श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है आपके कांकेर पदस्थापना के दौरान प्राप्त अनुभवों एवं परिकल्पना  में उपजे पात्र पर आधारित श्रृंखला “आत्मलोचन “।)   

☆ कथा कहानी # 36 – आत्मलोचन– भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

(“इस कहानी के सभी पात्र और घटनाए काल्पनिक है, इसका किसी भी व्यक्ति या घटना से कोई संबंध नहीं है। यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा।”)

आप क्लाइमैक्स का इंतज़ार कर रहे हैं पर ये तो सिर्फ फिल्मों में होता है. ये तो  वास्तविकता से जुड़ी अलग कहानी है जिसमें 100% सही न तो नायक है न ही खलनायक. शायद यही जिंदगी की हकीकत है जिसमें हम सब भी गुजर रहे हैं और जानते हैं कि हमारी समस्याओं का समाधान करने के लिए अगर कोई नायक है तो वह भी हम हैं पर खलनायक कौन है, ये पहचानना या परिभाषित करना मुश्किल है.इस कथा के अंतिम पड़ाव के संक्षिप्त बिंदु यही हैं.

  1. इस अपहरण में आत्मलोचन जी को जानबूझकर कोई शारीरिक कष्ट नहीं पहुंचाया गया न ही उनके साथ कोई अभद्रता की गई. ये बात अलग है कि सिचुएशन के हिसाब से अपहरणकर्ताओं का आचरण रहा और आत्मलोचन जी भी समझ गये कि इन लोगों के साथ शालीनता ही सबसे कामयाब शस्त्र है. लेकिन दुरूह क्षेत्र के उबड़खाबड़ रास्ते और आंखों में पट्टी बंधे होने कारण हल्की चोट जरूर आई थी. चोट शारीरिक से ज्यादा मानसिक रूप से पीड़ा दे रही थी और इन जख्मों पर भय, नमक का काम कर रहा था.
  2. उनकी सुरक्षा में लगे वे सिक्यूरिटी गार्ड, जिनकी शक्ल भी उन्होंने देखी नहीं थी, बहुत बेदर्दी से मौत के घाट उतार दिये गये थे और आत्मलोचन जी ने अपने जीवन में पहली बार निर्ममता पूर्वक किये गये कत्ल का मंजर देखा था. किताबों की विद्वत्ता के बोझ तले पोषित व्यक्ति जब पहली बार मृत्यु की विभीषिका से रूबरू होता है तो यह अनुभवहीनता उसे स्तब्ध कर देती है और शून्यता उसके सारे सेंस को शतप्रतिशत संक्रमित कर देती है.
  3. किडनेप होने के बाद अपने इस कैंप में उनका ठिकाना सर्किट हाऊस नहीं बल्कि सुदूर जंगल का वह खंडहरनुमा घर था जिसमें उनके VIP status के हिसाब से एक कमरा पूरी तरह उनके लिये रिजर्व था. उनके विश्राम के लिये डबल बैड और बैठने के लिये विशिष्ट चेयर दोनों का डबल रोल एक संकरा तख्त कर रहा था और यही उनका तख्ते ताऊस था. बाहर निकलने की स्वतंत्रता नहीं थी और natural calls के लिये ही बाहर निकला जा सकता था जिसके लिये उन्हें यहां की सिक्यूरिटी प्रदान की गई थी.
  4. अपहरण के Chief Executive Officer याने मॉस्टर माइंड से उनकी मुलाकात अभी हुई नहीं थी. पर जब प्रदेश की राजधानी से प्रतिनियुक्त मीडियेटर और नक्सलियों के मीडियेटर की मीटिंग, विभिन्न दौर के मंथन, कुछ घोषित और कुछ गुप्त मांगों की स्वीकृति की ओर अग्रसर हुई तो उन्हें इस अपहरण कांड के नायक या उनके लिए खलनायक से मिलने का सुअवसर प्राप्त हुआ. कद लगभग साढे छह फुट, रंग गहरा सांवला, कमांडो जैसी काया और आंखों के भीतर लहराता ज्वालामुखी जो किसी को भी भयभीत करने में सक्षम था. पर ये मुलाकात बड़े ही परिपक्व और सौहार्द वातावरण में हुई क्योंकि सामने भी विद्वत्ता और शासकीय अधिकारसंपन्नता से लबालब थे आत्मलोचन IAS Distt. Megistrate. सुदूर बस्तर में बहुत कम लोग ही उनसे अंग्रेजी में बात कर पाते थे पर यहाँ वार्तालाप की शुरुआत ही अंग्रेजी में हुई.

Hello Mr. DM, I am “Shekhar”, Commander Incharge of this area.I hope you will adjust with the shortcomings of this place, and you should as you know that we too have adjusted since so many years.

विपरीत परिस्थितियां और भयजनित असहायता व्यक्ति की बोलने की शक्ति उसकी मातृभाषा तक ही सीमित कर देती हैं. तो आत्मलोचन जी ने अपनी मातृभाषा में अपने सुरक्षा गार्ड की हत्या की बात करनी चाही पर “शेखर” ने भी गुरिल्ला युद्ध के कमांडर का दर्जा, अपनी चतुराई, नृशंसता और हर पल व्यक्तियों और घटनाओं को अपने हिसाब से नियंत्रित करने की कला के बल पर ही हासिल किया था. उसने प्रश्न पूरा होने के पहले ही उनकी बात काटते हुये जवाब दिया “हमने भी अपने बहुत से योद्धा खोये हैं, जन्म के बाद हमारा पहला खेल ही मृत्यु से आंखमिचौली से शुरु हो जाता है. हमारा” नेटवर्क” बहुत शक्तिशाली है और हम अपने एरिया के हर महत्वपूर्ण अधिकारी का बायोडाटा, स्केच और मूवमैंट की पल पल की खबर हम तक समय से पहले पहुँच जाती है. पर एक बात और है कि आपको तो हम सम्मान सहित सुरक्षित रिहा कर आपके घर पहुंचा रहे हैं, फाइनल सेटलमेंट के बाद,” पर हम हमारी मुखबिरी करने वालों को नहीं छोड़ते”. कमांडो शेखर ने अपनी मिलिट्री जैसी ड्रेस के एक पॉकेट से कलेक्टर साहब का स्केच और बायोडाटा उनको देकर अपनी हल्की मुस्कान के साथ विदा ली।

मुलाकात खत्म हो गई क्योंकि ये सिर्फ संदेशात्मक थी. एक दो दिन के बाद सेटलमेंट के अनुसार आत्मलोचन जी मीडियेटर के संरक्षण में स्वास्थ्य परीक्षण के बाद घर पहुँच गये. घर लौटने पर उनकी मां ने छलकते आंसुओं के बीच उनके सुरक्षित लौटने पर तिलक लगाया आरती की और कई अरसे के बाद आत्मलोचन, पिता के चरणस्पर्श कर उनके गले लगे. Power and Strong Network के बारे में जो भूतपूर्व मुख्यमंत्री समझाना चाहते थे, वह नियति ने उनको बहुत प्रभावी तरीके से समझा दिया था. इस घटना के बाद आत्मलोचन जी के पास TMT जैसा मजबूत इरादा तो था पर लक्ष्य जिले की कवच कुंडल जड़ित अभावग्रस्त जनता को गरीबी की रेखा से ऊपर उठने की लड़ाई में उनका साथ देना भी था. उन्होंने मुख्य मंत्री द्वारा मुख्य सचिव के माध्यम से दिये गये अपने ट्रांसफर के सुझाव पर भी विनम्रतापूर्वक कहा कि उनका असली assignment तो अब शुरु होने वाला है और वह भी इसी जिले में और इसी पद पर.

एक अंतिम बात जो कि इस पूरी कहानी का एंटी क्लाइमैक्स है वह है नक्सलग्रस्त जिलों में दो समानांतर सत्ताओं की मौजूदगी. एक सरकारी होती है जिसमें भ्रष्टाचार, कामचोरी और लालफीताशाही होती है.

दूसरी दुर्गम क्षेत्र में प्रभावी व्यवस्था भय, आतंकवाद मनमानी और निरंकुश होती है. ये दोनों व्यवस्थायें आपस में युद्धरत रहती हैं और इन दो पाटों के बीच में पिसते रहते हैं साधनविहीन, शिक्षाविहीन, स्वास्थ्य विहीन निरीह और निर्बल ग्रामवासी जो न केवल गरीबी से बल्कि निरंकुशता से भी हारी हुई लड़ाई लड़ते रहते हैं. प्रयास सिर्फ आंकड़ों में दिखाये जाते हैं और जमीनी हकीकत के लिये सरकार और नक्सली एक दूसरे पर दोषारोपण करते रहते हैं.

अगर आपके मन मस्तिष्क में ये कहानी चोट करे और लोचन गीले लगें तो अपनी राय जरूर दीजियेगा. अपनी कांकेर पदस्थापना के अनुभवों और कल्पनाशक्ति की कॉकटेल है ये कथा.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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