‘बाळपणीचा काळ सुखाचा’ असं म्हटल जात,कारण या वयात कशाची चिंता,काळजी नसते.खाणे,पिणे,खेळणे आणि शाळेत जाणेएवढच काम लहान मुलांच असत.मोठ्यांना असणाऱ्या काळज्या,समस्या त्यांच्यापर्यंत पोहोचत नाहीत.पैसे मिळवण,घर चालवण हा त्रास मुलांना नसतो.त्यामुळेच की काय ‘ रम्य ते बालपण’ अस म्हटल जात.पण काही मुलांच्या बाबतीत हे बालपण रम्य नसते.ज्या वयात या मुलांच्या हाती वह्या,पुस्तके असायला हवीत त्या वयात या मुलांना मजूरीवर जाव लागत.
घरातील पैशाची कमी, उपासमार, गरजेच्या वस्तू न मिळण शाळेच्या फी, पुस्तकासाठी पैसे नसणे अशा परिस्थिती मुळे मुलांना मजूरी करावी लागते. आपल्या आर्थिक गरजा भागवण्यासाठी त्यांना पालकांची मदत मिळत नाही. त्यामुळे सहाजिकच शाळेला पूर्णविराम देऊन ही मुल, हाँटेलमधे टेबल पुसणे, भांडी घासणे, बांधकामावरच्या विटा उचलणे अशी काम करत रहातात.यालाच बालमजुरी किंवा बालकामगार असे म्हणतात, वयाची ९ वर्षे ते १६ वर्षे वयातील मुलांना बालकामगार म्हणतात.
काही वेळा पालकांना कामानिमित्त स्थलांतर करावे लागते.तसेच पालक शिक्षीत नसतील तर मुलंही शिक्षणापासून वंचित रहातात. त्यामुळे ही मुले मजूरीकडे वळतात.
बालमजूरी किंवा बालकामगार ही जागतिक समस्या आहे. पण अजूनही हा प्रश्न म्हणावा तितका सुटला नाही. भारतासारख्या संख्येने जास्त असलेल्या गरीब लोकांमधे ही समस्या अतिशय मोठ्या प्रमाणात दिसून येते. बऱ्याच गावात विशेषतः खेड्यामध्ये लहान मुलांना कामावर जावे लागते. उसतोड कामगारांची मुलं, बांधकामावर कामाला जाणाऱ्यांची मुलं बालमजूर म्हणून आई वडिलांबरोबर कामाला जातात. बरीच मुलं हाँटेल, कार्यालय, बार, वीटभट्टी, फँक्टरी अशा ठिकाणी मजूरी करताना दिसतात. फटाक्यांच्या फँक्टरीत तर असंख्य मुले काम करतात. अशा फँक्टरीमधे दुर्दैवाने काही अपघात झाला तर या मुलांना कायमचं अपंगत्व येण्याचीही शक्यता असते.
आईवडिलांचे कमी उत्पन्न,दारु पिणारे वडील, अनाथ मुले,घरातील कौटुंबिक वादविवाद, हिंसाचार अशा कारणांमुळे ही मुलं बालमजूर म्हणून काम करताना दिसतात.काही मुलं टि.व्ही.,सिनेमाच्या वेडापायी घरातून पळून जातात आणि त्यांना कुठेच आधार नाही मिळाला तर ते आपोआपचं मजूरीकडे वळतात.
क्रमशः…
(लेख 12 जून ला प्रसिद्ध करू शकलो नाही.क्षमस्व. संपादक मंडळ)
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा “लघुकथा – वातानुकूलित संवेदना…”।)
एयरपोर्ट से लौटते हुए रास्ते में सड़क किनारे एक पेड़ के नीचे पत्तों से छनती छिटपुट छाँव में साईकिल रिक्शे पर सोये एक रिक्शा चालक पर अचानक नज़र पड़ी।
लेखकीय कौतूहलवश गाड़ी रुकवाकर उसके पास जा कर देखा –
वह खर्राटे भरते हुए गहरी नींद सो रहा था।
समस्त सुख-संसाधनों के बीच मुझ जैसे अनिद्रा रोग से ग्रस्त सर्व सुविधा भोगी व्यक्ति को जेठ माह की चिलचिलाती गर्मी में इतने इत्मिनान से नींद में सोये इस रिक्शेवाले की नींद से स्वाभाविक ही ईर्ष्या होने लगी।
इस भीषण गर्मी व लू के थपेड़ों के बीच खुले में रिक्शे की सवारी वाली सीट पर धनुषाकार, निद्रामग्न रिक्शा चालक के इस दृश्य को आत्मसात कर वहाँ से अपनी लेखकीय सामग्री बटोरते हुए वापस अपनी कार में सवार हो गया
घर पहुँचते ही सर्वेन्ट रामदीन को कुछ स्नैक्स व कोल्ड्रिंक का आदेश दे कर अपने वातानुकूलित कक्ष में अभी-अभी मिली कच्ची सामग्री के साथ लैपटॉप पर एक नई कहानी बुनने में लग गया।
‘गेस्ट’ को छोड़ने जाने और एयरपोर्ट से यहाँ तक लौटने की भारी थकान के बावजूद— आज सहज ही राह चलते मिली इस संवेदनशील मार्मिक कहानी को लिख कर पूरा करते हुए मेरे तन-मन में एक अलग ही स्फूर्ति व उल्लास है।
रिक्शाचालक पर तैयार इस सशक्त कहानी को पढ़ने के बाद मेरे अन्तस पर इतना असर हो रहा है कि, इस विषय पर कुछ कारुणिक काव्य पंक्तियाँ भी खुशी से मन में हिलोरें लेने लगी है।
अब इस पर कविता लिखना इसलिए भी आवश्यक समझ रहा हूँ कि,
—- हो सकता है, यही कविता या कहानी इस अदने से रिक्शे वाले के ज़रिए मुझे किसी प्रतिष्ठित मुकाम तक पहुँचा दे
(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त । 15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव एवं विगत 25 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक 125 से अधिक राष्ट्रीयएवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन।
आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है।
आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज विश्व पर्यावरण दिवस पर प्रस्तुत है एक विचारणीय गीत “नीर युद्ध हो जायेगा… ”।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा – इस पल
“काश जी पाता फिर से वही पुराना समय…!”… समय ने एकाएक घुमा दिया पहिया।…आज की आयु को मिला अतीत का साथ…बचपन का वही पुराना घर, टूटी खपरैल, टपकता पानी।…एस.यू. वी.की जगह वही ऊँची सायकल जिसकी चेन बार-बार गिर जाती थी.., पड़ोस में बचपन की वही सहपाठी अपने आज के साथ…दिशा मैदान के लिए मोहल्ले का सार्वजनिक शौचालय…सब कुछ पहले जैसा।..एक दिन भी निकालना दूभर हो गया।..सोचने लगा, काश जो आज जी रहा था, वही लौट आए।
“काश भविष्य में जी पाऊँ किसी धन-कुबेर की तरह !”…समय ने फिर परिवर्तन का पहिया घुमा दिया।..अकूत संपदा.., हर सुबह गिरते-चढ़ते शेयरों से बढ़ती-ढलती धड़कनें.., फाइनेंसरों का दबाव.., घर का बिखराव.., रिश्तों के नाम पर स्वार्थियों का जमघट।..दम घुटने लगा उसका।..सोचने लगा, “काश जो आज जी रहा था, वही लौट आए।”
बीते कल, आते कल की मरीचिका से निकलकर वह गिर पड़ा इस पल के पैरों में।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
writersanjay@gmail.com
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री अरुण कुमार डनायक जी महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.
श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की अगली कड़ी – “पढ़ाकू गोंड कन्या”।)
☆ संस्मरण # 113 – पढ़ाकू गोंड कन्या – 6 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक ☆
मैँ जब-जब पोड़की स्थित मां सारदा कन्या विद्यापीठ के अतिथि गृह में ठहरा, वहाँ के भोजनालय में भोजन करने गया, तो मैंने एक श्याम वर्णा, चपल व चौड़े माथे वाली छरहरी युवती को अवश्य देखा। वह मेरा मुस्कराकर अभिवादन करती, पूंछती ‘दादाजी कैसे हो ?’ यह युवती दिन में तो दिखाई नहीं देती पर सुबह और शाम सेवाश्रम में अवश्य मिलती। लेकिन जब फरवरी 2022 के मध्य में मैं पुन: सेवाश्रम गया तो चंचल स्वभाव की वह युवती मुझे दिखाई नहीं दी। मैंने वहाँ के शिक्षक प्रवीण कुमार द्विवेदी से उसके विषय में पूँछा तो पता चला वह भुवनेश्वरी थी। और एक दिन द्विवेदी जी उसे मुझसे मिलवाने ले ही आए।
अमरकंटक के मूल निवासी गोंड आदिवासी परिवार में जन्मी भुवनेश्वरी, समीपस्थ ग्राम धरहरकलां की निवासी है। उसके पिता मानसिंह गोंड पाँचवी तक पढे हैं व माता जयमती बाई अनपढ़ हैं। वह याद करती है कि पूरा गाँव लगभग अनपढ़ ही था, केवल प्राथमिक शाला के शिक्षक राम सिंह मरावी ही शिक्षित थे और वही ग्रामीणों को शिक्षा की प्रेरणा देते, सभी लोग उनकी सलाह को मानते थे। जब वर्ष 1999 में भुवनेश्वरी पाँच वर्ष की हुई तब उसके पिता ने मरावी मास्टर साहब प्रेरणा से विद्यापीठ में उसका प्रवेश करवा दिया। शुरू में तो उसे स्कूल का अनुशासन रास नहीं आया, गृह ग्राम की नन्ही सखियाँ याद आती और माँ की ममता को यादकर वह बहुत बिसुरती। ऐसे समय में बड़ी बहनजी और बड़ी कक्षा की छात्राएं उसे पुचकारती और मन बहलाती। धीरे-धीरे आश्रम में अच्छा लगने लगा और पढ़ना लिखना मन को भाने लगा।
एक अत्यंत गरीब परिवार में जन्मी भुवनेश्वरी ने, जिसके पिता अपने खेत में हाड़ तोड़ मेहनत कर केवल पेट भरने लायक अन्न उपजा पाते, सातवीं कक्षा माँ सारदा कन्या विद्यापीठ से उत्तीर्ण की और भेजरी स्थित उच्चतर माध्यमिक विद्यालय बारहवीं की परीक्षा पास की तो माता पिता को इस अठारह वर्षीय युवती के विवाह की चिंता सताने लगी। लेकिन भुवनेश्वरी तो आगे पढ़ने की इच्छुक थी और ऐसे में आदिवासी बालिकाओं के तारणहार बाबूजी उसकी मदद को आगे आए। बाबूजी और बहनजी ने सेवाश्रम के छात्रावास में उसके रहने-खाने की व्यवस्था कर दी और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजाति विश्वविद्यालय में उसे प्रवेश दिलवा दिया। यहाँ की निशुल्क शिक्षा व्यवस्था का लाभ लेकर भुवनेश्वरी ने पहले संग्रहालय विज्ञान विषय लेकर स्नातक परीक्षा में सफलता हासिल की और फिर जनजातीय अध्ययन विषय में स्नातकोत्तर परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। सेवाश्रम में पढ़ने वाली नन्ही आदिवासी बालिकाओं की भुवी दीदी ने आगे पढ़ने की सोची और अमरकंटक स्थित कल्याणीका महाविद्यालय से बीएड भी 89% अंकों के साथ उत्तीर्ण कर लिया।
आजकल भुवनेश्वरी अमरकंटक क्षेत्र के बिजुरी ग्राम स्थित निजी विद्यालय में शिक्षिका है और उसका मासिक वेतन पाँच हजार रुपये से भी कम है। मैंने कहा ‘यह तो शोषण है और इतने कम वेतन से संतुष्ट हो क्या ?’ जवाब मिला ‘नहीं! पर मजबूरी है। सरकारी नौकरी के लिए आवेदन किया है पर अभी तक प्रक्रिया शुरू नहीं हुई। बड़े शहरों के निजी स्कूलों में जहां वेतन अच्छा मिलता है हम काले आदिवासियों को, जिन्हें अंग्रेजी में गिटिर-पिटिर करना नहीं आता, कौन भर्ती करेगा।‘
डाक्टर सरकार की याद करते हुए उसकी आंखे नम हो जाती है। उसे आज भी विद्यापीठ की छात्रा के रूप में बनारस और जगन्नाथ पुरी की यात्राओं की याद है। वह बताती है कि इन यात्राओं के दौरान बाबूजी हम बच्चों को एक दिन किसी अच्छे होटल में, यह कहते हुए, जरूर भोजन करवाते कि इससे बच्चों की झिझक दूर होगी। भुवनेश्वरी को आज भी याद है जब करिया मुंडा लोकसभा के उपाध्यक्ष थे और अमरकंटक आए तब बाबूजी ने उन्हे विद्यापीठ आमंत्रित किया था। करिया मुंडा से विद्यापीठ की पूर्व छात्रा गुलाबवती बैगा ने संभाषण किया और फर्रीसेमर की पाँचवी तक पढ़ी लाली बैगा ने उन्हें स्थानीय बैगा आदिवासियों की संस्कृति से परिचित कराया और इसके लिए दोनों को बाबूजी ने बखूबी प्रशिक्षित किया था।
जब मैंने उसकी अन्य बहनों की पढ़ाई लिखाई के बारे में पूछा तो उसने बताया कि चार बहने इसी विद्यापीठ से पढ़कर निकली हैं। एक बहन ने तो बीएससी तक की शिक्षा ग्रहण की और नृत्य, गीत-संगीत व चित्रकला में निपुण सबसे छोटी बहन यमुना अब शासकीय उत्कर्ष उच्चतर माध्यमिक विद्यालय अनूपपुर में दसवीं की छात्रा है।
मैंने उससे शादी विवाह पर विचार पूछे। बिना शरमाये भुवनेश्वरी ने उत्तर दिया पहले नौकरी खोजेंगे, अपने पैरों पर खड़े होकर बाबूजी का सपना पूरा करेंगे फिर शादी की सोचेंगे। वह कहती है कि अमरकंटक क्षेत्र के आदिवासी युवा शिक्षित तो हो गए हैं पर बेरोजगारी के चलते उनमें गाँजा की चिलम फूकने का चलन बढ़ा है और फिर मद्यपान तो आदिवासी छोड़ना ही नहीं चाहते। गैर आदिवासी समुदाय की देखादेखी में दहेज का चलन गोंड़ों में बढ़ा है और इससे नारी प्रताड़ना के मामले भी अब बढ़ रहे हैं। वह ऐसा जीवन साथी चाहती है जिसमें नशा जैसे दुर्गुण नहीं हों। वह कहती हैं कि शिक्षा से जागरूकता तो बढ़ी है पर कुछ बुराइयाँ भी आदिवासियों में आ गई हैं। वह इन बुराइयों की खिलाफत करने में स्वयं को अकेला पाती है।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है आपके कांकेर पदस्थापना के दौरान प्राप्त अनुभवों एवं परिकल्पना में उपजे पात्र पर आधारित श्रृंखला “आत्मलोचन “।)
☆ कथा कहानी # 36 – आत्मलोचन– भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
(“इस कहानी के सभी पात्र और घटनाए काल्पनिक है, इसका किसी भी व्यक्ति या घटना से कोई संबंध नहीं है। यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा।”)
आप क्लाइमैक्स का इंतज़ार कर रहे हैं पर ये तो सिर्फ फिल्मों में होता है. ये तो वास्तविकता से जुड़ी अलग कहानी है जिसमें 100% सही न तो नायक है न ही खलनायक. शायद यही जिंदगी की हकीकत है जिसमें हम सब भी गुजर रहे हैं और जानते हैं कि हमारी समस्याओं का समाधान करने के लिए अगर कोई नायक है तो वह भी हम हैं पर खलनायक कौन है, ये पहचानना या परिभाषित करना मुश्किल है.इस कथा के अंतिम पड़ाव के संक्षिप्त बिंदु यही हैं.
इस अपहरण में आत्मलोचन जी को जानबूझकर कोई शारीरिक कष्ट नहीं पहुंचाया गया न ही उनके साथ कोई अभद्रता की गई. ये बात अलग है कि सिचुएशन के हिसाब से अपहरणकर्ताओं का आचरण रहा और आत्मलोचन जी भी समझ गये कि इन लोगों के साथ शालीनता ही सबसे कामयाब शस्त्र है. लेकिन दुरूह क्षेत्र के उबड़खाबड़ रास्ते और आंखों में पट्टी बंधे होने कारण हल्की चोट जरूर आई थी. चोट शारीरिक से ज्यादा मानसिक रूप से पीड़ा दे रही थी और इन जख्मों पर भय, नमक का काम कर रहा था.
उनकी सुरक्षा में लगे वे सिक्यूरिटी गार्ड, जिनकी शक्ल भी उन्होंने देखी नहीं थी, बहुत बेदर्दी से मौत के घाट उतार दिये गये थे और आत्मलोचन जी ने अपने जीवन में पहली बार निर्ममता पूर्वक किये गये कत्ल का मंजर देखा था. किताबों की विद्वत्ता के बोझ तले पोषित व्यक्ति जब पहली बार मृत्यु की विभीषिका से रूबरू होता है तो यह अनुभवहीनता उसे स्तब्ध कर देती है और शून्यता उसके सारे सेंस को शतप्रतिशत संक्रमित कर देती है.
किडनेप होने के बाद अपने इस कैंप में उनका ठिकाना सर्किट हाऊस नहीं बल्कि सुदूर जंगल का वह खंडहरनुमा घर था जिसमें उनके VIP status के हिसाब से एक कमरा पूरी तरह उनके लिये रिजर्व था. उनके विश्राम के लिये डबल बैड और बैठने के लिये विशिष्ट चेयर दोनों का डबल रोल एक संकरा तख्त कर रहा था और यही उनका तख्ते ताऊस था. बाहर निकलने की स्वतंत्रता नहीं थी और natural calls के लिये ही बाहर निकला जा सकता था जिसके लिये उन्हें यहां की सिक्यूरिटी प्रदान की गई थी.
अपहरण के Chief Executive Officer याने मॉस्टर माइंड से उनकी मुलाकात अभी हुई नहीं थी. पर जब प्रदेश की राजधानी से प्रतिनियुक्त मीडियेटर और नक्सलियों के मीडियेटर की मीटिंग, विभिन्न दौर के मंथन, कुछ घोषित और कुछ गुप्त मांगों की स्वीकृति की ओर अग्रसर हुई तो उन्हें इस अपहरण कांड के नायक या उनके लिए खलनायक से मिलने का सुअवसर प्राप्त हुआ. कद लगभग साढे छह फुट, रंग गहरा सांवला, कमांडो जैसी काया और आंखों के भीतर लहराता ज्वालामुखी जो किसी को भी भयभीत करने में सक्षम था. पर ये मुलाकात बड़े ही परिपक्व और सौहार्द वातावरण में हुई क्योंकि सामने भी विद्वत्ता और शासकीय अधिकारसंपन्नता से लबालब थे आत्मलोचन IAS Distt. Megistrate. सुदूर बस्तर में बहुत कम लोग ही उनसे अंग्रेजी में बात कर पाते थे पर यहाँ वार्तालाप की शुरुआत ही अंग्रेजी में हुई.
Hello Mr. DM, I am “Shekhar”, Commander Incharge of this area.I hope you will adjust with the shortcomings of this place, and you should as you know that we too have adjusted since so many years.
विपरीत परिस्थितियां और भयजनित असहायता व्यक्ति की बोलने की शक्ति उसकी मातृभाषा तक ही सीमित कर देती हैं. तो आत्मलोचन जी ने अपनी मातृभाषा में अपने सुरक्षा गार्ड की हत्या की बात करनी चाही पर “शेखर” ने भी गुरिल्ला युद्ध के कमांडर का दर्जा, अपनी चतुराई, नृशंसता और हर पल व्यक्तियों और घटनाओं को अपने हिसाब से नियंत्रित करने की कला के बल पर ही हासिल किया था. उसने प्रश्न पूरा होने के पहले ही उनकी बात काटते हुये जवाब दिया “हमने भी अपने बहुत से योद्धा खोये हैं, जन्म के बाद हमारा पहला खेल ही मृत्यु से आंखमिचौली से शुरु हो जाता है. हमारा” नेटवर्क” बहुत शक्तिशाली है और हम अपने एरिया के हर महत्वपूर्ण अधिकारी का बायोडाटा, स्केच और मूवमैंट की पल पल की खबर हम तक समय से पहले पहुँच जाती है. पर एक बात और है कि आपको तो हम सम्मान सहित सुरक्षित रिहा कर आपके घर पहुंचा रहे हैं, फाइनल सेटलमेंट के बाद,” पर हम हमारी मुखबिरी करने वालों को नहीं छोड़ते”. कमांडो शेखर ने अपनी मिलिट्री जैसी ड्रेस के एक पॉकेट से कलेक्टर साहब का स्केच और बायोडाटा उनको देकर अपनी हल्की मुस्कान के साथ विदा ली।
मुलाकात खत्म हो गई क्योंकि ये सिर्फ संदेशात्मक थी. एक दो दिन के बाद सेटलमेंट के अनुसार आत्मलोचन जी मीडियेटर के संरक्षण में स्वास्थ्य परीक्षण के बाद घर पहुँच गये. घर लौटने पर उनकी मां ने छलकते आंसुओं के बीच उनके सुरक्षित लौटने पर तिलक लगाया आरती की और कई अरसे के बाद आत्मलोचन, पिता के चरणस्पर्श कर उनके गले लगे. Power and Strong Network के बारे में जो भूतपूर्व मुख्यमंत्री समझाना चाहते थे, वह नियति ने उनको बहुत प्रभावी तरीके से समझा दिया था. इस घटना के बाद आत्मलोचन जी के पास TMT जैसा मजबूत इरादा तो था पर लक्ष्य जिले की कवच कुंडल जड़ित अभावग्रस्त जनता को गरीबी की रेखा से ऊपर उठने की लड़ाई में उनका साथ देना भी था. उन्होंने मुख्य मंत्री द्वारा मुख्य सचिव के माध्यम से दिये गये अपने ट्रांसफर के सुझाव पर भी विनम्रतापूर्वक कहा कि उनका असली assignment तो अब शुरु होने वाला है और वह भी इसी जिले में और इसी पद पर.
एक अंतिम बात जो कि इस पूरी कहानी का एंटी क्लाइमैक्स है वह है नक्सलग्रस्त जिलों में दो समानांतर सत्ताओं की मौजूदगी. एक सरकारी होती है जिसमें भ्रष्टाचार, कामचोरी और लालफीताशाही होती है.
दूसरी दुर्गम क्षेत्र में प्रभावी व्यवस्था भय, आतंकवाद मनमानी और निरंकुश होती है. ये दोनों व्यवस्थायें आपस में युद्धरत रहती हैं और इन दो पाटों के बीच में पिसते रहते हैं साधनविहीन, शिक्षाविहीन, स्वास्थ्य विहीन निरीह और निर्बल ग्रामवासी जो न केवल गरीबी से बल्कि निरंकुशता से भी हारी हुई लड़ाई लड़ते रहते हैं. प्रयास सिर्फ आंकड़ों में दिखाये जाते हैं और जमीनी हकीकत के लिये सरकार और नक्सली एक दूसरे पर दोषारोपण करते रहते हैं.
अगर आपके मन मस्तिष्क में ये कहानी चोट करे और लोचन गीले लगें तो अपनी राय जरूर दीजियेगा. अपनी कांकेर पदस्थापना के अनुभवों और कल्पनाशक्ति की कॉकटेल है ये कथा.
☆ मी प्रवासिनी क्रमांक २३ – भाग २ ☆ सौ. पुष्पा चिंतामण जोशी ☆
एक जिद्दी देश— इस्त्रायल
‘सी ऑफ गॅलिली’च्या एका किनाऱ्यावर खूप मोठ्या परिसरात, सुरेख झाडा-फुलांचा सान्निध्यात, थोड्या उंचीवर एक छान चर्च आहे. ख्रिश्चन धर्मियांसाठी हे एक पवित्र ठिकाण आहे. येशू ख्रिस्त या परिसरात राहिला होता, इथल्या टेकड्यांवरून त्याने प्रवचने दिली असे मानले जाते.
गेले दोन- तीन दिवस आम्ही ‘सी ऑफ गॅलिली’च्या किनाऱ्यावरील एका हॉटेलात मुक्कामाला होतो. उगवत्या सूर्याची किरणे गॅलिलीच्या निळ्या-निळ्या लाटांवर स्वार होत आणि आसमंत सोनेरी प्रकाशाने भरून जाई. दिवसभर स्थलदर्शन करताना दुपारचे कडकडीत उन्ह नकोसे होई तर संध्याकाळी हॉटेलच्या गच्चीवरून गॅलिलीचा किनारा मुला माणसांनी फुललेला दिसे. गॅलिलीवरून आलेला ताजा वारा आणि लिची ज्यूस किंवा चहा कॉफीबरोबर घेतलेल्या ( घरच्या ) चकल्या, चिवड्याच्या समाचार यामुळे संध्याकाळ सुखद होई. आज गॅलिलीचा निरोप घेऊन इस्रायलच्या उत्तर पश्चिम किनाऱ्यावरील हैफा इथे जायचे होते.
इस्त्रायलच्या पश्चिमेला भूमध्य समुद्र आहे. हैफा हे समुद्रकिनाऱ्यावरील सुंदर शहर व्यापारी व औद्योगिक ठिकाण तसेच महत्त्वाचे बंदर आहे. दोन विद्यापीठे, सागर संशोधन संस्था, कला, नौकानयन आणि पुरातत्व संशोधनाशी संबंधित म्युझियम आहेत. प्रागैतिहासिक काळापासून ऑटोमन साम्राज्यापर्यंतच्या अनेक खाणाखुणा या शहराने जपल्या आहेत.
हैफा, तेल अव्हिव्ह, बहाई गार्डन्स
हैफाच्या उत्तरेला भूमध्य समुद्र किनाऱ्यावर बहाई वर्ल्ड सेंटर व जगप्रसिद्ध बहाई गार्डन्स आहेत. पर्शियामध्ये राहणारा बहाउल्ला हा या पंथाचा संस्थापक आहे. स्त्री- पुरुष समानता, मानवता हा एकच जागतिक धर्म , एकच ईश्वर, गरीब व श्रीमंत यांच्यातील दरी नाहीशी करणे अशी या पंथाची उदात्त तत्वे आहेत. जगातील बहुतांश देशांत या पंथाचे अनुयायी आहेत. आपल्याकडे दिल्लीला बहाई पंथाचे ‘लोटस टेंपल’ आहे. बहाउल्लाच्या या विशिष्ट विचारांच्या शिकवणुकीमुळे त्याला पर्शियातून हाकलले गेले . तो हैफा जवळील एकर या ठिकाणी आला. इसवी सन १८९२ मध्ये बहाउल्लाचा मृत्यू झाला.
आम्ही बसने माउंट कारमेलच्या माथ्यावर पोचलो. प्रवेशद्वारातून खाली उतरण्यासाठी दगडी जिने आहेत दोन जिने उतरून खाली आलो आणि समोरच्या पोपटी- हिरव्या, एकाखाली एक उतरत जाणाऱ्या देखण्या बागा बघुन चकीतच झालो.माउंट कारमेलच्या साडेसातशे फूट उंचीवरून समुद्रकिनारी असलेल्या बहाउल्लाच्या मंदिरापर्यंत १८ सुंदर, भव्य बागा एकाखाली एक उतरत गेल्या आहेत. आम्ही उभ्या होतो तिथपासून समुद्र किनाऱ्यावरील मंदिरापर्यंतच्या सर्व बागा, तळाशी असलेले शुभ्र संगमरवराचे मंदिर, त्याचा लालसर ग्रॅनाईटचा घुमट, त्यावरील सोनेरी टाईल्स सूर्य प्रकाशात चमकताना दिसत होत्या. पलीकडल्या निळ्या- हिरव्या भूमध्य समुद्रात मोठ्या बोटी बंदरात शिरण्यासाठी वाट पाहत उभ्या होत्या.
२०० फूट ते १२०० फूट रुंद असलेल्या या बागांच्या मधोमध उतरते दगडी जिने, पूल, छोटे-छोटे बोगदे कल्पकतेने आखले आहेत. झाडा फुलांनी डवरलेल्या त्या बागांच्या मध्ये लहान-मोठी कारंजी आहेत. बागांच्या कडेने मूळ डोंगरावर असलेली रानटी पण रंगीत फुलांची झाडे आणि तिथल्या मूळ वृक्षांच्या प्रजाती यांचे संवर्धन केलेले आहे. स्वच्छ सूर्यप्रकाश, निळा हिरवा समुद्र, उतरत्या देखण्या बागा आणि निस्तब्ध , हिरवी शांतता असे एक सुंदर निसर्ग चित्र मनावर कोरले गेले.
माऊंट कारमेलच्या उत्तर भागातील उतारावरून मंदिरापर्यंत पोहोचण्यासाठी उतरत्या बागांचे डिझाईन करण्याचे काम १९८७ मध्ये कॅनडिअन वास्तुशास्त्रज्ञ फरिबोर्झ साबा यांना देण्यात आले तर मंदिराचे डिझाईन कॅनेडियन वास्तुशास्त्रज्ञ विल्यम मॅक्सवेल यांनी केले आहे. मंदिराचा शुभ्र संगमरवरी बाह्यभाग हा इटलीमधून तयार करून आणण्यात आला. मंदिराचे घुमटाचे खांब लालसर ग्रॅनाईटचे आहेत आणि त्यावर सोन्याच्या पत्र्याने मढविलेल्या टाईल्स बसविल्या आहेत. हे काम हॉलंडमध्ये करण्यात आले. जगभरचे प्रवासी आवर्जून या बागा बघण्यासाठी येतात .मागील वर्षी या बहाई गार्डन्सना साडे सात लाख लोकांनी भेट दिली.
जाफा आणि तेल अव्हिव्ह ही आता जुळी शहरे झाली आहेत. तेल अव्हिव्ह ही इस्त्रायलची आर्थिक, औद्योगिक ,व्यापारी, सांस्कृतिक राजधानी आहे. भूमध्य समुद्रकिनारी असलेल्या या देखण्या शहरात इस्त्रायलच्या एकूण ८२ लाख लोकसंख्येपैकी ४५ लाख लोक राहतात. आपल्या मरीन ड्राईव्हसारख्या सागर किनारी अनेक देशांचे दूतावास, सरकारी कार्यालये, उच्चभ्रू वस्ती आहे. गॅलिलीच्या पश्चिमेकडील हा समृद्ध विभाग आहे. या विभागात संत्री-मोसंबी, ऑलिव्ह, ॲव्हाकाडो अशी फळे व शेती होते. भूमध्य समुद्राच्या सुंदर किनाऱ्यावर सागरी खेळांची सुविधा आहे. अनेक संशोधन केंद्रे आहेत.
तेल अविव इथून जेरुसलेम इथे पोहोचलो. इथल्या हॉटेलात प्रवाशांची सतत ये-जा होती पण कुठेही गडबड गोंधळ नव्हता. जेरूसलेमला पोहोचलो त्या रात्री आम्ही तिथल्या प्राचीन किल्यात ‘साउंड ॲ॑ड लाईट’ शो पाहिला. किल्ल्याच्या आवारात बसण्याची व्यवस्था होती. किल्ल्याच्या भिंती, बुरुज, दरवाजे, उंच-सखलपणा या विशाल पार्श्वभूमीवर प्रोजेक्टर्स, स्पीकर्स, आणि कम्प्युटर्स यांच्या सहाय्याने हे ४० मिनिटांचे, खुर्चीला खिळवून ठेवणारे, प्राचीन काळाची सफर घडविणारे नाट्य उभे केले गेले. किंग डेव्हिड व किंग सॉलोमनचा कालखंड, जेरुसलेमचा नाश व पुनर्निर्माण, घोडे,उंट, व्यापारी, योद्धे, सामान्य नागरिक, रोमन काळ, चर्चेस, धर्मगुरू, इस्लामी कालखंड, ऑटोमन साम्राज्य आणि सध्याचे जेरुसलेम असा भव्य कालपट यात उलगडला आहे.स्केर्झो या फ्रेंच कंपनीने या शोची अतिशय देखणी आणि कल्पक उभारणी केली आहे.
दुसऱ्या दिवशी ‘नान दान जैन इरिगेशन प्रोजेक्ट बघायला गेलो. उपलब्ध जमीन, पाणी, हवामान आणि मातीचा कस याचा संपूर्ण अभ्यास व पिकांच्या जातींचे संशोधन करून ड्रिप इरिगेशनने पिकांच्या मुळाशी आवश्यक तेवढेच पाणी व खत पुरविण्याची पद्धत इस्त्रायलने प्रयत्नपूर्वक राबवली आहे. त्यामुळे थोड्या जागेत भरपूर पीक घेतले जाते व नैसर्गिक संसाधनांचा सुयोग्य उपयोग केला जातो. जगभरातील शंभराहून अधिक देशात ‘नान दान जैन इरिगेशन’ कंपनीने तांत्रिक सहाय्य केले आहे. ड्रिप इरिगेशन, मायक्रो स्प्रिंकलर्स, हरितगृह उभारणी करून उत्पादन वाढीसाठी क्रांतिकारक बदल घडवून आणले आहेत. तिथल्या प्रोजेक्ट मॅनेजरने सुरुवातीलाच अगदी अभिमानाने सांगितले की,’ आत्ता तुम्ही जे पाणी प्यायलात ते अर्ध्या तासापूर्वी भूमध्य सागराचे पाणी होते. आता आम्ही ‘सी ऑफ गॅलिली’चे गोडे पाणी पिण्यासाठी अजिबात वापरत नाही, and we can’t afford to waste a single drop of water.’
वाढती लोकसंख्या, गोड्या पाण्याची वाढती मागणी, कमी पाऊस, पाण्याचा उपलब्ध साठा याचा भविष्यकालीन वेध घेऊन इस्त्रायलने समुद्रकिनाऱ्यावर समुद्राच्या पाण्याचे शुद्धीकरण करण्यासाठी मोठे प्लांट्स उभारले आहेत. यासाठी रासायनिक प्रक्रियेचा वापर करतात. इस्त्रायलमध्ये प्रत्येक घरातील सिंक, बेसिन, बाथरुम यांचे पाणी प्रक्रिया करून शेतीसाठी वापरले जाते.सतत संशोधन, नवनवीन तंत्रज्ञान व त्याचा रोजच्या जीवनासाठी आवर्जून वापर हे इस्त्रायलचे एक मोठे वैशिष्ट्य आहे.
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है फारूक अफरीदी, कविता मुखर द्वारा पुस्तक “चटपटे शरारे” की समीक्षा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 110 ☆
☆ “चटपटे शरारे” … संपादन… फारूक अफरीदी, कविता मुखर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
चटपटे शरारे
राही रेंकिंग २०२० में चयनित व्यंग्यकारों का व्यंग्य संकलन
संपादन… फारूक अफरीदी, कविता मुखर
संयोजक… प्रभात कुमार गोविल, डॉ. संजीव कुमार
प्रकाशक… इंडिया नेटबुक्स प्रा लिमि नोएडा
मूल्य ४००रु, पृष्ठ २०४
चर्चाकार.. विवेक रंजन श्रीवास्तव
शतक एक ऐसी संख्या है जो एक मान्य मुकाम की उद्घोषणा के रूप में स्थापित हो चुकी है. क्रिकेट में शतकीय पारी, उम्र में १०० बरस की जिंदगी, परीक्षाओ में १०० अंको के पूर्णांक वगैरह वगैरह… वर्ष २०१५ से राही सहयोग संस्थान नामक संस्था ने स्वैच्छिक रूप से कुल पचपन सदस्यों का एक समूह बनाया. इन सदस्यों में कुछ शिक्षक, विद्यार्थी, शोधार्थी, संपादक, समीक्षक, सामान्य रूचि शील पाठकों के रूप में कुछ साहित्यानुरागी गृहणियाँ थी । पुस्तकालय कर्मी, प्रकाशक और प्रतिष्ठित पुस्तक विक्रेता तक शामिल थे और शेष इंटरनेट सर्फर्स थे । प्रबुद्ध साहित्यिक प्रबोध कुमार गोविल जी की इस पहल का उद्देश्य था कि हिन्दी पाठकों को हिन्दी दिवस के अवसर पर हिन्दी जगत के १०० सक्रिय श्रेष्ठ रचनाकारों से एक रेंकिंग के जरिये परिचित करवाना. २०१५ से प्रारंभ यह इरादा अब तक लगातार मूर्त रूप ले रहा है, और अब इसकी गूंज वैश्विक हो चली है.
वर्ष २०१७ की इस रैंकिंग के तीसरे वर्ष में लगातार चुने गए साहित्यकारों के विस्तृत साक्षात्कारों पर आधारित एक किताब “ हरे कक्ष में दिनभर ” प्रबोध कुमार गोविल के संपादन में प्रकाशित हुई.इंडिया नेटबुक्स प्रा लिमि नोएडा के संस्थापक श्री संजीव कुमार एक प्रयोगधर्मी साहित्यकार भी हैं, उनके सहयोग से वर्ष २०२० की राही रैंकिंग सूची में चयनित व्यंग्यकारो, कवियों, लघुकथाकारो, कहानीकारो आदि के विधावार रचना संकलन प्रकाशित किये गये. वरिष्ठ व्यंग्यकार फारूक अफरीदी एवं सुश्री कविता मुखर के संपादन में चटपटे शरारे शीर्षक से राही रेंकिंग २०२० में चयनित व्यंग्यकारों का व्यंग्य संकलन प्रकाशित हुआ है.
यह संकलन अपने आप में इस दृष्टि से अनूठा है कि इसमें सर्वश्री अरविंद तिवारी, डा गिरिराजशरण अग्रवाल, गिरीश पंकज, गोपाल चतुर्वेदी, गोविंद शर्मा, डा ज्ञान चतुर्वेदी, हरीश नवल, डा हेतु भारद्वाज, ईश मधु तलवार, लालित्य ललित, प्रभात गोस्वामी , डा नरेंद्र कोहली, प्रेम जनमेजय, रामदेव धुरंधर, डा सूर्यबाला, तेजेन्द्र शर्मा तथा विभूति नारायन राय जैसे स्वनाम धन्य सुस्थापित व्यंग्यकारो के चुटीले व्यंग्य ही नही, उन व्यंग्य लेखों पर समकालीन व्यंग्यकारो की समीक्षात्मक विस्तृत टिप्पणियां भी पुस्तक में संग्रहित हैं. इस तरह शोधार्थियों हेतु एक प्रारंभिक कार्य पहले ही कर सुलभ कर दिया गया है. विभिन्न संकलित व्यंग्य रचनाओ पर की गई टिप्पणीयों में सर्वश्री पिलकेंद्र अरोड़ा, डा उषारानी राव, डा चित्तरंजन कर, सुरेश अवस्थी, भारती पाठक, डा मंगत बादल, बुलाकी शर्मा, अजय अनुरागी, रास बिहारी गौड़, राजेंद्र मोहन शर्मा, राजेश कुमार, सवाई सिंह शेखावत, अर्चना चतुर्वेदी, सुभाष चंदर, बसंती पंवार, अनूप घई, ब्रजेश कानूनगो, हेतु भारद्वाज, डा आभा सिंह, बी एल आच्छा, सुनीता शानू, और विजी श्रीवास्तव जैसे सक्रिय पाठक व लेखक महत्वपूर्ण हैं. एक नियत समय सीमा में चयनित व्यग्यकारों से रचनायें प्राप्त कर उन पर देश भर में फैले रचनाकारों से विशद टिप्पणियां बुलवाकर उन्हें संपादित कर किताब का स्वरूप देना श्रमसाध्य साहित्यिक कार्य है, जिसे संपादक द्वय ने पूरी जिम्मेदारी से कर दिखाया है. श्री फारूक अफरीदी जी का विस्तृत संपादकीय स्वयं में व्यंग्य की वर्तमान स्तिथियों का पूरा लेखा जोखा है. कविता जी ने अपने संपादकीय में संकलित रचनाओ पर गंभीर टिप्पणियां की हैं. कुल मिलाकर चटपटे शरारे वर्ष २०२० के व्यंग्य परिदृश्य का शोध दस्तावेज निरूपित किया जा सकता है.
यह जानकारी देना प्रासंगिक होगा कि वर्ष २०२१ के चयनित व्यंग्यकारों के व्यंग्य संकलन पर मेरे तथा श्री अरुण अर्नव खरे के संपादन में कार्य चल रहा है. जल्दी ही यह संकलन भी प्रकाशित होगा, इससे पहले मैं पाठकों को चटपटे शरारे खरीद कर पढ़ने की सलाह दूंगा.
चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३
मो ७०००३७५७९८
readerswriteback@gmail.com
apniabhivyakti@gmail.com
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈