटूट शक्ति है।

संगीत या नृत्य मंडली में भी यदि समूह एकजुट है, सद्भाव में काम करते हैं और सुर-ताल बनाए रखते हैं तो परिणाम आशावादी होंगे वहीं अगर हर व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत प्रतिभा दिखाने शुरू करता है तो परिणाम अराजक और विनाशकारी हो सकते हैं। एकता हमें अनुशासित होना सिखाती है। यह हमारे लिए विनम्र, विचारशील, सद्भाव और शांति में एक साथ रहने के लिए सबक है। एकता हमें चीजों की मांग और परिणाम प्राप्त करने के लिए आत्मविश्वास और शक्ति देती है। यहां तक ​​कि कारखानों आदि में भी मजदूरों को यदि उनके मालिकों द्वारा प्रताड़ित या दबाया जाता हैं तो वे समूह के रूप में यूनियन बनाकर काम करते हैं। जो लोग अकेले काम करते हैं उन्हें आसानी से हराया जा सकता है और वे अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए आत्मविश्वास से काम नहीं कर सकते लेकिन अगर वे समूहों में काम करते हैं तो नतीज़े चमत्कारी हो सकते हैं।

 इस प्रकार हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एकता बहुत महत्वपूर्ण है।सबसे बड़ा उदाहरण हमारे राष्ट्र की स्वतंत्रता है। महात्मा गांधी ने विभिन्न जाति और धर्म से संबंधित सभी नागरिकों को एकजुट किया और अहिंसा आंदोलन शुरू किया। दुनिया जानती है यह उनकी इच्छा और महान शहीद स्वतंत्रता सेनानियों तथा नागरिकों की एकता के कारण ही हो सका जो अंततः भारत की स्वतंत्रता के रूप में सबके सामने आया। आज इसी एकता की पुनः प्रतिस्थापना आवश्यक है , धर्म , जाति , क्षेत्र , निजी स्वार्थ की राजनीति को परे रखकर देश के व्यापक हित में एकता ही अखंडता को बनाए रख सकती है ।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 108 ☆ गज़ल – इंसान तो वही है… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 120 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिया जाना सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ (धनराशि ढाई लाख सहित)।  आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 108 ☆

☆ गज़ल – इंसान तो वही है… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

पूरी उम्र लग गई आशियाँ बनाने में।

पल भर नहीं लगता उसको ढहाने में।

 

ये लोगो मत दो दुख एक – दूसरे को यहाँ,

चुटकियां लगती हैं आदमी को जाने में।।

 

इंसान तो वही है, जो दूसरों के काम आए।

आदमी ही क्या, जो खपा खुद के कमाने में।।

 

जीवन गुजर गया , न सुधर पाए आलसी,

उम्र ही बीती उनकी,  कर – कर बहाने में।।

 

कहाँ ये देश जगा, भाषा, जाति झगड़े में,

अनगिन हवन हो गए , इसको जगाने में।।

 

वक्त थोड़ा खुद समझ, ये नासमझ आदमी,

न मिलेगा जन्म, धरा को फिर से पाने में।।

 

मत बढ़ा समस्याएँ, खुद सुलझा भी ले मनुज,

मत बर्बाद कर समय, ताने व उलाहने में।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #114 – बालगीत – पानी चला सैर को ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण बाल गीत  – “पानी चला सैर को।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 114 ☆

☆ बालगीत – पानी चला सैर को ☆ 

पानी चला सैर को 

संगी-साथी से मिल आऊ.

 

बादल से बरसा झमझम 

धरती पर आया था.

पेड़ मिले न पौधे 

देख, मगर यह चकराया था.

कहाँ गए सब संगी-साथी 

उन को गले लगाऊं.

 

नाला देखा उथलाउथला 

नाली बन कर बहता.

गाद भरी थी उस में 

बदबू भी वह सहता .

उसे देख कर रोया 

कैसे उस को समझाऊ.

 

नदियाँ सब रीत गई 

जंगल में न था मंगल.

पत्थर में बह कर वह 

पत्थर से करती दंगल.

वही पुराणी हरियाली की चादर 

उस को कैसे ओढाऊ.

 

पहले सब से मिलता था 

सभी मुझे गले लगते थे.

अपने दुःख-दर्द कहते थे 

अपना मुझे सुनते थे.

वे पेड़ गए कहाँ पर 

कैस- किस को समझाऊ. 

 

जल ही तो जीवन है 

इस से जीव, जंतु, वन है.

इन्हें बचा लो मिल कर 

ये अनमोल हमारे धन है.

ये बात बता कर मैं भी 

जा कर सागर से मिल जाऊ. 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

20/05/2021

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #108 – कामगार…!☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 108 – कामगार…! ☆

परवा आमच्या कारखान्यातला

कामगार मला म्हणाला

आपण आपल्या हक्कासाठी

आदोलन करू.. मोर्चा काढू..

काहीच नाही जमल तर

उपोषण तरी करू…

पण..

आपण आपल्या हक्कासाठी

आता तरी लढू

बस झाल आता हे असं लाच्यारीने जगणं

मर मर मरून सुध्दा काय मिळतं आपल्याला

तर दिड दमडीच नाणं..

आरे..

आपल्याच मेहनतीवर खिसे भरणारे..

आज आपलीच मज्जा बघतात

आपण काहीच करू शकणार

नाही ह्या विचारानेच साले आज

आपल्या समोर अगदी ऐटीमध्ये फिरतात

आरे..

हातात पडणार्‍या पगारामध्ये धड

संसार सुध्दा भागत नाही…!

भविष्याच सोड उद्या काय

करायच हे सुद्धा कळत नाही

महागड्या गाडीतून फिरणार्‍या मालकांना

आपल्या सारख्या कामगारांच जगण काय कळणार..

आरे कसं सांगू..

पोरांसमोर उभ रहायचीही

कधी कधी भिती वाटते

पोर कधी काय मागतील

ह्या विचारानेच हल्ली धास्ती भरते

वाटत आयुष्य भर कष्ट करून

काय कमवल आपण..

हमालां पेक्षा वेगळं असं

काय जगलो आपण..!

कामगार म्हणून जगण नको वाटतं आता..!

बाकी काही नाही रे मित्रा..

म्हटल..एकदा तरी

तुझ्याशी मनमोकळ बोलाव

मरताना तरी निदान कामगार

म्हणून जगल्याच समाधान तेवढ मिळावं…!

म्हणूनच म्हटलं

आपण आपल्या हक्कासाठी

आदोलन करू… मोर्चा काढू…

नाहीच काही जमल तर

उपोषण तरी करू…पण

आपण आपल्या हक्कासाठी आता तरी लढू..

© सुजित कदम

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#130 ☆ गीतिका – जिसमें जितना गहरा जल है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय गीतिका  जिसमें जितना गहरा जल है…)

☆  तन्मय साहित्य # 130 ☆

☆ गीतिका – जिसमें जितना गहरा जल है… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

जिसमें जितना गहरा जल है

वही नदी उतनी निर्मल है।

 

खण्ड-खण्ड हो गए घरौंदे

दीवारों के मन में छल है।

 

संवादों में अब विवाद है

डरा हुआ आगामी कल है।

 

उछल रहे कुछ प्रश्न हवा में

जिनका कहीं न कोई हल है।

 

इधर कुआँ उत गहरी खाई

बीच राह गहरा दलदल है।

 

प्यास बुझाने को बस्ती में

थका हुआ सरकारी नल है।

 

कस्तूरी की मोहक भटकन

नाप रहे असीम मरुथल है।

 

आँखों से कुछ नहीं सूझता

कानों सुनी गूँज उज्ज्वल है।

 

अपना आँगन कीच भरा है

उनके आँगन खिले कमल है।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares