हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ ग़ज़ल # 106 ☆ वक़्त रुख़सत का आ रहा नजदीक… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “वक़्त रुख़सत का आ रहा नजदीक“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ ग़ज़ल # 106 ☆

✍ वक़्त रुख़सत का आ रहा नजदीक… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

आदमी है या है बला तौबा

कर रहा दोस्त बन दग़ा तौबा

 *

इश्क़ से मैंने कर लिया तौबा

मुस्तक़िल पर न रह सका तौबा

 *

मयकशी की न याद फिर आई

मदभरी आँख का नशा तौबा

 *

शूल भी फूल भी हैं राहों में

शूल मुझको ही क्यों चुभा तौबा

 *

साँस लेना भी आज दूभर है

ये प्रदूषण भरी हवा तौबा

 *

ज़िस्म का लम्स क्या हुआ तेरे

धड़कनों में उछाल सा तौबा

 *

दोस्त अग़यार सा मिला मुझसे

ये तग़ाफ़ुल नहीं क़ज़ा तौबा

 *

मैक़दे की बना वो रौनक है

मय से जिसकी है बा-रहा तौबा

 *

वक़्त रुख़सत का आ रहा नजदीक

कर गुनाहों से बा ख़ुदा तौबा

 *

अय अरुण इस डगर पे मत जाना

प्यार जिसने किया किया तौबा

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 19 ☆ लघुकथा – पता नहीं… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

डॉ सत्येंद्र सिंह

(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सत्येंद्र सिंह जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। मध्य रेलवे के राजभाषा विभाग में 40 वर्ष राजभाषा हिंदी के शिक्षण, अनुवाद व भारत सरकार की राजभाषा नीति का कार्यान्वयन करते हुए झांसी, जबलपुर, मुंबई, कोल्हापुर सोलापुर घूमते हुए पुणे में वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी के पद से 2009 में सेवानिवृत्त। 10 विभागीय पत्रिकाओं का संपादन, एक साझा कहानी संग्रह, दो साझा लघुकथा संग्रह तथा 3 कविता संग्रह प्रकाशित, आकाशवाणी झांसी, जबलपुर, छतरपुर, सांगली व पुणे महाराष्ट्र से रचनाओं का प्रसारण। जबलपुर में वे प्रोफेसर ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े रहे और झाँसी में जनवादी लेखक संघ से जुड़े रहे। पुणे में भी कई साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। वे मानवता के प्रति समर्पित चिंतक व लेखक हैं। अप प्रत्येक बुधवार उनके साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  – “पता नहीं“।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ सत्येंद्र साहित्य # 19 ☆

✍ लघुकथा – पता नहीं… ☆ डॉ सत्येंद्र सिंह ☆

बेटे के घर न आने के कारण मदन लाल को नींद नहीं आ रही थी। बार बार दरवाजे की ओर देखते। कभी तो दरवाजा खोल कर गली में देखने लगते कि उनका बेटा आ रहा है या नहीं। अंदर से पत्नी की आवाज आती कि सो जाओ, बेटा आ जाएगा,  देर रात जागने से शुगर बढ जाएगी और बीपी भी। जागते रहने और कमरे में टहलते रहने से क्या वह आ जाएगा।

मदन लाल का इकलौता बेटा था नितिन।  अभी उसका विवाह भी नहीं हुआ था। ग्रेजुएशन करने के बाद भी नौकरी के लिए भटक रहा था। नौकरी की एक तो कहीं जगह नहीं निकलतीं और जब कभी निकलती तो वह फार्म भरता, परीक्षा देता पर सफल नहीं हो पाता। रोजगार दफ्तर में नाम रजिस्टर करया हुआ था पर कोई कॉल लैटर नहीं आता।  मदनलाल ने अपने दोस्तों से भी बेटे को नौकरी दिलाने में मदद करने के लिए कहा पर कोई मदद नहीं कर सका। आखिर नितिन ने एक छोटी सी दुकान खोल ली। दुकान क्या, सड़क के किनारे एक टपरी सी। उसमें बीड़ी सिगरेट तंबाकू चॉकलेट और बच्चों के लिए कॉपी पेंसिल रबर शॉर्पनर जैसी रोजमर्रा की चीजें थीं। यह टपरी भी उसे बहुत मुश्किल से मिली थी।

दुकान पर बिक्री ज्यादा तंबाकू चूना की होती। कभी कभी सिगरेट और बीड़ी भी। दुकान का किराया निकल जाता था और अपने खर्चे भी पूरे हो जाते। घर में सब्जी वगैरह भी ले आता। बाकी पिता जी की पेंशन पर। नितिन रात नौ बजे के आसपास दुकान बंद करके घर आ जाता था परंतु पिछले पांच छह महीने से नितिन दुकान बंद करके  घर  देर से पहुंचने लगा। उसके कुछ नये दोस्त बन गए जो दुकान बंद करने के समय उसके पास आ जाते और पास में ही एक बीयर की दुकान में ले जाते जहां शराब भी मिल जाती और पीने के लिए गिलास भी।  जो खर्च आता आपसे में बांट लेते। होटल या परमिट रूम में जाने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे। शुरू शुरू में तो नितिन अचकचाया, संकोच करने लगा। दोस्तों के कारण कुछ बिक्री अधिक हो जाती और वह बार में खर्च हो जाती। घर एकाध घंटे देर से पहुंचता। मदनलाल पूछते कि आजकल देर क्यों हो रही है घर आने में तो टाल जाता। मदनलाल उसकी चाल और मुंह से आई दुर्गंध से समझ तो गए और उसे समझाया भी पर कोई असर नहीं हुआ।

आज देर ज्यादा हो गई इसलिए चिंता कर रहे हैं। नितिन की ऐसी हालत रही तो उसका विवाह कैसे होगा, जीवन में प्रगति कैसे करेगा? और क्या जिंदगी भर इस टपरी पर ही बैठा रहेगा? आगे क्या करेगा, कैसे करेगा इसी चिंता में डूबे हुए थे कि दरवाजे पर आहट हुई और उन्होंने झट से दरवाजा खोला। दरवाजे पर नितिन था। वह अंदर आया तो लडखडा रहा था। मदनलाल ने पूछा कि नितिन तुम पीते क्यों हो? नितिन क्षण भर ठिठका और बोला, पता नहीं पिताजी और अंदर अपने कमरे में चला गया।  मदनलाल कुर्सी पर बैठे रह गए। सोचने लगे, इसे पता ही नहीं माथे पर हाथ रख लिया।

© डॉ सत्येंद्र सिंह

सम्पर्क : सप्तगिरी सोसायटी, जांभुलवाडी रोड, आंबेगांव खुर्द, पुणे 411046

मोबाइल : 99229 93647

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 121 – स्वर्ण पदक – भाग – 2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरणात्मक कथा  स्वर्ण पदक

☆ कथा-कहानी # 121 – 🥇 स्वर्ण पदक – भाग – 2🥇 श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

रजतकांत छोटा भाई था, पढ़ाई से ज्यादा, खेल उसे आकर्षित किया करते थे और स्कूल के बाकी शिक्षकों की डांट फटकार उसे स्पोर्ट्स टीचर की ओर आकर्षित करती थी, जो उसकी खेल प्रतिभा के कारण उससे स्नेह करते थे. जब देश में क्रिकेट का जुनून सर चढ़कर बच्चों के मन को आकर्षित कर रहा था, दीवाना बना रहा था, उस वक्त रजतकांत हाकी में जन्मजात निपुणता लेकर अवतरित हुआ था. मेजर ध्यानचंद की उसने सिर्फ कहानियां सुनी थीं पर वे अक्सर उसके सपनों में आकर ड्रिबलिंग करते हुये गोलपोस्ट की तरफ धनुष से छूटे हुये तीर के समान भागते दिखाई देते थे और जब रजत को मुस्कुराते हुये देखकर गोल मारते थे तो गोलपोस्ट पर खटाक से टकराती हुई बॉल और गोल ….के शोरगुल की ध्वनि से रजतकांत की आंख खुल जाती थी. सपनों की शुरुआत रात में ही होती है नींद में, पर जागते हुये सपने देखने और उन्हें पूरा करने का ज़ुनून कब लग जाता है, पता ही नहीं चलता. स्वर्णकांत और रजतकांत की आयु में सिर्फ तीन साल का अंतर था पर पहले स्कूल और फिर कॉलेज में उम्र के अंतर के अनुपात से क्लास का अंतर बढ़ता गया. जब स्वर्णकांत विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त कर बैंक की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, रजतकांत कला संकाय में स्नातक की डिग्री प्राप्त करने की लड़ाई लड़ रहे थे. डिग्रियां उनका लक्ष्य कभी थी ही नहीं पर हां कॉलेज की हाकी टीम के वो कप्तान थे, सपनों में ध्यानचंद से सीखी गई ड्रिबलिंग, चुस्ती, तेज दौड़ने का स्टेमिना, विरोधी खिलाड़ी को छकाते हुये बाल छीन कर गोलपोस्ट की तरफ बढ़ने की कला जो हॉकी के मैदान में दिखाई देती थी, वो दर्शकों को दीवाना बना देती थी और पूरा स्टेडियम रजत रजत के शोर से गूंजने लगता था जब उनके पास या इर्दगिर्द बॉल आती थी.पर दर्शकों को, सत्तर मिनट के इस खेल में, जो दिखाई नहीं देती थी, वह थी “उनका टीम को एक सूत्र में बांधकर लक्ष्य को हासिल करने की कला”. इस कारण ही उनकी टीम हर साल विश्वविद्यालय की हॉकी चैम्पियन कहलाती थी और स्वर्ण पदक पर सिर्फ रजत के कॉलेज का दावा, स्वीकार कर लिया गया था. इस कारण ही जब उनके परीक्षा पास नहीं करने के कारण उनके पिताजी नलिनीकांत नाराज़ होकर रौद्र रूप धारण करते थे, उनके कॉलेज के प्रिसिंपल और स्पोर्ट्स टीचर खुश हुआ करते थे और उन्हें कॉलेज में बने रहने का अभयदान दिया करते थे.

कथा जारी रहेगी…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 70 – छूमंतर… ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – छूमंतर।)

☆ लघुकथा # 70 – छूमंतर श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

रेस्तरां का संगीत बदला तो चंदा का ध्यान गाने से हटकर काउंटर की ओर गया।

सामने एक पुरुष बिल अदा कर रहा था ।

रोमा तो मुझे पहचान कर मेरी तरफ आयी, “अरे दीदी आप! आप कैसी हैं ?”

“मैं ठीक हूं, बेटा कैसा है?”

“एकदम ठीक है दीदी, “उसके चेहरे का तनाव बेटे के जिक्र से गायब हो गया था वह बोली हमने उससे नैनीताल में बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया है।”

“हां दीदी”, अचानक जैसे कुछ याद आ गया, “आप मेरे हस्बैंड से मिलना चाहती थी ना आइए “मैं आज मिलवाती हूं।”

कहकर वह पीछे पलटी तब तक उसका साथी बिल अदा कर उसके पास खड़ा हुआ।

मुस्कुरा कर बोली, “ये मेरे पति मिस्टर वर्मा है।”

मैं एकदम जड़ हो गई, सामने सोमेश जी खड़े थे ।

वह भी मुझे पहचान गए थे। उनका चेहरा सफेद पड़ गया था। वह मुझे नमस्ते करते हुए तेजी से बाहर की ओर बढ़ गए। नीता मेरा हाथ बड़े प्यार से पकड़ कर बोली, “दीदी कभी आइए ना हमारे घर, आपके पास मेरा नंबर है,”

फिर बाय करती हुई वह कैफे से बाहर चली गयी।

मैं कांपते हुए पैरों से कुर्सी पर धम्म से बैठ गयी।

पानी पीकर अपने आप को संभाला तभी सोमेश मेरे पास आकर बैठ गया।

“आप!” मेरे मुंह से निकला। आज मुझे इस आदमी से बेहद नफरत हो रही थी।

“जी मैं वही सोमेश हूं।”

“आप ऐसा क्यों कर रहे हो मेरी सखी के साथ। आप शादीशुदा हैं और ऐसा नाजायज संबंध रखना आपको अच्छा लगता है क्या? यदि आप मेरी पड़ोस में नहीं रहते और नीता के पति ना होते तो मैं आप को जेल भिजवा देती।“

अब मेरे समझ में नहीं आ रहा है कि मैं पड़ोसी धर्म निभाऊँ या अपने सहेली की बहन का?

“तुम पहले से शादीशुदा हो अब यहां से चुपचाप चले जाओ ?”

“दो जिंदगी के साथ तुम खिलवाड़ कर रहे हो। कैसे आदमी हो मैं जानती हूं। क्या आप की दोनों पत्नी यह जानती हैं??

“मैं समझ ही नहीं पा रही हूं कि क्या करूं ? आप किस तरह के इंसान हैं? प्रश्नात्मक निगाहों से मैंने उसकी ओर देखा ।

न जाने क्या था उन निगाहों में कि वह थरथरा उठा और अपने आप में ही बड़बड़ाते हुए उठ कर भाग खड़ा हुआ।

मुझे तो मानो सांप सूंघ गया हो… और वह पल भर में छूमंतर हो गया।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 271 ☆ सीता… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 271 ?

(श्री राम आणि सीता यांचा राज्यभिषेक)

☆ सीता… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

(६ मे २०२५ सीतानवमी)

जनक राजाची दुहिता

कोमल कन्या ती सीता

*

खूप प्रेमाने तिला वाढविले

उपवर होता स्वयंवर रचले

*

स्वयंवर रामने जिंकता

वैदेही झाली परिणिता

*

आयोध्देच्या महाराणीला

चौदा वर्षे वनवास घडला

*

सहनशीलता वैदेहेची न्यारी

अग्निपरीक्षा देण्याची तयारी

*

तरी दूषण लागे पतिव्रतेला

कोटी कोटी नमन भूमिकन्येला

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार

पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 100 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 6 ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकें गे। 

इस सप्ताह से प्रस्तुत हैं “चिंतन के चौपाल” के विचारणीय मुक्तक।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 100 – मुक्तक – चिंतन के चौपाल – 6 ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

ठेका लिया है जिनने ईमानदारियों का,

ठगना है पेशा उनकी दूकानदारियों का,

हर वृक्ष में समाया रहता है डर हमेशा 

पर्यावरण सुधारक नेता की आरियों का

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फल भुगतना ही पड़ा इन्सां को अपने पाप का, 

वक्त फिर अवसर नहीं देता है पश्चाताप का, 

जिनने लूटी है किसी बेटी-बहू की आबरू 

उनकी संतानें झुका देती हैं सिर माँ-बाप का।

0

मेरे चेहरे का पानी थे, 

वे घर के छप्पर-छानी थे, 

झुके, न झुकने दिया कभी भी 

मेरे पिता स्वाभिमानी थे।

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आशिकों पर अगर सितम होंगे, 

तेरी महफिल में फिर न हम होंगे, 

चाटुकारों की भीड़ तो होगी, 

तुम पे मिटने के पर न दम होंगे।

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 179 ☆ साहित्य की गुमटी” – व्यंग्यकार… श्री धर्मपाल महेंद्र जैन ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हमप्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’  जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री धर्मपाल महेंद्र जैन जी द्वारा लिखित  साहित्य की गुमटीपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 179 ☆

☆ “साहित्य की गुमटी” – व्यंग्यकार… श्री धर्मपाल महेंद्र जैन ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

पुस्तक : साहित्य की गुमटी

लेखक: धर्मपाल महेंद्र जैन

प्रकाशक.. शिवना प्रकाशन, सीहोर

पृष्ठ 158, मूल्य 275 रु

चर्चा: विवेक रंजन श्रीवास्तव, भोपाल

धर्मपाल महेंद्र जैन का व्यंग्य-संग्रह साहित्य की गुमटी, समकालीन भारतीय समाज, सत्ता, भाषा और डिजिटल संस्कृति पर तीखी किन्तु सुसंस्कृत टिप्पणी करता है। इसे पढ़ते हुए विनोद के साथ-साथ चित्त में चुभन का भी अनुभव होता है। धर्मपाल जी के  व्यंग्य की सार्थकता हँसाते हुए सोचने को विवश करना कही जा सकती है।

यह किताब 48 व्यंग्य रचनाओं का ऐसा संकलन है जहाँ हर रचना एक नए सामाजिक विषय पर यथार्थ के दरवाजे खोलती है। इन व्यंग्य लेखों को पढ़कर कहा जा सकता है कि वे रहते भले ही कैनेडा में हैं पर वे भारतीय समाज से मुकम्मल तौर पर जुड़े हुए हैं।

‘ज़हर के सौदागर’ से लेकर ‘रेवड़ी बाँटने वाले मालामाल’ तक लेखक ने जिस पैनेपन से समाज की नब्ज़ पर उंगली रखी है, वह उन्हें एक सफल व्यंग्यकार के रूप में स्थापित करती है।

व्यंग्य के विषयवस्तु की विविधता परिलक्षित होती है। व्यंग्य का तेवर प्रत्येक रचना में बरकरार रखा गया है।

‘ज़हर के सौदागर’ जैसी शुरुआती रचना से ही लेखक पाठक को अपने तीखे हास्य और प्रतीकात्मकता के भँवर में खींच लेता है। ‘ज़हर’ यहाँ केवल रसायन नहीं बल्कि वह मानसिक, सांस्कृतिक, भाषाई, राजनीतिक विष है जो धीरे-धीरे हमारी चेतना को ग्रस रहा है। लेखक न केवल ज़हर बेचने वाले की दुकान को केन्द्र में रखकर पूँजीवाद, अपराध, अफसरशाही और समाज के विकृत होते मूल्यों पर वार करता है बल्कि उन संरचनाओं की भी आलोचना करता है जहाँ “पिछवाड़े से धंधा” करने को शिष्टाचार समझा जाने लगा है।

‘किनारे का ताड़ वृक्ष’ एक प्रतीकात्मक रचना है, जहाँ सत्ता में बढ़ती महत्वाकांक्षाएं, विरासत को छोड़कर आत्म-महत्व के शिखर की ओर भागती जटाएँ एक विडंबनात्मक यथार्थ रचती हैं। वटवृक्ष और ताड़ वृक्ष का यह बिंब भारतीय राजनीति और साहित्यिक जगत की एक यथार्थ कथा बन जाता है।

डिजिटल समाज नया युग बोध है। ‘वाट्सऐप नहीं, भाट्सऐप’ में सोशल मीडिया पर साहित्यिक व्यक्तित्वों की ऊलजलूल प्रशंसा की झड़ी, समूहों की राजनीति और आत्ममुग्धता पर कटाक्ष है। लेखक जिस प्रकार से “भाटगिरी” शब्द का प्रयोग करता है, वह आज के डिजिटली सक्रिय साहित्यिक समाज पर तीखा व्यंग्य है । यह रचना हमारे आज के ‘वर्चुअल’ समाज की एक मज़बूत विडंबना है, जहाँ प्रशंसा अब ‘पारस्परिक लेन-देन’ का व्यापार बन चुकी है। सत्ता और व्यवस्था पर तीखा वार करता उनका व्यंग्य ‘बम्पर घोषणाओं के ज़माने में’ है। राजनीतिक पाखंड, खोखली योजनाओं और “बिना पैरों वाली घोषणाओं” का ऐसा विस्फोट किया गया है कि पाठक मुस्कराते हुए देश की विकास यात्रा पर सोचने को मजबूर हो जाता है। सत्ता द्वारा की जाने वाली घोषणाएँ किस तरह प्रचार का साधन बनती जा रही हैं, इसका वर्णन जितना मनोरंजक है, उतना ही मर्मांतक भी।

‘तानाशाह का मकबरा’ एक और रचना है जो सत्ता के जाने के बाद की उपेक्षा, विस्मरण और जनता के बदलते सरोकारों पर टिप्पणी करती है। यह व्यंग्य केवल किसी मृत शासक का पोस्टमॉर्टम नहीं करता बल्कि यह दर्शाता है कि स्मृति को कैसे राजनीतिक और प्रशासनिक उदासीनता ने धूमिल कर दिया है।

भक्ति और प्रसिद्धि का गठजोड़ आज की विसंगति है।

‘आज के भक्तिकाल में’ और ‘लाइक बटोरो और कमाओ’ जैसे व्यंग्य आज के ‘डिजिटल भक्ति आंदोलन’ पर गहरी चोट करते हैं। एक ओर लेखक यह दिखाते हैं कि कैसे “प्रसिद्धि प्रसाद” जैसा पात्र साहित्य की विधाओं को छोड़ सरकारी कविता की भक्ति में लग जाता है, वहीं दूसरी ओर फेसबुक पर ‘लाइक्स’ की दौड़ में लगे ‘प्रसिद्धि प्रसाद’ की छवि डिजिटल भिक्षुक की हो जाती है।

धर्मपाल महेंद्र जैन की विशेषता उनकी भाषा है। वे संस्कारों से बँधे लेकिन समकालीन मुहावरे में ढले हुए शब्दों से रचना को सजाते हैं। उनकी भाषा का व्यंग्य न केवल चुभता है बल्कि भीतर तक व्याप्त होता है। उनका शिल्प परिष्कृत है, वाक्य गठन में कसावट है, और हास्य में अर्थ की बहुलता है।

‘राजा और मेधावी कंप्यूटर’ जैसी रचना में तकनीक के युग में सत्ता की मानसिकता पर शानदार व्यंग्य है। कंप्यूटर की ‘बुद्धिमत्ता’ और राजा की ‘मूर्खता’ का तालमेल एक उत्कृष्ट विडंबना का उदाहरण है।

‘भाषा के हाईवे पर गड्ढे ही गड्ढे’ लेखक की  आत्मालोचनात्मक रचनाओं में से एक है। यह समकालीन आलोचना-पद्धति पर गहरा कटाक्ष करती है। ‘मित्रगण’ और ‘अमित्रगण’ के बीच की विभाजन रेखा और आलोचना को रचना की बजाय लेखक के चरित्र पर केंद्रित करना—यह सब कुछ ऐसा सच है जिसे हम जानते तो हैं, पर कहने का साहस धर्मपाल जी जैसा व्यंग्यकार ही जुटा पाता है।

‘साहित्य की गुमटी’ समकालीन व्यवस्था की सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और भाषाई तस्वीर को व्यंग्य की नजर से रेखांकित करने वाला दर्पण है। इसमें ‘ईडी है तो प्रजातंत्र स्थिर है’, ‘विदेश में परसाई से दो टूक’, ‘सबसे बड़ा प्रोफेसर, हिंदी का’ जैसी रचनाएँ न केवल वर्तमान की समस्याओं को उभारती हैं बल्कि पाठक को भाषा, व्यवस्था और साहित्य पर सोचने को प्रेरित करती हैं।

लेखक ने व्यंग्य को गुदगुदी का माध्यम नहीं, झकझोरने का औज़ार बना कर प्रस्तुत किया है। यह संग्रह बताता है कि व्यंग्य केवल हास्य नहीं है, यह अपने समय की तीव्र प्रतिक्रिया है, और धर्मपाल महेंद्र जैन इसके सजग व्याख्या कर्ता हैं।

जो पाठक व्यंग्य को केवल मनोरंजन नहीं, सृजनात्मक प्रतिरोध मानते हैं, उनके लिए यह किताब महत्वपूर्ण संग्रह है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 174 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 174 – मनोज के दोहे ☆

सूरज की दादागिरी, चलती है दिन रात।

हाथ जोड़ मानव करें, वरुणदेव दें मात।।

 *

धूप दीप नैवेद्य से, प्रभु को करें प्रसन्न।

द्वारे में जो माँगते, उनको दें कुछ अन्न।।

 *

बैशाख माह में दान का, होता बड़ा महत्व।

यही पुण्य संचित रहे, सत्य-सनातन-तत्त्व।।

 *

मंदिर चौसठ योगनी, भेड़ाघाट सुनाम।

तेवर में माँ भगवती, त्रिमुख रूप सुख धाम।।

 *

पहलगांव में फिर दिया, आतंकी ने घाव।

भारत को स्वीकार यह, नर्किस्तानी ताव।।

 *

भारत को सुन व्यर्थ ही, दिलवाता है ताव।

फिर से यदि हम ठान लें, गिन न सकेगा घाव।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 130 – देश-परदेश – दुल्हन वही जो पिया मन भाए ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 130 ☆ देश-परदेश – दुल्हन वही जो पिया मन भाए ☆ श्री राकेश कुमार ☆

सत्तर के दशक में इस नाम से एक फिल्म आई थी। समय हमेशा की तरह बदलता रहता है। शताब्दी पूर्व तो घर के बड़े पुरुष ही विवाह तय कर दिया करते थे। पचास के दशक से घर की बड़ी महिलाएं भी बच्चों के विवाह तय करने में अपनी दलीलें देने लगी थी। शिक्षा का प्रसार बढ़ा, तो सत्तर के दशक से विवाह पूर्व भावी वर और दुल्हन की राय भी पूछी जाती थी। समाज में समय के चलन को देखते हुए “दुल्हन वही जो पिया मन भाए” फिल्म बना कर, एक संदेश भी था, कि लड़के और लड़की को भी एक दूसरे को एक बार तो मिलना ही चाहिए।

समय की करवट के साथ इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करने पर विवाह पूर्व भावी जोड़े अनेकों बार मिलने लग गए थे। फोन पर घंटों बातें कर या पत्राचार के माध्यम से भी एक दूसरे को पहचानने के प्रयास होते आ रहे हैं। लड़कियां विगत तीन दशकों से अधिक समय से अपने घर से बहुत दूर और विदेश तक में नौकरी करने लग गई हैं। “लिव इन रिलेशन” जैसे संबंध, विवाह जैसे पवित्र सामाजिक संस्कार का विकल्प बन कर उभर रहा है।

विवाह को परिवार द्वारा तय किए जाने का चलन अभी भी अस्सी प्रतिशत से अधिक है। प्रेम विवाह को आजकल “अंतरजातीय विवाह” की संज्ञा दी जाती है। वर्तमान में विवाह भी  नए प्रकार हो चले हैं, कुछ निम्नानुसार हैं:-  

  1. Companionate Marriage.
  2. Living Apart Together Marriage.
  3. Open Marriage.
  4. Marriage of Convenience.
  5. Renewable Contracts.

उपरोक्त विवाह के प्रकार जानकर तो ऐसा लगा, जैसे “इंडियन कॉन्ट्रैक्ट एक्ट 1872 ” में दिए गए, भागीदारी के विभिन्न प्रकार हों। वैसे विवाह भी तो एक भागीदारी ही है। हमे तो पांच दशक से इंतजार है, जब बॉलीवुड “दूल्हा वही जो प्रियतमा मन भाए” के नाम से फिल्म बनाएगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 234 – बुन्देली कविता – जे नैंना कजरारे… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपकी भावप्रवण बुन्देली कविता – जे नैंना कजरारे।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 234 – जे नैंना कजरारे… ✍

(बढ़त जात उजयारो – (बुन्देली काव्य संकलन) से) 

लखतन जे नैना कजरारे

  सवई भये मतवारे।

 

सोने कोई देह द्विपत है

ऊ  पै गानों-गुरिया।

करन फूल प्रानन रस घोरत

सुर छेड़त बांसुरिया |

 

जी की तना हेर लेतीं हो

ऊ तन होय उजयारी ।

जादा हँसी कहाँ नौ निकरे

लगी नथुनिया तारौ ।

 

ऐंसी उठन चलन है तुमरी

जैसे नदी  असाढ़ी।

बाजूबन्द नँद हैं जैसे

खेत रखाउत बाड़ी ।

 

हिरनी जैंसी निधा तुमाई

तुरतई प्रान पछोरे ।

जीबन राजा की फुल बगिया

सवई खड़े कर जोरें ।

 

हमइ सॉंगरे बच निकरे हैं

सबके प्रान निकारे

लखतन जे नैंना कजरारे ।

सबड़ भये मतवारे ।

© डॉ. राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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